श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-नवमः स्कन्धः-अध्याय-49
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-नवमः स्कन्धः-एकोनपञ्चाशत्तमोऽध्यायः
उनचासवाँ अध्याय
आदि गौ सुरभिदेवी का आख्यान
सुरभ्युपाख्यानवर्णनम्

नारदजी बोले — हे ब्रह्मन् ! गोलोक से जो सुरभिदेवी आयी थीं, वे कौन थीं? मैं ध्यानपूर्वक उनका जन्मचरित्र सुनना चाहता हूँ ॥ १ ॥

श्रीनारायण बोले — [ हे नारद!] वे देवी सुरभि गोलोक प्रकट हुईं। वे गौओं की अधिष्ठात्री देवी, गौओं की आदिस्वरूपिणी, गौओं की जननी तथा गौओं में प्रधान हैं। मैं सभी गौओं की आदिसृष्टि-स्वरूपा उन सुरभि के चरित्र का वर्णन कर रहा हूँ, आप ध्यानपूर्वक सुनिये । पूर्वकाल में वृन्दावन में सुरभि का प्रादुर्भाव हुआ था ॥ २-३ ॥ एक समय की बात है,  गोपांगनाओं से घिरे  हुए परम कौतुकी राधिकापति श्रीकृष्ण राधा के साथ पुनीत वृन्दावन में गये हुए थे । वहाँ वे एकान्त में क्रीडापूर्वक विहार करने लगे, तभी सहसा उन स्वेच्छामय प्रभु को दुग्धपान की इच्छा हो गयी ॥ ४-५ ॥ उसी समय उन्होंने अपने वामभाग से लीलापूर्वक बछड़ेसहित दुग्धवती सुरभि गौ को प्रकट कर दिया । उस बछड़े का नाम मनोरथ था ॥ ६ ॥ बछड़ेसहित उस गाय को देखकर श्रीदामा ने एक  नवीन पात्र में उसका दूध दुहा । जन्म, मृत्यु तथा बुढ़ापा को हरने वाला वह दुग्ध अमृत से भी बढ़कर था। सुरभि से दुहे गये उस स्वादिष्ट दूध को स्वयं गोपीपति भगवान् श्रीकृष्ण पीने लगे। तभी पात्र के गिरकर फूट जाने से चारों ओर सौ योजन की लम्बाई तथा चौड़ाई वाला एक विशाल दूध का सरोवर हो गया । यही सरोवर गोलोक में क्षीरसरोवर नाम से प्रसिद्ध है ॥ ७–९ ॥

वह सरोवर गोपिकाओं तथा राधा का क्रीडावापी हो गया। वापी के [घाट आदि] पूर्णरूप से श्रेष्ठ रत्नों से निर्मित थे । भगवान् श्रीकृष्ण की इच्छा से उसी समय सहसा लाखों-करोड़ों कामधेनु गौएँ प्रकट हो गयीं। वहाँ जितने गोप थे वे सभी उस सुरभि के रोमकूपों से प्रकट हुए थे। तत्पश्चात् उन गौओं की असंख्य सन्तानें उत्पन्न हो गयीं। इस प्रकार उस सुरभि से गायों की सृष्टि कही गयी है; उसी से यह जगत् व्याप्त है ॥ १०-१२ ॥ हे मुने! पूर्वकाल में भगवान् श्रीकृष्ण ने देवी सुरभि की पूजा की थी, उसी समय से तीनों लोकों में उस सुरभि की दुर्लभ पूजा का प्रचार हो गया । दीपावली के दूसरे दिन भगवान् श्रीकृष्ण की आज्ञा से देवी सुरभि पूजित हुई थीं यह मैंने धर्मदेव के मुख से सुना है ॥ १३-१४ ॥

हे महाभाग ! अब मैं आपको देवी सुरभि का वेदोक्त ध्यान, स्तोत्र, मूलमन्त्र तथा जो-जो पूजा का विधिक्रम है, उसे बता रहा हूँ, ध्यानपूर्वक सुनिये ॥ १५ ॥

‘ॐ सुरभ्यै नमः यह उनका षडक्षर मन्त्र है । एक लाख जप करने पर यह मन्त्र सिद्ध होकर कल्पवृक्ष तुल्य हो जाता है ॥ १६ ॥ भक्तों के लिये देवी सुरभि का ध्यान यजुर्वेद में वर्णित है। उनकी पूजा सब प्रकार से ऋद्धि, वृद्धि, मुक्ति तथा समस्त अभीष्ट प्रदान करने वाली है ॥ १७ ॥

[ ध्यान इस प्रकार है ]

लक्ष्मीस्वरूपां परमां राधासहचरीं पराम् ।
गवामधिष्ठातृदेवीं गवामाद्यां गवां प्रसूम् ॥ १८ ॥
पवित्ररूपां पूतां च भक्तानां सर्वकामदाम् ।
यया पूतं सर्वविश्वं तां देवीं सुरभिं भजे ॥ १९ ॥

‘लक्ष्मीस्वरूपा, परमा, राधा की सहचरी, गौओं की अधिष्ठात्री देवी, गौओं की आदिस्वरूपिणी, गौओं की जननी, पवित्ररूपिणी, पावन, भक्तों के सम्पूर्ण मनोरथ पूर्ण करने वाली तथा जिनसे सम्पूर्ण जगत् पावन बना हुआ है उन पराभगवती सुरभि की मैं आराधना करता हूँ ‘ ॥ १८-१९ ॥

द्विज को चाहिये कि कलश, गाय के मस्तक, गायों के बाँधने के स्तम्भ, शालग्रामशिला, जल अथवा अग्नि में सुरभि की भावना करके उनकी पूजा करे ॥ २० ॥ जो मनुष्य दीपावली के दूसरे दिन पूर्वाह्नकाल में भक्ति से युक्त होकर सुरभि की पूजा करता है, वह पृथ्वीलोक में पूज्य हो जाता है ॥ २१ ॥

एक समय की बात है, वाराहकल्प में भगवान् विष्णु की माया से देवी सुरभि ने तीनों लोकों में दूध देना बन्द कर दिया, जिससे समस्त देवता आदि चिन्तित हो गये । ब्रह्मलोक में जाकर उन्होंने ब्रह्मा की स्तुति की, तब ब्रह्माजी की आज्ञा से इन्द्र सुरभि की स्तुति करने लगे ॥ २२-२३ ॥

॥ पुरन्दर उवाच ॥
नमो देव्यै महादेव्यै सुरभ्यै च नमो नमः ।
गवां बीजस्वरूपायै नमस्ते जगदम्बिके ॥ २४ ॥
नमो राधाप्रियायै च पद्मांशायै नमो नमः ।
नमः कृष्णप्रियायै च गवां मात्रे नमो नमः ॥ २५ ॥
कल्पवृक्षस्वरूपायै सर्वेषां सततं परे ।
क्षीरदायै धनदायै बुद्धिदायै नमो नमः ॥ २६ ॥
शुभायै च सुभद्रायै गोप्रदायै नमो नमः ।
यशोदायै कीर्तिदायै धर्मदायै नमो नमः ॥ २७ ॥

पुरन्दर बोले — देवी को नमस्कार है, महादेवी सुरभि को बार-बार नमस्कार है । हे जगदम्बिके ! गौओं की बीजस्वरूपिणी आपको नमस्कार है ॥ २४ ॥ राधाप्रिया को नमस्कार है, देवी पद्मांशा को बार-बार नमस्कार है, कृष्णप्रिया को नमस्कार है और गौओं की जननी को बार-बार नमस्कार है ॥ २५ ॥ हे परादेवि ! सभी प्राणियों के लिये कल्पवृक्षस्वरूपिणी, दुग्ध देने वाली, धन प्रदान करने वाली तथा बुद्धि देने वाली आपको बार-बार नमस्कार है ॥ २६ ॥ शुभा, सुभद्रा तथा गोप्रदा को बार-बार नमस्कार है । यश, कीर्ति तथा धर्म प्रदान करने वाली भगवती सुरभि को बार-बार नमस्कार है ॥ २७ ॥

इस स्तोत्र को सुनते ही जगज्जननी सनातनी देवी प्रकट हो गयीं ॥ २८ ॥ सुरभि सन्तुष्ट तथा प्रसन्न होकर उस ब्रह्मलोक में देवराज इन्द्र को दुर्लभ वांछित वर प्रदान करके वे गोलोक को चली गयीं और देवता आदि अपने-अपने स्थान को चले गये ॥ २९ ॥ हे नारद! उसके बाद विश्व सहसा दुग्ध से परिपूर्ण हो गया । दुग्ध होने से घृत का प्राचुर्य हो गया और उससे यज्ञ होने लगा, जिससे देवताओं को सन्तुष्टि होने लगी ॥ ३० ॥

जो भक्तिपूर्वक इस परम पवित्र स्तोत्र का पाठ करता है, वह गौओं से सम्पन्न, धनवान्, यशस्वी तथा पुत्रवान् हो जाता है। उसने मानो सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान कर लिया तथा वह सभी यज्ञों में दीक्षित हो गया । वह इस लोक में सुख भोगकर अन्त में श्रीकृष्ण के धाम में चला जाता है। वह वहाँ दीर्घकाल तक निवास करता है और भगवान् श्रीकृष्ण की सेवामें संलग्न रहता है । उसका पुनर्जन्म नहीं होता, वह ब्रह्मपुत्र ही हो जाता है ॥ ३१–३३ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत नौवें स्कन्ध का ‘नारायण-नारद- संवाद में सुरभ्युपाख्यानवर्णन’ नामक उनचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४९ ॥

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