श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-एकादशः स्कन्धः-अध्याय-11
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-एकादशः स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः
ग्यारहवाँ अध्याय
भस्म के प्रकार
त्रिविधभस्ममाहात्म्यवर्णनम्

नारदजी बोले — हे देव ! यह भस्म तीन प्रकार का कैसे कहा गया है ? यह मुझे आप बताइये, क्योंकि इस विषय में मुझे बहुत कौतूहल हो रहा है ॥ १ ॥

नारायण बोले — हे देवर्षे ! मैं भस्म के तीन प्रकारों का वर्णन करूँगा, आप सुनिये। यह महान् पापों को नष्ट करने वाला तथा विपुल कीर्ति प्रदान करने वाला है ॥ २ ॥ जो गोमय (गोबर) योनि से सम्बद्ध अर्थात् योनि से अलग होने के पूर्व हाथ पर ग्रहण कर लिया गया हो, उस गोमय को [ सद्योजात० आदि ] ब्राह्ममन्त्रों से दग्ध करने पर जो भस्म बनती है, उसे शान्तिक भस्म कहा जाता है ॥ ३ ॥ जिस गोमय को [ जमीन पर गिरने से पूर्व ] अन्तरिक्ष में ही सावधानीपूर्वक हाथ पर ले लिया गया हो, उस गोमय को षडंगमन्त्र से दग्ध करने पर जो भस्म बनती है, उसे पौष्टिक भस्म कहा गया है । [ हे देवर्षे ! ] अब इसके बाद कामद भस्म के विषय में सुनिये । प्रासादमन्त्र (हौम्) -से दग्ध करने पर जो भस्म बनती है, उसे कामद भस्म कहा गया है ॥ ४-५ ॥

हे देवर्षे! भस्मव्रतपरायण मनुष्य को प्रातः काल उठकर [नित्यकर्म से] पवित्र होने के पश्चात् गोशाला में जाकर गोवृन्द को नमस्कार करके वर्णानुरूप गायों का शुद्ध गोमय लेना चाहिये । ब्राह्मण के लिये श्वेत, क्षत्रिय के लिये लाल, वैश्य के लिये पीले तथा शूद्र के लिये काले रंग की गाय [ श्रेयस्कर ] कही जाती है 1 विशुद्ध बुद्धि वाले व्यक्ति को पूर्णिमा, अमावास्या अथवा अष्टमी को प्रासाद (हौम्) मन्त्र से शुद्ध गोमय उठाकर हृदयमन्त्र (नमः) – से उस गोमय को पिण्ड के आकार का बना लेने के अनन्तर पुनः उस पिण्ड को सूर्य की किरणों में भलीभाँति सुखाकर उसे धान की भूसी या [गेहूँ आदि के] भूसे से वेष्टित करके प्रासादमन्त्र का उच्चारण करते हुए किसी सुन्दर तथा पवित्र स्थान पर रख देना चाहिये ॥ ६–१० ॥

तत्पश्चात् अरणि से उत्पन्न अग्नि अथवा वैदिक ब्राह्मण के घर से अग्नि लाकर शिव-बीजमन्त्र से उस पिण्ड को अग्नि में डाल देना चाहिये ॥ ११ ॥ पुनः बुद्धिमान् मनुष्य को चाहिये कि उस अग्निकुण्ड से भस्म निकाले और एक नया पात्र लेकर उसमें भस्म को प्रासाद – मन्त्र से रख दे । तत्पश्चात् विशुद्ध बुद्धि वाले व्यक्ति को केवड़ा, गुलाब, खस, चन्दन और केसर आदि विविध प्रकार के सुगन्धित द्रव्यों को सद्योजात मन्त्र से उस पात्र में स्थित भस्म में मिला लेना चाहिये। पहले जल-स्नान करके उसके बाद ही भस्म – स्नान करना चाहिये ॥ १२–१४ ॥ यदि जलस्नान करने में किसी प्रकार की असमर्थता हो तो केवल भस्मस्नान ही करे। हाथ-पैर धोकर ‘ईशान’ 1 मन्त्र से सिर पर भस्म लगा करके ‘तत्पुरुष’ 2 मन्त्र से मुख पर, ‘अघोर’3  मन्त्र से हृदय पर, ‘वामदेव’ 4 मन्त्र से नाभि पर भस्म लगाये । तदनन्तर ‘सद्योजात’ 5 मन्त्र से शरीर के सभी अंगों पर भस्म लगाकर बुद्धिमान् व्यक्ति को चाहिये कि पहले का धारण किया हुआ वस्त्र छोड़कर शुद्ध वस्त्र पहन ले ॥ १५-१७ ॥ तत्पश्चात् हाथ-पैर धोकर आचमन करना चाहिये । और यदि पूरे शरीर पर भस्म न लगा सके तो केवल त्रिपुण्ड्र ही धारण कर लेने का भी विधान है ॥ १८ ॥

मध्याह्न के पूर्व भस्म को जल में मिलाकर तथा इसके बाद लगाना हो तो जलरहित (सूखा ) भस्म का त्रिपुण्ड्र तर्जनी, अनामिका तथा मध्यमा — इन तीनों अँगुलियों से धारण करना चाहिये ॥ १९ ॥ सिर, ललाट, कान, कण्ठ, हृदय और दोनों बाहु — ये त्रिपुण्ड्र धारण करने के स्थान बताये गये हैं । प्रासाद मन्त्र का उच्चारण करते हुए पाँचों अँगुलियों से सिर पर त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये । साधक को चाहिये कि तीन अँगुलियों (तर्जनी, मध्यमा तथा अनामिका) — से शिरोमन्त्र ( स्वाहा ) – द्वारा ललाट पर त्रिपुण्ड्र लगाये । साधक को सद्योजात मन्त्र से दाहिने कान पर, वामदेव मन्त्र से बायें कान पर तथा अघोर मन्त्र से कण्ठ पर मध्यमा अँगुली द्वारा भस्म लगाना चाहिये ॥ २०–२२ ॥ इसी प्रकार साधक को चाहिये कि हृदयमन्त्र से तीनों अँगुलियों द्वारा हृदय में और शिखामन्त्र से दाहिनी भुजा पर त्रिपुण्ड्र धारण करे । बुद्धिमान् व्यक्ति को उन्हीं तीनों अँगुलियों द्वारा कवचमन्त्र से बायीं भुजा पर त्रिपुण्ड्र लगाना चाहिये और मध्यमा द्वारा ‘ईशानः सर्वविद्यानाम्० ‘ – इस मन्त्र से नाभि पर भस्म धारण करना चाहिये ॥ २३-२४ ॥

ये तीनों रेखाएँ ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर का स्वरूप मानी गयी हैं । त्रिपुण्ड्र की पहली रेखा ब्रह्मा, उसके बाद वाली रेखा विष्णु तथा उसके ऊपर की रेखा महेश्वर का स्वरूप है ॥ २५ ॥ एक अँगुली (मध्यमा) – से जो भस्म लगायी जाती है, उस रेखा के देवता ईश्वर हैं। सिर में साक्षात् ब्रह्मा, ललाट पर ईश्वर, कानों में दोनों अश्विनीकुमार और गले में गणेश विद्यमान हैं । क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र को सर्वांग भस्म नहीं लगाना चाहिये और समस्त अन्त्य जातियों को मन्त्रों का उच्चारण किये बिना ही भस्म धारण करना चाहिये । ( इसी प्रकार दीक्षारहित मनुष्यों को भी मन्त्र के बिना ही भस्म लगाना चाहिये) ॥ २६–२८ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत ग्यारहवें स्कन्ध का ‘त्रिविधभस्ममाहात्म्यवर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

1. ॐ ईशानः सर्वविद्यानामीश्वरः सर्वभूतानां ब्रह्माधिपतिर्ब्रह्मणो ब्रह्मा शिवो मेऽस्तु सदा शिवोम् ॥
2. ॐ तत्पुरुषाय विद्महे महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥
3. ॐ अघोरेभ्योऽथ घोरेभ्यो घोरघोरतरेभ्यः। सर्वेभ्यः सर्वशर्वेभ्यो नमस्तेऽस्तु रुद्ररूपेभ्यः ॥
4. ॐ वामदेवाय नमो ज्येष्ठाय नमः श्रेष्ठाय नमो रुद्राय नमः कालाय नमः कलविकरणाय नमो बलविकरणाय नमो बलाय नमो बल-प्रमथनाय नमः सर्वभूतदमनाय नमो मनोन्मनाय नमः ॥
5. ॐ सद्योजातं प्रपद्यामि सद्योजाताय वै नमो नमः । भवे भवे नातिभवे भवस्व मां भवोद्भवाय नमः ॥

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