June 1, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वादशः स्कन्धः-अध्याय-03 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ उत्तरार्ध-द्वादशः स्कन्धः-तृतीयोऽध्यायः तीसरा अध्याय श्रीगायत्री का ध्यान और गायत्री कवच का वर्णन गायत्रीमन्त्रकवचवर्णनम् नारदजी बोले — हे स्वामिन्! हे सम्पूर्ण जगत् के नाथ! हे प्रभो ! हे चौंसठ कलाओं के ज्ञाता! हे योगवेत्ताओं में श्रेष्ठ ! मनुष्य किस पुण्यकर्म से पापमुक्त हो सकता है, किस प्रकार ब्रह्मरूपत्व प्राप्त कर सकता है और किस कर्म से उसका देह देवतारूप तथा विशेषरूप से मन्त्ररूप हो सकता है ? हे प्रभो! उस कर्म के विषय में साथ ही विधिपूर्वक न्यास, ऋषि, छन्द, अधिदेवता तथा ध्यान को विधिवत् सुनना चाहता हूँ ॥ १-३ ॥ श्रीनारायण बोले — गायत्रीकवच नामक एक परम गोपनीय उपाय है, जिसके पाठ करने तथा धारण करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त हो जाता है, उसके सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं तथा वह स्वयं देवीरूप हो जाता है ॥ ४१/२ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register हे नारद! इस गायत्रीकवच के ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश ऋषि हैं। ऋक्, यजुः, साम तथा अथर्व इसके छन्द हैं। परम कलाओं से सम्पन्न ब्रह्मस्वरूपिणी ‘गायत्री’ इसकी देवता कही गयी हैं ॥ ५-६ ॥ भर्ग इसका बीज है, विद्वानों ने स्वयं इसी को शक्ति कहा है, बुद्धि को इसका कीलक कहा गया है और मोक्ष के लिये इसके विनियोग का भी विधान बताया गया है ॥ ७ ॥ चार वर्णों से इसका हृदय, तीन वर्णों से सिर, चार वर्णों से शिखा, तीन वर्णों से कवच, चार वर्णों से नेत्र तथा चार वर्णों से अस्त्र कहा गया है ॥ ८१/२ ॥ [हे नारद!] अब मैं साधकों को उनके अभीष्ट की प्राप्ति कराने वाले ध्यान का वर्णन करूँगा। मुक्ताविद्रुमहेमनीलधवलच्छायैर्मुखैस्त्रीक्षणै- र्युक्तामिन्दुनिबद्धरत्नमुकुटां तत्त्वार्थवर्णात्मिकाम् । गायत्रीं वरदाभयाङ्कुशकशाः शुभ्रं कपालं गुणं शङ्खं चक्रमथारविन्दयुगलं हस्तैर्वहन्तीं भजे ॥ १० ॥ मोती, मूँगा, स्वर्ण, नील और धवल आभा वाले [पाँच ] मुखों, तीन नेत्रों तथा चन्द्रकलायुक्त रत्नमुकुट को धारण करने वाली, चौबीस अक्षरों से विभूषित और हाथों में वरद-अभयमुद्रा, अंकुश, चाबुक, शुभ्र कपाल, रज्जु, शंख, चक्र तथा दो कमलपुष्प धारण करने वाली भगवती गायत्री का मैं ध्यान करता हूँ ॥ ९-१० ॥ [ इस प्रकार ध्यान करके कवच का पाठ करे — ] गायत्री पूर्वतः पातु सावित्री पातु दक्षिणे । ब्रह्मसन्ध्या तु मे पश्चादुत्तरायां सरस्वती ॥ ११ ॥ पार्वती मे दिशं रक्षेत्पावकीं जलशायिनी । यातुधानी दिशं रक्षेद्यातुधानभयङ्करी ॥ १२ ॥ पावमानी दिशं रक्षेत्पवमानविलासिनी । दिशं रौद्री च मे पातु रुद्राणी रुद्ररूपिणी ॥ १३ ॥ ऊर्ध्वं ब्रह्माणी मे रक्षेदधस्ताद्वैष्णवी तथा । एवं दश दिशो रक्षेत्सर्वाङ्गं भुवनेश्वरी ॥ १४ ॥ तत्पदं पातु मे पादौ जङ्घे मे सवितुः पदम् । वरेण्यं कटिदेशे तु नाभिं भर्गस्तथैव च ॥ १५ ॥ देवस्य मे तद्धृदयं धीमहीति च गल्लयोः । धियः पदं च मे नेत्रे यः पदं मे ललाटकम् ॥ १६ ॥ नः पातु मे पदं मूर्ध्नि शिखायां मे प्रचोदयात् । तत्पदं पातु मूर्धानं सकारः पातु भालकम् ॥ १७ ॥ चक्षुषी तु विकारार्णस्तुकारस्तु कपोलयोः । नासापुटं वकारार्णो रेकारस्तु मुखे तथा ॥ १८ ॥ णिकार ऊर्ध्वमोष्ठं तु यकारस्त्वधरोष्ठकम् । आस्यमध्ये भकारार्णो र्गोकारश्चिबुके तथा ॥ १९ ॥ देकारः कण्ठदेशे तु वकारः स्कन्धदेशकम् । स्यकारो दक्षिणं हस्तं धीकारो वामहस्तकम् ॥ २० ॥ मकारो हृदयं रक्षेद्धिकार उदरे तथा । धिकारो नाभिदेशे तु योकारस्तु कटिं तथा ॥ २१ ॥ गुह्यं रक्षतु योकार ऊरू द्वौ नः पदाक्षरम् । प्रकारो जानुनी रक्षेच्चोकारो जङ्घदेशकम् ॥ २२ ॥ दकारं गुल्फदेशे तु यकारः पदयुग्मकम् । तकारव्यञ्जनं चैव सर्वाङ्गं मे सदावतु ॥ २३ ॥ पूर्व दिशा में गायत्री मेरी रक्षा करें, दक्षिण दिशा में सावित्री रक्षा करें, पश्चिम में ब्रह्मसन्ध्या तथा उत्तर में सरस्वती मेरी रक्षा करें। जल में व्याप्त रहने वाली भगवती पार्वती अग्निकोण में मेरी रक्षा करें। राक्षसों में भय उत्पन्न करने वाली भगवती यातुधानी नैर्ऋत्यकोण में मेरी रक्षा करें। वायु में विलासलीला करने वाली भगवती पावमानी वायव्यकोण में मेरी रक्षा करें। रुद्ररूप धारण करने वाली भगवती रुद्राणी ईशानकोण में मेरी रक्षा करें । ब्रह्माणी ऊपर की ओर तथा वैष्णवी नीचे की ओर मेरी रक्षा करें। इस प्रकार भगवती भुवनेश्वरी दसों दिशाओं में मेरे सम्पूर्ण अंगों की रक्षा करें ॥ ११–१४ ॥ ‘तत्’ पद मेरे दोनों पैरों की, ‘सवितुः’ पद मेरी दोनों जंघाओं की, ‘वरेण्यं’ पद कटिदेश की, ‘भर्गः ‘ पद नाभि की, ‘देवस्य’ पद हृदय की, ‘धीमहि’ पद दोनों कपोलों की, ‘धियः’ पद दोनों नेत्रों की, ‘यः’ पद ललाट की, ‘नः’ पद मस्तक की तथा ‘प्रचोदयात्’ पद मेरी शिखा की रक्षा करे ॥ १५-१६१/२ ॥ ‘तत्’ पद मस्तक की रक्षा करे तथा ‘स’ कार ललाट की रक्षा करे। इसी तरह ‘वि’ कार दोनों नेत्रों की, ‘तु’ कार दोनों कपोलों की, ‘व’ कार नासापुट की, ‘रे’ कार मुख की, ‘णि’ कार ऊपरी ओष्ठ की, ‘य’ कार नीचे के ओष्ठ की, ‘भ’ कार मुख के मध्यभाग की, रेफयुक्त ‘गो’ कार (र्गो) ठुड्डी की, ‘दे’ कार कण्ठ की, ‘व’ कार कन्धों की, ‘स्य’ कार दाहिने हाथ की, ‘धी’ कार बायें हाथ की, ‘म’ कार हृदय की, ‘हि’ कार उदर की, ‘धि’ कार नाभिदेश की, ‘यो’ कार कटिप्रदेश की, पुनः ‘यो’ कार गुह्य अंगों की, ‘नः’ पद दोनों ऊरुओं की, ‘प्र’ कार दोनों घुटनों की, ‘चो’ कार दोनों जंघाओं की, ‘द’ कार गुल्फों की, ‘या’ कार दोनों पैरों की और ‘त’ कार व्यंजन (त्) सर्वदा मेरे सम्पूर्ण अंगों की रक्षा करे ॥ १७–२३ ॥ [ हे नारद!] भगवती गायत्री का यह दिव्य कवच सैकड़ों विघ्नों का विनाश करने वाला, चौंसठ कलाओं तथा समस्त विद्याओं को देने वाला और मोक्ष की प्राप्ति कराने वाला है । इस कवच के प्रभाव से व्यक्ति सभी पापों से मुक्त हो जाता है और परब्रह्मभाव की प्राप्ति कर लेता है। इसे पढ़ने अथवा सुनने से भी मनुष्य एक हजार गोदान का फल प्राप्त कर लेता है ॥ २४-२५ ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत बारहवें स्कन्ध का ‘गायत्रीमन्त्रकवचवर्णन’ नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३ ॥ Content is available only for registered users. 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