श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वादशः स्कन्धः-अध्याय-10
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
उत्तरार्ध-द्वादशः स्कन्धः-दशमोऽध्यायः
दसवाँ अध्याय
मणिद्वीप का वर्णन
मणिद्वीपवर्णनम्

व्यासजी बोले — [ हे महाराज जनमेजय ! ] ब्रह्मलोक से ऊपर के भाग में जो सर्वलोक सुना गया है, वही मणिद्वीप है; जहाँ भगवती विराजमान रहती हैं ॥ १ ॥ चूँकि यह सभी लोकों से श्रेष्ठ है, इसलिये इसे सर्वलोक कहा गया है। पूर्वकाल में मूलप्रकृतिस्वरूपिणी पराम्बा भगवती ने सबसे प्रारम्भ में अपने निवास हेतु स्वेच्छा से इसका निर्माण किया था। यह लोक कैलास, वैकुण्ठ और गोलोक से भी महान् तथा उत्तम है । समस्त लोकों से श्रेष्ठ होने के कारण यह सर्वलोक कहा गया है। तीनों लोकों में उसके समान सुन्दर स्थान कहीं नहीं है ॥ २-४ ॥ हे सत्तम! वह मणिद्वीप तीनों जगत्‌ का छत्रस्वरूप तथा सांसारिक सन्तापों का नाश करने वाला है और सभी ब्रह्माण्डों का भी छायास्वरूप वही है ॥ ५ ॥

उस मणिद्वीप के चारों ओर अनेक योजन विस्तार वाला तथा परिमाण में उतना ही गहरा अमृत का सागर विद्यमान है, जो पवन के आघात से उठी हुई सैकड़ों तरंगों से परिपूर्ण, रत्नमयी स्वच्छ बालुका से युक्त, मत्स्य और शंखों से सम्पन्न, तरंगों के परस्पर संघर्ष से उत्पन्न बड़ी-बड़ी लहरों द्वारा विकीर्ण शीतल जल-कणों से शोभायमान और अनेक प्रकार की ध्वजाओं से युक्त नानाविध आवागमन वाले पोतों से मण्डित है ॥ ६–८ ॥ उस सुधासागर के चारों ओर तटों पर रत्नमय वृक्ष विराजमान हैं। उसके उत्तर तरफ लौहधातु की बनी हुई सात योजन विस्तार वाली एक गगनस्पर्शी महान् चहारदीवारी है ॥ ९१/२

उसमें अनेक प्रकार के शस्त्रों के प्रहार में दक्ष तथा नानाविध युद्धकलाओं में पारंगत बहुत-से रक्षक सभी ओर आनन्दपूर्वक निवास करते हैं ॥ १०१/२

हे राजन्! उस परकोटे में चार द्वार तथा सैकड़ों द्वारपाल हैं । भगवती में भक्ति रखने वाले अनेक गणों से वह चारों ओर से घिरा हुआ है। जो देवता भगवती जगदीश्वरी के दर्शनार्थ आते हैं, उनके गण तथा वाहन यहाँ रहते हैं ॥ ११-१२१/२

यह सैकड़ों विमानों की घरघराहट तथा घंटा-ध्वनि सदा परिपूर्ण रहता है। घोड़ों की हिनहिनाहट तथा उनके खुरों के आघात की ध्वनि से दिशाएँ बधिर -सी हो जाती हैं। हे राजन् ! किलकिलाहट की ध्वनि करते हुए तथा हाथ में बेंत लिये हुए देवी-गणों के द्वारा ताडित देवताओं के सेवक वहाँ सदा विराजमान रहते हैं ॥ १३-१४१/२

हे राजन्! उस कोलाहल में कोई किसी की बात नहीं सुन पाता । अनेक प्रकार की ध्वनियों से मिश्रित उस स्थान पर अत्यधिक चेष्टा करने पर ही किसी की बात सुनी जा सकती है। हे राजन् ! वहाँ स्थान-स्थान पर मीठे जल से परिपूर्ण सरोवर और रत्नमय वृक्षों से युक्त अनेक प्रकार के उद्यान सुशोभित हो रहे हैं ॥ १५-१६१/२

उस परकोटे के आगे कांस्य धातु से बना हुआ उससे भी विशाल दूसरा मण्डलाकार परकोटा है, जिसका शिखर आकाश को छूता रहता है। यह परकोटा पहले परकोटे से तेज में सौ गुना अधिक है ॥ १७-१८ ॥ गोपुर और द्वार से शोभा पाने वाला यह प्राकारमण्डल अनेक वृक्षों से युक्त है। वृक्षों की जितनी जातियाँ होती हैं, वे सब वहाँ पर हैं। वे वृक्ष सदा फूलों और फलों से लदे रहते हैं तथा वे नये-नये पल्लवों और उत्तम सुगन्ध से सदा परिपूर्ण रहते हैं ॥ १९-२० ॥ कटहल, मौलसिरी, लोध, कर्णिकार, शीशम, देवदारु, कचनार, आम, सुमेरु, लिकुच, हिंगुल, इलायची, लौंग, कट्फल, पाटल, मुचुकुन्द, फलिनी, जघनेफल, ताल, तमाल, साल, कंकोल, नागभद्र, नागकेसर, पीलु, साल्व, कर्पूरशाखी, अश्वकर्ण, हस्तिकर्ण, तालपर्ण, दाडिम, गणिका, बन्धुजीव, जम्भीरी नीबू, कुरण्डक, चम्पा, बन्धुजीव, धतूरा, कालागुरु, चन्दन, खजूर, जूही, तालपर्णी, ईख, क्षीरवृक्ष, खैर, इमली, भेलावा, बिजौरा नीबू, कुटज तथा बिल्व के वृक्ष वहाँ सुशोभित रहते हैं । तुलसी तथा मल्लिका के वन भी वहाँ विद्यमान हैं। हे राजन् ! अनेक जाति वाले वृक्षों के वन तथा उपवन यहाँ शोभायमान हैं, जो सैकड़ों बावलियों से युक्त हैं ॥ २१–२८ ॥

कोयलों की मीठी ध्वनि से युक्त, भौंरो के गुंजार से भूषित तथा शीतल छाया प्रदान करने वाले वे सभी उत्तम वृक्ष निरन्तर रसस्राव करते रहते हैं । अनेक ऋतुओं में उत्पन्न होने वाले वे वृक्ष अनेक प्रकार के पक्षियों से सदा युक्त रहते हैं । वे अनेकविध रस प्रवाहित करने वाली नदियों से सर्वदा सुशोभित रहते हैं। कबूतर, तोता, मैना तथा हंस आदि पक्षियों के पंखों से निकली हुई वायु से वहाँ के वृक्ष सदा हिलते रहते हैं। सुगन्धि-मिश्रित पवन से परिपूर्ण वह वन इधर-उधर दौड़ती हुई हरिणियों के समूहों से सदा शोभा प्राप्त करता है। नाचते हुए मोरों की सुखदायक केका – ध्वनियों से मुखरित वह दिव्य वन सदा मधु का स्राव करता रहता है ॥ २९-३३ ॥

उस कांस्य के प्राकार के आगे ताम्र की चहारदीवारी बतायी गयी है, जो आकार में चौकोर तथा ऊँचाई में सात योजन परिमाण वाली है । हे राजन् ! उन दोनों प्राकारों के मध्य में एक कल्पवाटिका कही गयी है, जिसके वृक्षों के पुष्प तथा पत्ते सुवर्ण- सदृश आभावाले हैं और बीज तथा फल रत्न के समान हैं। वहाँ चारों ओर दस योजन तक सुगन्ध फैली रहती है ॥ ३४-३६ ॥ हे राजन् ! वसन्त ऋतु उस वन की सदा सुरक्षा करता रहता है । पुष्प के भूषण से विभूषित, पुष्प-छत्र से सुशोभित तथा पुष्प के आसव का सेवन करके मदमत्त वह वसन्त पुष्प के सिंहासन पर विराजमान रहता है । मधुश्री तथा माधवश्री नामक मुसकानयुक्त मुख वाली उसकी दो प्रिय भार्याएँ हैं, जो सदा पुष्पों के गुच्छों का कन्दुक बनाकर क्रीडा करती रहती हैं । वह अत्यन्त रम्य वन चारों ओर मधु की धारा प्रवाहित करता रहता है ॥ ३७–३९ ॥ पुष्पों की गन्ध को लेकर प्रवाहित होने वाली वायु के द्वारा वहाँ का दस योजनपर्यन्त स्थान सदा सुवासित रहता है। इस प्रकार वह दिव्य वन वसन्तलक्ष्मी से संयुक्त, कामियों के काम को उद्दीप्त करने वाला, मतवाले कोकिलों की ध्वनि से मुखरित तथा अपनी अंगनाओं सहित गान-लोलुप दिव्य गन्धर्वों से सदा सुशोभित रहता है ॥ ४०-४१ ॥

उस ताम्र के परकोटे के आगे एक सीसे का परकोटा है; इसकी भी ऊँचाई सात योजन कही गयी है । हे राजन्! इन दोनों प्राकारों के मध्य में सन्तान नामक वाटिका है। वहाँ के पुष्पों की सुगन्धि चारों ओर दस योजनतक फैली रहती है। सुवर्ण की आभावाले खिले हुए फूल तथा अमृत-तुल्य मधुर रसों से परिपूर्ण मधुर फल वहाँ सदा विद्यमान रहते हैं ॥ ४२–४४ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! उस वाटिका का नायक ग्रीष्मऋतु है । शुकश्री तथा शुचिश्री नाम वाली उसकी दो प्रिय भार्याएँ हैं। सन्ताप से व्याकुल प्राणी उस वाटिका के वृक्षों की छाया में सुखपूर्वक स्थित रहते हैं । अनेक सिद्धों तथा देवताओं से वह प्राकार सदा समन्वितरहता है ॥ ४५-४६ ॥ हे राजन्! पुष्प-मालाओं से विभूषित होकर अपने करकमलों में ताड़ का पंखा लिये और अपने अंगों में चन्दन लगाये तथा शीतल जल का सेवन करने वाली अनेक विलासिनी अंगनाओं के द्वारा वह प्राकार नित्य सुशोभित रहता है ॥ ४७१/२

हे राजन् ! उस सीसे के प्राकार के भी आगे परिमाण में सात योजन लम्बा पीतल की धातु से निर्मित एक सुन्दर परकोटा है ॥ ४८ ॥ उन दोनों परकोटों के मध्य में हरिचन्दन वृक्षों की एक वाटिका कही गयी है। वहाँ का स्वामी मेघों पर आसीन रहने वाला वर्षाऋतु है। वह पिंगल-वर्णवाले विद्युत् को नेत्र के रूप में तथा मेघों को कवच के रूप में धारण करने वाला कहा गया है। विद्युत् का गर्जन ही इसका मुख है और वह इन्द्रधनुष को धनुषरूप में धारण किये रहता है । वह अपने गणों से आवृत होकर चारों ओर हजारों जलधाराएँ छोड़ता रहता है ॥ ४९–५१ ॥ नभः श्री, नभस्यश्री, स्वरस्या, रस्यमालिनी, अम्बा, दुला, निरत्नि, अभ्रमन्ती, मेघयन्तिका, वर्षयन्ती, चिपुणिका और वारिधारा – ये बारह वर्षाऋतु की प्रिय शक्तियाँ कही गयी हैं, जो सदा मद से विह्वल रहती हैं ॥ ५२-५३ ॥ नवीन लताओं से समन्वित तथा नवीन पल्लवों से युक्त वृक्ष तथा हरे-भरे तृण वहाँ सदा विद्यमान रहते हैं, जिनसे वहाँ की सम्पूर्ण भूमि आच्छादित रहती है। वहाँ नदी तथा नद अत्यन्त वेग से प्रवाहित होते रहते हैं । राग–द्वेष से युक्त मनुष्यों के चित्त के समान गन्दे जल वाले अनेक सरोवर भी वहाँ विद्यमान हैं ॥ ५४-५५ ॥ देवता तथा सिद्धपुरुष वहाँ निवास करते हैं। देवी-कर्म में निरन्तर तत्पर रहने वाले तथा वापी, कूप और तालाब का निर्माण कराके देवी को अर्पण करने वाले वे लोग अपनी स्त्रियों के साथ वहाँ आनन्दपूर्वक रहते हैं ॥ ५६१/२

उस पीतल के प्राकार के आगे सात योजन की लम्बाई वाला एक पंचलौह-निर्मित परकोटा है, जिसके बीच में नानाविध पुष्पों, लताओं तथा पल्लवों से सुशोभित मन्दारवाटिका विराजमान है ॥ ५७-५८ ॥ विकाररहित शरद् ऋतु को यहाँ का अधिष्ठाता कहा गया है। इक्षुलक्ष्मी और ऊर्जलक्ष्मी – ये उसकी दो प्रिय भार्याएँ हैं । अनेक सिद्ध लोग अपनी भार्याओं तथा अनुचरों के साथ यहाँ निवास करते हैं ॥ ५९१/२

उस पंचलौहमय परकोटे के आगे विशाल शिखरों तथा सात योजन लम्बाई वाला एक दीप्तियुक्त रजत-निर्मित परकोटा है। उसके मध्य में पुष्पों के गुच्छों से परिपूर्ण पारिजात-वन विद्यमान है ॥ ६०-६१ ॥ चारों ओर दस योजन की दूरी तक सुगन्ध फैलाने वाले पुष्प वहाँ पर देवी-पूजन आदि कर्मों में तत्पर सभी गणों को प्रसन्न किये रहते हैं ॥ ६२ ॥ हे राजन्! महान् उज्ज्वल हेमन्तऋतु वहाँ का स्वामी कहा गया है । वह सभी रागी पुरुषों को आनन्दित करते हुए हाथ में आयुध लेकर अपने गणों के साथ वहाँ उपस्थित रहता है ॥ ६३ ॥ उसकी सहश्री तथा सहस्य श्री नामक दो प्रिय भार्याएँ हैं। भगवती का व्रत करने वाले जो सिद्धलोग हैं, वे वहाँ निवास करते हैं ॥ ६४ ॥

उस रजत के परकोटे के आगे तप्त स्वर्ण से निर्मित सात योजन लम्बा एक अन्य परकोटा है, जिसे सौवर्णसाल कहा गया है ॥ ६५ ॥ उसके बीच में पुष्पों तथा पल्लवों से सुशोभित एक कदम्ब-वाटिका है, जहाँ कदम्ब के आसव की हजारों धाराएँ निरन्तर बहती रहती हैं, जिसका सेवन करने से आत्मानन्द का अनुभव होता है। वहाँ का स्वामी श्रेष्ठ शिशिर ऋतु कहा गया है ॥ ६६-६७ ॥ उसकी तपः श्री और तपस्यश्री नामक दो प्रिय भार्याएँ हैं। अपने अनेक गणों से घिरा हुआ शिशिर ऋतु इन दोनों भार्याओं के साथ प्रसन्नतापूर्वक अनेकविध क्रीडाओं में तत्पर रहता है ॥ ६८१/२

देवी की प्रसन्नता के निमित्त अनेक दान करनेवाले जो महान् सिद्धपुरुष हैं, वे अनेकविध भोगों से उत्पन्न महानन्द से युक्त होकर और अपने परिवारजनों तथा भार्याओं को साथ लेकर वहाँ समूह में निवास करते हैं ॥ ६९-७० ॥ उस स्वर्णनिर्मित परकोटे के आगे कुमकुम के समान अरुणवर्ण वाला तथा सात योजन लम्बा पुष्परागमणिनिर्मित परकोटा है ॥ ७१ ॥ वहाँ की भूमि पुष्परागमयी है। इसी प्रकार वहाँ के वन, उपवन तथा थालों समेत वृक्ष पुष्परागरत्न से युक्त कहे गये हैं ॥ ७२ ॥ वहाँ जिस रत्न का परकोटा बना हुआ है, उसी रत्न से वहाँ के वृक्ष, वन, भूमि, पक्षी, मण्डप, मण्डपों के स्तम्भ, सरोवर और कमल भी निर्मित हैं; वहाँ जल भी उसी रत्न के वर्ण का है। उस परकोटे के अन्दर जो-जो वस्तुएँ हैं, वे सब उसी रत्न के समान हैं ॥ ७३-७४ ॥ हे प्रभो ! रत्ननिर्मित परकोटों के विषय में मैंने आपको यह सम्यक् परिचय दे दिया । हे राजन् ! इनमें प्रत्येक अगला प्राकार अपने पहले वाले प्राकार से एक लाख गुना अधिक तेजसम्पन्न है ॥ ७५ ॥ प्रत्येक ब्रह्माण्ड में रहने वाले दिक्पाल अपना एक समूह बनाकर हाथों में श्रेष्ठ तथा अत्यन्त तेजोमय आयुध धारण किये हुए यहाँ निवास करते हैं ॥ ७६ ॥

इस मणिद्वीप की पूर्वदिशा में ऊँचे शिखरों से युक्त अमरावतीपुरी है । अनेकविध उपवनों से युक्त उस पुरी में इन्द्र विराजमान रहते हैं ॥ ७७ ॥ स्वर्गलोक में जितनी शोभा स्वर्ग की है, उससे भी अधिक शोभा इस अमरावतीपुरी की है । अनेक इन्द्रों के हजार गुने से भी अधिक इसकी शोभा कही गयी है । अपने ऐरावत पर आरूढ होकर हाथ में वज्र धारण किये हुए प्रतापी इन्द्र देवसेना के साथ यहाँ सुशोभित होते हैं और वहीं पर अनेक देवांगनाओं के साथ शची भी विराजमान रहती हैं ॥ ७८-७९१/२

हे राजन्! उस मणिद्वीप के अग्निकोण में अग्निसदृश प्रज्वलित वह्निपुरी है। वहाँ पर अपने देवगणों से घिरे हुए अग्निदेव अपने वाहनों तथा भूषणों से सुशोभित होकर ‘स्वाहा’ और ‘स्वधा’ – इन दो शक्तियों के साथ विराजमान रहते हैं ॥ ८०-८१ ॥ मणिद्वीप की दक्षिणदिशा में यमपुरी है । हे राजन् ! सूर्यपुत्र महाभाग श्रेष्ठ यमराज चित्रगुप्त आदि मन्त्रियों के साथ अपने अनुचरों से घिरे रहकर हाथ में दण्ड धारण किये अपनी शक्ति के साथ वहाँ विराजमान रहते हैं ॥ ८२१/२

इस मणिद्वीप के नैर्ऋत्यकोण में राक्षसों की पुरी विद्यमान है, जिसमें खड्गधारी निर्ऋति अपनी शक्ति के साथ राक्षसों से घिरे हुए विराजमान रहते हैं ॥ ८३१/२

पश्चिमदिशा में वरुणलोक में वारुणीपान से विह्वल, पाश धारण करने वाले प्रतापवान् वरुणराज विशाल मत्स्य पर सवार होकर वरुणानी में आसक्त रहते हुए अपनी शक्ति वरुणानी तथा अपने गणों के साथ विराजमान रहते हैं ॥ ८४-८५१/२

मणिद्वीप के वायव्यकोण में वायुलोक स्थित है । विशाल नेत्रोंवाले वायुदेव प्राणायाम करने में परम सिद्ध योगियों के समूह तथा मरुद्गणों से सदा घिरे रहकर हाथ में ध्वजा धारण करके मृग पर आरूढ होकर अपनी शक्ति के साथ वहाँ निवास करते हैं ॥ ८६-८७१/२

हे राजन् ! मणिद्वीप की उत्तरदिशा में यक्षों का महान् लोक है। वहाँ पर अपनी शक्तिसहित यक्षों के अधिराज तुन्दिल कुबेर वृद्धि-ऋद्धि आदि शक्तियों, नौ निधियों और मणिभद्र, पूर्णभद्र, मणिमान्, मणिकन्धर, मणिभूष, मणिस्रग्वी, मणिकार्मुकधारक आदि यक्षसेनानियों के साथ अपनी शक्ति से समन्वित होकर विराजमान रहते हैं ॥ ८८-९०१/२

मणिद्वीप के ईशानकोण में बहुमूल्य रत्नों से सम्पन्न महान् रुद्रलोक कहा गया है, जहाँ प्रज्वलित नेत्रों तथा कोपयुक्त विग्रह वाले भगवान् रुद्र अपनी पीठ पर महान् तरकस बाँधे तथा बायें हाथ में तेजस्वी धनुष लिये हुए अधिदेवता के रूप में प्रतिष्ठित हैं । वे भगवान् रुद्र धनुष्कोटिपर प्रत्यंचा चढ़ाये हुए धनुर्धारियों, हाथ में शूल तथा श्रेष्ठ आयुध धारण करने वाले, विकृत मुख वाले, विकराल मुखाकृति वाले, मुख से निरन्तर अग्निज्वाला उगलने वाले, दस भुजाओं वाले, कोई सौ भुजाओं वाले, कितने हजार भुजाओं वाले, दस पैरों वाले, दस गर्दन वाले, तीन नेत्रों वाले और अत्यन्त उग्र विग्रह वाले अपने ही सदृश असंख्य रुद्रों से सदा घिरे रहते हैं। अन्तरिक्षलोक में तथा भूलोक में विचरण करने वाले जो-जो रुद्र प्रसिद्ध हैं और रुद्राध्याय में भी जो रुद्र वर्णित हैं; उन सबसे वे भगवान् रुद्र वहाँ आवृत रहते हैं । इसी प्रकार वे करोड़ों रुद्राणियों, भद्रकाली आदि मातृकाओं और विविध शक्तियों से युक्त डामरी आदि गणों से सदा घिरे रहते हैं । हे राजन्! गले में मुण्ड की माला, हाथ में सर्प – वलय, कन्धे पर सर्प का यज्ञोपवीत, शरीर पर बाघम्बर और उत्तरीय के रूप में गज-चर्म धारण करने वाले; शरीर के अंगों में सदा चिता की भस्म लगाये रहने वाले; अपने डमरू की तीव्र ध्वनि से दिशाओं को बधिर बना देने वाले; अपने अट्टहास और आस्फोट शब्दों से गगनमण्डल को भयभीत कर देने वाले, भूतसमुदाय से युक्त रहने वाले तथा समस्त प्राणियों के आवासस्वरूप भगवान् महेश्वर रुद्र वहाँ पर वीरभद्र आदि गणों के साथ सदा विराजमान रहते हैं । ये ईशानदिशा के अधिपति हैं; इसीलिये ये ‘ईशान’ नाम से विख्यात हैं ॥ ९१-१०० ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत बारहवें स्कन्ध का ‘मणिद्वीपवर्णन’ नामक दसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १० ॥

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