श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-द्वितीयः स्कन्धः-अध्याय-11
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-द्वितीयः स्कन्धः-एकादशोऽध्यायः
ग्यारहवाँ अध्याय
जनमेजय का राजा बनना और उत्तंक की प्रेरणा से सर्प-सत्र करना, आस्तीक के कहने से राजा द्वारा सर्प-सत्र रोकना
सर्पसत्रवर्णनम्

सूतजी बोले — सभी मन्त्रियों ने राजा परीक्षित् को मृतक तथा उनके पुत्र जनमेजय को अबोध जानकर उनकी परलोक-सम्बन्धी क्रियाएँ सम्यक्‌ प्रकार से सम्पन्न कीं ॥ १ ॥ शरीर दग्ध हो जाने से भस्मीभूत हुए राजा को उन मन्त्रियों ने गंगा के किनारे अगरु से बनायी गयी चिता पर रखा ॥ २ ॥ अकालमृत्यु को प्राप्त राजा परीक्षित् की और्ध्वदैहिक क्रिया राजा के पुरोहितों द्वारा वैदिक मन्त्रों के साथ विधिवत्‌ सम्पन्न की गयी ॥ ३ ॥ मन्त्रियों ने ब्राह्मणों को गायें, सुवर्ण, अनेक प्रकार के अन्न तथा नाना प्रकार के वस्त्र यथोचित रूप से दान में दिये ॥ ४ ॥ तत्पश्चात्‌ मन्त्रियों ने प्रजाओं के प्रति प्रीति- सम्वर्धन करने वाले राजपुत्र जनमेजय को शुभ मुहूर्त में सुन्दर राजसिंहासन पर आसीन किया ॥ ५ ॥ पुरवासी तथा जनपदवासी प्रजाओं ने राजलक्षणों से सम्पन्न जनमेजय नामक उस बालक को अपने राजा के रूप में स्वीकार किया ॥ ६ ॥

राजकुमार की धात्री ने उन्हें सब प्रकार के राजोचित गुणों की शिक्षा दी। इस प्रकार दिन-प्रतिदिन वृद्धि को प्राप्त होते हुए वे महान्‌ बुद्धिमान्‌ हो गये ॥ ७ ॥ उनकी ग्यारह वर्ष की अवस्था होने पर कुल- पुरोहित ने उन्हें यथोचित शिक्षा प्रदान की और उन्होंने उसे सम्यक्‌ रूप से ग्रहण किया ॥ ८ ॥ जिस प्रकार द्रोणाचार्य ने अर्जुन को तथा भार्गव परशुराम ने कर्ण को धनुर्विद्या में प्रशिक्षित किया, उसी प्रकार कृपाचार्य ने जनमेजय को भलीभाँति परिष्कृत धनुर्विद्या प्रदान की ॥ ९ ॥ इस प्रकार सम्पूर्ण विद्या प्राप्त करके वे जनमेजय वेद तथा धनुर्वेद में पूर्ण पारंगत, बलशाली, अपराजेय तथा परमार्थवेत्ता हो गये ॥ १० ॥ वे धर्मशास्त्र के अर्थों का विवेचन करने में कुशल, सत्यनिष्ठ, इन्द्रियजित्‌ और धर्मात्मा थे। उन्होंने पूर्व में धर्मपुत्र राजा युधिष्ठिर की भाँति राज्य-शासन किया ॥ ११ ॥ इसके बाद सुवर्णवर्मा नामवाले काशिपति राजा ने शुभ गुणों वाली अपनी कन्या वपुष्टमा का पाणिग्रहण जनमेजय के साथ सम्पन्न कर दिया ॥ १२ ॥

जिस प्रकार प्राचीन काल में काशिराज की पुत्री को पाकर विचित्रवीर्य तथा सुभद्रा को पाकर अर्जुन अत्यन्त आह्वादित हुए थे, उसी प्रकार उस श्याम नयनों वाली को अपनी कान्ता के रूप में पाकर जनमेजय अति प्रसन्न हुए। कमलपत्र के समान नेत्रों वाली उस वपुष्टमा के साथ वनों और उपवनों में राजा जनमेजय उसी प्रकार विहार करने लगे जिस प्रकार इन्द्राणी के साथ इन्द्र। उनके द्वारा सुखपूर्वक रक्षित प्रजा अति सन्तुष्ट थी । जनमेजय के कार्यकुशल सभी मन्त्री समस्त कार्यों को सम्यक्‌ प्रकार से करते थे ॥ १३-१५१/२

इसी समय तक्षक के द्वारा पीडित उत्तंक नामक मुनि का हस्तिनापुर में आगमन हुआ। “इस सर्प की शत्रुता का बदला कौन ले सकता हे ‘ — ऐसा सोचते हुए वे परीक्षित्‌-पुत्र जनमेजय को यह कार्य कर सकने वाला समझकर उनके पास आये और बोले — हे भूपवर! आपको यह ज्ञान नहीं है कि इस समय क्या करणीय है और क्या अकरणीय है? आप इस समय न करने योग्य कार्य कर रहे हैं और करने योग्य कार्य नहीं कर रहे हैं। आप सदृश रोषहीन, पुरुषार्थरहित, बैरभाव के ज्ञान से शून्य, प्रतीकार आदि उपायों को न जानने वाले तथा बालकों के समान स्वभाव वाले राजा से अब मैं क्या कहूँ ?॥ १६-१९१/२

जनमेजय बोले — मैंने किस शत्रुता को नहीं जाना और उसका प्रतीकार नहीं किया ? हे महाभाग! आप मुझे वह बतायें, जिससे मैं उसे सम्पन्न कर सकूँ ॥ २०१/२

उत्तंक बोले — हे राजन्‌! आपके पिता परीक्षित्‌ दुष्टात्मा तक्षक नाग द्वारा मार डाले गये थे। आप मन्त्रियों को बुलाकर अपने पिता की मृत्यु के विषय में पूछिये ॥ २११/२

सूतजी बोले — उत्तंक का वचन सुनकर राजा ने मन्त्रिप्रवरों से पूछा। तब उन्होंने बताया कि ब्राह्मण द्वारा शापित होने के कारण एक सर्प ने उन्हें डँस लिया और वे मर गये ॥ २२१/२

जनमेजय बोले — मेरे पिता राजा परीक्षित् की मृत्यु का कारण तो मुनि द्वारा प्रदत्त शाप था। हे मुनिश्रेष्ठ! मुझे यह बताइये कि इसमें तक्षक का क्या दोष था? ॥ २३१/२

उत्तंक बोले — तक्षकने कश्यप नामक ब्राह्मण को धन देकर आपके पिता तक पहुँचने से रोक दिया था। हे राजन्‌! आपके पिता का हन्ता वह तक्षक क्या आपका शत्रु नहीं है? हे भूप! प्राचीन काल में मुनि रुरु की भार्या को सर्प ने डँस लिया था और वह मर गयी थी। वह अविवाहिता थी। मुनि रुरु ने अपनी उस प्रिया को पुनः जीवित कर दिया और उन्होंने वहीं पर अत्यन्त भीषण प्रतिज्ञा की कि मैं जिस किसी भी सर्प को देखूँगा, उसे तत्काल आयुध से मार डालूँगा । हे राजन्‌! इस प्रकार प्रतिज्ञा करके हाथ में शस्त्र लेकर मुनि रुरु सर्पों का वध करते हुए इधर-उधर घूमते रहे। एक बार उन्हें वन में एक बूढ़ा डुंडुभ साँप दिखायी दिया। वे लाठी उठाकर रोषपूर्वक उसे मारने के लिये तत्पर हुए, तब डुंडुभ ने उन ब्राह्मण से कहा हे विप्र! मैं आपके प्रति कोई अपराध नहीं कर रहा हूँ तो फिर आप मुझे क्यों मार रहे हैं ?॥ २४-२९१/२

रुरु बोले — मेरी प्राणप्रिया भार्या को सर्प ने डँस लिया था और उसकी मृत्यु हो गयी थी। अतः हे सर्प! उसी समय से दुःखित होकर मैंने ऐसी प्रतिज्ञा कर ली थी ॥ ३०१/२

डुंडुभ बोला — मैं किसी को काटता नहीं। जो सर्प काटते हैं, वे दूसरे होते हैं। इसलिये सर्पसदृश शरीर होने के कारण मुझे आप मत मारिये ॥ ३११/२

उत्तंक बोले — मनुष्य के समान उसकी सुन्दर वाणी सुनकर रुरु ने पूछा तुम कौन हो? और डुंडुभयोनि को कैसे प्राप्त हो गये ?॥ ३२१/२

सर्प बोला — हे विप्र! पहले मैं ब्राह्मण था और ‘खगम’ नाम का मेरा एक ब्राह्मण मित्र था। वह धर्मात्माओं में श्रेष्ठ, सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय था। एक बार अपनी मूर्खतावश मैंने तृण का सर्प बनाकर उसे धोखे में डाल दिया ॥ ३३-३४ ॥ उस समय वह अग्निहोत्रगृह में विद्यमान था, सर्प को देखकर अत्यन्त डर गया। भय से थर-थर काँपते हुए उस ब्राह्मण ने विह्वल होकर मुझे शाप दे दिया हे मन्दबुद्धि! तुमने सर्प दिखाकर मुझे डराया है, अतः तुम सर्प हो जाओ। सर्परूप में मैंने उस ब्राह्मण की बड़ी प्रार्थना की तब उस ब्राह्मण ने क्रोध से थोड़ा शान्त होने पर मुझसे कहा — हे सर्प! प्रमतिपुत्र रुरु तुम्हें इस शाप से मुक्त करेंगे। उन्होंने यह बात स्वयं मुझसे कही थी। मैं वही सर्प हूँ और आप रुरु हैं । आप मेरे वचन को ध्यानपूर्वक सुनिये ब्राह्मणों के लिये अहिंसा परम धर्म है, इसमें सन्देह नहीं। अतः विद्वान्‌ ब्राह्मण को चाहिये कि वह सर्वत्र दया करे। हे विप्रवर! यज्ञ से अतिरिक्त कहीं भी की गयी हिंसा याज्ञिकी हिंसा नहीं कही गयी है ॥ ३५-३९१/२

उत्तंक बोले — तब वह ब्राह्मण सर्पयोनि से मुक्त हो गया। इस प्रकार उस ब्राह्मण के शाप का अन्त करके रुरु ने भी हिंसा छोड़ दी। उन्होंने मरी हुई उस सुन्दरी को पुनः जीवित कर दिया और उसके साथ विवाह कर लिया ॥ ४०-४१ ॥ हे राजन्‌! उस मुनि ने इस प्रकार शत्रुता का स्मरण करते हुए सभी सर्पों का संहार किया था, परंतु हे भरतश्रेष्ठ! आप तो वैर भूलकर अपने पिता को मारने वाले सर्पों के प्रति क्रोधशून्य बने रहते हैं। आपके पिता स्नान-दान किये बिना अन्तरिक्ष में ही मर गये। इसलिये हे राजेन्द्र! सर्पों का नाश करके आप उनका उद्धार कीजिये। जो पुत्र पिता के शत्रुओं से बदला नहीं लेता, वह जीते हुए भी मृतकतुल्य है। हे नृपश्रेष्ठ! जब तक आप सर्पों का विनाश नहीं करते, तब तक आपके पिता की दुर्गति ही रहेगी। हे महाराज! आप देवीयज्ञ के व्याज से अपने पिता की शत्रुता का स्मरण करते हुए सर्पसत्र नामक यज्ञ कीजिये ॥ ४२-४५१/२

सूतजी बोले — उत्तंक मुनि का यह वचन सुनकर राजा जनमेजय अत्यन्त दुःखी हुए और उनके नेत्रों से अश्रुपात होने लगा। [वे मन में सोचने लगे] जिसके पिता सर्प से दंशित होकर इस प्रकार दुर्गति को प्राप्त हों, उस मुझ मिथ्याभिमानी तथा दुर्बुद्धि को धिक्कार है। मैं आज ही यज्ञ आरम्भ करके प्रज्वलित अग्नि में सर्पों की आहुति देकर अवश्य ही पिता की मृत्यु का बदला लूँगा ॥ ४६-४८१/२

सभी मन्त्रियों को बुलाकर राजा ने यह वचन कहा — हे मन्त्रिप्रवरो ! गंगा के किनारे श्रेष्ठ ब्राह्मणों से उत्तम भूमि को माप कराकर आपलोग यथोचित यज्ञ-सामग्री का प्रबन्ध करें। हे मेरे बुद्धिमान्‌ मन्त्रियों ! सौ खंभों वाले एक सुरम्य मण्डप का निर्माण कराकर आपलोग उसमें आज ही यज्ञ के लिये वेदी का भी निर्माण सम्पन्न करा लें। उस यज्ञ के अंगरूप में विस्तारसहित सर्पसत्र भी करना है। महामुनि उत्तंक उस यज्ञ के होता होंगे और तक्षकनाग उसमें यज्ञपशु होगा। आपलोग शीघ्र ही सर्वज्ञाता एवं वेदपारगामी ब्राह्मणों को आमन्त्रित करें ॥ ४९-५२१/२

सूतजी बोले — बुद्धिमान्‌ मन्त्रियों ने राजा के कथनानुसार यज्ञसम्बन्धी समस्त सामग्री का प्रबन्ध कर लिया और विस्तृत यज्ञवेदी भी निर्मित करायी। सर्पों का हवन आरम्भ होने पर तक्षक इन्द्र के यहाँ गया और उनसे बोला मैं भयाकुल हूँ, मेरी रक्षा कीजिये। तत्पश्चात्‌ इन्द्र ने उस भयभीत तक्षक को सान्त्वना देकर अपने आसन पर बैठाकर उसे अभय प्रदान किया और कहा हे पन्नग! तुम निर्भय हो जाओ ॥ ५३-५५१/२

तदनन्तर उत्तंकमुनि उस तक्षक को इन्द्र का शरणागत और उनसे अभयदान पाया हुआ जानकर उद्विग्न हो उठे और उन्होंने मन्त्र प्रभाव से इन्द्रसहित तक्षक का आवाहन किया। तब तक्षक ने यायावरवंश में उत्पन्न जरत्कारुपुत्र धर्मनिष्ठ आस्तीक-नामक मुनि का स्मरण किया। वे मुनिबालक आस्तीक वहाँ आकर जनमेजय की प्रशंसा करने लगे ॥ ५६-५८ ॥ राजा जनमेजय ने उस बालक को महान्‌ पण्डित देखकर उसकी पूजा की। पूजन-अर्चन करके राजा ने अपनी मनोवाञ्छित वस्तु माँगने के लिये उससे निवेदन किया ॥ ५९ ॥

तब आस्तीक ने याचना की — हे महाभाग! इस यज्ञ को समाप्त किया जाय। उसने सत्य वचन में आबद्ध राजा से बार-बार ऐसी प्रार्थना की ॥ ६० ॥

तत्पश्चात्‌ मुनि के वचनानुसार राजा ने सर्पों का हवन बन्द कर दिया और फिर वैशम्पायनऋषि ने उन्हें विस्तारपूर्वक महाभारत की कथा सुनायी ॥ ६१ ॥ उस कथा को सुनकर भी राजा को विशेष शान्ति नहीं प्राप्त हुई तब राजा ने व्यासजी से पूछा मुझे किस प्रकार शान्ति मिलेगी? मेरा मन अशान्ति की अग्नि में अत्यधिक दग्ध हो रहा है, मैं क्या करूँ? मुझको बतलाइये। मुझ मन्दभाग्य के पिता और अर्जुनपौत्र परीक्षित्‌ अकाल-मृत्यु को प्राप्त हुए हैं । हे महाभाग! युद्ध में होने वाली मृत्यु ही क्षत्रियों के लिये श्रेष्ठ होती है। हे व्यासजी! रण में अथवा घर में विधिपूर्वक होने वाली मृत्यु ही अच्छी मानी जाती है, किंतु मेरे पिता का वैसा मरण नहीं हुआ। वे तो असहाय अवस्था में अन्तरिक्ष मे मृत्यु को प्राप्त हुए। हे सत्यवतीपुत्र! आप उनको शान्ति-प्राप्ति का कोई उपाय बतलाइये, जिससे दुर्गति को प्राप्त मेरे पिताजी शीघ्र ही स्वर्ग चले जायँ ॥ ६२-६६ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत द्वितीय स्कन्ध का सर्पसत्रवर्णनं नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥

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