श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-14
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-चतुर्दशोऽध्यायः
चौदहवाँ अध्याय
देवीमाहात्म्य से सम्बन्धित राजा ध्रुवसन्धि की कथा, ध्रुवसन्धि की मृत्यु के बाद राजा युधाजित् और वीरसेन का अपने-अपने दौहित्रों के पक्ष में विवाद
युधाजिद्‌वीरसेनयोर्युद्धार्थं सज्जीभवनम्

जनमेजय बोले हे द्विज ! मैंने विष्णु द्वारा किये गये देवीयज्ञ के विषय में विस्तारपूर्वक सुन लिया । अब ‘आप मुझे विस्तृतरूप से भगवती की महिमा बताइये ॥ १ ॥ हे विप्रेन्द्र ! देवीका चरित्र सुनकर मैं भी वह उत्कृष्ट देवीयज्ञ अवश्य करूँगा और इस प्रकार आपकी कृपा से पवित्र हो जाऊँगा ॥ २ ॥

व्यासजी बोले — हे राजन् ! सुनिये, अब मैं भगवती के उत्तम चरित्र का वर्णन करूँगा। मैं इसके साथ-साथ विस्तृत इतिहास तथा पुराण भी कहूँगा ॥ ३ ॥ कोसलदेश में सूर्यवंश में एक महातेजस्वी श्रेष्ठ राजा उत्पन्न हुए। वे महाराज पुष्य के पुत्र थे और ध्रुवसन्धि के नाम से विख्यात थे ॥ ४ ॥ वे धर्मात्मा, सत्यनिष्ठ तथा वर्णाश्रम-धर्म की रक्षा के लिये सदा तत्पर रहते थे। पवित्र व्रतधारी वे ध्रुवसन्धि वैभवशालिनी अयोध्यानगरी में राज्य करते थे ॥ ५ ॥ उनके राज्य में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र, द्विजगण तथा अन्य सभी अपनी-अपनी जीविका में तत्पर रहकर धर्मपूर्वक आचरण करते थे। उनके राज्य में कहीं भी चोर, निन्दक, धूर्त, पाखण्डी, कृतघ्न तथा मूर्ख मनुष्य निवास नहीं करते थे ॥ ६-७ ॥ हे कुरुश्रेष्ठ ! इस प्रकार धर्मपूर्वक राज्य करते हुए उन राजा की रूपवती तथा आनन्दोपभोग प्रदान करने वाली दो पत्नियाँ थीं। उनकी धर्मपत्नी मनोरमा थी, जो सुन्दर रूपवाली तथा परम विदुषी थी और दूसरी पत्नी लीलावती थी; वह भी रूप तथा गुणों से सम्पन्न थी ॥ ८-९ ॥ महाराज ध्रुवसन्धि उन दोनों पत्नियों के साथ राजभवनों, उपवनों, क्रीड़ापर्वत, बावलियों तथा विभिन्न महलों में विहार करते थे ॥ १० ॥

रानी मनोरमा ने शुभ वेला में राजलक्षणों से सम्पन्न एक सुन्दर पुत्र उत्पन्न किया। उसका नाम सुदर्शन पड़ा ॥ ११ ॥ उनकी दूसरी सुन्दर पत्नी लीलावती ने भी एक माह के भीतर शुभ पक्ष तथा शुभ दिन में एक सुन्दर पुत्र को जन्म दिया ॥ १२ ॥ महाराज ध्रुवसन्धि ने उन दोनों बालकों का जातकर्म आदि संस्कार किया तथा पुत्र-जन्म से प्रमुदित एवं उल्लसित होकर उन्होंने ब्राह्मणों को नानाविध दान दिये ॥ १३ ॥ हे राजन्! महाराज ध्रुवसन्धि उन दोनों पुत्रों पर समान प्रीति रखते थे । वे उन दोनों के प्रति अपने प्रेम-भाव में कभी भी अन्तर नहीं आने देते थे ॥ १४ ॥ परम तपस्वी उन राजेन्द्र ने अपने वैभव के अनुसार बड़े हर्षोल्लासके साथ विधिपूर्वक उन दोनोंका चूडाकर्म – संस्कार किया ॥ १५ ॥ चूडाकर्म – संस्कार हो जाने पर उन दोनों बालकों ने राजा के मन को मोहित कर लिया; वे दोनों कान्तिमान् बालक खेलते समय सभी लोगों को मुग्ध कर लेते थे ॥ १६ ॥ उन दोनों में [मनोरमा का पुत्र ] सुदर्शन ज्येष्ठ था । लीलावती का शत्रुजित् नामक पुत्र अत्यन्त सुन्दर तथा मृदुभाषी था ॥ १७ ॥ उसके मधुरभाषी तथा अत्यन्त सुन्दर होने के कारण राजा उससे अधिक प्रेम करने लगे और उसी तरह से वह प्रजाजनों तथा मन्त्रियों का भी प्रियपात्र बन गया ॥ १८ ॥

शत्रुजित् के गुणों के कारण राजा का जैसा प्रेम उस पर हो गया, वैसा प्रेम सुदर्शन के प्रति नहीं था। वे सुदर्शन के प्रति मन्दभाग्य होने के कारण कम अनुराग रखने लगे ॥ १९ ॥ इस प्रकार कुछ समय बीतने पर आखेट के प्रति सदा तत्पर रहने वाले नृपश्रेष्ठ ध्रुवसन्धि आखेट के लिये वन में गये ॥ २० ॥ वे राजा ध्रुवसन्धि वन में रुरु मृगों, बनैले सूअरों, गवयों, खरगोशों, भैंसों, शरभों तथा गैंडों को मारते हुए आखेट करने लगे ॥ २१ ॥ जब महाराज उस गहन तथा महाभयंकर वन में शिकार खेल रहे थे, उसी समय महान् रोष में भरा हुआ एक सिंह झाड़ी से निकला ॥ २२ ॥ पहले तो राजा ने उसे बाण से आहत कर दिया; तब अत्यन्त कोपाविष्ट वह सिंह उन्हें अपने सामने देखकर मेघ के समान गरजने लगा ॥ २३ ॥ अपनी पूँछ खड़ी करके तथा गर्दन के लम्बे केशों को छितराकर अत्यन्त कुपित वह सिंह राजा को मारने के लिये छलाँग लगाकर उन पर झपटा ॥ २४ ॥ तब उसे देखकर राजा ने भी तत्काल अपने हाथ में तलवार धारण कर ली और बायें हाथ में ढाल लेकर दूसरे सिंह के समान खड़े हो गये ॥ २५ ॥ यह देखकर उनके जो सेवकगण थे, वे सभी अत्यन्त कुपित हो उठे और रोषपूर्वक उस सिंह पर अलग-अलग बाणों से प्रहार करने लगे ॥ २६ ॥ वहाँ महान् हाहाकार मच गया तथा भीषण प्रहार होने लगा । इसी बीच वह भयानक सिंह राजा पर टूट पड़ा ॥ २७ ॥ उसे अपने ऊपर झपटते देखकर राजा ने खड्ग से उस पर प्रहार किया । उस सिंह ने भी राजा के समीप आकर अपने भयानक तथा तीक्ष्ण नखों से राजा को क्षत-विक्षत कर डाला ॥ २८ ॥ नखों के प्रहार से आहत होकर राजा गिर पड़े और उनकी मृत्यु हो गयी। इससे सभी सैनिक और भी क्रोधित हो उठे; तब वे बाणों से सिंह पर भीषण प्रहार करने लगे । इस प्रकार राजा ध्रुवसन्धि तथा वह सिंह दोनों मर गये । तदनन्तर सैनिकों ने आकर मन्त्रिप्रवरों को यह समाचार बताया ॥ २९-३० ॥

राजा के परलोकगमन का समाचार सुनकर उन श्रेष्ठ मन्त्रियों ने उस वन में जाकर उनका दाह-संस्कार करवाया ॥ ३१ ॥ वहीं पर गुरु वसिष्ठ ने परलोक में सुख प्रदान करने वाले सभी श्राद्ध आदि पारलौकिक कृत्य विधिपूर्वक सम्पन्न करवाये ॥ ३२ ॥ तदनन्तर प्रजाजनों, मन्त्रियों तथा महामुनि वसिष्ठ ने सुदर्शन को राजा बनाने के उद्देश्य से आपस में विचार-विमर्श किया ॥ ३३ ॥ श्रेष्ठ मन्त्रियों ने कहा कि सुदर्शन महाराज की धर्मपत्नी मनोरमा के पुत्र हैं, शान्त स्वभाव वाले पुरुष हैं तथा सभी लक्षणों से सम्पन्न हैं, अतः ये राजसिंहासन के योग्य हैं ॥ ३४ ॥ गुरु वसिष्ठ भी वही बात कही कि महाराज का यह पुत्र सुदर्शन राजपद के योग्य है; क्योंकि बालक होते हुए भी धर्मपरायण राजकुमार ही राजसिंहासन का अधिकारी होता है ॥ ३५ ॥

वयोवृद्ध मन्त्रियों के द्वारा इस प्रकार विचार करने के उपरान्त यह समाचार सुनकर उज्जयिनी नरेश राजा युधाजित् शीघ्र ही वहाँ आ पहुँचे ॥ ३६ ॥ लीलावती के पिता युधाजित् अपने दामाद की मृत्यु के विषय में सुनकर अपने दौहित्र के हित की कामना से उस समय शीघ्रतापूर्वक वहाँ आये ॥ ३७ ॥ उसी समय सुदर्शन के हित-साधन के उद्देश्य से मनोरमा के पिता कलिंगाधिपति महाराज वीरसेन भी वहाँ आ गये ॥ ३८ ॥ सेनाओं से सम्पन्न तथा एक-दूसरे से भयभीत वे दोनों राजा राज्य अधिकारी का निर्णय करने के लिये प्रधान अमात्यों के साथ मन्त्रणा करने लगे ॥ ३९ ॥ युधाजित् ने पूछा कि इन दोनों राजकुमारों में ज्येष्ठ कौन है ? ज्येष्ठ ही राज्य प्राप्त करता है, कनिष्ठ कदापि नहीं ॥ ४० ॥

उसी समय वीरसेन ने भी कहा — हे राजन् ! मैंने शास्त्रविदों से ऐसा सुना है कि धर्मपत्नी का पुत्र ही राज्य का अधिकारी माना जाता है ॥ ४१ ॥ युधाजित् ने पुन: कहा कि यह शत्रुजित् गुणों के कारण ज्येष्ठ है। यह सुदर्शन राजोचित चिह्नों से युक्त होते हुए भी वैसा नहीं है ॥ ४२ ॥ अपने-अपने स्वार्थ के वशीभूत उन दोनों राजाओं में वहाँ विवाद होने लगा। अब उस महासंकट की परिस्थिति में उनके सन्देह का समाधान करने में कौन समर्थ हो सकता था ? ॥ ४३ ॥

युधाजित् ने मन्त्रियों से कहा कि आप लोग अवश्य ही स्वार्थपरायण हो गये हैं और सुदर्शन को राजा बनाकर धन का स्वयं उपभोग करना चाहते हैं ॥ ४४ ॥ मैंने आप लोगों का यह विचार तो आप सबकी भाव-भंगिमा से पहले ही जान लिया था । शत्रुजित् सुदर्शन से अधिक बलवान् है, अतः आप लोगों की सम्मति तो यह होनी चाहिये कि शत्रुजित् ही राजसिंहासन पर आसीन होने योग्य है ॥ ४५ ॥ ऐसा कौन व्यक्ति है, जो मेरे जीवित रहते गुणों बड़े तथा सेना से सुसज्जित राजकुमार को छोड़कर [गुणों में] छोटे पुत्र को राजा बना सके ॥ ४६ ॥ इसके लिये मैं निश्चितरूप से घोर संग्राम करूँगा । मेरे खड्ग की धार से पृथ्वी के भी दो टुकड़े हो सकते हैं, फिर आप लोगों की बात ही क्या ! ॥ ४७ ॥

यह सुनकर वीरसेन ने युधाजित् से कहा — हे विद्वन् ! दोनों ही बालक समान बुद्धि रखते हैं; इनमें भेद ही क्या है ? ॥ ४८ ॥ तदनन्तर उन दोनों को इस प्रकार परस्पर विवाद करते देखकर प्रजाजनों तथा ऋषियों के मन में व्यग्रता होने लगी ॥ ४९ ॥ तब एक-दूसरे को क्लेश पहुँचाने के लिये उद्यत तथा युद्ध की इच्छा वाले दोनों पक्षों के सामन्त सावधान होकर अपनी-अपनी सेनाओं के साथ वहाँ आ पहुँचे ॥ ५० ॥ उसी समय महाराज ध्रुवसन्धि की मृत्यु का समाचार सुनकर श्रृंगवेरपुर में रहनेवाले निषादगण राजकोष लूटने के लिये वहाँ आ गये। दोनों राजकुमार अभी बालक हैं तथा वे आपस में कलह कर रहे हैं यह सुनकर देश- देशान्तर के चोर-लुटेरे भी वहाँ आ गये ॥ ५१-५२ ॥ इस प्रकार वहाँ पर भारी कलह उपस्थित हो जाने पर युद्ध आरम्भ हो गया । युधाजित् तथा वीरसेन भी युद्ध के लिये उद्यत हो गये ॥ ५३ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का युधाजिद्वीरसेनयोर्युद्धार्थं सज्जीभवनं नामक चौदहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १४ ॥

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