श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-18
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-अष्टादशोऽध्यायः
अठारहवाँ अध्याय
राजकुमारी शशिकला द्वारा मन-ही-मन सुदर्शन का वरण करना, काशिराज द्वारा स्वयंवर की घोषणा, शशिकला का सखी के माध्यम से अपना निश्चय माता को बताना
शशिकलया मातरं प्रति संदेशप्रेषणम्

व्यासजी बोले उस ब्राह्मण का वचन सुनकर सुन्दरी शशिकला प्रेमविभोर हो गयी और वह ब्राह्मण इतना कहकर शान्तभाव से उस स्थान से चला गया ॥ १ ॥ उस श्रेष्ठ ब्राह्मण के चले जाने पर वह सुन्दरी पूर्व अनुराग से तथा विप्र की बातों से प्रेमातिरेक के कारण अत्यधिक अधीर हो उठी ॥ २ ॥

तदनन्तर उस शशिकला ने अपनी इच्छा के अनुसार चलने वाली एक सखी से कहा कि रस से अनभिज्ञ तथा उत्तम कुल में उत्पन्न उस राजकुमार के विषय में सुनकर मेरे शरीर में विकार उत्पन्न हो गया है। इस समय कामदेव मुझे अत्यधिक पीड़ा दे रहा है। अब मैं क्या करूँ और कहाँ जाऊँ ? ॥ ३-४ ॥ जब से मैंने स्वप्न में दूसरे कामदेव के सदृश उस राजकुमार को देखा है, तभी से विरह से आकुल हुआ मेरा कोमल मन अत्यधिक सन्तप्त हो रहा है ॥ ५ ॥ हे भामिनि ! इस समय मेरे शरीर में लगा हुआ चन्दन विष के समान, यह माला सर्प के तुल्य तथा चन्द्रमा की किरणें अग्निसदृश प्रतीत हो रही हैं ॥ ६ ॥ इस समय महल में, वन में, बावली में तथा पर्वत पर कहीं भी मेरे चित्त को शान्ति नहीं मिल पा रही है। नानाविध सुख-साधनों से दिन में अथवा रात में किसी भी समय सुख की अनुभूति नहीं हो रही है ॥ ७ ॥ शय्या, ताम्बूल, गायन तथा वादन- इनमें कोई भी चीजें मेरे मन को प्रसन्न नहीं कर पा रही हैं और न तो मेरे नेत्रों को कोई भी वस्तु तृप्त ही कर पा रही है ॥ ८ ॥ [जी करता है] उसी वन में चली जाऊँ जहाँ वह निष्ठुर विद्यमान है, किंतु कुल की लज्जा के कारण भयभीत हूँ, और फिर अपने पिता के अधीन भी हूँ ॥ ९ ॥ क्या करूँ, मेरे पिता अभी मेरा स्वयंवर भी नहीं आयोजित कर रहे हैं। [यदि स्वयंवर हुआ तो ] मैं इच्छापूर्वक अपने को सुदर्शन को समर्पित कर दूँगी ॥ १० ॥ यद्यपि दूसरे सैकड़ों समृद्धिशाली नरेश हैं, परंतु वे मुझे रमणीय नहीं लगते । राज्यहीन होते हुए भी इस सुदर्शन को मैं अधिक रमणीय मानती हूँ ॥ ११ ॥

व्यासजी बोले अकेला, निर्धन, बलहीन, वनवासी तथा फल का आहार करने वाला होते हुए भी सुदर्शन उस शशिकला के हृदय में पूर्णरूप से बस गया था। भगवती के वाग्बीज-मन्त्र जप से सुदर्शन को यह सिद्धि प्राप्त हो गयी थी। वह पूर्णरूप से ध्यानमग्न होकर उस सर्वोत्तम मन्त्र का निरन्तर जप करता रहता था ॥ १२-१३ ॥ एक बार स्वप्न में सुदर्शन ने उन अव्यक्त, पूर्ण ब्रह्मस्वरूपा, जगज्जननी, विष्णुमाया तथा सभी सम्पदा प्रदान कराने वाली भगवती अम्बिका का दर्शन किया ॥ १४ ॥ उसी समय श्रृंगवेरपुर के अधिपति निषादने सुदर्शन के पास आकर उसे सब प्रकार की सामग्रियों से परिपूर्ण उत्तम रथ प्रदान किया। उस रथ में चार घोड़े जुते हुए थे और वह सुन्दर पताका से सुशोभित था । निषादराज ने राजकुमार सुदर्शन को विजयशाली समझकर उसे भेंटस्वरूप वह रथ दिया था। सुदर्शन ने भी प्रेमपूर्वक उसे स्वीकार कर लिया और मित्ररूप में आये हुए उस निषाद का वन्य फल- मूलों से भली-भाँति सत्कार किया ॥ १५-१७ ॥

तब आतिथ्य स्वीकार करके उस निषादराज के चले जाने पर वहाँ के तपस्वी मुनिगण अत्यन्त प्रसन्न होकर सुदर्शन से कहने लगे हे राजकुमार ! आप धैर्यवान् हैं; भगवती की कृपा से थोड़े ही दिनों में निश्चय ही अपना राज्य प्राप्त करेंगे; इसमें सन्देह नहीं है। हे सुव्रत ! विश्वमोहिनी और वरदायिनी भगवती अम्बिका आपके ऊपर प्रसन्न हैं। अब आपको उत्तम सहायक भी मिल गया है, आप चिन्ता न करें ॥ १८-२० ॥

तत्पश्चात् उन व्रतधारी मुनियों ने मनोरमा से कहा हे शुचिस्मिते! अब आपका पुत्र सुदर्शन शीघ्र ही भूमण्डल का राजा होगा ॥ २१ ॥

तब उस कोमलांगी मनोरमा ने उनसे कहा आप लोगों का वचन सफल हो। हे विप्रगण ! यह सुदर्शन आप लोगों का सेवक है। सच्ची उपासना से सब कुछ सम्भव हो जाता है, इसमें आश्चर्य ही क्या ? [ किंतु ] उसके पास न सेना है, न मन्त्री हैं, न कोश है और न कोई सहायक ही है। [ ऐसी दशामें] किस उपाय से मेरा पुत्र राज्य पाने के योग्य बन सकता है ? आप लोग मन्त्र के पूर्णवेत्ता हैं, अतः आप लोगों के आशीर्वचनों से मेरा यह पुत्र निश्चय ही राजा होगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २२-२४ ॥

व्यासजी बोले रथ पर सवार होकर मेधावी सुदर्शन जहाँ भी जाता था, वहाँ वह अपने तेज से एक अक्षौहिणी सेना से आवृत प्रतीत होता था । हे भूप ! यह उस बीजमन्त्र का ही प्रभाव था, दूसरा कोई कारण नहीं; क्योंकि वह सुदर्शन सर्वदा प्रसन्नतापूर्वक उसी मन्त्र का जप किया करता था ॥ २५-२६ ॥ जो मनुष्य किसी सद्गुरु से कामराज नामक अद्भुत बीजमन्त्र ग्रहण करके शान्त होकर पवित्रतापूर्वक उसका जप करता है, वह अपनी सभी कामनाएँ पूर्ण कर लेता है ॥ २७ ॥ हे नृपश्रेष्ठ ! भूतल पर अथवा स्वर्ग में भी कोई ऐसा अत्यन्त दुर्लभ पदार्थ नहीं है, जो कल्याणकारिणी भगवती के प्रसन्न होने पर न मिल सके ॥ २८ ॥ वे महान् मूर्ख, भाग्यहीन तथा रोगों से व्यथित होते हैं, जिनके मन में जगदम्बा के अर्चन आदि में विश्वास नहीं होता ॥ २९ ॥ हे कुरुनन्दन ! जो भगवती युग के आदि में सब देवताओं की माता कही गयी थीं, इसी कारण आदिमाता इस नाम से विख्यात हैं; वे ही बुद्धि, कीर्ति, धृति, लक्ष्मी, शक्ति, श्रद्धा, मति और स्मृति आदि रूपों से समस्त प्राणियों में प्रत्यक्ष दिखायी देती हैं ॥ ३०-३१ ॥

जो लोग माया से मोहित हैं, वे उन्हें नहीं जान पाते। कुतर्क करने वाले मनुष्य उन भुवनेश्वरी भगवती शिवा का भजन नहीं करते ॥ ३२ ॥ ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इन्द्र, वरुण, यम, वायु, अग्नि, कुबेर, त्वष्टा, पूषा, दोनों अश्विनीकुमार, भग, आदित्य, वसु, रुद्र, विश्वेदेव एवं मरुद्गण ये सभी देवता सृष्टि, पालन तथा संहार करने वाली उन भगवती का ध्यान करते हैं ॥ ३३-३४ ॥ कौन ऐसा विद्वान् है, जो उन परमात्मिका शक्ति की आराधना न करता हो ? सुदर्शन ने सभी कामनाओं को पूर्ण करनेवाली उन्हीं कल्याणकारिणी भगवती को जान लिया था ॥ ३५ ॥ वे विद्या तथा अविद्यास्वरूपा भगवती ही ब्रह्म हैं और अत्यन्त दुष्प्राप्य हैं। वे पराशक्ति योग द्वारा ही अनुभवगम्य हैं और मोक्ष चाहने वाले लोगों को विशेष प्रिय हैं ॥ ३६ ॥ उन भगवती के बिना परमात्मा का स्वरूप जानने में कौन समर्थ है ? जो तीन प्रकार की सृष्टि करके सर्वात्मा भगवान्‌ को दिखलाती हैं, उन्हीं भगवती का मन से सम्यक् चिन्तन करता हुआ राजकुमार सुदर्शन राज्य – प्राप्ति से भी अधिक सुख का अनुभव करके वन में रहता था ॥ ३७-३८ ॥

उधर, वह शशिकला भी काम से निरन्तर अत्यधिक पीड़ित रहती हुई नानाविध उपचारों से किसी प्रकार अपना दुःखित शरीर धारण किये हुए थी ॥ ३९ ॥ इसी बीच उसके पिता सुबाहु ने कन्या शशिकला को वर की अभिलाषिणी जानकर बड़ी सावधानी के साथ स्वयंवर आयोजित कराया ॥ ४० ॥ विद्वानों ने स्वयंवर के तीन प्रकार बताये हैं। वह क्षत्रिय राजाओं के विवाह हेतु उचित कहा गया है, अन्य के लिये नहीं। उनमें प्रथम इच्छास्वयंवर है, जिसमें कन्या अपने इच्छानुसार पति स्वीकार करती है। दूसरा पणस्वयंवर है, जिसमें किसी प्रकार का पण (शर्त) रखा जाता है। जैसे भगवान् श्रीराम ने [ जानकी के स्वयंवर में] शिवधनुष तोड़ा था। तीसरा स्वयंवर शौर्यशुल्क है, जो शूरवीरों के लिये कहा गया है। नृपश्रेष्ठ सुबाहु ने उनमें इच्छास्वयंवर का आयोजन किया ॥ ४१-४३ ॥ शिल्पियों द्वारा बहुत से मंच बनवाये गये और उन पर सुन्दर आसन बिछाये गये। तत्पश्चात् राजाओं के बैठने योग्य विविध आकार-प्रकार के सभामण्डप बनवाये गये ॥ ४४ ॥

इस प्रकार विवाह के लिये सम्पूर्ण सामग्री जुट जाने पर सुन्दर नेत्रोंवाली शशिकला ने दुःखित होकर अपनी सखी से कहा एकान्त में जाकर तुम मेरी माता से मेरा यह वचन कह दो कि मैंने अपने मन में ध्रुवसन्धि के सुन्दर पुत्र का पतिरूप में वरण कर लिया है। उन सुदर्शन के अतिरिक्त मैं किसी दूसरे को पति नहीं बनाऊँगी; क्योंकि स्वयं भगवती ने राजकुमार सुदर्शन को मेरा पति निश्चित कर दिया है ॥ ४५-४७ ॥

व्यासजी बोले उसके ऐसा कहने पर उस मृदुभाषिणी सखी ने शशिकला की माता विदर्भसुता के पास शीघ्र जाकर एकान्त में उनसे मधुर वाणी में कहा ‘हे साध्वि ! आपकी पुत्री ने अत्यन्त दुःखित होकर मेरे मुख से आपको जो कहलाया है, उसे आप सुन लें और हे कल्याणि ! इस समय शीघ्र ही उसका हित साधन करें’। [उसका कथन है कि ] भारद्वाजमुनि के आश्रम में जो ध्रुवसन्धिके पुत्र सुदर्शन रहते हैं, उनका मैं अपने मन में पतिरूप में वरण कर चुकी हूँ। अतः मैं किसी दूसरे राजा का वरण नहीं करूँगी ॥ ४८-५० ॥

व्यासजी बोले वह वचन सुनकर रानी ने राजा के आने पर पुत्री की सारी बातें ज्यों-की-त्यों उनको बतायीं ॥ ५१ ॥ उसे सुनकर राजा सुबाहु आश्चर्य में पड़ गये और बार-बार मुसकराते हुए वे अपनी भार्या विदर्भराजकुमारी से यथार्थ बात कहने लगे ॥ ५२ ॥ हे सुभ्रु ! तुम तो यह जानती ही हो कि वह बालक राज्य से निकाल दिया गया है और निर्जन वन में अकेले ही अपनी माता के साथ रहता है। उसी के लिये राजा वीरसेन युधाजित् के द्वारा मार डाले गये । हे सुनयने ! वह निर्धन योग्य पति कैसे हो सकता है ? ॥ ५३-५४ ॥ तुम यह बात पुत्री शशिकला से कह दो कि बड़े- से-बड़े प्रतिष्ठित राजा इस स्वयंवर में आने वाले हैं। अतः उनके प्रति ऐसी अप्रिय बात वह कभी भी न बोले ॥ ५५ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवतमहापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘शशिकला के द्वारा माता के प्रति सन्देश – प्रेषण’ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण
तृतीयः स्कन्धः अष्टादशोऽध्यायः
शशिकलया मातरं प्रति संदेशप्रेषणम्

॥ व्यास उवाच ॥
श्रुत्वा तद्वचनं श्यामा प्रेमयुक्ता बभूव ह ।
प्रतस्थे ब्राह्मणस्तस्मात्स्थानादुक्त्वा समाहितः ॥ १ ॥
सा तु पूर्वानुरागाद्वै मग्ना प्रेम्णाऽतिचञ्चला ।
कामबाणहतेवास गते तस्मिन्द्विजोत्तमे ॥ २ ॥
अथ कामार्दिता प्राह सखीं छन्दोऽनुवर्तिनीम् ।
विकारश्‍च समुत्पन्नो देहे यच्छ्रवणादनु ॥ ३ ॥
अज्ञातरसविज्ञानं कुमारं कुलसम्भवम् ।
दुनोति मदनः पापः किं करोमि क्व यामि च ॥ ४ ॥
स्वप्नेषु वा मया दृष्टः पञ्चबाण इवापरः ।
तपते मे मनोऽत्यर्थं विरहाकुलितं मृदु ॥ ५ ॥
चन्दनं देहलग्नं मे विषवद्‌भाति भामिनि ।
स्रगियं सर्पवच्चैव चन्द्रपादाश्‍च वह्निवत् ॥ ६ ॥
न च हर्म्ये वने शं मे दीर्घिकायां न पर्वते ।
न दिवा न निशायां वा न सुखं सुखसाधनैः ॥ ७ ॥
न शय्या न च ताम्बूलं न गीतं न च वादनम् ।
प्रीणयन्ति मनो मेऽद्य न तृप्ते मम लोचने ॥ ८ ॥
प्रयाम्यद्य वने तत्र यत्रासौ वर्तते शठः ।
भीतास्मि कुललज्जायाः परतन्त्रा पितुस्तथा ॥ ९ ॥
स्वयंवरं पिता मेऽद्य न करोति करोमि किम् ।
दास्यामि राजपुत्राय कामं सुदर्शनाय वै ॥ १० ॥
सन्त्यन्ये पृथिवीपालाः शतशः सम्भृतर्द्धयः ।
रमणीया न मे तेऽद्य राज्यहीनोऽप्यसौ मतः ॥ ११ ॥
॥ व्यास उवाच ॥
एकाकी निर्धनश्‍चैव बलहीनः सुदर्शनः ।
वनवासी फलाहारस्तस्याश्‍चित्ते सुसंस्थिता ॥ १२ ॥
वाग्बीजस्य जपात्सिद्धिस्तस्या एषाप्युपस्थिता ।
सोपि ध्यानपरोऽत्यन्तं जजाप मन्त्रमुत्तमम् ॥ १३ ॥
स्वप्ने पश्यत्यसौ देवीं विष्णुमायामखण्डिताम् ।
विश्‍वमातरमव्यक्तां सर्वसम्पत्कराम्बिकाम् ॥ १४ ॥
शृङ्गवेरपुराध्यक्षो निषादः समुपेत्य तम् ।
ददौ रथवरं तस्मै सर्वोपस्करसंयुतम् ॥ १५ ॥
चतुर्भिस्तुरगैर्युक्तं पताकावरमण्डितम् ।
जैत्रं राजसुतं ज्ञात्वा ददौ चोपायनं तदा ॥ १६ ॥
सोऽपि जग्राह तं प्रीत्या मित्रत्वेन सुसंस्थितम् ।
वन्यैर्मूलफलैः सम्यगर्चयामास शम्बरम् ॥ १७ ॥
कृतातिथ्ये गते तस्मिन्निषादाधिपतौ तदा ।
मुनयः प्रीतियुक्तास्ते तमूचुस्तापसा मिथः ॥ १८ ॥
राजपुत्र ध्रुवं राज्यं प्राप्स्यसि त्वं च सर्वथा ।
स्वल्पैरहोभिरव्यग्रः प्रतापान्नात्र संशयः ॥ १९ ॥
प्रसन्ना तेऽम्बिका देवी वरदा विश्‍वमोहिनी ।
सहायस्तु सुसम्पन्नो न चिन्तां कुरु सुव्रत ॥ २० ॥
मनोरमां तथोचुस्ते मुनयः संशितव्रताः ।
पुत्रस्तेऽद्य धराधीशो भविष्यति शुचिस्मिते ॥ २१ ॥
सा तानुवाच तन्वङ्गी वचनं वोऽस्तु सत्फलम् ।
दासोऽयं भवतां विप्राः किं चित्रं सदुपासनात् ॥ २२ ॥
न सैन्यं सचिवाः कोशो न सहायश्‍च कश्‍चन ।
केन योगेन पुत्रो मे राज्यं प्राप्तुमिहार्हति ॥ २३ ॥
आशीर्वादैश्‍च वो नूनं पुत्रोऽयं मे महीपतिः ।
भविष्यति न सन्देहो भवन्तो मन्त्रवित्तमाः ॥ २४ ॥
॥ व्यास उवाच ॥
रथारूढः स मेधावी यत्र याति सुदर्शनः ।
अक्षौहिणीसमावृत्त इवाभाति स तेजसा ॥ २५ ॥
प्रतापो मन्त्रबीजस्य नान्यः कश्‍चन भूपते ।
एवं वै जपतस्तस्य प्रीतियुक्तस्य सर्वथा ॥ २६ ॥
सम्प्राप्य सद्‌गुरोर्बीजं कामराजाख्यमद्‌भुतम् ।
जपेद्यस्तु शुचिः शान्तः सर्वान्कामानवाप्नुयात् ॥ २७ ॥
न तदस्ति पृथिव्यां वा दिवि वापि सुदुर्लभम् ।
प्रसन्नायाः शिवायाश्‍च यदप्राप्यं नृपोत्तम ॥ २८ ॥
ते मन्दास्तेऽतिदुर्भाग्या रोगैस्ते समभिद्रुताः ।
येषां चित्ते न विश्‍वासो भवेदम्बार्चनादिषु ॥ २९ ॥
या माता सर्वदेवानां युगादौ परिकीर्तिता ।
आदिमातेति विख्याता नाम्ना तेन कुरूद्वह ॥ ३० ॥
बुद्धिः कीर्तिर्धृतिर्लक्ष्मीः शक्तिः श्रद्धा मतिः स्मृतिः ।
सर्वेषां प्राणिनां सा वै प्रत्यक्षं वै विभासते ॥ ३१ ॥
न जानन्ति नरा ये वै मोहिता मायया किल ।
न भजन्ति कुतर्कज्ञा देवीं विश्‍वेश्‍वरीं शिवाम् ॥ ३२ ॥
ब्रह्मा विष्णुस्तथा शम्भुर्वासवो वरुणो यमः ।
वायुरग्निः कुबेरश्च त्वष्टा पूषाश्विनौ भगः ॥ ३३ ॥
आदित्या वसवो रुद्रा विश्‍वेदेवा मरुद्‌गणाः ।
सर्वे ध्यायन्ति तां देवीं सृष्टिस्थित्यन्तकारिणीम् ॥ ३४ ॥
को न सेवेत विद्वान्वै तां शक्तिं परमात्मिकाम् ।
सुदर्शनेन सा ज्ञाता देवी सर्वार्थदा शिवा ॥ ३५ ॥
ब्रह्मैव साऽतिदुष्प्राप्या विद्याविद्यास्वरूपिणी ।
योगगम्या परा शक्तिर्मुमुक्षूणां च वल्लभा ॥ ३६ ॥
परमात्मस्वरूपं को वेत्तुमर्हति तां विना ।
या सृष्टिं त्रिविधां कृत्वा दर्शयत्यखिलात्मने ॥ ३७ ॥
सुदर्शनस्तु तां देवीं मनसा परिचिन्तयन् ।
राज्यलाभात्परं प्राप्य सुखं वै कानने स्थितः ॥ ३८ ॥
सापि चन्द्रकलात्यर्थं कामबाणप्रपीडिता ।
नानोपचारैरनिशं दधार दुःखितं वपुः ॥ ३९ ॥
तावत्तस्याः पिता ज्ञात्वा कन्यां पुत्रवरार्थिनीम् ।
सुबाहुः कारयामास स्वयंवरमतन्द्रितः ॥ ४० ॥
स्वयंवरस्तु त्रिविधो विद्वद्‌भिः परिकीर्तितः ।
राज्ञां विवाहयोग्यौ वै नान्येषां कथितः किल ॥ ४१ ॥
इच्छास्वयंवरश्‍चैको द्वितीयश्‍च पणाभिधः ।
यथा रामेण भग्नं वै त्र्यम्बकस्य शरासनम् ॥ ४२ ॥
तृतीयः शौर्यशुल्कश्‍च शूराणां परिकीर्तितः ।
इच्छास्वयंवरं तत्र चकार नृपसत्तमः ॥ ४३ ॥
शिल्पिभिः कारिता मञ्चाः शुभैरास्तरणैर्युताः ।
ततश्च विविधाकाराः सु्क्लृप्ताः सभ्यमण्डपाः ॥ ४४ ॥
एवं कृतेऽतिसम्भारे विवाहार्थं सुविस्तरे ।
सखीं शशिकला प्राह दुःखिता चारुलोचना ॥ ४५ ॥
इदं मे मातरं ब्रूहि त्वमेकान्ते वचो मम ।
मया वृतः पतिश्चित्ते ध्रुवसन्धिसुतः शुभः ॥ ४६ ॥
नान्यं वरं वरिष्यामि तमृते वै सुदर्शनम् ।
स मे भर्ता नृपसुतो भगवत्या प्रतिष्ठितः ॥ ४७ ॥
॥ व्यास उवाच ॥
इत्युक्ता सा सखी गत्वा मातरं प्राह सत्वरा ।
वैदर्भीं विजने वाक्यं मधुरं मञ्जुभाषिणी ॥ ४८ ॥
पुत्री ते दुःखिता प्राह साध्वी त्वां मन्मुखेन यत् ।
शृणु त्वं कुरु कल्याणि तद्धितं त्वरिताऽधुना ॥ ४९ ॥
भारद्वाजाश्रमे पुण्य़े ध्रुवसन्धिसुतोऽस्ति यः ।
स मे भर्ता वृतश्‍चित्ते नान्यं भूपं वृणोम्यहम् ॥ ५० ॥
॥ व्यास उवाच ॥
राज्ञी तद्वचनं श्रुत्वा स्वपतौ गृहमागते ।
निवेदयामास तदा पुत्रीवाक्यं यथातथम् ॥ ५१ ॥
तच्छ्रुत्वा वचनं राजा विस्मितः प्रहसन्मुहुः ।
भार्यामुवाच वैदर्भीं सुबाहुस्तु ऋतं वचः ॥ ५२ ॥
सुभ्रु जानासि बालोऽसौ राज्यान्निष्कासितो वने ।
एकाकी सह मात्रा वै वसते निर्जने वने ॥ ५३ ॥
तत्कृते निहतो राजा वीरसेनो युधाजिता ।
स कथं निर्धनो भर्ता योग्यः स्याच्चारुलोचने ॥ ५४ ॥
ब्रूहि पुत्रीं ततो वाक्यं कदाचिदपि विप्रियम् ।
आगमिष्यन्ति राजानः स्थितिमन्तः स्वयंवरे ॥ ५५ ॥
॥ इति श्रीमद्देवीभागवते महापुराणेऽष्टादशसाहस्र्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे शशिकलया मातरं प्रति संदेशप्रेषणं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

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