श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-तृतीयः स्कन्धः-अध्याय-20
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-तृतीयः स्कन्धः-विंशोऽध्यायः
बीसवाँ अध्याय
राजाओं का सुदर्शन से स्वयंवर में आने का कारण पूछना और सुदर्शन का उन्हें स्वप्न में भगवती द्वारा दिया गया आदेश बताना, राजा सुबाहु का शशिकला को समझाना, परंतु उसका अपने निश्चय पर दृढ़ रहना
स्वपितरं प्रति शशिकलावाक्यम्

व्यासजी बोले — हे महाभाग ! तब महाराज केरल-नरेश के ऐसा कहने पर राजा युधाजित् ने कहा — ॥ १ ॥

हे पृथ्वीपते ! आपने अभी-अभी जो कहा है, क्या यही नीति है ? राजाओं के समाज में आप तो सत्यवादी तथा जितेन्द्रिय माने जाते हैं ॥ २ ॥ हे कुलोद्वह! हे राजन् ! योग्य राजाओं के रहते हुए एक अयोग्य व्यक्ति कन्यारत्न को प्राप्त कर ले, क्या यही न्याय आपको अच्छा लगता है ? ॥ ३ ॥ एक सियार सिंह के भाग को खाने का अधिकारी कैसे हो सकता है? उसी प्रकार क्या यह सुदर्शन इस कन्यारत्न को पाने की योग्यता रखता है ? ॥ ४ ॥ ब्राह्मणों का बल वेद है और राजाओं का बल धनुष । हे महाराज ! क्या मैं इस समय अन्यायपूर्ण बात कह रहा हूँ? ॥ ५ ॥ राजाओं के विवाह में बल को ही शुल्क कहा गया है। यहाँ जो भी बलशाली हो, वह कन्यारत्न को प्राप्त कर ले; बलहीन इसे कदापि नहीं पा सकता ॥ ६ ॥ अतएव कन्या के लिये कोई शर्त निर्धारित करके ही राजकुमारी का विवाह हो — यही नीति इस अवसर पर अपनायी जानी चाहिये; अन्यथा राजाओं में परस्पर घोर कलह की स्थिति उत्पन्न हो जायगी ॥ ७ ॥

इस प्रकार वहाँ राजाओं में परस्पर विवाद उत्पन्न हो जाने पर नृपश्रेष्ठ सुबाहु सभा में बुलाये गये ॥ ८ ॥

उन्हें बुलवाकर तत्त्वदर्शी राजाओं ने उनसे कहा — हे राजन् ! इस विवाह में आप राजोचित नीति का अनुसरण करें । हे राजन्! आप क्या करना चाहते हैं, उसे सावधान होकर बतायें। हे नृप! आप अपने मन से इस कन्या को किसे प्रदान करना पसन्द करते हैं ? ॥ ९-१० ॥

सुबाहु बोले — मेरी पुत्री ने मन-ही-मन सुदर्शन का वरण कर लिया है। इसके लिये मैंने उसे बहुत रोका, किंतु वह मेरी बात नहीं मानती। मैं क्या करूँ? मेरी पुत्री का मन वश में नहीं है और यह सुदर्शन भी निर्भीक होकर यहाँ अकेले आ गया है ॥ ११-१२ ॥

व्यासजी बोले — तत्पश्चात् सभी वैभवशाली राजाओं ने सुदर्शन को बुलवाया। उस शान्तस्वभाव सुदर्शन से राजाओं ने सावधान होकर पूछा

हे राजपुत्र ! हे महाभाग ! हे सुव्रत ! तुम्हें यहाँ किसने बुलाया है, जो तुम इस राजसमाज में अकेले ही चले आये हो ? ॥ १३-१४ ॥ तुम्हारे पास न सेना है, न मन्त्री हैं, न कोश है और न अधिक बल ही है। हे महामते ! तुम यहाँ किसलिये आये हो? उसे बताओ ॥ १५ ॥ युद्ध की अभिलाषा रखने वाले बहुत से राजागण इस कन्या को प्राप्त करने की इच्छा से अपनी-अपनी सेनासहित इस समाज में विद्यमान हैं। यहाँ तुम क्या करना चाहते हो ? ॥ १६ ॥ तुम्हारा शूरवीर भाई शत्रुजित् भी एक महान् सेना के साथ राजकुमारी को प्राप्त करने की इच्छा से यहाँ आया हुआ है और उसकी सहायता करने के लिये महाबाहु युधाजित् भी आये हैं ॥ १७ ॥ हे राजेन्द्र ! तुम जाओ अथवा रहो। हमने तो सारी वास्तविकता तुम्हें बतला दी; क्योंकि तुम सेना- विहीन हो । हे सुव्रत ! अब तुम्हारी जो इच्छा हो, वह करो ॥ १८ ॥

सुदर्शन बोला — मेरे पास न सेना है, न कोई सहायक है, न खजाना है, न सुरक्षित किला है, न मित्र हैं, न सुहृद् हैं तथा न तो मेरी रक्षा करने वाले कोई राजा ही हैं ॥ १९ ॥ यहाँ पर स्वयंवर होने का समाचार सुनकर उसे देखने के लिये मैं यहाँ आया हूँ। देवी भगवती ने स्वप्न में मुझे यहाँ आने की प्रेरणा दी है; इसमें सन्देह नहीं है ॥ २० ॥ मेरी अन्य कोई अभिलाषा नहीं है। मुझे यहाँ आने के लिये जगज्जननी भगवती ने आदेश दिया है। उन्होंने जो विधान रच दिया होगा, वह होकर ही रहेगा; इसमें कोई संशय नहीं है ॥ २१ ॥ हे राजागण ! इस संसार में मेरा कोई शत्रु नहीं है। मैं सर्वत्र भवानी जगदम्बा को विराजमान देख रहा हूँ ॥ २२ ॥ हे राजकुमारो ! जो कोई भी प्राणी मुझसे शत्रुता करेगा, उसे महाविद्या जगदम्बा दण्डित करेंगी; मैं तो वैर भाव जानता ही नहीं ॥ २३ ॥ हे श्रेष्ठ राजाओ ! जो होना है, वह अवश्य ही होगा; उसके विपरीत कुछ भी नहीं हो सकता । अतः इस विषय में क्या चिन्ता की जाय ? मैं तो सदा प्रारब्ध पर भरोसा करता हूँ ? ॥ २४ ॥ हे श्रेष्ठ राजाओ ! देवताओं, दानवों, मनुष्यों तथा सभी प्राणियों में एकमात्र जगदम्बा की शक्ति ही विद्यमान है । उनके अतिरिक्त दूसरा कोई नहीं है ॥ २५ ॥ हे महाराजाओ! वे जिस मनुष्य को राजा बनाना चाहती हैं, उसे राजा बना देती हैं और जिसे निर्धन बनाना चाहती हैं, उसे निर्धन बना देती हैं; तब मुझे किस बात की चिन्ता ? ॥ २६ ॥ हे राजाओ ! ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि देवता भी उन महाशक्ति के बिना हिलने-डुलने में भी समर्थ नहीं हैं, तब मुझे क्या चिन्ता ? ॥ २७ ॥ मैं शक्तिसम्पन्न हूँ या शक्तिहीन, जैसा भी हूँ वैसा आपके समक्ष हूँ । हे राजाओ ! मैं उन्हीं भगवती की आज्ञा से ही इस स्वयंवर में आया हुआ हूँ ॥ २८ ॥ वे भगवती जो चाहेंगीं, सो करेंगीं। मेरे सोचने से क्या होगा ? मैं यह सत्य कह रहा हूँ, इस विषय में शंका नहीं करनी चाहिये ॥ २९ ॥ हे राजाओ! जय अथवा पराजय में मुझे अणुमात्र भी लज्जा नहीं है। लज्जा तो उन भगवती को होगी; क्योंकि मैं तो सर्वथा उन्हीं के अधीन हूँ ॥ ३० ॥

व्यासजी बोले — [ हे राजन्!] उस सुदर्शन की यह बात सुनकर सभी श्रेष्ठ राजागण उसके निश्चय को जान गये और एक-दूसरे को देखकर उन राजाओं ने सुदर्शन से कहा

हे साधो ! आपने सत्य कहा है, आपका कथन कभी मिथ्या नहीं हो सकता। तथापि उज्जयिनीपति महाराज युधाजित् आपको मार डालना चाहते हैं । हे महामते ! हमें आपके ऊपर दया आ रही है, इसीलिये हमने आपको यह सब बता दिया। हे अनघ ! अब आपको जो उचित जान पड़े, वैसा मन से खूब सोच-समझकर कीजिये ॥ ३१-३३ ॥

सुदर्शन बोला — आप सब बड़े कृपालु एवं सहृदय-जनों ने सत्य ही कहा है, किंतु हे श्रेष्ठ राजागण ! अब मैं अपनी पूर्वकथित बात फिर से क्या दोहराऊँ ! ॥ ३४ ॥ किसी की भी मृत्यु किसी से भी कभी भी नहीं हो सकती; क्योंकि यह सम्पूर्ण चराचर जगत् तो दैव के अधीन है ॥ ३५ ॥ यह जीव भी स्वयं अपने वश में नहीं है; यह सदा अपने कर्म के अधीन रहता है। तत्त्वदर्शी विद्वानों ने उस कर्म के तीन प्रकार बतलाये हैं संचित, वर्तमान तथा प्रारब्ध। यह सम्पूर्ण जगत् काल, कर्म तथा स्वभाव से व्याप्त है ॥ ३६-३७ ॥ बिना काल के आये देवता भी किसी मनुष्य को मारने में समर्थ नहीं हो सकते। किसी को भी मारने वाला तो निमित्तमात्र होता है; वास्तविकता यह है कि सभी को अविनाशी काल ही मारता है ॥ ३८ ॥ जैसे शत्रुओं का शमन करने वाले मेरे पिता को सिंह ने मार डाला। वैसे ही मेरे नाना को भी युद्ध में युधाजित् ने मार डाला ॥ ३९ ॥ प्रारब्ध पूरा हो जाने पर करोड़ों प्रयत्न करने पर भी अन्ततः मनुष्य मर ही जाता है और दैव के अनुकूल रहने पर बिना किसी रक्षा के ही वह हजारों वर्षों तक जीवित रहता है ॥ ४० ॥

हे धर्मनिष्ठ राजाओ ! मैं युधाजित् से कभी नहीं डरता। मैं दैव को ही सर्वोपरि मानकर पूर्णरूप से निश्चिन्त रहता हूँ ॥ ४१ ॥ मैं नित्य निरन्तर भगवती का स्मरण करता रहता हूँ । विश्व की जननी वे भगवती ही कल्याण करेंगी ॥ ४२ ॥ पूर्वजन्म में किये गये शुभ अथवा अशुभ कर्मों का फल प्राणी को भोगना ही पड़ता है; तो फिर अपने द्वारा किये गये कर्म का फल भोगने में विवेकी पुरुषों को शोक कैसा ? ॥ ४३ ॥ अपने द्वारा उपार्जित कर्मफल भोगने में दुःख प्राप्त होने के कारण अज्ञानी तथा अल्पबुद्धि वाला प्राणी निमित्त कारण के प्रति शत्रुता करने लगता है ॥ ४४ ॥ उनकी भाँति मैं वैर, शोक तथा भय को नहीं जानता । अतः मैं राजाओं के इस समाज में भयरहित होकर आया हुआ हूँ ॥ ४५ ॥ जो होना है, वह तो होकर ही रहेगा। मैं तो भगवती के आदेश से इस उत्कृष्ट स्वयंवर को देखने की अभिलाषा से यहाँ अकेला ही आया हूँ ॥ ४६ ॥ मैं भगवती के वचन को ही प्रमाण मानता हूँ और उनकी आज्ञा के अधीन रहता हुआ मैं अन्य किसी को नहीं जानता। उन्होंने सुख-दुःख का जो विधान कर दिया है, वही प्राप्त होगा, इसके अतिरिक्त अन्य कुछ नहीं ॥ ४७ ॥ हे श्रेष्ठ राजाओ ! युधाजित् सुखी रहें। मेरे मन में उनके प्रति वैरभाव नहीं है। जो मुझसे शत्रुता करेगा, वह उसका फल पायेगा ॥ ४८ ॥

व्यासजी बोले — उस सुदर्शन के इस प्रकार कहने पर वहाँ उपस्थित सभी राजा अत्यन्त प्रसन्न हो गये। वह भी अपने निवास में आकर शान्तभाव से बैठ गया ॥ ४९ ॥ तदनन्तर दूसरे दिन शुभ मुहूर्त में राजा सुबाहु ने अपने भव्य मण्डप में सभी राजाओं को बुलाया ॥ ५० ॥ उस मण्डप में दिव्य आसनों से सुशोभित पूर्णरूप से सजाये गये मंचों पर मनोहारी आभूषणों से अलंकृत राजागण विराजमान हुए ॥ ५१ ॥ स्वयंवर देखने की इच्छा से वहाँ मंचों पर विराजमान वे दिव्य वेषधारी देदीप्यमान राजागण विमान पर बैठे हुए देवताओं की भाँति प्रतीत हो रहे थे ॥ ५२ ॥ सभी राजा इस बात के लिये बहुत चिन्तित थे कि वह राजकुमारी कब आयेगी और किस पुण्यवान् तथा भाग्यशाली श्रेष्ठ नरेश का वरण करेगी ? ॥ ५३ ॥ संयोगवश यदि राजकुमारी ने सुदर्शन के गले में माला डाल दी तो राजाओं में परस्पर कलह होने लगेगा; इसमें सन्देह नहीं है ॥ ५४ ॥ मंचों पर विराजमान राजा लोग ऐसा सोच ही रहे थे तभी राजा सुबाहु के भवन में वाद्यों की ध्वनि होने लगी ॥ ५५ ॥ तत्पश्चात् स्नान करके भलीभाँति अलंकृत, मधूक पुष्प की माला धारण किये, रेशमी वस्त्र से सुशोभित, विवाह के अवसर पर धारणीय सभी पदार्थों से युक्त, लक्ष्मी के सदृश दिव्य स्वरूपवाली, चिन्तामग्न तथा सुन्दर वस्त्रों वाली शशिकला से मुसकराकर महाराज सुबाहु ने यह वचन कहा ॥ ५६-५७ ॥

हे सुन्दर नासिकावाली पुत्रि ! उठो और हाथ में यह सुन्दर माला लेकर मण्डप में चलो और वहाँ पर विराजमान राजाओं के समुदाय को देखो ॥ ५८ ॥ हे सुमध्यमे ! उन राजाओं में जो गुणसम्पन्न, रूपवान् और उत्तम कुल में उत्पन्न श्रेष्ठ राजा तुम्हारे मन में बस जाय, उसका वरण कर लो ॥ ५९ ॥ देश-देशान्तर के सभी राजागण सम्यक् रूप से सजाये गये मंचों पर विराजमान हैं। हे तन्वंगि! इन्हें देखो और अपनी इच्छा के अनुसार वरण कर लो ॥ ६० ॥

व्यासजी बोले — तब ऐसा कहते हुए अपने पिता से मितभाषिणी उस कन्या शशिकला ने लालित्यपूर्ण एवं धर्मसंगत बात कही ॥ ६१ ॥

शशिकला बोली — हे पिताजी! मैं इन राजाओं के सम्मुख बिलकुल नहीं जाऊँगी। ऐसे कामासक्त राजाओं के सामने अन्य प्रकार की स्त्रियाँ ही जाती हैं ॥ ६२ ॥ हे तात! मैंने धर्मशास्त्रों में यह वचन सुना है कि नारी को एक ही वर पर दृष्टि डालनी चाहिये, किसी दूसरे पर नहीं ॥ ६३ ॥ जो स्त्री अनेक पुरुषों के समक्ष उपस्थित होती है, उसका सतीत्व विनष्ट हो जाता है; क्योंकि उसे देखकर वे सभी अपने मन में यही संकल्प कर लेते हैं कि यह स्त्री किसी तरह से मेरी हो जाय ॥ ६४ ॥ कोई स्त्री अपने हाथ में जयमाल लेकर जब स्वयंवर-मण्डप में आती है तो वह एक साधारण स्त्री हो जाती है और उस समय वह एक व्यभिचारिणी स्त्री की भाँति प्रतीत होती है ॥ ६५ ॥ जिस प्रकार एक वारांगना बाजार में जाकर वहाँ स्थित पुरुषों को देखकर अपने मन में उनके गुण-दोषों का आकलन करती है और जैसे अनेक प्रकार के चंचल भावों से युक्त वह वेश्या किसी कामी पुरुष को बिना किसी प्रयोजन के व्यर्थ ही देखती रहती है, उसी प्रकार स्वयंवर – मण्डप में जाकर मुझे भी उसी के सदृश व्यवहार करना पड़ेगा ॥ ६६-६७ ॥ इस समय मैं अपने कुल के वृद्धजनों द्वारा स्थापित किये गये इस स्वयंवर-नियम का पालन नहीं करूँगी। मैं अपने संकल्प पर अटल रहती हुई पत्नीव्रत-धर्म का पूर्णरूप से आचरण करूँगी ॥ ६८ ॥ सामान्य कन्या स्वयंवर-मण्डप में पहुँचकर पहले अनेक संकल्प-विकल्प करने के पश्चात् अन्ततः किसी एक का वरण कर लेती है; उसके समान मैं भी पति का वरण क्यों करूँ ? ॥ ६९ ॥ हे पिताजी! मैंने पूरे मन से सुदर्शन का पहले ही वरण कर लिया है। हे महाराज ! उस सुदर्शन के अतिरिक्त मैं किसी अन्य को पति के रूप में स्वीकार नहीं कर सकती ॥ ७० ॥ हे राजन् ! यदि आप मेरा हित चाहते हैं तो किसी शुभ दिन में वैवाहिक विधि-विधान से कन्यादान करके मुझे सुदर्शन को सौंप दीजिये ॥ ७१ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत तृतीय स्कन्ध का ‘अपने पिता के प्रति शशिकला का कथन’ नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

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