April 14, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-चतुर्थ स्कन्धः-अध्याय-02 ॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥ ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ पूर्वार्द्ध-चतुर्थ: स्कन्धः-द्वितीयोऽध्यायः दूसरा अध्याय व्यासजी का जनमेजय को कर्म की प्रधानता समझाना कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणम् सूतजी बोले — हे मुनियो ! ऐसा पूछे जाने पर पुराणवेत्ता, वाणीविशारद सत्यवती – पुत्र महर्षि व्यास ने शान्त स्वभाव वाले परीक्षित् – पुत्र जनमेजय से उनके सन्देहों को दूर करने वाले वचन कहे — ॥ ११/२ ॥ व्यासजी बोले — हे राजन् ! इस विषय में क्या कहा जाय । कर्मों की बड़ी गहन गति होती है। कर्म की गति जानने में देवता भी समर्थ नहीं हैं, मानवों की क्या बात ! जब इस त्रिगुणात्मक ब्रह्माण्ड का आविर्भाव हुआ, उसी समय से कर्म के द्वारा सभी की उत्पत्ति होती आ रही है, इस विषय में सन्देह नहीं है। आदि तथा अन्त से रहित होते हुए भी समस्त जीव कर्मरूपी बीज से उत्पन्न होते हैं। वे जीव नानाविध योनियों में बार-बार पैदा होते हैं और मरते हैं। कर्म से रहित जीव का देह संयोग कदापि सम्भव नहीं है ॥ २-५ ॥ शुभ, अशुभ तथा मिश्र – इन कर्मों से यह जगत् सदा व्याप्त रहता है । तत्त्वों के ज्ञाता जो विद्वान् हैं; उन्होंने संचित,प्रारब्ध तथा वर्तमान — ये तीन प्रकार के कर्म बताये हैं। कर्मों का त्रैविध्य इस शरीर में अवश्य विद्यमान रहता है ॥ ६-७ ॥ हे राजन् ! ब्रह्मा आदि सभी देवता भी उस कर्म के वशवर्ती होते हैं। सुख, दुःख, वृद्धावस्था, मृत्यु, हर्ष, शोक, काम, क्रोध, लोभ आदि — ये सभी देहगत गुण हैं । हे राजेन्द्र ! ये दैव के अधीन होकर सभी जीवों को प्राप्त होते हैं ॥ ८-९ ॥ राग, द्वेष आदि भाव स्वर्ग में भी होते हैं और इस प्रकार ये भाव देवताओं, मनुष्यों तथा पशु-पक्षियोंमें भी विद्यमान रहते हैं ॥ १० ॥ पूर्वजन्म के किये हुए वैर तथा स्नेह के कारण ये समस्त विकार शरीर के साथ सदा ही संलग्न रहते हैं ॥ ११ ॥ समस्त जीवों की उत्पत्ति कर्म के बिना हो ही नहीं सकती है। कर्म से ही सूर्य नियमित रूप से परिभ्रमण करता है और चन्द्रमा क्षयरोग से ग्रस्त रहता है ॥ १२ ॥ अपने कर्म के प्रभाव से ही रुद्र को मुण्डों की माला धारण करनी पड़ती है; इसमें कोई सन्देह नहीं है। आदि-अन्तरहित यह कर्म ही जगत् का कारण है ॥ १३ ॥ स्थावर-जंगमात्मक यह समग्र शाश्वत विश्व उसी कर्म के प्रभाव से नियन्त्रित है। सभी मुनिगण इस कर्ममय जगत् की नित्यता तथा अनित्यता के विचार में सदा डूबे रहते हैं। फिर भी वे नहीं जान पाते कि यह जगत् नित्य है अथवा अनित्य । जब तक माया विद्यमान रहती है, तबतक यह जगत् नित्य प्रतीत होता है ॥ १४-१५ ॥ कारण की सर्वथा सत्ता रहने पर कार्य का अभाव कैसे कहा जा सकता है ? माया नित्य है और वही सर्वदा सबका कारण है ॥ १६ ॥ अतएव कर्मबीज की अनित्यता पर बुद्धिमान् पुरुषों कों सदा चिन्तन करना चाहिये। हे राजन! सम्पूर्ण जगत् कर्म के द्वारा नियन्त्रित होकर सदा परिवर्तित होता रहता है ॥ १७ ॥ हे राजेन्द्र ! यदि अमित तेजवाले भगवान् विष्णु अपनी इच्छा से जन्म लेने के लिये स्वतन्त्र होते तो वे नानाविध योनियों में, नानाविध धर्म-कर्मानुरूप युगों में तथा अनेक प्रकार की निम्न योनियों में जन्म क्यों लेते ? अनेक प्रकार के सुखभोगों और वैकुण्ठपुरी का निवास छोड़कर मल-मूत्रवाले स्थान (उदर)-में भयभीत होकर भला कौन रहना चाहेगा? फूल चुनने की क्रीड़ा, जल-विहार तथा सुखदायक आसन का परित्यागकर कौन बुद्धिमान् गर्भगृह में वास करना चाहेगा? कोमल रूई से निर्मित गद्दे तथा दिव्य शय्या कों छोड़कर गर्भ में औंधे मुँह पड़े रहना भला कौन दिद्वान् पुरुष पसन्द कर सकता है? अनेक प्रकार के भावों से युक्त गीत, वाद्य तथा नृत्य का परित्याग करके गर्भरूपी नरक में रहने का मन में विचार तक भला कौन कर सकता है ? ऐसा कौन बुद्धिमान् व्यक्ति होगा जो लक्ष्मी के अद्भुत भावों के अत्यन्त कठिनाई से त्याग करने योग्य रस को छोड़कर मल-मूत्र का रस पीने की इच्छा करेगा ? अतएव तीनों लोकों में गर्भवास से बढ़कर नरकस्वरूप अन्य कोई स्थल नहीं है। गर्भवास से भयभीत होकर मुनिलोग कठिन तपस्या करते हैं। बड़े-बड़े मनस्वी पुरुष जिस गर्भवास से डरकर राज्य तथा सुख का परित्याग करके वन में चले जाते हैं, ऐसा कौन मूर्ख होगा, जो उसके सेवन की इच्छा करेगा ॥ १८-२५१/२ ॥ गर्भ में कीड़े काटते हैं और नीचे से जठराग्नि तपाती रहती है। हे राजन्! उस समय शरीर में अतिशय दुर्गन्धयुक्त मज्जा लगी रहती है; तो फिर वहाँ कौन-सा सुख है? कारागार में रहना और बेड़ियों में बँधे रहना अच्छा है, किंतु एक क्षण के अल्पांश कालतक भी गर्भ में रहना कदापि शुभ नहीं होता। गर्भवास में जीव को अत्यधिक पीड़ा होती है; वहाँ दस महीने तक रहना पड़ता है। इसके अतिरिक्त अत्यन्त दारुण योनि-यन्त्र से बाहर आने में महान् कष्ट प्राप्त होता है। बाल्यावस्था में भी अज्ञानता तथा न बोल पाने के कारण बहुत कष्ट मिलता है। परतन्त्र तथा अत्यन्त भयभीत बालक भूख तथा प्यास की पीड़ा के कारण अशक्त रहता है। भूखे बालक को रोता हुआ देखकर माता [रोने का कारण जानने के लिये] चिन्ताग्रस्त हो उठती है और पुनः किसी बड़े रोगजनित कष्ट का अनुमान करके उसे दवा पिलाने की इच्छा करने लगती है। इस प्रकार बाल्यावस्था में अनेक प्रकार के कष्ट होते हैं, तब विवेकी पुरुष किस सुख को देखकर स्वयं जन्म लेने की इच्छा करते हैं !॥ २६-३११/२ ॥ कौन ऐसा मूर्ख होगा, जो देवताओं के साथ रहते हुए निरन्तर सुख-भोग का त्याग करके श्रमपूर्ण तथा सुखनाशक युद्ध करने की इच्छा रखेगा; हे नृपश्रेष्ठ! ब्रह्मादि सभी देवता भी अपने किये कर्मे के फलस्वरूप सुख-दुःख प्राप्त करते हैं। हे नृपोत्तम ! सभी देहधारी जीव चाहे मनुष्य, देवता या पशु-पक्षी हों, अपने-अपने किये कर्म का शुभाशुभ फल पाते हैं ॥ ३२-३४ ॥ मनुष्य तप, यज्ञ तथा दान के द्वारा इन्द्रत्व को प्राप्त हो जाता है और पुण्य क्षीण होने पर इन्द्र भी च्युत हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं ॥ ३५ ॥ रामावतार के समय देवता कर्मबन्धन के कारण वानर बने थे और कृष्णावतार में भी कृष्ण की सहायता के लिये देवता यादव बने थे ॥ ३६ ॥ इस प्रकार प्रत्येक युग में धर्म की रक्षा के लिये भगवान् विष्णु ब्रह्माजी से अत्यन्त प्रेरित होकर अनेक अवतार धारण करते हैं ॥ ३७ ॥ हे राजन्! इस प्रकार रथचक्र की भाँति विविध प्रकार की योनियों में भगवान् विष्णु के अद्भुत अवतार बार-बार होते रहते हैं ॥ ३८ ॥ महात्मा भगवान् विष्णु अपने अंशांश से पृथ्वी पर अवतार लेकर दैत्यों का वधरूपी कार्य सम्पन्न करते हैं। इसलिये अब मैं यहाँ श्रीकृष्ण के जन्म की पवित्र कथा कह रहा हूँ। वे साक्षात् भगवान् विष्णु ही यदुवंश में अवतरित हुए थे ॥ ३९-४० ॥ हे राजन्! कश्यपमुनि के अंश से प्रतापी वसुदेवजी उत्पन्न हुए थे, जो पूर्वजन्म के शापवश इस जन्म में गोपालन का काम करते थे ॥ ४१ ॥ हे महाराज ! हे पृथ्वीपते ! उन्हीं कश्यपमुनि की दो पत्नियाँ —अदिति और सुरसा ने भी शापवश पृथ्वी पर अवतार ग्रहण किया था। हे भरतश्रेष्ठ ! उन दोनों ने देवकी और रोहिणी नामक बहनों के रूप में जन्म लिया था। मैंने यह सुना है कि क्रुद्ध होकर वरुण ने उन्हें महान् शाप दिया था ॥ ४२-४३ ॥ राजा बोले — हे महामते! महर्षि कश्यप ने कौन-सा ऐसा अपराध किया था, जिसके कारण उन्हें स्त्रियोंसहित शाप मिला; इसे मुझे बताइये ॥ ४४ ॥ वैकुण्ठवासी, अविनाशी, रमापति भगवान् विष्णु को गोकुल में जन्म क्यों लेना पड़ा ?॥ ४५ ॥ सबके स्वामी, अविनाशी, देवश्रेष्ठ, युग के आदि तथा सबको धारण करने वाले साक्षात् भगवान् नारायण किसके आदेश से व्यवहार करते हैं और वे अपने स्थान को छोड़कर मानव-योनि में जन्म लेकर मनुष्यों की भाँति सब काम क्यों करते हैं; इस विषय में मुझे महान् सन्देह है ॥ ४६-४७ ॥ भगवान् विष्णु स्वयं मानव-शरीर धारण करके हीन मनुष्य-जन्म में अनेकविध लीलाएँ दिखाते हुए प्रपंच क्यों करते हैं ?॥ ४८ ॥ काम, क्रोध, अमर्ष, शोक, वैर, प्रेम, सुख, दुःख, भय, दीनता, सरलता, पाप, पुण्य, वचन, मारण, पोषण, चलन, ताप, विमर्श, आत्मश्लाघा, लोभ, दम्भ, मोह, कपट और चिन्ता — ये तथा अन्य भी नाना प्रकार के भाव मनुष्य -जन्म में विद्यमान रहते हैं ॥ ४९-५१ ॥ वे भगवान् विष्णु शाश्वत सुख का त्याग करके इन भावों से ग्रस्त मनुष्य-जन्म किसलिये धारण करते हैं ? हे मुनीश्वर! इस पृथ्वी पर मानव-जन्म पाकर कौन-सा सुख मिल जाता है? वे साक्षात् भगवान् विष्णु किस कारण से गर्भवास करते हैं ?॥ ५२-५३ ॥ गर्भवास में दुःख, जन्मग्रहण में दुःख, बाल्यावस्था में दुःख, यौवनावस्था में कामजनित दु:ख एवं गार्हस्थ्य जीवन में तो बहुत बड़ा दुःख होता है ॥ ५४ ॥ हे विप्रवर! ये अनेक कष्ट मानव-जीवन में प्राप्त होते हैं, तो फिर वे भगवान् विष्णु अवतार क्यों लेते हैं ?॥ ५० ॥ बह्ययोनि भगवान् विष्णु को रामावतार ग्रहण करके अत्यन्त दारुण वनवासकाल में घोर कष्ट प्राप्त हुआ था। उन्हें सीता-वियोग से उत्पन्न महान् दुःख प्राप्त हुआ तथा अनेक बार राक्षसों से युद्ध करना पड़ा। अन्त में महान् आत्मा वाले इन श्रीराम को पत्नी-परित्याग की असीम वेदना भी सहनी पड़ी ॥ ५६-५७ ॥ उसी प्रकार कृष्णावतार में भी बन्दीगृह में जन्म, गोकुल-गमन, गोचारण, कंस का वध और पुन: कष्टपूर्वक द्वारका के लिये प्रस्थान–इन अनेकविध सांसारिक दुःखों को भगवान् कृष्ण ने क्यों भोगा ?॥ ५८-५९ ॥ ऐसा कौन ज्ञानी व्यक्ति होगा जो मुक्त होता हुआ भी स्वेच्छा से इन दु:खों की प्रतीक्षा करेगा? हे सर्वज्ञ! मेरे मन की शान्ति के लिये सन्देह का निवारण कीजिये ॥ ६० ॥ ॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकोंवाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत चतुर्थ स्कन्ध का कर्मणो जन्मादिकारणत्वनिरूपणं नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २ ॥ Content is available only for registered users. 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