श्रीमद्देवीभागवत-महापुराण-पंचम स्कन्धः-अध्याय-07
॥ श्रीजगदम्बिकायै नमः ॥
॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥
पूर्वार्द्ध-पंचम स्कन्धः-सप्तमोऽध्यायः
सातवाँ अध्याय
महिषासुर को अवध्य जानकर त्रिदेवों का अपने-अपने लोक लौट जाना, देवताओं की पराजय तथा महिषासुर का स्वर्ग पर आधिपत्य, इन्द्र का ब्रह्मा और शिवजी के साथ विष्णुलोक के लिये प्रस्थान
शङ्करशरणगमनवर्णनम्

व्यासजी बोले – [ हे महाराज जनमेजय !] महिषासुर ने समस्त दानवों को खिन्नमनस्क देखकर महिष का वह रूप छोड़कर तत्काल सिंह का रूप धारण कर लिया ॥ १ ॥ तत्पश्चात् भयानक गर्जन करके गर्दन के बाल (अयाल) फैलाकर अपने तीक्ष्ण नख दिखाकर देवताओं को भयभीत करता हुआ वह देवसेना पर टूट पड़ा ॥ २ ॥ उसने गरुड के ऊपर अपने नाखूनों से आघात करके उन्हें रक्त से लथपथ कर दिया। पुनः सिंहरूपधारी उस दानव ने विष्णु की भुजा पर अपने नखों से प्रहार किया ॥ ३ ॥ भगवान् विष्णु ने उसे देखकर कुपित हो तत्काल अपना सुदर्शन चक्र लेकर उस दैत्य को मार डालने की इच्छा से बड़े वेग से उसपर चला दिया ॥ ४ ॥ भगवान् विष्णु ने उस महिषासुर पर ज्यों ही अपने चक्र से तेज प्रहार किया त्यों ही वह महान् शक्तिशाली महिष का रूप धारणकर भगवान् विष्णु को अपनी सींगों से मारने लगा ॥ ५ ॥

वक्षःस्थल पर सींग के आघात से व्याकुल होकर भगवान् विष्णु बड़े वेग से भागकर अपने लोक चले गये। विष्णु को पलायित देखकर शंकरजी भी बहुत भयभीत हो गये और उसे सर्वथा अवध्य मानकर कैलासपर्वत पर चले गये। ब्रह्माजी भी उसके डर से तत्काल अपने लोक चले गये ॥ ६-७१/२

महाबली इन्द्र वज्र धारण किये हुए समरांगण में डटे रहे। वरुणदेव अपना पाशास्त्र लेकर धैर्यपूर्वक खड़े रहे । यमराज अपना दण्ड धारण किये युद्ध करने के लिये सावधान होकर खड़े थे । यक्षाधिपति कुबेर युद्ध करने के लिये पूर्णरूप से उद्यत थे और अग्निदेव बर्छी लेकर युद्ध करने के विचार से स्थित थे। नक्षत्रों के नायक चन्द्रमा तथा भगवान् सूर्य — दोनों एक साथ युद्ध करने के लिये खड़े हो गये और उस दानवश्रेष्ठ महिषासुर को देखकर उन्होंने युद्ध करने का निश्चय कर लिया ॥ ८-११ ॥ इतने में क्रूर सर्पों के समान बाण-समूहों की वर्षा करती हुई क्रुद्ध दानवी सेना वहाँ आ गयी ॥ १२ ॥ वह दानवराज महिष का रूप धारण करके खड़ा था। उस समय देवता तथा असुर पक्ष के योद्धाओं का भीषण गर्जन होने लगा ॥ १३ ॥ देवताओं तथा दानवों के बीच हो रहे महाभयानक संग्राम में धनुष की टंकार तथा ताल ठोंकने की ध्वनि मेघ- गर्जना जैसी प्रतीत हो रही थी ॥ १४ ॥

अभिमान में चूर महाबली दैत्य महिषासुर अपनी सींगों से पर्वत-शिखर फेंक- फेंककर देवसमूह पर प्रहार कर रहा था ॥ १५ ॥ क्रोध में भरे हुए उस परम अद्भुत महिषासुर ने अपने खुरों के आघात से तथा पूँछ घुमाकर बहुत से देवताओं पर प्रहार किया ॥ १६ ॥ तत्पश्चात् लड़ने के लिये उद्यत देवता तथा गन्धर्व भयभीत हो गये और महिषासुर को देखकर इन्द्र भी भाग गये ॥ १७ ॥ संग्राम छोड़कर शचीपति इन्द्र के भाग जाने पर यमराज, धनाध्यक्ष कुबेर तथा वरुणदेव — ये सब भी भयभीत होकर भाग चले ॥ १८ ॥ महिषासुर भी अपनी जीत मानकर अपने घर चला गया। इन्द्र के भाग जाने के बाद उनके द्वारा त्यक्त ऐरावत हाथी, सूर्य का उच्चैःश्रवा घोड़ा तथा दूध देनेवाली कामधेनु गौ को उसने हस्तगत कर लिया। तत्पश्चात् उसने शीघ्र ही सेना को साथ में लेकर स्वर्ग जाने का मन में निश्चय किया ॥ १९-२० ॥ इसके बाद शीघ्र ही देवलोक पहुँचकर महिषासुर ने भयाक्रान्त देवताओं के द्वारा पहले से ही छोड़ दिये गये उनके राज्य पर आधिपत्य कर लिया ॥ २१ ॥

इसके बाद उस रमणीय इन्द्रासन पर महिषासुर आसीन हुआ और उसने राज्य संचालनार्थ देवताओं के स्थान पर दानवों को स्थापित कर दिया ॥ २२ ॥ इस प्रकार पूरे सौ वर्ष तक भीषण युद्ध करके अभिमान में चूर उस दैत्य ने इन्द्रपद प्राप्त किया ॥ २३ ॥ सभी देवता उस महिषासुर से प्रताड़ित होकर स्वर्ग से निकल गये और बहुत वर्षों तक पर्वत की गुफाओं में घूमते- फिरते रहे ॥ २४ ॥ हे राजन् ! तब थके हुए सभी देवतागण ब्रह्माजी की शरण में गये। उस महिषासुर के भय से त्रस्त वे सभी देवता समस्त वेद-वेदांगों के पारगामी विद्वान्, शान्त स्वभाववाले और स्वयं ब्रह्मा के मन से उत्पन्न मरीचि आदि प्रमुख मुनियों एवं सिद्धों, किन्नरों, गन्धर्वों, चारणों, उरगों तथा पन्नगों द्वारा निरन्तर सेवित, रजोगुण से सम्पन्न, चार मुख वाले, जगन्नाथ, प्रजापति, वेदगर्भ, कमल के आसन पर विराजमान तथा समस्त संसार के गुरु देवाधिदेव ब्रह्माजी की स्तुति करने लगे ॥ २५-२७ ॥

देवता बोले — हे सम्पूर्ण दुःख दूर करने वाले पद्मयोनि ब्रह्माजी ! इस समय सभी देवता संग्राम में दानवेन्द्र महिषासुर से पराजित होकर गिरि-कन्दराओं में कालक्षेप कर रहे हैं। स्थानच्युत हो जाने के कारण उन्हें महान् कष्ट उठाना पड़ रहा है। हमारी ऐसी दशा देखकर भी क्या आपको दया नहीं आती, यह कैसी विचित्र बात है ! ॥ २८ ॥ क्या निर्लोभी पिता सैकड़ों अपराधों से युक्त अपने पुत्रों को त्यागकर उन्हें कष्ट में पड़े रहना देख सकता है ? तब फिर दैत्यों द्वारा सताये गये देवताओं की, जो आपके चरणकमल की भक्ति में लगे रहते हैं, उपेक्षा आज आप क्यों कर रहे हैं ? ॥ २९ ॥ [दुष्ट] महिषासुर स्वर्ग और पृथ्वी का सम्पूर्ण साम्राज्य भोग रहा है। ब्राह्मणों द्वारा यज्ञ में दी हुई पवित्र हवि को वह स्वयं ले लेता है। वह दुष्टात्मा असुर स्वर्ग के पारिजातपुष्पों को अपने उपभोग में लाता है तथा समुद्र की निधिस्वरूपा उस कामधेनु गौ का भी उपयोग कर रहा है ॥ ३० ॥ हे देवेश ! हमलोग देवताओं की विषम स्थिति का वर्णन कहाँ तक करें ? आप तो अपने ज्ञान से दैत्यों की सारी कुचेष्टा जानते हैं; आप सम्पूर्ण कार्यों को जानने वाले हैं। अत: हे प्रभो! हम सभी देवता आपके चरणों में आ पड़े हैं ॥ ३१ ॥

हे देवेश! देवता जहाँ कहीं भी जाते हैं [ वहीं पहुँचकर ] विविध चरित्रों वाला, पापमय विचारों वाला तथा दुष्ट आचरण वाला वह महिषासुर उन्हें पीड़ित करने लगता है । हे विभो ! अब आप ही हमारे रक्षक हैं; हमारा कल्याण कीजिये ॥ ३२ ॥ यदि आप हमारी रक्षा नहीं करेंगे तो दैत्यों के भीषण अत्याचाररूपी दावानल से पीड़ित हमलोग आप सदृश शान्तिदाता, अनन्त तेजस्वी, प्रजापति, देवताओं के पूज्य, आदिपिता तथा कल्याणकारी प्रभु को छोड़कर किसकी शरण में जायँ ? ॥ ३३ ॥

व्यासजी बोले — इस प्रकार स्तुति करके सम्पूर्ण देवता हाथ जोड़कर प्रजापति ब्रह्मा को प्रणाम करने लगे । उन सबके मुख पर अत्यन्त उदासी छायी हुई थी। तब उन्हें इस प्रकार दुःखी देखकर लोकपितामह ब्रह्माजी उन्हें सुख पहुँचाते हुए मधुर वाणी में कहने लगे — ॥ ३४-३५ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे देवताओ! मैं क्या करूँ ? वर पाने के कारण वह दैत्य अभिमानी हो गया है। उसका वध कोई स्त्री ही कर सकती है, पुरुष नहीं। ऐसी परिस्थिति में मैं क्या कर सकता हूँ ? ॥ ३६ ॥ हे देवताओ ! हम सबलोग पर्वतश्रेष्ठ कैलास पर चलें । [ वहाँ विराजमान ] सम्पूर्ण कर्मों के ज्ञाता भगवान् शंकर को आगे करके वहाँ से वैकुण्ठधाम को चलें, जहाँ भगवान् विष्णु रहते हैं। उनसे मिलकर हम लोग देवताओं के कार्य के विषय में विशेषरूप से विचार करेंगे ॥ ३७-३८ ॥

ऐसा कहकर ब्रह्माजी हंस पर सवार होकर कार्यसिद्धि के लिये देवताओं को साथ लेकर कैलास की ओर चल पड़े ॥ ३९ ॥ तभी शिवजी अपने ध्यानयोग से सभी देवताओं सहित ब्रह्माजीको आता हुआ जानकर अपने भवन से बाहर निकल आये ॥ ४० ॥ एक-दूसरे को देखकर उन्होंने परस्पर प्रणाम किया । उन सभी देवताओं ने भी भगवान् शंकर तथा ब्रह्मा को प्रणाम किया और वे दोनों अत्यन्त प्रसन्न हो गये ॥ ४१ ॥ शिवजी वहाँ सभी देवताओं को पृथक्-पृथक् आसन देकर सबके यथास्थान बैठ जाने पर स्वयं भी अपने आसन पर बैठ गये। तब ब्रह्माजी से कुशल प्रश्न करके भगवान् शिव ने देवताओं से कैलास आने का कारण पूछा ॥ ४२-४३ ॥

शिवजी बोले — हे ब्रह्मन् ! इन्द्र आदि देवताओं के साथ आपके यहाँ आने का क्या प्रयोजन है ? हे महाभाग ! वह कारण अवश्य बताइये ॥ ४४ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे सुरेशान! महिषासुर स्वर्ग में रहने वाले इन्द्रादि देवताओं को महान् कष्ट दे रहा है और उसके भय से त्रस्त होकर ये देवगण पर्वतों की कन्दराओं में घूम रहे हैं ॥ ४५ ॥ महिषासुर यज्ञ-भाग स्वयं ग्रहण कर रहा है। अन्य अनेक दैत्य भी देवताओं के शत्रु बन गये हैं। उन सबसे पीड़ित होकर ये सभी लोकपाल आपकी शरण में आये हुए हैं। हे शम्भो ! इसी गुरुतर कार्य के लिये मैंने इन देवताओं को आपके भवन पर पहुँचा दिया है। अतः हे सुरेश्वर ! अब इनके कार्य के विषय में जो उचित जान पड़े, वह आप करें। हे भूतभावन ! सम्पूर्ण देवताओं का भार अब आप पर है ॥ ४६-४७१/२

व्यासजी बोले — ब्रह्माजी का यह वचन सुनकर भगवान् शंकर मुसकराते हुए कोमल वाणी में ब्रह्माजी से यह वचन कहने लगे ॥ ४८१/२

शिवजी बोले — हे विभो ! आपने ही तो पूर्वकाल में [महिषासुर को] वरदान देकर देवताओं के लिये ऐसा अनर्थकारी कार्य किया है। अब इसके बाद हमें क्या करना चाहिये ? [ आपके वर के प्रभाव से ही] वह इतना बली, पराक्रमी तथा सभी देवताओं के लिये भयदायक हो गया है ॥ ४९-५० ॥ अभिमान में चूर रहने वाले उस दानव को मारने में कौन श्रेष्ठ स्त्री समर्थ हो सकती है ? न तो मेरी भार्या ‘रुद्राणी’ और न आपकी भार्या ‘ब्रह्माणी’ ही संग्राम में जाने योग्य हैं। महाभाग्यवती ये देवियाँ संग्रामभूमि में जाकर भी भला युद्ध किस प्रकार करेंगी ? इन्द्र की पत्नी महाभागा इन्द्राणी भी युद्धकला में कुशल नहीं हैं। तब दूसरी कौन-सी देवांगना उस मदोन्मत्त पापी को मारने में समर्थ है? ॥ ५१-५२१/२ ॥ अतः मेरा तो यह विचार है कि हमलोग इसी समय भगवान् विष्णु के पास चलकर और उनकी स्तुति करके देवताओं का कार्य करने के लिये उन्हीं को शीघ्रतापूर्वक प्रेरित करें । परम बुद्धिमानों में श्रेष्ठ वे विष्णु सम्पूर्ण कार्यों को सिद्ध करने में कुशल हैं। उन्हीं वासुदेव से मिलकर इस कार्य के सम्बन्ध में विचार करना चाहिये। वे किसी प्रपंच अथवा बुद्धि से कार्य सिद्ध होने का उपाय बना देंगे ॥ ५३–५५ ॥

व्यासजी बोले — भगवान् शंकर की यह बात सुनकर ब्रह्मा आदि समस्त श्रेष्ठ देवता ‘यह ठीक है’ – ऐसा कहकर उठ खड़े हुए और वे सब अपने-अपने वाहनों पर सवार हो शिवजी के साथ तुरन्त वैकुण्ठ की ओर चल दिये। उस समय कार्यसिद्धि के सूचक अनेक शुभ शकुन देखकर वे सब अत्यन्त प्रसन्न हुए। शुभ सूचना देने वाली शीतल, मन्द तथा सुगन्धित हवाएँ चलने लगीं और पवित्र पक्षी सर्वत्र मार्ग में मंगलमयी बोली बोलने लगे। आकाश निर्मल हो गया और दिशाएँ स्वच्छ हो गयीं। इस प्रकार देवताओं की यात्रा में मानो सब मंगल ही मंगल हो गया ॥ ५६-५९ ॥

॥ इस प्रकार अठारह हजार श्लोकों वाली श्रीमद्देवीभागवत महापुराण संहिता के अन्तर्गत पंचम स्कन्ध का ‘पराजित देवताओं का भगवान् शंकर की शरण में गमन’ नामक सातवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ७ ॥

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