May 5, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – एकादशः स्कन्ध – अध्याय २ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय दूसरा अध्याय वसुदेवजी के पास श्रीनारदजी का आना और उन्हें राजा जनक तथा नौ योगीश्वरों का संवाद सुनाना श्रीशुकदेवजी कहते हैं — कुरुनन्दन ! देवर्षि नारद के मन में भगवान् श्रीकृष्ण की सन्निधि में रहने की बड़ी लालसा थी । इसलिये वे श्रीकृष्ण के निज़ बाहुओं से सुरक्षित द्वारका में — जहाँ दक्ष आदि के शाप का कोई भय नहीं था, विदा कर देने पर भी पुनः-पुनः आकर प्रायः रहा ही करते थे ॥ १ ॥ राजन् ! ऐसा कौन प्राणी है, जिसे इन्द्रियाँ तो प्राप्त हों और वह भगवान् के ब्रह्मा आदि बड़े-बड़े देवताओं के भी उपास्य चरणकमलों की दिव्य गन्ध, मधुर मकरन्द-रस, अलौकिक रूपमाधुरी, सुकुमार स्पर्श और मङ्गलमय ध्वनि का सेवन करना न चाहे ? क्योंकि यह बेचारा प्राणी सब ओर से मृत्यु से ही घिरा हुआ है ॥ २ ॥ एक दिन की बात है, देवर्षि नारद वसुदेवजी के यहाँ पधारे । वसुदेवजी ने उनका अभिवादन किया तथा आराम से बैठ जाने पर विधिपूर्वक उनकी पूजा की और इसके बाद पुनः प्रणाम करके उनसे यह बात कही ॥ ३ ॥ वसुदेवजी ने कहा — संसार में माता-पिता का आगमन पुत्रों के लिये और भगवान् की ओर अग्रसर होनेवाले साधु-संतों का पदार्पण प्रपंच में उलझे हुए दीन-दुखियों के लिये बड़ा ही सुखकर और बड़ा ही मङ्गलमय होता है । परन्तु भगवन् ! आप तो स्वयं भगवन्मय, भगवत्स्वरूप हैं । आपका चलना-फिरना तो समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही होता है ॥ ४ ॥ देवताओं के चरित्र भी कभी प्राणियों के लिये दुःख के हेतु, तो कभी सुख के हेतु बन जाते हैं । परन्तु जो आप-जैसे भगवत्प्रेमी पुरुष हैं — जिनका हृदय, प्राण, जीवन, सब कुछ भगवन्मय हो गया है — उनकी तो प्रत्येक चेष्टा समस्त प्राणियों के कल्याण के लिये ही होती है ॥ ५ ॥ जो लोग देवताओं का जिस प्रकार भजन करते हैं, देवता भी परछाईं के समान ठीक उसी रीति से भजन करनेवालों को फल देते हैं, क्योंकि देवता कर्म के मन्त्री हैं, अधीन हैं । परन्तु सत्पुरुष दीनवत्सल होते हैं अर्थात् जो सांसारिक सम्पत्ति एवं साधन से भी हीन हैं, उन्हें अपनाते हैं ॥ ६ ॥ ब्रह्मन् ! (यद्यपि हम आपके शुभागमन और शुभ दर्शन से ही कृतकृत्य हो गये हैं) तथापि आपसे उन धरमों के — साधनों के सम्बन्ध में प्रश्न कर रहे हैं, जिनको मनुष्य श्रद्धा से सुन भर ले तो इस सब ओर से भयदायक संसार से मुक्त हो जाय ॥ ७ ॥ पहले जन्म में मैंने मुक्ति देनेवाले भगवान् की आराधना तो की थी, परन्तु इसलिये नहीं कि मुझे मुक्ति मिले । मेरी आराधना का उद्देश्य था कि मुझे पुत्ररूप में प्राप्त हों । उस समय मैं भगवान् की लीला से मुग्ध हो रहा था ॥ ८ ॥ सुव्रत ! अब आप मुझे ऐसा उपदेश दीजिये, जिससे मैं इस जन्म-मृत्युरूप भयावह संसार से — जिसमें दुःख भी सुख का विचित्र और मोहक रूप धारण करके सामने आते हैं — अनायास ही पार हो जाऊँ ॥ ९ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — राजन् ! बुद्धिमान् वसुदेवजी ने भगवान् के स्वरूप और गुण आदि के श्रवण के अभिप्राय से ही यह प्रश्न किया था । देवर्षि नारद उनका प्रश्न सुनकर भगवान् के अचिन्त्य अनन्त कल्याणमय गुणों के स्मरण में तन्मय हो गये और प्रेम एवं आनन्द में भरकर वसुदेवजी से बोले ॥ १० ॥ नारदजी ने कहा — यदुवंशशिरोमणे । तुम्हारा यह निश्चय बहुत ही सुन्दर है, क्योंकि यह भागवत धर्म के सम्बन्ध में है, जो सारे विश्व को जीवन-दान देनेवाला है, पवित्र करनेवाला है ॥ ११ ॥ वसुदेवजी ! यह भागवत-धर्म एक ऐसी वस्तु है, जिसे कानों से सुनने, वाणी से उच्चारण करने, चित्त से स्मरण करने, हृदय से स्वीकार करने या कोई इसका पालन करने जा रहा हो तो उसका अनुमोदन करने से ही मनुष्य उसी क्षण पवित्र हो जाता है चाहे वह भगवान् का एवं सारे संसार का द्रोही ही क्यों न हो ॥ १२ ॥ जिनके गुण, लीला और नाम आदि का श्रवण तथा कीर्तन पतित को भी पावन करनेवाला है, उन्हीं परम कल्याणस्वरूप मेरे आराध्यदेव भगवान् नारायण का तुमने आज मुझे स्मरण कराया है ॥ १३ ॥ वसुदेवजी ! तुमने मुझसे जो प्रश्न किया है, इसके सम्बन्ध में संत पुरुष एक प्राचीन इतिहास कहा करते हैं । वह इतिहास है — ऋषभ के पुत्र नौ योगीश्वरों और महात्मा विदेह का शुभ संवाद ॥ १४ ॥ तुम जानते ही हो कि स्वायम्भुव मनु के एक प्रसिद्ध पुत्र थे ‘प्रियव्रत’ । प्रियव्रत के आग्नीध्र, आग्नीध्र के नाभि और नाभि के पुत्र हुए ऋषभ ॥ १५ ॥ शास्त्रों ने उन्हें भगवान् वासुदेव का अंश कहा है । मोक्षधर्म का उपदेश करने के लिये उन्होंने अवतार ग्रहण किया था । उनके सौ पुत्र थे और सब-के-सब वेदों के पारदर्शी विद्वान् थे ॥ १६ ॥ उनमें सबसे बड़े थे राजर्षि भरत । वे भगवान् नारायण के परम प्रेमी भक्त थे । उन्हीं के नाम से यह भूमिखण्ड, जो पहले ‘अजनाभवर्ष’ कहलाता था, ‘भारतवर्ष’ कहलाया । यह भारतवर्ष भी एक अलौकिक स्थान है ॥ १७ ॥ राजर्षि भरत ने सारी पृथ्वी को राज्य-भोग किया, परन्तु अन्त में इसे छोड़कर वन में चले गये । वहाँ उन्होंने तपस्या के द्वारा भगवान् की उपासना की और तीन जन्मों में वे भगवान् को प्राप्त हुए ॥ १८ ॥ भगवान् ऋषभदेवजी के शेष निन्यानवे पुत्रों में नौ पुत्र तो इस भारतवर्ष के सब ओर स्थित नौ द्वीपों के अधिपति हुए और इक्यासी पुत्र कर्मकाण्ड के रचयिता ब्राह्मण हो गये ॥ १९ ॥ शेष नौ संन्यासी हो गये । वे बड़े ही भाग्यवान् थे । उन्होंने आत्मविद्या के सम्पादन में बड़ा परिश्रम किया था और वास्तव में वे उसमें बड़े निपुण थे । प्रायः दिगम्बर ही रहते थे और अधिकारियों को परमार्थ-वस्तु का उपदेश किया करते थे । उनके नाम थे — कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, आविर्होत्र, द्रुमिल, चमस और करभाजन ॥ २०-२१ ॥ वे इस कार्य-कारण और व्यक्त-अव्यक्त भगवद्रूप जगत् को अपने आत्मा से अभिन्न अनुभव करते हुए पृथ्वी पर स्वच्छन्द विचरण करते थे ॥ २२ ॥ उनके लिये कहीं भी रोक-टोक न थीं । वे जहाँ चाहते, चले जाते । देवता, सिद्ध, साध्य, गन्धर्व, यक्ष, मनुष्य, किन्नर और नाग के लोकों में तथा मुनि, चारण, भूतनाथ, विद्याधर, ब्राह्मण और गौओं के स्थानों में वे स्वच्छन्द विचरते थे । वसुदेवजी ! वे सब-के-सब जीवन्मुक्त थे ॥ २३ ॥ एक बार की बात है, इस अजनाभ (भारत) वर्ष में विदेहराज महात्मा निमि बड़े-बड़े ऋषियों के द्वारा एक महान् यज्ञ करा रहे थे । पूर्वोक्त नौ योगीश्वर स्वच्छन्द विचरण करते हुए उनके यज्ञ में जा पहुँचे ॥ २४ ॥ वसुदेवजी ! वे योगीश्वर भगवान् के परम प्रेमी भक्त और सूर्य के समान तेजस्वी थे । उन्हें देखकर राजा निमि, आहवनीय आदि मूर्तिमान् अग्नि और ऋत्विज् आदि ब्राह्मण सब-के-सब उनके स्वागत में खड़े हो गये ॥ २५ ॥ विदेहराज निमि ने उन्हें भगवान् के परम प्रेमी भक्त जानकर यथायोग्य आसनों पर बैठाया और प्रेम तथा आनन्द से भरकर विधिपूर्वक उनकी पूजा की ॥ २६ ॥ वे नवों योगीश्वर अपने अङ्गों को कान्ति से इस प्रकार चमक रहे थे, मानो साक्षात् ब्रह्माजी के पुत्र सनकादि मुनीश्वर ही हों । राजा निमि ने विनय से झुककर परम प्रेम के साथ उनसे प्रश्न किया ॥ २७ ॥ विदेहराज निमि ने कहा — भगवन् ! मैं ऐसा समझता हूँ कि आपलोग मधुसूदन भगवान् के पार्षद ही हैं, क्योंकि भगवान् के पार्षद संसारी प्राणियों को पवित्र करने के लिये विचरण किया करते हैं ॥ २८ ॥ जीवों के लिये मनुष्य-शरीर का प्राप्त होना दुर्लभ है । यदि यह प्राप्त भी हो जाता है तो प्रतिक्षण मृत्यु का भय सिर पर सवार रहता है, क्योंकि यह क्षणभङ्गुर हैं । इसलिये अनिश्चित मनुष्य-जीवन में भगवान् के प्यारे और उनको प्यार करनेवाले भक्तजनों का, संतों का दर्शन तो और भी दुर्लभ हैं ॥ २९ ॥ इसलिये त्रिलोकपावन महात्माओ ! हम आपलोगों से यह प्रश्न करते हैं कि परम कल्याण का स्वरूप क्या है ? और उसका साधन क्या है ? इस संसार में आधे क्षण का सत्सङ्ग भी मनुष्यों के लिये परम निधि है ॥ ३० ॥ योगीश्वरो ! यदि हम सुनने के अधिकारी हों तो आप कृपा करके भागवत-धर्म का उपदेश कीजिये; क्योंकि उनसे जन्मादि विकार से रहित, एकरस भगवान् श्रीकृष्ण प्रसन्न होते हैं और उन धर्मों का पालन करनेवाले शरणागत भक्तों को अपने-आप तक का दान कर डालते हैं ॥ ३१ ॥ देवर्षि नारदजी ने कहा — वसुदेवजी ! जब राजा निमि ने उन भगवत्प्रेमी संतों से यह प्रश्न किया, तब उन लोगों ने बड़े प्रेम से उनका और उनके प्रश्न का सम्मान किया और सदस्य तथा ऋत्विजों के साथ बैठे हुए राजा निमि से बोले ॥ ३२ ॥ पहले उन नौ योगीश्वरों में से कविजी ने कहा — ‘राजन् ! भक्तजन के हृदय से कभी दूर न होनेवाले अच्युत भगवान् के चरणों की नित्य-निरन्तर उपासना हीं इस संसार में परम कल्याण — आत्यन्तिक क्षेम है और सर्वथा भयशून्य है, ऐसा मेरा निश्चित मत है । देह, गेह आदि तुच्छ एवं असत् पदार्थों में अहंता एवं ममता हो जाने के कारण जिन लोगों की चित्तवृत्ति उद्विग्न हो रही है, उनका भय भी इस उपासना का अनुष्ठान करने पर पूर्णतया निवृत्त हो जाता है ॥ ३३ ॥ भगवान् ने भोले-भाले अज्ञानी पुरुषों को भी सुगमता से साक्षात् अपनी प्राप्ति के लिये जो उपाय स्वयं श्रीमुख से बतलाये हैं, उन्हें ही ‘भागवत-धर्म समझो ॥ ३४ ॥ राजन् ! इन भागवत-धर्मों का अवलम्बन करके मनुष्य कभी विघ्नों से पीड़ित नहीं होता और नेत्र बंद करके दौड़ने पर भी अर्थात् विधि-विधान में त्रुटि हो जाने पर भी न तो मार्ग से स्खलित ही होता हैं और न तो पतित-फल से वञ्चित ही होता है ॥ ३५ ॥ (भागवतधर्म का पालन करनेवाले के लिये यह नियम नहीं है कि वह एक विशेष प्रकार का कर्म ही करे) वह शरीर से, वाणी से, मन से, इन्द्रियों से, बुद्धि से, अहङ्कार से, अनेक जन्मों अथवा एक जन्म की आदतों से स्वभाववश जो-जो करे, वह सब परमपुरुष भगवान् नारायण के लिये ही है — इस भाव से उन्हें समर्पण कर दे । (यही सरल-से-सरल, सीधा-सा भागवतधर्म हैं) ॥ ३६ ॥ ईश्वर से विमुख पुरुष को उनकी माया से अपने स्वरूप की विस्मृति हो जाती है और इस विस्मृति से ही ‘मैं देवता हूँ, मैं मनुष्य हूँ,’ इस प्रकार का भ्रम-विपर्यय हो जाता है । इस देह आदि अन्य वस्तु में अभिनिवेश, तन्मयता होने के कारण ही बुढ़ापा, मृत्यु, रोग आदि अनेकों भय होते हैं । इसलिये अपने गुरु को ही आराध्यदेव परम प्रियतम मानकर अनन्य भक्ति के द्वारा उस ईश्वर का भजन करना चाहिये ॥ ३७ ॥ राजन् ! सच पूछो तो भगवान् के अतिरिक्त, आत्मा के अतिरिक्त और कोई वस्तु है ही नहीं । परन्तु न होने पर भी इसकी प्रतीति इसका चिन्तन करनेवाले को उसके चिन्तन के कारण, उधर मन लगने के कारण ही होती है — जैसे स्वप्न के समय स्वप्नद्रष्टा की कल्पना से अथवा जाग्रत्-अवस्था में नाना प्रकार के मनोरथों से एक विलक्षण ही सृष्टि दीखने लगती है । इसलिये विचारवान् पुरुष को चाहिये कि सांसारिक कर्मों के सम्बन्ध में सङ्कल्प-विकल्प करनेवाले मन को रोक दे — कैद कर ले । बस, ऐसा करते ही उसे अभय पद की, परमात्मा की प्राप्ति हो जायगी ॥ ३८ ॥ संसार में भगवान् के जन्म की और लीला की बहुत-सी मङ्गलमयी कथाएँ प्रसिद्ध हैं । उनको सुनते रहना चाहिये । उन गुणों और लीलाओं का स्मरण दिलानेवाले भगवान् के बहुत-से नाम भी प्रसिद्ध है । लाज-संकोच छोड़कर उनका गान करते रहना चाहिये । इस प्रकार किसी भी व्यक्ति, वस्तु और स्थान में आसक्ति न करके विचरण करते रहना चाहिये ॥ ३९ ॥ जो इस प्रकार विशुद्ध व्रत–नियम ले लेता है, उसके हृदय में अपने परम प्रियतम प्रभु के नाम-कीर्तन से अनुराग का, प्रेम का अङ्कुर उग आता है । उसका चित्त द्रवित हो जाता है । अब वह साधारण लोगों की स्थिति से ऊपर उठ जाता है । लोगों की मान्यताओं, धारणाओं से परे हो जाता हैं । दम्भ से नहीं, स्वभाव से ही मतवाला-सा होकर कभी खिलखिलाकर हँसने लगता है तो कभी फूट-फूटकर रोने लगता है । कभी ऊँचे स्वर से भगवान् को पुकारने लगता हैं तो कभी मधुर स्वर से उनके गुणों का गान करने लगता है । कभी-कभी जब वह अपने प्रियतम को अपने नेत्रों के सामने अनुभव करता है, तब उन्हें रिझाने के लिये नृत्य भी करने लगता है ॥ ४० ॥ राजन् ! यह आकाश, वायु, अग्नि, जल, पृथ्वी, ग्रह-नक्षत्र, प्राणी, दिशाएँ, वृक्ष-वनस्पति, नदी, समुद्र-सब-के-सब भगवान् के शरीर हैं । सभी रूपों में स्वयं भगवान् प्रकट हैं । ऐसा समझकर वह, जो कोई भी उसके सामने आ जाता है — चाहे वह प्राणी हो या अप्राणी — उसे अनन्य भाव से भगवद्भाव से प्रणाम करता है ॥ ४१ ॥ जैसे भोजन करनेवाले को प्रत्येक ग्रास के साथ ही तुष्टि (तृप्ति अथवा सुख), पुष्टि (जीवनशक्तिका सञ्चार) और क्षुधानिवृत्ति — ये तीनों एक साथ होते जाते हैं; वैसे ही जो मनुष्य भगवान् की शरण लेकर उनका भजन करने लगता है, उसे भजन के प्रत्येक क्षण में भगवान् के प्रति प्रेम, अपने प्रेमास्पद प्रभु के स्वरूप का अनुभव और उनके अतिरिक्त अन्य वस्तुओं में वैराग्य — इन तीनों की एक साथ ही प्राप्ति होती जाती है ॥ ४२ ॥ राजन् ! इस प्रकार जो प्रतिक्षण एक-एक वृत्ति के द्वारा भगवान् के चरणकमलों का ही भजन करता है, उसे भगवान् के प्रति प्रेममयी भक्ति, संसार के प्रति वैराग्य और अपने प्रियतम भगवान् के स्वरूप की स्फूर्ति — ये सब अवश्य ही प्राप्त होते हैं; वह भागवत हो जाता है और जब ये सब प्राप्त हो जाते हैं, तब वह स्वयं परम शान्ति का अनुभव करने लगता हैं ॥ ४३ ॥ राजा निमि ने पूछा — योगीश्वर ! अब आप कृपा करके भगवद्भक्त का लक्षण वर्णन कीजिये । उसके क्या धर्म हैं ? और कैसा स्वभाव होता है ? वह मनुष्यों के साथ व्यवहार करते समय कैसा आचरण करता है ? क्या बोलता हैं ? और किन लक्षणों के कारण भगवान् का प्यारा होता है ? ॥ ४४ ॥ अब नौ योगीश्वरों में से दूसरे हरिजी बोले — राजन् ! आत्मस्वरूप भगवान् समस्त प्राणियों में आत्मारूप से — नियन्त्तारूप से स्थित है । जो कहीं भी न्यूनाधिकता न देखकर सर्वत्र परिपूर्ण भगवत्सत्ता को ही देखता है और साथ ही समस्त प्राणी और समस्त पदार्थ आत्मस्वरूप भगवान् में ही आधेयरूप से अथवा अध्यस्तरूप से स्थित हैं, अर्थात् वास्तव में भगवत्स्वरूप ही हैं — इस प्रकार का जिसका अनुभव है, ऐसी जिसकी सिद्ध दृष्टि है, उसे भगवान् का परमप्रेमी उत्तम भागवत समझना चाहिये ॥ ४५ ॥ जो भगवान् से प्रेम, उनके भक्तों से मित्रता, दुखी और अज्ञानियों पर कृपा तथा भगवान् से द्वेष करनेवालों की उपेक्षा करता है, वह मध्यम कोटि का भागवत है ॥ ४६ ॥ और जो भगवान् के अर्चा-विग्रह-मूर्ति आदि की पूजा तो श्रद्धा से करता हैं, परन्तु भगवान् के भक्तों या दूसरे लोगों की विशेष सेवा-शुश्रूषा नहीं करता, वह साधारण श्रेणी का भगवद्भक्त हैं ॥ ४७ ॥ जो श्रोत्र-नेत्र आदि इन्द्रियों के द्वारा शब्द-रूप आदि विषयों का ग्रहण तो करता है; परन्तु अपनी इच्छा के प्रतिकूल विषयों से द्वेष नहीं करता और अनुकूल विषयों के मिलने पर हर्षित नहीं होता — उसकी यह दृष्टि बनी रहती हैं कि यह सब हमारे भगवान् की माया है — वह पुरुष उत्तम भागवत है ॥ ४८ ॥ संसार के धर्म हैं — जन्म-मृत्यु, भूख-प्यास, श्रम-कष्ट, भय और तृष्णा । ये क्रमशः शरीर, प्राण, इन्द्रिय, मन और बुद्धि को प्राप्त होते ही रहते हैं । जो पुरुष भगवान् की स्मृति में इतना तन्मय रहता है कि इनके बार-बार होते-जाते रहने पर भी उनसे मोहित नहीं होता, पराभूत नहीं होता, वह उत्तम भागवत है ॥ ४९ ॥ जिसके मन में विषय-भोग की इच्छा, कर्म-प्रवृत्ति और उनके बीज-वासनाओं का उदय नहीं होता और जो एकमात्र भगवान् वासुदेव में ही निवास करता है, वह उत्तम भगवद्भक्त है ॥ ५० ॥ जिनका इस शरीर में न तो सत्कुल में जन्म, तपस्या आदि कर्म से तथा न वर्ण, आश्रम एवं जाति से ही अहंभाव होता है, वह निश्चय ही भगवान् का प्यारा है ॥ ५१ ॥ जो धन-सम्पत्ति अथवा शरीर आदि में ‘यह अपना है और यह पराया’ — इस प्रकार का भेद-भाव नहीं रखता, समस्त पदार्थों मे समस्वरूप परमात्मा को देखता रहता है, समभाव रखता है तथा किसी भी घटना अथवा सङ्कल्प से विक्षिप्त न होकर शान्त रहता है, वह भगवान् का उत्तम भक्त है ॥ ५२ ॥ राजन् ! बड़े-बड़े देवता और ऋषि-मुनि भी अपने अन्तःकरण को भगवन्मय बनाते हुए जिन्हें ढूँढते रहते हैं — भगवान् के ऐसे चरणकमलों से आधे क्षण, आधे पल के लिये भी जो नहीं हटता, निरन्तर उन चरणों की सन्निधि और सेवा में ही संलग्न रहता है; यहाँ तक कि कोई स्वयं उसे त्रिभुवन की राज्यलक्ष्मी दे तो भी वह भगवत्स्मृति का तार नहीं तोड़ता, उस राज्यलक्ष्मी की ओर ध्यान ही नहीं देता; वहीं पुरुष वास्तव में भगवद्भक्त वैष्णवों में अग्रगण्य है, सबसे श्रेष्ठ है ॥ ५३ ॥ रासलीला के अवसर पर नृत्य-गति से भाँति-भाँति के पाद-विन्यास करनेवाले निखिल सौन्दर्य-माधुर्य-निधि भगवान् के चरणों के अङ्गुलि-नख की मणि-चन्द्रिका से जिन शरणागत भक्तजनों के हृदय को विरहजन्य संताप एक बार दूर हो चुका है, उनके हृदय में वह फिर कैसे आ सकता है, जैसे चन्द्रोदय होने पर सूर्य का ताप नहीं लग सकता ॥ ५४ ॥ विवशता से नामोच्चारण करने पर भी सम्पूर्ण अघ-राशि को नष्ट कर देनेवाले स्वयं भगवान् श्रीहरि जिसके हृदय को क्षणभर के लिये भी नहीं छोड़ते हैं, क्योंकि उसने प्रेम की रस्सी से उनके चरण-कमलों को बाँध रक्खा है, वास्तव में ऐसा पुरुष ही भगवान् के भक्तों में प्रधान है ॥ ५५ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां एकादशस्कन्धे द्वितीयोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related