श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय २१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इक्कीसवाँ अध्याय
कर्दमजी की तपस्या और भगवान् का वरदान

विदुरजी ने पूछा — भगवन् ! स्वायम्भुव मनु का वंश बड़ा आदरणीय माना गया है । उसमें मैथुनधर्म के द्वारा प्रजा की वृद्धि हुई थी । अब आप मुझे उसी की कथा सुनाइये ॥ १ ॥ ब्रह्मन् ! आपने कहा था कि स्वायम्भुव मनु के पुत्र प्रियव्रत और उत्तानपाद ने सातों द्वीपोंवाली पृथ्वी का धर्मपूर्वक पालन किया था तथा उनकी पुत्री, जो देवहूति नाम से विख्यात थी, कर्दम प्रजापति को ब्याही गयी थी ॥ २-३ ॥ देवहूति योग के लक्षण यमादि से सम्पन्न थी, उससे महायोगी कर्दमजी ने कितनी सन्तानें उत्पन्न की ? वह सब प्रसङ्ग आप मुझे सुनाइये, मुझे उसके सुनने की बड़ी इच्छा है ॥ ४ ॥

इसी प्रकार भगवान् रुचि और ब्रह्माजी के पुत्र दक्षप्रजापति ने भी मनुजी की कन्याओं का पाणिग्रहण करके उनसे किस प्रकार क्या-क्या सन्तान उत्पन्न की, यह सब चरित भी मुझे सुनाइये ॥ ५ ॥

मैत्रेयजी ने कहा — विदुरजी ! जब ब्रह्माजी ने भगवान् कर्दम को आज्ञा दी कि तुम संतान की उत्पत्ति करो तो उन्होंने दस हजार वर्षों तक सरस्वती नदी के तीर पर तपस्या की ॥ ६ ॥ वे एकाग्र चित्त से प्रेमपूर्वक पूजनोपचार द्वारा शरणागतवरदायक श्रीहरि की आराधना करने लगे ॥ ७ ॥ तब सत्ययुग के आरम्भ में कमलनयन भगवान् श्रीहरि ने उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर उन्हें अपने शब्दब्रह्ममय स्वरूप से मूर्तिमान् होकर दर्शन दिये ॥ ८ ॥

भगवान् की वह भव्य मूर्ति सूर्य के समान तेजोमयी थी । वे गले में श्वेत कमल और कुमुद के फूलों की माला धारण किये हुए थे, मुखकमल नीली और चिकनी अलकावली से सुशोभित था । वे निर्मल वस्त्र धारण किये हुए थे ॥ ९ ॥ सिरपर झिलमिलाता हुआ सुवर्णमय मुकुट, कानों में जगमगाते हुए कुण्डल और कर-कमलों में शङ्ख, चक्र, गदा आदि आयुध विराजमान थे । उनके एक हाथ में क्रीड़ा के लिये श्वेत कमल सुशोभित था । प्रभु की मधुर मुसकानभरी चितवन चित्त को चुराये लेती थी ॥ १७ ॥ उनके चरणकमल गरुङजी के कंधों पर विराजमान थे तथा वक्षःस्थल में श्रीलक्ष्मीजी और कण्ठ में कौस्तुभमणि सुशोभित थी । प्रभु की इस आकाशस्थित मनोहर मूर्ति का दर्शन करके कर्दमज़ी को बड़ा हर्ष हुआ, मानो उनकी सभी कामनाएँ पूर्ण हो गयीं । उन्होंने सानन्द हृदय से पृथ्वी पर सिर टेककर भगवान् को साष्टाङ्ग प्रणाम किया और फिर प्रेमप्रवण चित से हाथ जोड़कर सुमधुर वाणी से वे उनकी स्तुति करने लगे ॥ ११-१२ ॥

कर्दमजी ने कहा — स्तुति करनेयोग्य परमेश्वर ! आप सम्पूर्ण सत्वगुण के आधार हैं । योगिजन उत्तरोत्तर शुभ योनियों में जन्म लेकर अन्त में योगस्थ होने पर आपके दर्शनों की इच्छा करते हैं; आज आपका वही दर्शन पाकर हमें नेत्रों का फल मिल गया ॥ १३ ॥ आपके चरणकमल भवसागर से पार जाने के लिये जहाज हैं । जिनकी बुद्धि आपकी माया से मारी गयी है, वे ही उन तुच्छ क्षणिक विषय-सुखों के लिये, जो नरक में भी मिल सकते हैं, उन चरणों का आश्रय लेते हैं; किन्तु स्वामिन् ! आप तो उन्हें वे विषय-भोग भी दे देते हैं ॥ १४ ॥ प्रभो ! आप कल्पवृक्ष हैं । आपके चरण समस्त मनोरथों को पूर्ण करनेवाले हैं । मेरा हृदय काम-कलुषित है । मैं भी अपने अनुरूप स्वभाववाली और गृहस्थधर्म के पालन में सहायक शीलवती कन्या से विवाह करने के लिये आपके चरणकमलों की शरण में आया हूँ ॥ १५ ॥ सर्वेश्वर ! आप सम्पूर्ण लोकों के अधिपति हैं । नाना प्रकार की कामनाओं में फंसा हुआ यह लोक आपकी वेद-वाणीरूप डोरी में बँधा है । धर्ममृते ! उसीको अनुगमन करता हुआ मैं भी कालरूप आपको आज्ञापालनरूप पूजोपहारादि समर्पित करता हूँ ॥ १६ ॥

प्रभो ! आपके भक्त विषयासक्त लोगों और उन्हीं के मार्ग का अनुसरण करनेवाले मुझ-जैसे कर्मजड़ पशुओं को कुछ भी न गिनकर आपके चरणों की छत्रछाया का ही आश्रय लेते हैं तथा परस्पर आपके गुणगानरूप मादक सुधा का ही पान करके अपने क्षुधा-पिपासादि देहधर्मों को शान्त करते रहते हैं ॥ १७ ॥ प्रभो ! यह कालचक्र बड़ा प्रबल है । साक्षात् ब्रह्म ही इसके घूमने की धुरी है, अधिक माससहित तेरह महीने अरे हैं, तीन सौ साठ दिन जोड़ हैं. छः ऋतुएँ नेमि (हाल) हैं, अनन्त क्षण-पल आदि इसमें पत्राकार धाराएँ हैं तथा तीन चातुर्मास्य इसके आधारभूत नाभि हैं । यह अत्यन्त वेगवान् संवत्सररूप कालचक्र चराचर जगत् की आयु का छेदन करता हुआ घूमता रहता हैं, किन्तु आपके भक्तों की आयु का ह्रास नहीं कर सकता ॥ १८ ॥ भगवन् ! जिस प्रकार मकड़ी स्वयं ही जाले को फैलाती, उसकी रक्षा करती और अन्त में उसे निगल जाती है उसी प्रकार आप अकेले ही जगत् की रचना करने के लिये अपने अभिन्न अपनी योगमाया को स्वीकारकर उससे अभिव्यक्त हुई अपनी सत्वादि शक्तियों द्वारा स्वयं ही इस जगत् की रचना, पालन और संहार करते हैं ॥ १९ ॥ प्रभो ! इस समय आपने हमें अपनी तुलसी-माला-मण्डित, माया से परिच्छिन्न-सी दिखायी देनेवाली सगुणमूर्ति से दर्शन दिया है । आप हम भक्तों को जो शब्दादि विषय-सुख प्रदान करते हैं, वे मायिक होने के कारण यद्यपि आपको पसंद नहीं हैं, तथापि परिणाम में हमारा शुभ करने के लिये वे हमें प्राप्त हों-॥ २० ॥

नाथ ! आप स्वरूप से निष्क्रिय होने पर भी माया के द्वारा सारे संसार का व्यवहार चलानेवाले हैं तथा थोड़ी-सी उपासना करनेवाले पर भी समस्त अभिलषित वस्तुओं की वर्षा करते रहते हैं । आपके चरणकमल वन्दनीय हैं, मैं आपको बार-बार नमस्कार करता हूँ ॥ २१ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं — भगवान् की भौहें प्रणय मुसकानभरी चितवन से चञ्चल हो रही थीं, वे गरुड़जी के कंधे पर विराजमान थे । जब कर्दमजी ने इस प्रकार निष्कपट भाव से उनकी स्तुति की तब वे उनसे अमृतमयी वाणी से कहने लगे ॥ २२ ॥

श्रीभगवान् ने कहा — जिसके लिये तुमने आत्मसंयमादि के द्वारा मेरी आराधना की है, तुम्हारे हृदय के उस भाव को जानकर मैंने पहले से ही उसकी व्यवस्था कर दी है ॥ २३ ॥ प्रजापते ! मेरी आराधना तो कभी भी निष्फल नहीं होती; फिर जिनका चित निरन्तर एकान्तरूप से मुझमें ही लगा रहता है, उन तुम-जैसे महात्माओं के द्वारा की हुई उपासना का तो और भी अधिक फल होता है ॥ २४ ॥ प्रसिद्ध यशस्वी सम्राट् स्वायम्भुव मनु ब्रह्मावर्त में रहकर सात समुद्रवाली सारी पृथ्वी का शासन करते हैं ॥ २५ ॥ विप्रवर ! वे परम धर्मज्ञ महाराज महारानी शतरूपा के साथ तुमसे मिलने के लिये परसों यहाँ आयेंगे ॥ २६ ॥ उनकी एक रूप-यौवन, शील और गुणों से सम्पन्न श्यामलोचना कन्या इस समय विवाह के योग्य है । प्रजापते ! तुम सर्वथा उसके योग्य हो, इसलिये वे तुम्हीं को वह कन्या अर्पण करेंगे ॥ २७ ॥ ब्रह्मन् ! गत अनेकों वर्षों से तुम्हारा चित्त जैसी भार्या के लिये समाहित रहा है, अब शीघ्र ही वह राजकन्या तुम्हारी वैसी ही पत्नी होकर यथेष्ट सेवा करेगी ॥ २८ ॥ वह तुम्हारा वीर्य अपने गर्भ में धारणकर उससे नौ कन्याएँ उत्पन्न करेगी और फिर तुम्हारी उन कन्याओं से लोकरीति के अनुसार मरीचि आदि ऋषिगण पुत्र उत्पन्न करेंगे ॥ २९ ॥ तुम भी मेरी आज्ञा का अच्छी तरह पालन करने से शुद्धचित्त हो, फिर अपने सब कर्मों का फल मुझे अर्पणकर मुझको ही प्राप्त होओगे ॥ ३० ॥ जीवों पर दया करते हुए तुम आत्मज्ञान प्राप्त करोगे और फिर सबको अभयदान दे अपने सहित सम्पूर्ण जगत् को मुझमें और मुझको अपने में स्थित देखोगे ॥ ३१ ॥ महामुने ! मैं भी अपने अंश-कलारूप से तुम्हारे वीर्य द्वारा तुम्हारी पत्नी देवहूति के गर्भ में अवतीर्ण होकर सांख्यशास्त्र की रचना करूँगा ॥ ३२ ॥

मैत्रेयजी कहते हैं — विदुरजी ! कर्दमऋषि से इस प्रकार सम्भाषण करके, इन्द्रियों के अन्तर्मुख होने पर प्रकट होनेवाले श्रीहरि सरस्वती नदी से घिरे हुए बिन्दुसर-तीर्थ से (जहाँ कर्दम ऋषि तप कर रहे थे) अपने लोक को चले गये ॥ ३३ ॥ भगवान् के सिद्धमार्ग (वैकुण्ठमार्ग) की सभी सिद्धेश्वर प्रशंसा करते हैं । वे कर्दमजी के देखते-देखते अपने लोक को प्रस्थित हुए । उस समय गरुडजी के पक्षों से जो साम की आधारभूता ऋचाएँ निकल रहीं थीं, उन्हें वे सुनते जाते थे ॥ ३४ ॥

विदुरजी ! श्रीहरि के चले जाने पर भगवान् कर्दम उनके बताये हुए समय की प्रतीक्षा करते हुए बिन्दुसरोवर पर ही ठहरे रहे ॥ ३५ ॥ वीरवर ! इधर मनुजी भी महारानी शतरूपा के साथ सुवर्णजटित रथ पर सवार होकर तथा उसपर अपनी कन्या को भी बिठाकर पृथ्वी पर विचरते हुए, जो दिन भगवान् ने बताया था, उसी दिन शान्तिपरायण महर्षि कर्दम के उस आश्रम पर पहुँचे ॥ ३६-३७ ॥ सरस्वती के जल से भरा हुआ यह बिन्दुसरोवर वह स्थान हैं, जहाँ अपने शरणागत भक्त कर्दम के प्रति उत्पन्न हुई अत्यन्त करुणा के वशीभूत हुए भगवान् के नेत्रों से आँसुओं की बूंदें गिरी थी । यह तीर्थ बड़ा पवित्र है, इसका जल कल्याणमय और अमृत के समान मधुर है तथा महर्षिगण सदा इसका सेवन करते हैं ॥ ३८-३९ ॥ उस समय बिन्दु-सरोवर पवित्र वृक्ष-लताओं से घिरा हुआ था, जिनमें तरह-तरह की बोली बोलनेवाले पवित्र मृग और पक्षी रहते थे, वह स्थान सभी ऋतुओं के फल और फूलों से सम्पन्न था और सुन्दर वनश्रेणी भी उसकी शोभा बढ़ाती थी ॥ ४० ॥ वहाँ झुँड-के-झुँड मतवाले पक्षी चहक रहे थे, मतवाले भौंरे मँडरा रहे थे, उन्मत्त मयूर अपने पिच्छ फैला-फैलाकर नट की भाँति नृत्य कर रहे थे और मतवाले कोकिल कुहू कुहू करके मानो एक दूसरे को बुला रहे थे ॥ ४१ ॥ वह आश्रम कदम्ब, चम्पक, अशोक, करञ्ज, बकुल, असन, कुन्द, मन्दार, कुटज और नये-नये आम के वृक्ष से अलंकृत था ॥ ४२ ॥ वहाँ जलकाग, बत्तख आदि जलपर तैरनेवाले पक्षी हंस, कुरर, जलमुर्ग, सारस, चकवा और चकोर मधुर स्वर से कलरव कर रहे थे ॥ ४३ ॥ हरिन, सूअर, स्याही, नीलगाय, हाथी, लँगूर, सिंह, वानर, नेवले और कस्तूरीमृग आदि पशुओं से भी वह आश्रम घिरा हुआ था ॥ ४४ ॥

आदिराज महाराज मनु ने उस उत्तम तीर्थ में कन्या के सहित पहुँचकर देखा कि मुनिवर कर्दम अग्निहोत्र से निवृत्त होकर बैठे हुए हैं ॥ ४५ ॥ बहुत दिनों तक उग्र तपस्या करने के कारण वे शरीर से बड़े तेजस्वी दीख पड़ते थे तथा भगवान् के स्नेहपूर्ण चितवन के दर्शन और उनके उच्चारण किये हुए कर्णामृतरूप सुमधुर वचनों को सुनने से, इतने दिनों तक तपस्या करने पर भी वे विशेष दुर्बल नहीं जान पड़ते थे ॥ ४६ ॥ उनका शरीर लम्बा था, नेत्र कमलदल के समान विशाल और मनोहर थे, सिर पर जटाएँ सुशोभित थीं और कमर में चीर-वस्त्र थे । वे निकट से देखने पर बिना सानपर चढ़ी हुई महामूल्य मणि के समान मलिन जान पड़ते थे ॥ ४७ ॥ महाराज स्वायम्भुव मनु को अपनी कुटी में आकर प्रणाम करते देख उन्होंने उन्हें आशीर्वाद से प्रसन्न किया और यथोचित आतिथ्य की रीति से उनका स्वागत-सत्कार किया ॥ ४८ ॥ जब मनुजी उनकी पूजा ग्रहण कर स्वस्थचित्त से आसन पर बैठ गये, तब मुनिवर कर्दम ने भगवान् की आज्ञा का स्मरण कर उन्हें मधुर वाणी से प्रसन्न करते हुए इस प्रकार कहा — ॥ ४९ ॥

‘देव ! आप भगवान् विष्णु की पालनशक्तिरूप हैं, इसलिये आपका घूमना-फिरना निःसन्देह सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के संहार के लिये ही होता है ॥ ५० ॥ आप साक्षात् विशुद्ध विष्णुस्वरूप हैं तथा भिन्न-भिन्न कार्यों के लिये सूर्य, चन्द्र, अग्नि, इन्द्र, वायु, यम, धर्म और वरुण आदि रूप धारण करते हैं; आपको नमस्कार है ॥ ५१ ॥ आप मणियों से जड़े हुए जयदायक रथ पर सवार हो, अपने प्रचण्ड धनुष की टँकार करते हुए उस रथ घरघराहट से ही पापियों को भयभीत कर देते हैं और अपनी सेना के चरणों से रौंदै हुए भूमण्डल को कँपाते अपनी उस विशाल सेना को साथ लेकर पृथ्वी पर सूर्य के समान विचरते हैं । यदि आप ऐसा न करें तो चोर-डाकू भगवान् की बनायी हुई वर्णाश्नमधर्म की मर्यादा को तत्काल नष्ट कर दें तथा विषय-लोलुप निरङ्कुश मानवों द्वारा सर्वत्र अधर्म फैल जाय । यदि आप संसार की ओर से निश्चिन्त हो जायँ तो यह लोक दुराचारियों के पंजे में पड़कर नष्ट हो जाय ॥ ५२-५५ ॥ तो भी वीरवर ! मैं आपसे पूछता हूँ कि इस समय यहाँ आपका आगमन किस प्रयोजन से हुआ है ? मेरे लिये जो आज्ञा होगी, उसे मैं निष्कपट भाव से सहर्ष स्वीकार करूँगा ॥ ५६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे एकविंशोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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