January 27, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – तृतीय स्कन्ध – अध्याय ४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय चौथा अध्याय उद्धवजी से विदा होकर विदुरजी का मैत्रेय ऋषि के पास जाना उद्धवजी ने कहा — फिर ब्राह्मणों की आज्ञा पाकर यादवों ने भोजन किया और वारुणी मदिरा पी । उससे उनका ज्ञान नष्ट हो गया और वे दुर्वचनों से एक दूसरे के हृदय को चोट पहुँचाने लगे ॥ १ ॥ मदिरा के नशे से उनकी बुद्धि बिगड़ गयी और जैसे आपस की रगड़ से बाँसों में आग लग जाती है, उसी प्रकार सूर्यास्त होते-होते उनमें मार-काट होने लगी ॥ २ ॥ भगवान् अपनी माया की उस विचित्र गति को देखकर सरस्वती के जल से आचमन करके एक वृक्ष के नीचे बैठ गये ॥ ३ ॥ इससे पहले ही शरणागतों का दुःख दूर करनेवाले भगवान् श्रीकृष्ण अपने कुल का संहार करने की इच्छा होने पर मुझसे कह दिया था कि तुम बदरिकाश्रम चले जाओ ॥ ४ ॥ विदुरजी ! इससे यद्यपि मैं उनका आशय समझ गया था, तो भी स्वामी के चरणों का वियोग न सह सकने के कारण में उनके पीछे-पीछे प्रभासक्षेत्र में पहुँच गया ॥ ५ ॥ वहाँ मैंने देखा कि जो सबके आश्रय हैं किन्तु जिनका कोई और आश्रय नहीं है, वे प्रियतम प्रभु शोभाधाम श्यामसुन्दर सरस्वती के तट पर अकेले ही बैठे हैं ॥ ६ ॥ दिव्य विशुद्ध-सत्त्वमय अत्यन्त सुन्दर श्याम शरीर है, शान्ति से भरी रतनारी आँखें हैं । उनकी चार भुजाएँ और रेशमी पीताम्बर देखकर मैंने उनको दुर से ही पहचान लिया ॥ ७ ॥ वे एक पीपल के छोटे-से वृक्ष का सहारा लिये बायीं जाँघ पर दायाँ चरणकमल रखे बैठे थे । भोजन-पान का त्याग कर देने पर भी वे आनन्द से प्रफुल्लित हो रहे थे ॥ ८ ॥ इसी समय व्यासजी के प्रिय मित्र परम भागवत सिद्ध मैत्रेयजी लोकों में स्वच्छन्द विचरते हुए वहाँ आ पहुँचे ॥ ९ ॥ मैत्रेय मुनि भगवान् के अनुरागी भक्त हैं । आनन्द और भक्तिभाव से उनकी गर्दन झुक रही थी । उनके सामने ही श्रीहरि ने प्रेम एवं मुसकानयुक्त चितवन से मुझे आनन्दित करते हुए कहा ॥ १० ॥ श्रीभगवान् कहने लगे — मैं तुम्हारी आन्तरिक अभिलाषा जानता हूँ, इसलिये मैं तुम्हें वह साधन देता हूँ, जो दूसरों के लिये अत्यन्त दुर्लभ हैं । उद्धव ! तुम पूर्व-जन्म में वसु थे । विश्व की रचना करनेवाले प्रजापतियों और वसुओं के यज्ञ में मुझे पाने की इच्छा से ही तुमने मेरी आराधना की थी ॥ ११ ॥ साधुस्वभाव उद्धव ! संसार में तुम्हारा यह अन्तिम जन्म है; क्योंकि इसमें तुमने मेरा अनुग्रह प्राप्त कर लिया है । अब मैं मर्त्यलोक को छोड़कर अपने धाम में जाना चाहता हूँ । इस समय यहाँ एकान्त में तुमने अपनी अनन्य भक्ति के कारण ही मेरा दर्शन पाया है, यह बड़े सौभाग्य की बात है ॥ १२ ॥ पूर्वकाल में पाद्मकल्प के आरम्भ में मैंने अपने नाभि-कमल पर बैठे हुए ब्रह्मा को अपनी महिमा के प्रकट करनेवाले जिस श्रेष्ठ ज्ञान का उपदेश किया था और जिसे विवेकी लोग ‘भागवत’ कहते हैं, वहीं मैं तुम्हें देता हूँ ॥ १३ ॥ विदुरजी ! मुझपर तो प्रतिक्षण उन परम पुरुष की कृपा बरसा करती थी । इस समय उनके इस प्रकार आदरपूर्वक कहने से स्नेहवश मुझे रोमाञ्च हो आया, मेरी वाणी गद्गद हो गयी और नेत्रों से आँसुओं की धारा बहने लगी । उस समय मैंने हाथ जोड़कर उनसे कहा — ॥ १४ ॥ ‘स्वामिन् ! आपके चरण-कमलों की सेवा करनेवाले पुरुष को इस संसार में अर्थ, धर्म, काम, मोक्ष — इन चारों मॅ से कोई भी पदार्थ दुर्लभ नहीं हैं; तथापि मुझे उनमें से किसी की इच्छा नहीं है । मैं तो केवल आपके चरणकमलों की सेवाके लिये ही लालायित रहता हूँ ॥ १५ ॥ प्रभो ! आप नि:स्पृह होकर भी कर्म करते हैं, अजन्मा होकर भी जन्म लेते हैं, कालरूप होकर भी शत्रु के डर से भागते हैं और द्वारका के किले में जाकर छिप रहते हैं तथा स्वात्माराम होकर भी सोलह हजार स्त्रियों के साथ रमण करते हैं — इन विचित्र चरित्रों को देखकर विद्वानों की बुद्धि भी चक्कर में पड़ जाती है ॥ १६ ॥ देव ! आपका स्वरूपज्ञान सर्वथा अबाध और अखण्ड है । फिर भी आप सलाह लेने के लिये मुझे बुलाकर जो भोले मनुष्यों की तरह बड़ी सावधानी से मेरी सम्मति पूछा करते थे, प्रभो ! आपकी वह लीला मेरे मन को मोहित-सा कर देती है ॥ १७ ॥ स्वामिन् ! अपने स्वरूप का गूढ़ रहस्य प्रकट करनेवाला जो श्रेष्ठ एवं समग्र ज्ञान आपने ब्रह्माजी को बतलाया था, वह यदि मेरे समझने योग्य हो तो मुझे भी सुनाइये, जिससे मैं भी इस संसार-दुःख को सुगमता से पार कर जाऊँ’ ॥ १८ ॥ जब मैंने इस प्रकार अपने हृदय का भाव निवेदित किया, तब परमपुरुष कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण ने मुझे अपने स्वरूप की परम स्थिति का उपदेश दिया ॥ १९ ॥ इस प्रकार पूज्यपाद गुरु श्रीकृष्ण से आत्मतत्त्व की उपलब्धि का साधन सुनकर तथा उन प्रभु के चरणों की वन्दना और परिक्रमा करके मैं यहाँ आया हूँ । इस समय उनके विरह से मेरा चित्त अत्यन्त व्याकुल हो रहा है ॥ २० ॥ विदुरजी ! पहले तो उनके दर्शन पाकर मुझे आनन्द हुआ था, किन्तु अब तो मेरे हृदय को उनकी विरहव्यथा अत्यन्त पीड़ित कर रही है । अब मैं उनके प्रिय क्षेत्र बदरिकाश्रम को जा रहा हूँ, जहाँ भगवान् श्रीनारायणदेव और नर — ये दोनों ऋषि लोगों पर अनुग्रह करने के लिये दीर्घकालीन सौम्य, दूसरों को सुख पहुँचानेवाली एवं कठिन तपस्या कर रहे हैं ॥ २१-२२ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — इस प्रकार उद्धवजीके मुखसे अपने प्रिय बन्धुओं के विनाश का असह्य समाचार सुनकर परम ज्ञानी विदुरजी को जो शोक उत्पन्न हुआ, उसे उन्होंने ज्ञान द्वारा शान्त कर दिया ॥ २३ ॥ जब भगवान् श्रीकृष्ण के परिकरों में प्रधान महाभागवत उद्धवजी बदरिकाश्रम की ओर जाने लगे, तब कुरुश्रेष्ठ विदुरजी ने श्रद्धापूर्वक उनसे पूछा ॥ २४ ॥ विदुरजी ने कहा — उद्धवजी ! योगेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने स्वरूप के गूढ़ रहस्य को प्रकट करनेवाला जो परमज्ञान आपसे कहा था, वह आप हमें भी सुनाइये; क्योंकि भगवान् के सेवक तो अपने सेवकों का कार्य सिद्ध करने के लिये ही विचरा करते हैं ॥ २५ ॥ उद्धवजी ने कहा — उस तत्त्वज्ञान के लिये आपको मुनिवर मैत्रेयजी की सेवा करनी चाहिये । इस मर्त्यलोक को छोड़ते समय मेरे सामने स्वयं भगवान् ने ही आपको उपदेश करने के लिये उन्हें आज्ञा दी थी ॥ २६ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — इस प्रकार विदुरजी के साथ विश्वमूर्ति भगवान् श्रीकृष्ण के गुणों की चर्चा होने से उस कथामृत के द्वारा उद्धवजी का वियोगजनित महान् ताप शान्त हो गया । यमुनाजी के तीर पर उनकी वह रात्रि एक क्षण के समान बीत गयी । फिर प्रातःकाल होते ही वे वहाँ से चल दिये ॥ २७ ॥ राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! वृष्णिकुल और भोजवंश के सभी रथी और यूथपतियों के भी यूथपति नष्ट हो गये थे । यहाँतक कि त्रिलोकीनाथ श्रीहरि को भी अपना वह रूप छोड़ना पड़ा था । फिर उन सबके मुखिया उद्धवजी ही कैसे बच रहे ? ॥ २८ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — जिनकी इच्छा कभी व्यर्थ नहीं होती, उन श्रीहरि ने ब्राह्मणों के शापरूप काल के बहाने अपने कुल का संहार कर अपने श्रीविग्रह को त्यागते समय विचार किया ॥ २९ ॥ ‘अब इस लोक से मेरे चले जानेपर संयमीशिरोमणि उद्धव ही मेरे ज्ञान को ग्रहण करने के सच्चे अधिकारी हैं ॥ ३० ॥ उद्धव मुझसे अणुमात्र भी कम नहीं हैं, क्योंकि वे आत्मजयी हैं, विषयों से कभी विचलित नहीं हुए । अतः लोगों को मेरे ज्ञान की शिक्षा देते हुए वे यहीं रहें’ ॥ ३१ ॥ वेदक मूल कारण जगद्गुरु श्रीकृष्ण के इस प्रकार आज्ञा देने पर उद्धवजी बदरिकाश्रम में जाकर समाधियोग द्वारा श्रीहरि की आराधना करने लगे ॥ ३२ ॥ कुरुश्रेष्ठ परीक्षित् ! परमात्मा श्रीकृष्ण ने लीला से ही अपना श्रीविग्रह प्रकट किया था और लीला से ही उसे अन्तर्धान भी कर दिया । उनका वह अन्तर्धान होना भी धीर पुरुषों का उत्साह बढ़ानेवाला तथा दूसरे पशुतुल्य अधीर पुरुषों के लिये अत्यन्त दुष्कर था । परम भागवत उद्धवजी के मुख से उनके प्रशंसनीय कर्म और इस प्रकार अन्तर्धान होने का समाचार पाकर तथा यह जानकर कि भगवान् ने परमधाम जाते समय मुझे भी स्मरण किया था, विदुरजी उद्धवजी के चले जाने पर प्रेम से विह्वल होकर रोने लगे ॥ ३३-३५ ॥ इसके पश्चात् सिद्धशिरोमणि विदुरजी यमुनातट से चलकर कुछ दिनों में गङ्गाजी के किनारे जा पहुँचे, जहाँ श्रीमैत्रेयजी रहते थे ॥ ३६ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां तृतीयस्कन्धे विदुरोद्धवसंवादे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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