May 11, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – द्वादशः स्कन्ध – अध्याय १० ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय दसवाँ अध्याय मार्कण्डेयजी को भगवान् शङ्कर का वरदान सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! मार्कण्डेय मुनि ने इस प्रकार नारायण निर्मित योगमाया-वैभव का अनुभव किया । अब यह निश्चय करके कि इस माया से मुक्त होने के लिये मायापति भगवान् की शरण ही एकमात्र उपाय है, उन्हीं की शरण में स्थित हो गये ॥ १ ॥ मार्कण्डेयजी ने मन-ही-मन कहा — प्रभो ! आपकी माया वास्तव में प्रतीति-मात्र होने पर भी सत्य-ज्ञान के समान प्रकाशित होती हैं और बड़े-बड़े विद्वान् भी उसके खेलों में मोहित हो जाते हैं । आपके श्रीचरणकमल ही शरणागत को सब प्रकार से अभयदान करते हैं । इसलिये मैंने उन्हीं की शरण ग्रहण की हैं ॥ २ ॥ सूतजी कहते हैं — मार्कण्डेयजी इस प्रकार शरणागति की भावना में तन्मय हो रहे थे । उसी समय भगवान् शङ्कर भगवती पार्वतीजी के साथ नन्दी पर सवार होकर आकाशमार्ग से विचरण करते हुए उधर आ निकले और मार्कण्डेयजी को उसी अवस्था में देखा । उनके साथ बहुत से गण भी थे ॥ ३ ॥ जब भगवती पार्वती ने मार्कण्डेय मुनि को ध्यान की अवस्था में देखा, तब उनका हृदय वात्सल्य-स्नेह से उमड़ आया । उन्होंने शङ्करजी से कहा — ‘भगवन् ! तनिक इस ब्राह्मण की ओर तो देखिये । जैसे तूफान शान्त हो जाने पर समुद्र की लहरें और मछलियाँ शान्त हो जाती हैं और समुद्र धीर-गम्भीर हो जाता है, वैसे ही इस ब्राह्मण का शरीर, इन्द्रिय और अन्तःकरण शान्त हो रहा है । समस्त सिद्धियों के दाता आप ही हैं । इसलिये कृपा करके आप इस ब्राह्मण की तपस्या का प्रत्यक्ष फल दीजिये’ ॥ ४-५ ॥ भगवान् शङ्कर ने कहा — देवि ! ये ब्रह्मर्षि लोक अथवा परलोक की कोई भी वस्तु नहीं चाहते । और तो क्या, इनके मन में कभी मोक्ष की भी आकाङ्क्षा नहीं होती । इसका कारण यह है कि घट-घटवासी अविनाशी भगवान् के चरणकमलों में इन्हें परम भक्ति प्राप्त हो चुकी है ॥ ६ ॥ प्रिये ! यद्यपि इन्हें हमारी कोई आवश्यकता नहीं हैं, फिर भी मैं इनके साथ बातचीत करूँगा; क्योंकि ये महात्मा पुरुष हैं । जीवमात्र के लिये सबसे बड़े लाभ की बात यही है कि संत पुरुषों का समागम प्राप्त हो ॥ ७ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! भगवान् शङ्कर समस्त विद्याओं के प्रवर्तक और सारे प्राणियों के हृदय में विराजमान अन्तर्यामी प्रभु हैं । जगत् के जितने भी संत हैं, उनके एकमात्र आश्रय और आदर्श भी वही हैं । भगवती पार्वती से इस प्रकार कहकर भगवान् शङ्कर मार्कण्डेय मुनि के पास गये ॥ ८ ॥ उस समय मार्कण्डेय मुनि की समस्त मनोवृत्तियाँ भगवद्भाव में तन्मय थीं । उन्हें अपने शरीर और जगत् का बिल्कुल पता न था । इसलिये उस समय वे यह भी न जान सके कि मेरे सामने सारे विश्व के आत्मा स्वयं भगवान् गौरी-शङ्कर पधारे हुए हैं ॥ ९ ॥ शौनकजी ! सर्वशक्तिमान् भगवान् कैलासपति से यह बात छिपी न रहीं कि मार्कण्डेय मुनि इस समय किस अवस्था में हैं । इसलिये जैसे वायु अवकाश के स्थान में अनायास ही प्रवेश कर जाती है, वैसे ही वे अपनी योगमाया से मार्कण्डेय मुनि के हृदयाकाश में प्रवेश कर गये ॥ १० ॥ मार्कण्डेय मुनि ने देखा कि उनके हृदय में तो भगवान् शङ्कर के दर्शन हो रहे हैं । शङ्करजी के सिर पर बिजली के समान चमकीली पीली-पीली जटाएँ शोभायमान हो रही है । तीन नेत्र हैं और दस भुजाएँ । लंबा-तगड़ा शरीर उदयकालीन सूर्य के समान तेजस्वी हैं ॥ ११ ॥ शरीर पर बाघम्बर धारण किये हुए हैं और हाथों में शूल, खट्वांग, ढाल, रुद्राक्ष-माला, डमरू, खप्पर, तलवार और धनुष लिये हैं ॥ १२ ॥ मार्कण्डेय मुनि अपने हृदय में अकस्मात् भगवान् शङ्कर का यह रूप देखकर विस्मित हो गये । ‘यह क्या हैं ? कहाँ से आया ?’ इस प्रकार की वृत्तियों का उदय हो जाने से उन्होंने अपनी समाधि खोल दी ॥ १३ ॥ जब उन्होंने आँखें खोलीं, तब देखा कि तीनों लोकों के एकमात्र गुरु भगवान् शङ्कर श्रीपार्वतीजी तथा अपने गणों के साथ पधारे हुए हैं । उन्होंने उनके चरणों में माथा टेककर प्रणाम किया ॥ १४ ॥ तदनन्तर मार्कण्डेय मुनि ने स्वागत, आसन, पाद्य, अर्घ्य, गन्ध, पुष्पमाला, धूप और दीप आदि उपचारों से भगवान् शङ्कर, भगवती पार्वती और उनके गणों की पूजा की ॥ १५ ॥ इसके पश्चात् मार्कण्डेय मुनि उनसे कहने लगे — ‘सर्वव्यापक और सर्वशक्तिमान् प्रभो ! आप अपनी आत्मानुभूति और महिमा से ही पूर्णकाम है । आपकी शान्ति और सुख से ही सारे जगत् में सुख-शान्ति का विस्तार हो रहा हैं, ऐसी अवस्था में मैं आपकी क्या सेवा करूँ ?॥ १६ ॥ मैं आपके त्रिगुणातीत सदाशिव स्वरूप को और सत्त्वगुण से युक्त शान्तस्वरूप को नमस्कार करता हूँ । मैं आपके रजोगुणयुक्त सर्वप्रवर्तक स्वरूप एवं तमोगुणयुक्त अघोर स्वरूप को नमस्कार करता हूँ ॥ १७ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनि ने संतों के परम आश्रय देवाधिदेव भगवान् शङ्कर की इस प्रकार स्तुति की, तब वे उन पर अत्यन्त सन्तुष्ट हुए और बड़े प्रसन्न चित्त से हंसते हुए कहने लगे ॥ १८ ॥ भगवान् शङ्कर ने कहा — मार्कण्डेयजी ! ब्रह्मा, विष्णु तथा मैं — हम तीनों ही वदाताओं के स्वामी हैं, हम लोगों का दर्शन कभी व्यर्थ नहीं जाता । हम लोगों से ही मरणशील मनुष्य भी अमृतत्व की प्राप्ति कर लेता है । इसलिये तुम्हारी जो इच्छा हो, वही वर मुझसे माँग लो ॥ १९ ॥ ब्राह्मण स्वभाव से ही परोपकारी, शान्तचित्त एवं अनासक्त होते हैं । वे किसके साथ वैरभाव नहीं रखते और समदर्शी होने पर भी प्राणियों का कष्ट देखकर उसके निवारण के लिये पुरे हृदय से जुट जाते हैं । उनकी सबसे बड़ी विशेषता तो यह होती है कि वे हमारे अनन्य प्रेम एवं भक्त होते हैं ॥ २० ॥ सारे लोक और लोकपाल ऐसे ब्राह्मणों की वन्दना, पूजा और उपासना किया करते है । केवल वे ही क्यों; मैं, भगवान् ब्रह्मा तथा स्वयं साक्षात् ईश्वर विष्णु भी उनकी सेवामें संलग्न रहते है ॥ २१ ॥ ऐसे शान्त महापुरुष मुझमें, विष्णुभगवान् में, ब्रह्मा में, अपने में और सब जीवों में अणुमात्र भी भेद नहीं देखते । सदा-सर्वदा, सर्वत्र और सर्वथा एकरस आत्मा का ही दर्शन करते हैं । इसलिये हम तुम्हारे – जैसे महात्माओं की स्तुति और सेवा करते हैं ॥ २२ ॥ मार्कण्डेयजी ! केवल जलमय तीर्थ ही तीर्थ नहीं होते तथा केवल जड मूर्तियाँ ही देवता नहीं होती । सबसे बड़े तीर्थ और देवता तो तुम्हारे-जैसे संत हैं, क्योंकि वे तीर्थ और देवता बहुत दिनों में पवित्र करते हैं, परन्तु तुम लोग दर्शनमात्र से ही पवित्र कर देते हों ॥ २३ ॥ हमलोग तो ब्राह्मणों को ही नमस्कार करते हैं; क्योंकि वे चित्त की एकाग्रता, तपस्या, स्वाध्याय, धारणा, ध्यान और समाधि द्वारा हमारे वेदमय शरीर को धारण करते हैं ॥ २४ ॥ मार्कण्डेयजी ! बड़े-बड़े महापापी और अन्त्यज भी तुम्हारे जैसे महापुरुषों के चरित्र-श्रवण और दर्शन से ही शुद्ध हो जाते हैं । फिर वे तुमलोगों के सम्भाषण और सहवास आदि से शुद्ध हो जायें, इसमें तो कहना ही क्या हैं ॥ २५ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियों ! चन्द्रभूषण भगवान् शङ्कर की एक-एक बात धर्म के गुप्ततम रहस्य से परिपूर्ण थी । उसके एक-एक अक्षर में अमृत का समुद्र भरा हुआ था । मार्कण्डेय मुनि अपने कानों के द्वारा पूरी तन्मयता के साथ उसका पान करते रहे; परन्तु उन्हें तृप्ति न हुई ॥ २६ ॥ वे चिरकाल तक विष्णुभगवान् की माया से भटक चुके थे और बहुत थके हुए भी थे । भगवान् शिव की कल्याणी वाणी का अमृतपान करने से उनके सारे क्लेश नष्ट हो गये । उन्होंने भगवान् शङ्कर से इस प्रकार कहा ॥ २१ ॥ मार्कण्डेयजी ने कहा — सचमुच सर्वशक्तिमान् भगवान् की यह लीला सभी प्राणियों की समझ के परे है । भला, देखो तो सही — ये सारे जगत् के स्वामी होकर भी अपने अधीन रहनेवाले मेरे जैसे जीवों की वन्दना और स्तुति करते हैं ॥ २८ ॥ धर्म के प्रवचनकार प्रायः प्राणियों को धर्म का रहस्य और स्वरूप समझाने के लिये उसका आचरण और अनुमोदन करते हैं तथा कोई धर्म का आचरण करता है, तो उसकी प्रशंसा भी करते हैं ॥ २९ ॥ जैसे जादूगर अनेकों खेल दिखलाता हैं और उन खेलों से उसके प्रभाव में कोई अन्तर नहीं पड़ता, वैसे ही आप अपनी स्वजनमोहिनी माया की वृत्तियों को स्वीकार करके किसी की वन्दना-स्तुति आदि करते हैं तो केवल इस काम के द्वारा आपकी महिमा में कोई त्रुटि नहीं आती ॥ ३० ॥ आपने स्वप्नद्रष्टा के समान अपने मन से ही सम्पूर्ण विश्व की सृष्टि की है और इसमें स्वयं प्रवेश करके कर्ता न होने पर भी कर्म करनेवाले गुणों के द्वारा कर्ता के समान प्रतीत होते हैं ॥ ३१ ॥ भगवन् ! आप त्रिगुणस्वरूप होने पर भी उनके परे उनकी आत्मा के रूप में स्थित हैं । आप ही समस्त ज्ञान के मूल, केवल, अद्वितीय ब्रह्मस्वरूप हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३२ ॥ अनन्त ! आपके श्रेष्ठ दर्शन से बढ़कर ऐसी और कौन-सी वस्तु है, जिसे मैं वरदान के रूप में माँगू ? मनुष्य आपके दर्शन से ही पूर्णकाम और सत्यसङ्कल्प हो जाता है ॥ ३३ ॥ आप स्वयं तो पूर्ण हैं ही, अपने भक्तों की भी समस्त कामनाओं को पूर्ण करनेवाले हैं । इसलिये मैं आपका दर्शन प्राप्त कर लेने पर भी एक वर और माँगता हूँ । वह यह कि भगवान् में, उनके शरणागत भक्तों में और आपमें मेरी अविचल भक्ति सदासर्वदा बनी रहे ॥ ३४ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! जब मार्कण्डेय मुनि ने सुमधुर वाणी से इस प्रकार भगवान् शङ्कर की स्तुति और पूजा कीं, तब उन्होंने भगवती पार्वती की प्रसङ्ग-प्रेरणा से यह बात कही ॥ ३५ ॥ महर्षे ! तुम्हारी सारी कामनाएँ पूर्ण हों । इन्द्रियातीत परमात्मा में तुम्हारी अनन्य भक्ति सदा-सर्वदा बनी रहे । कल्पपर्यन्त तुम्हारा पवित्र यश फैले और तुम अजर एवं अमर हो जाओ ॥ ३६ ॥ ब्रह्मन् ! तुम्हारा ब्रह्मतेज तो सर्वदा अक्षुण्ण रहेगा ही । तुम्हें भूत, भविष्य और वर्तमान के समस्त विशेष ज्ञान का एक अधिष्ठानरूप ज्ञान और वैराग्ययुक्त स्वरूपस्थिति की प्राप्ति हो जाय । तुम्हें पुराण का आचार्यत्व भी प्राप्त हो ॥ ३७ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकजी ! इस प्रकार त्रिलोचन भगवान् शङ्कर मार्कण्डेय मुनि को वर देकर भगवती पार्वती से मार्कण्डेय मुनि की तपस्या और उनके प्रलय-सम्बन्धी अनुभवों का वर्णन करते हुए वहाँ से चले गये ॥ ३८ ॥ भृगुवंशशिरोमणि मार्कण्डेय मुनि को उनके महायोग का परम फल प्राप्त हो गया । वे भगवान् के अनन्यप्रेमी हो गये । अब भी वे भक्तिभावभरित हृदय से पृथ्वी पर विचरण किया करते हैं ॥ ३९ ॥ परम ज्ञानसम्पन्न मार्कण्डेय मुनि ने भगवान् की योगमाया से जिस अद्भुत लीला का अनुभव किया था, वह मैंने आपलोगों को सुना दिया ॥ ४० ॥ शौनकजी ! यह जो मार्कण्डेयजी ने अनेक कल्पों का — सृष्टि-प्रलयों का अनुभव किया, वह भगवान् की माया का ही वैभव था, तात्कालिक था और उन्हीं के लिये था, सर्वसाधारण के लिये नहीं । कोई-कोई इस माया की रचना को न जानकर अनादिकाल से बार-बार होनेवाले सृष्टि-प्रलय ही इसको भी बतलाते हैं । (इसलिये आपको यह शङ्का नहीं करनी चाहिये कि इसी कल्प के हमारे पूर्वज मार्कण्डेयजी की आयु इतनी लम्बी कैसे हो गयी ?) ॥ ४१ ॥ भृगुवंशशिरोमणे ! मैंने आपको यह जो मार्कण्डेयचरित्र सुनाया है, वह भगवान् चक्रपाणि के प्रभाव और महिमा से भरपूर है । जो इसका श्रवण एवं कीर्तन करते हैं, वे दोनों ही कर्म-वासना के कारण प्राप्त होनेवाले आवागमन के चक्कर से सर्वदा के लिये छूट जाते हैं ॥ ४२ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां द्वादशस्कन्धे दशमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related