श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ७१
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
ॐ श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
इकहत्तरवाँ अध्याय
श्रीकृष्णभगवान् का इन्द्रप्रस्थ पधारना

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण के वचन सुनकर महामति उद्धवजी ने देवर्षि नारद, सभासद् और भगवान् श्रीकृष्ण के मत पर विचार किया और फिर वे कहने लगे ॥ १ ॥

उद्धवजी ने कहा — भगवन् ! देवर्षि नारदजी ने आपको यह सलाह दी है कि फुफेरे भाई पाण्डवों के राजसूय यज्ञ में सम्मिलित होकर उनकी सहायता करनी चाहिये । उनका यह कथन ठीक ही है और साथ ही यह भी ठीक है कि शरणागतों की रक्षा अवश्य कर्तव्य है ॥ २ ॥ प्रभो ! जब हम इस दृष्टि से विचार करते हैं कि राजसूय यज्ञ वही कर सकता है, जो दसों दिशाओं पर विजय प्राप्त कर ले, तब हम इस निर्णय पर बिना किसी दुविधा पहुँच जाते हैं कि पाण्डवों के यज्ञ और शरणागतों की रक्षा दोनों कामों के लिये जरासन्ध को जीतना आवश्यक है ॥ ३ ॥ प्रभो ! केवल जरासन्ध को जीत लेने से ही हमारा महान् उद्देश्य सफल हो जायगा, साथ ही उससे बंदी राजाओं की मुक्ति और उसके कारण आपको सुयश की भी प्राप्ति हो जायगी ॥ ४ ॥ राजा जरासन्ध बड़े-बड़े लोगों के भी दाँत खट्टे कर देता है; क्योंकि दस हजार हाथियों का बल उसे प्राप्त है । उसे यदि हरा सकते हैं तो केवल भीमसेन, क्योंकि वे भी वैसे ही बली हैं ॥ ५ ॥ उसे आमने-सामने के युद्ध में एक वीर जीत ले, यही सबसे अच्छा है । सौ अक्षौहिणी सेना लेकर जब वह युद्ध के लिये खड़ा होगा, उस समय उसे जीतना आसान न होगा । जरासन्ध बहुत बड़ा ब्राह्मण-भक्त है । यदि ब्राह्मण उससे किसी बात की याचना करते हैं, तो वह कभी कोरा जवाब नहीं देता ॥ ६ ॥

इसलिये भीमसेन ब्राह्मण के वेष में जायें और उससे युद्ध की भिक्षा माँगे । भगवन् ! इसमें सन्देह नहीं कि यदि आपकी उपस्थिति में भीमसेन और जरासन्ध का द्वन्द्वयुद्ध हो, तो भीमसेन उसे मार डालेंगे ॥ ७ ॥ प्रभो ! आप सर्वशक्तिमान्, रूपरहित कालस्वरूप हैं । विश्व की सृष्टि और प्रलय आपकी ही शक्ति से होता है । ब्रह्मा और शङ्कर तो उसमें निमित्तमात्र हैं । (इसी प्रकार जरासन्ध का वध तो होगा आपकी शक्ति से, भीमसेन केवल उसमें निमित्तमात्र बनेंगे) ॥ ८ ॥ जब इस प्रकार आप जरासन्ध का वध कर डालेंगे, तब कैद में पड़े हुए राजाओं की रानियाँ अपने महलों में आपकी इस विशुद्ध लीला का गान करेंगी कि आपने उनके शत्रु का नाश कर दिया और उनके प्राणपतियों को छुड़ा दिया । ठीक वैसे ही, जैसे गोपियाँ शङ्खचूड़ से छुड़ाने की लीला का, आपके शरणागत मुनिगण गजेन्द्र और जानकीजी के उद्धार की लीला का तथा हमलोग आपके माता-पिता को कंस के कारागार से छुड़ाने की लीला का गान करते हैं ॥ ९ ॥ इसलिये प्रभो ! जरासन्ध का वध स्वयं ही बहुत-से प्रयोजन सिद्ध कर देगा । बंदी नरपतियों के पुण्य-परिणाम से अथवा जरासन्ध के पाप-परिणाम से सच्चिदानन्दस्वरूप श्रीकृष्ण ! आप भी तो इस समय राजसूय यज्ञ का होना ही पसंद करते हैं (इसलिये पहले आप वहीं पधारिये) ॥ १० ॥

श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! उद्धवजी की यह सलाह सब प्रकार से हितकर और निर्दोष थी । देवर्षि नारद, यदुवंश के बड़े-बूढ़े और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनकी बात का समर्थन किया ॥ ११ ॥ अब अन्तर्यामी भगवान् श्रीकृष्ण ने वसुदेव आदि गुरूजनों से अनुमति लेकर दारुक, जैत्र आदि सेवकों को इन्द्रप्रस्थ जाने की तैयारी करने के लिये आज्ञा दी ॥ १२ ॥ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने यदुराज उग्रसेन और बलरामजी से आज्ञा लेकर बाल-बच्चों के साथ रानियों और उनके सब सामानों को आगे चला दिया और फिर दारुक के लाये हुए गरुड़ध्वज रथ पर स्वयं सवार हुए ॥ १३ ॥ इसके बाद रथों, हाथियों, घुड़सवारों और पैदलों की बड़ी भारी सेना के साथ उन्होंने प्रस्थान किया । उस समय मृदङ्ग, नगारे, ढोल, शङ्ख और नरसिंगों की ऊँची ध्वनि से दसों दिशाएँ गूँज उठीं ॥ १४ ॥ सतीशिरोमणि रुक्मिणीजी आदि सहस्रों श्रीकृष्ण-पत्नियाँ अपनी सन्तान के साथ सुन्दर-सुन्दर वस्त्राभूषण, चन्दन,अङ्गराग और पुष्पों के हार आदि से सजे-धजकर डोलियों, रथों और सोने की बनी हुई पालकियों में चढ़कर अपने पतिदेव भगवान् श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चलीं । पैदल सिपाही हाथों में ढाल-तलवार लेकर उनकी रक्षा करते हुए चल रहे थे ॥ १५ ॥

इसी प्रकार अनुचरों की स्त्रियाँ और वाराङ्गनाएँ भली-भांति शृङ्गार करके रास आदि की झोपड़ियों, भाँति-भाँति के तंबुओं, कनातों, कम्बलों और ओढ़ने-बिछाने आदि की सामग्रियों को बैलों, भैंसों, गधों और खच्चरों पर लादकर तथा स्वयं पालकी, ऊँट, छकड़ों और हथिनियों पर सवार होकर चलीं ॥ १६ ॥ जैसे मगरमच्छों और लहरों की उछल-कुद से क्षुब्ध समुद्र की शोभा होती है, ठीक वैसे ही अत्यन्त कोलाहल से परिपूर्ण, फहराती हुई बड़ी-बड़ी पताकाओं, छत्रों, चँवरों, श्रेष्ठ अस्त्र-शस्त्रों, वस्त्राभूषणों, मुकुटों, कवचों और दिन के समय उनपर पड़ती हुई सूर्य की किरणों से भगवान् श्रीकृष्ण की सेना अत्यन्त शोभायमान हुई ॥ १७ ॥ देवर्षि नारदजी भगवान् श्रीकृष्ण से सम्मानित होकर और उनके निश्चय को सुनकर बहुत प्रसन्न हुए । भगवान् के दर्शन से उनका हृदय और समस्त इन्द्रियाँ परमानन्द में मग्न हो गयीं । विदा होने के समय भगवान् श्रीकृष्ण ने उनका नाना प्रकार की सामग्रियों से पूजन किया । अब देवर्षि नारद ने उन्हें मन-ही-मन प्रणाम किया और उनकी दिव्य मूर्ति को हृदय में धारण करके आकाशमार्ग से प्रस्थान किंया ॥ १८ ॥ इसके बाद भगवान् श्रीकृष्ण ने जरासन्ध के बंदी नरपतियों के दूत को अपनी मधुर वाणी से आश्वासन देते हुए कहा — ‘दूत ! तुम अपने राजाओं से जाकर कहना ‘डरो मत ! तुम लोगों का कल्याण हो । मैं जरासन्ध को मरवा डालूंगा’ ॥ १९ ॥ भगवान् की ऐसी आज्ञा पाकर वह दूत गिरिव्रज चला गया और नरपतियों को भगवान् श्रीकृष्ण का सन्देश ज्यों-का-त्यों सुना दिया । वे राजा भी कारागार से छूटने के लिये शीघ्र-से-शीघ्र भगवान् के शुभ दर्शन की बाट जोहने लगे ॥ २० ॥

परीक्षित् ! अब भगवान् श्रीकृष्ण आनर्त, सौवीर, मरु, कुरुक्षेत्र और उनके बीच में पड़नेवाले पर्वत, नदी, नगर, गाँव, अहीरों की बस्तियाँ तथा खानों को पार करते हुए आगे बढ़ने लगे ॥ २१ ॥ भगवान् मुकुन्द मार्ग में दृषद्वती एवं सरस्वती नदी पार करके पाञ्चाल और मत्स्य देशों में होते हुए इन्द्रप्रस्थ जा पहुँचे ॥ २२ ॥ परीक्षित् ! भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन अत्यन्त दुर्लभ है । जब अजातशत्रु महाराज युधिष्ठिर को यह समाचार मिला कि भगवान् श्रीकृष्ण पधार गये हैं, तब उनका रोम-रोम आनन्द से खिल उठा । वे अपने आचार्यों और स्वजन-सम्बन्धियों के साथ भगवान् की अगवानी करने के लिये नगर से बाहर आये ॥ २३ ॥ मङ्गल-गीत गाये जाने लगे, बाजे बजने लगे, बहुत-से ब्राह्मण मिलकर ऊँचे स्वर से वेदमन्त्रों का उच्चारण करने लगे । इस प्रकार वे बड़े आदर से हृषीकेश भगवान् का स्वागत करने के लिये चले, जैसे इन्द्रियाँ मुख्य प्राण से मिलने जा रही हों ॥ २४ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर राजा युधिष्ठिर का हृदय स्नेहातिरेक से गद्गद हो गया । उन्हें बहुत दिनों पर अपने प्रियतम भगवान् श्रीकृष्ण को देखने का सौभाग्य प्राप्त हुआ था । अतः वे उन्हें बार-बार अपने हृदय से लगाने लगे ॥ २५ ॥

भगवान् श्रीकृष्ण का श्रीविग्रह भगवती लक्ष्मीजी का पवित्र और एकमात्र निवासस्थान हैं । राजा युधिष्ठिर अपनी दोनों भुजाओं से उसका आलिङ्गन करके समस्त पाप-तापों से छुटकारा पा गये । वे सर्वतोभावेन परमानन्द के समुद्र में मग्न हो गये । नेत्रों में आँसू छलक आये, अङ्ग-अङ्ग पुलकित हो गया, उन्हें इस विश्व-प्रपञ्च के भ्रम का तनिक भी स्मरण न रहा ॥ २६ ॥ तदनन्तर भीमसेन ने मुसकराकर अपने ममेरे भाई श्रीकृष्ण को आलिङ्गन किया । इससे उन्हें बड़ा आनन्द मिला । उस समय उनके हृदय में इतना प्रेम उमड़ा कि उन्हें बाह्य विस्मृति-सी हो गयी । नकुल, सहदेव और अर्जुन ने भी अपने परम प्रियतम और हितैषी भगवान् श्रीकृष्ण को बड़े आनन्द से आलिङ्गन प्राप्त किया । उस समय उनके नेत्रों में आँसुओं की बाढ़-सी आ गयी थी ॥ २७ ॥ अर्जुन ने पुनः भगवान् श्रीकृष्ण का आलिङ्गन किया, नकुल और सहदेव ने अभिवादन किया और स्वयं भगवान् श्रीकृष्ण ने ब्राह्मणों और कुरुवंशी वृद्धों को यथायोग्य नमस्कार किया ॥ २८ ॥ कुरु, सृञ्जय और केकय देश के नरपतियों ने भगवान् श्रीकृष्ण का सम्मान किया और भगवान् श्रीकृष्ण ने भी उनका यथोचित सत्कार किया । सूत, मागध, वंदीजन और ब्राह्मण भगवान् की स्तुति करने लगे तथा गन्धर्व, नट, विदूषक आदि मृदङ्ग शङ्ख, नगारे, वीणा, ढोल और नरसिंगे बजा-बजाकर कमलनयन भगवान् श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिये नाचने-गाने लगे ॥ २९-३० ॥ इस प्रकार परमयशस्वी भगवान् श्रीकृष्ण ने अपने सुहृद्-स्वजनों के साथ सब प्रकार से सुसज्जित इन्द्रप्रस्थ नगर में प्रवेश किया । उस समय लोग आपस में भगवान् श्रीकृष्ण की प्रशंसा करते चल रहे थे ॥ ३१ ॥

इन्द्रप्रस्थ नगर की सड़कें और गलियाँ मतवाले हाथियों के मद से तथा सुगन्धित जल से सींच दी गयी थीं । जगह-जगह रंग-बिरंगी झंडियाँ लगा दी गयी थीं । सुनहले तोरन बाँधे हुए थे और सोने के जलभरे कलश स्थान-स्थान पर शोभा पा रहे थे । नगर के नर-नारी नहा-धोकर तथा नये वस्त्र, आभूषण, पुष्पों के हार, इत्र-फुलेल आदि से सज-धजकर घूम रहे थे ॥ ३२ ॥ घर-घर में ठौर-ठौर पर दीपक जलाये गये थे, जिनसे दीपावली की-सी छटा हो रही थी । प्रत्येक घर के झरोखों से धूप का धूआँ निकलता हुआ बहुत ही भला मालूम होता था । सभी घरों के ऊपर पताकाएँ फहरा ही थीं तथा सोने के कलश और चाँदी के शिखर जगमगा रहे थे । भगवान् श्रीकृष्ण इस प्रकार के महलों से परिपूर्ण पाण्डवों की राजधानी इन्द्रप्रस्थ नगर को देखते हुए आगे बढ़ रहे थे ॥ ३३ ॥ जब युवतियों ने सुना कि मानव-नेत्र के पानपात्र अर्थात् अत्यन्त दर्शनीय भगवान् श्रीकृष्ण राजपथ पर आ रहे हैं, तब उनके दर्शन की उत्सुकता के आवेग से उनकी चोटियों और साड़ियों की गाँठं ढीली पड़ गयीं । उन्होंने घर का काम-काज तो छोड़ ही दिया, सेज पर सोये हुए अपने पतियों को भी छोड़ दिया और भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन करने के लिये राजपथ पर दौड़ आयीं ॥ ३४ ॥

सड़क पर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल सेना की भीड़ लग रही थी । उन स्त्रियों ने अटारियों पर चढ़कर रानियों के सहित भगवान् श्रीकृष्ण का दर्शन किया, उनके ऊपर पुष्पों की वर्षा की और मन-ही-मन आलिङ्गन किया तथा प्रेमभरी मुसकान एवं चितवन से उनका सुस्वागत किया ॥ ३५ ॥ नगर की स्त्रियाँ राजपथ पर चन्द्रमा के साथ विराजमान ताराओं के समान श्रीकृष्ण की पत्नियों को देखकर आपस में कहने लगीं — ‘सखी ! इन बड़भागिनी रानियों ने न जाने ऐसा कौन-सा पुण्य किया है, जिसके कारण पुरुष-शिरोमणि भगवान् श्रीकृष्ण अपने उन्मुक्त हास्य और विलासपूर्ण कटाक्ष से उनकी ओर देखकर उनके नेत्रों को परम आनन्द प्रदान करते हैं ॥ ३६ ॥ इसी प्रकार भगवान् श्रीकृष्ण राजपथ से चल रहे थे । स्थान-स्थान पर बहुत-से निष्पाप धनी-मानी और शिल्पजीवी नागरिकों ने अनेकों माङ्गलिक वस्तुएँ ला-लाकर उनकी पूजा-अर्चा और स्वागत-सत्कार किया ॥ ३७ ॥

अन्तःपुर की स्त्रियाँ भगवान् श्रीकृष्ण को देखकर प्रेम और आनन्द से भर गयीं । उन्होंने अपने प्रेमविह्वल और आनन्द से खिले नेत्रों के द्वारा भगवान् का स्वागत किया और श्रीकृष्ण उनका स्वागत-सत्कार स्वीकार करते हुए राजमहल में पधारे ॥ ३८ ॥ अब कुन्ती ने अपने त्रिभुवनपति भतीजे श्रीकृष्ण को देखा, तब उनका हृदय प्रेम से भर आया । वे पलंग से उठकर अपनी पुत्रवधू द्रौपदी के साथ आगे गयीं और भगवान् श्रीकृष्ण को हृदय से लगा लिया ॥ ३९ ॥ देवदेवेश्वर भगवान् श्रीकृष्ण को राजमहल के अंदर लाकर राजा युधिष्ठिर आदरभाव और आनन्द के उद्रेक से आत्मविस्मृत हो गये; उन्हें इस बात की भी सुधि न रहीं कि किस क्रम से भगवान् की पूजा करनी चाहिये ॥ ४० ॥ भगवान् श्रीकृष्ण ने अपनी बुआ कुन्ती और गुरुजनों की पत्नियों का अभिवादन किया । उनकी बहिन सुभद्रा और द्रौपदी ने भगवान् को नमस्कार किया ॥ ४१ ॥

अपनी सास कुन्ती की प्रेरणा से द्रौपदी ने वस्त्र, आभूषण, माला आदि के द्वारा रुक्मिणी, सत्यभामा, भद्रा, जाम्बवती, कालिन्दी, मित्रविन्दा, लक्ष्मणा और परम साध्वी सत्या — भगवान् श्रीकृष्ण की इन पटरानियों का तथा वहाँ आयी हुई श्रीकृष्ण की अन्यान्य रानियों का भी यथायोग्य सत्कार किया ॥ ४२-४३ ॥ धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान् श्रीकृष्ण को उनकी सेना, सेवक, मन्त्री और पत्नियों के साथ ऐसे स्थान में ठहराया जहाँ उन्हें नित्य नयी-नयी सुख की सामग्रियाँ प्राप्त हों ॥ ४४ ॥ अर्जुन के साथ रहकर भगवान् श्रीकृष्ण ने खाण्डव वन का दाह करवाकर अग्नि को तृप्त किया था और मयासुर को उससे बचाया था । परीक्षित् ! उस मयासुर ने ही धर्मराज युधिष्ठिर के लिये भगवान् की आज्ञा से एक दिव्य सभा तैयार कर दी ॥ ४५ ॥ भगवान् श्रीकृष्ण राजा युधिष्ठिर को आनन्दित करने के लिये कई महीनों तक इन्द्रप्रस्थ में ही रहे । वे समय-समय पर अर्जुन के साथ थपर सवार होकर विहार करने के लिये इधर-उधर चले जाया करते थे । उस समय बड़े-बड़े वीर सैनिक भी उनकी सेवाके लिये साथ-साथ जाते ॥ ४६ ॥

॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे एकसप्ततित्तमोऽध्यायः ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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