May 2, 2019 | aspundir | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – दशम स्कन्ध उत्तरार्ध – अध्याय ७९ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय उन्नासीवाँ अध्याय बल्वल का उद्वार और बलरामजी की तीर्थयात्रा श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! पर्व का दिन आने पर बड़ा भयङ्कर अंधड़ चलने लगा । धूल की वर्षा होने लगी और चारों ओर से पीब की दुर्गन्ध आने लगी ॥ १ ॥ इसके बाद यज्ञशाला में बल्वल दानव ने मल-मूत्र आदि अपवित्र वस्तुओं की वर्षा की । तदनन्तर हाथ में त्रिशूल लिये वह स्वयं दिखायी पड़ा ॥ २ ॥ उसका डील-डौल बहुत बड़ा था, ऐसा जान पड़ता मानो ढेर-का-ढेर कालिख इकट्ठा कर दिया गया हो । उसकी चोटी और दाढ़ी-मूँछ तपे हुए ताँबे के समान लाल-लाल थीं । बड़ी-बड़ी दाढ़ों और भौंहों के कारण उसका मुंह बड़ा भयावना लगता था । उसे देखकर भगवान् बलरामजी ने शत्रुसेना की कुंदी करनेवाले मूसल और दैत्यों को चीर-फाड़ डालनेवाले हल का स्मरण किया । उनके स्मरण करते ही वे दोनों शस्त्र तुरंत वहाँ आ पहुँचे ॥ ३-४ ॥ बलरामजी ने आकाश में विचरनेवाले बल्वल दैत्य को अपने हल के अगले भाग से खींचकर उस ब्रहाद्रोही के सिर पर बड़े क्रोध से एक मूसल कसकर जमाया, जिससे उसका ललाट फट गया और वह खून उगलता तथा आर्तस्वर से चिल्लाता हुआ धरती पर गिर पड़ा, ठीक वैसे ही जैसे वज्र की चोट खाकर गेरू आदि से लाल हुआ कोई पहाड़ गिर पड़ा हो ॥ ५-६ ॥ नैमिषारण्यवासी महाभाग्यवान् मुनियों ने बलरामजी की स्तुति की, उन्हें कभी न व्यर्थ होनेवाले आशीर्वाद दिये और जैसे देवतालोग देवराज इन्द्र का अभिषेक करते हैं, वैसे ही उनका अभिषेक किया ॥ ७ ॥ इसके बाद ऋषियों ने बलरामजी को दिव्य वस्त्र और दिव्य आभूषण दिये तथा एक ऐसी वैजयन्ती माला भी दी, जो सौन्दर्य का आश्रय एवं कभी न मुरझानेवाले कमल के पुष्पों से युक्त थी ॥ ८ ॥ तदनन्तर नैमिषारण्यवासी ऋषियों से विदा होकर उनके आज्ञानुसार बलरामजी ब्राह्मणों के साथ कौशिकी नदी के तट पर आये । वहाँ स्नान करके वे उस सरोवर पर गये, जहाँ से सरयू नदी निकली हैं ॥ ९ ॥ वहाँ से सरयू के किनारे-किनारे चलने लगे, फिर उसे छोड़कर प्रयाग आये; और वहाँ स्नान तथा देवता, ऋषि एवं पितरों का तर्पण करके वहाँ से पुलहाश्रम गये ॥ १० ॥ वहाँ से गण्डकी, गोमती तथा विपाशा नदियों में स्नान करके वे सोननद के तट पर गये और वहाँ स्नान किया । इसके बाद गया में जाकर पितरों का वसुदेवजी के आज्ञानुसार पूजन-यजन किया । फिर गङ्गा-सागर-संगम पर गये; वहाँ भी स्नान आदि तीर्थ-कृत्यों से निवृत्त होकर महेन्द्र पर्वत पर गये । वहाँ परशुरामजी का दर्शन और अभिवादन किया । तदनन्तर सप्तगोदावरी, वेणा, पम्पा और भीमरथी आदि में स्नान करते हुए स्वामिकार्तिक का दर्शन करने गये तथा वहाँ से महादेवजी के निवास स्थान श्रीशैल पर पहुँचे । इसके बाद भगवान् बलराम ने द्रविड़ देश के परम पुण्यमय स्थान वेङ्कटाचल (बालाजी) का दर्शन किया और वहाँ से वे कामाक्षी—शिवकाञ्ची, विष्णुकाञ्ची होते हुए तथा श्रेष्ठ नदी कावेरी में स्नान करते हुए पुण्यमय श्रीरंगक्षेत्र में पहुँचे । श्रीरंगक्षेत्र में भगवान् विष्णु सदा विराजमान रहते हैं ॥ ११-१४ ॥ वहाँ से उन्होंने विष्णुभगवान् के क्षेत्र ऋषभ पर्वत, दक्षिण मथुरा तथा बड़े-बड़े महापापों को नष्ट करनेवाले सेतुबन्ध की यात्रा की ॥ १५ ॥ वहाँ बलरामजी ने ब्राह्मणों को दस हजार गौएँ दान कीं । फिर वहाँ से कृतमाला और ताम्रपणी नदियों में स्नान करते हुए वे मलयपर्वत पर गये । वह पर्वत सात कुलपर्वतों में से एक हैं ॥ १६ ॥ वहाँ पर विराजमान अगस्त्य मुनि को उन्होंने नमस्कार और अभिवादन किया । अगस्त्यजी से आशीर्वाद और अनुमति प्राप्त करके बलरामजी ने दक्षिण समुद्र की यात्रा की । वहीं उन्होंने दुर्गादेवी का कन्याकुमारी के रूप में दर्शन किया ॥ १७ ॥ इसके बाद वे फाल्गुन तीर्थ–अनन्तशयन क्षेत्र में गये और वहाँ के सर्वश्रेष्ठ पञ्चाप्सरस तीर्थ में स्नान किया । उस तीर्थ में सर्वदा विष्णुभगवान् का सान्निध्य रहता है । वहाँ बलरामजी ने दस हजार गौएँ दान कीं ॥ १८ ॥ अब भगवान् बलराम वहाँ से चलकर केरल और त्रिगर्त देशों में होकर भगवान् शङ्कर के क्षेत्र गोकर्णतीर्थ में आये । वहाँ सदा-सर्वदा भगवान् शङ्कर विराजमान रहते हैं ॥ १९ ॥ वहाँ से जल से धिरे द्वीप में निवास करनेवाली आर्यादेवी का दर्शन करने गये और फिर उस द्वीप से चलकर शूर्पारक-क्षेत्र की यात्रा की, इसके बाद तापी, पयोष्णी और निर्विन्ध्या नदियों में स्नान करके वे दण्डकारण्य में आये ॥ २० ॥ वहाँ होकर वे नर्मदाजी के तट पर गये । परीक्षित् ! इस पवित्र नदी के तट पर ही माहिष्मतीपुरी है । वहाँ मनुतीर्थ में स्नान करके वे फिर प्रभासक्षेत्र में चले आये ॥ २१ ॥ वहीं उन्होंने ब्राह्मणों से सुना कि कौरव और पाण्डवों के युद्ध में अधिकांश क्षत्रियों का संहार हो गया । उन्होंने ऐसा अनुभव किया कि अब पृथ्वी का बहुत-सा भार उतर गया ॥ २२ ॥ जिस दिन रणभूमि में भीमसेन और दुर्योधन गदा-युद्ध कर रहे थे, उसी दिन बलरामजी उन्हें रोकने के लिये कुरुक्षेत्र जा पहुँचे ॥ २३ ॥ महाराज युधिष्ठिर, नकुल, सहदेव, भगवान् श्रीकृष्ण और अर्जुन ने बलरामजी को देखकर प्रणाम किया तथा चुप हो रहे । वे डरते हुए मन-ही-मन सोचने लगे कि ये न जाने क्या कहने के लिये यहाँ पधारे हैं ? ॥ २४ ॥ उस समय भीमसेन और दुर्योधन दोनों ही हाथ में गदा लेकर एक-दूसरे को जीतने के लिये क्रोध से भरकर भाँति-भाँति के पैंतरे बदल रहे थे । उन्हें देखकर बलरामजी ने कहा — ॥ २५ ॥ ‘राजा दुर्योधन और भीमसेन ! तुम दोनों वीर हो । तुम दोनों में बल-पौरुष भी समान हैं । मैं ऐसा समझता हूँ कि भीमसेन में बल अधिक है और दुर्योधन ने गदायुद्ध में शिक्षा अधिक पायी है ॥ २६ ॥ इसलिये तुमलोगों — जैसे समान बलशालियों में किसी एक की जय या पराजय नहीं होती दीखती । अतः तुम लोग व्यर्थ का युद्ध मत करो, अब इसे बंद कर दो’ ॥ २७ ॥ परीक्षित् ! बलरामजी की बात दोनों के लिये हितकर थीं । परन्तु उन दोनों का वैरभाव इतना दृढमूल हो गया था कि उन्होंने बलरामजी की बात न मानी । वे एक-दूसरे की कट्रवाणी और दुर्व्यवहारों का स्मरण करके उन्मत्त-से हो रहे थे ॥ २८ ॥ भगवान् बलरामजी ने निश्चय किया कि इनका प्रारब्ध ऐसा ही है; इसलिये उसके सम्बन्ध में विशेष आग्रह न करके वे द्वारका लौट गये । द्वारका में उग्रसेन आदि गुरुजनों तथा अन्य सम्बन्धियों ने बड़े प्रेम से आगे आकर उनका स्वागत किया ॥ २९ ॥ वहाँ से बलरामजी फिर नैमिषारण्य क्षेत्र में गये । वहाँ ऋषियों ने विरोधभाव से — युद्धादि से निवृत्त बलरामजी के द्वारा बड़े प्रेम से सब प्रकार के यज्ञ कराये । परीक्षित् ! सच पूछे तो जितने भी यज्ञ हैं, वे बलरामजी के अंग ही हैं । इसलिये उनका यह यज्ञानुष्ठान लोकसंग्रह के लिये ही था ॥ ३० ॥ सर्वसमर्थ भगवान् बलराम ने उन ऋषियों को विशुद्ध तत्त्वज्ञान का उपदेश किया, जिससे वे लोग इस सम्पूर्ण विश्व को अपने-आपमें और अपने आपको सारे विश्व में अनुभव करने लगे ॥ ३१ ॥ इसके बाद बलरामजी ने अपनी पत्नी रेवती के साथ यज्ञान्त-स्नान किया और सुन्दर-सुन्दर वस्त्र तथा आभूषण पहनकर अपने भाई-बन्धु तथा स्वजन-सम्बन्धियों के साथ इस प्रकार शोभायमान हुए, जैसे अपनी चन्द्रिका एवं नक्षत्रों के साथ चन्द्रदेव होते हैं ॥ ३२ ॥ परीक्षित् ! भगवान् बलराम स्वयं अनन्त हैं । उनका स्वरूप मन और वाणी के परे है । उन्होंने लीला के लिये ही यह मनुष्योंका-सा शरीर ग्रहण किया है । उन बलशाली बलरामजी के ऐसे-ऐसे चरित्रों की गिनती भी नहीं की जा सकती ॥ ३३ ॥ जो पुरुष अनन्त, सर्वव्यापक, अद्भुतकर्मा भगवान् बलरामजी के चरित्र का सायं-प्रातः स्मरण करता है, वह भगवान् का अत्यन्त प्रिय हो जाता है ॥ ३४ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां दशमस्कन्धे उत्तरार्धे एकोनाशीतित्तमोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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