March 18, 2019 | Leave a comment श्रीमद्भागवतमहापुराण – षष्ठ स्कन्ध – अध्याय ४ ॐ श्रीपरमात्मने नमः ॐ श्रीगणेशाय नमः ॐ नमो भगवते वासुदेवाय चौथा अध्याय दक्षके द्वारा भगवान् की स्तुति और भगवान् का प्रादुर्भाव राजा परीक्षित् ने पूछा — भगवन् ! आपने संक्षेप से (तीसरे स्कन्धमें) इस बात का वर्णन किया कि स्वायम्भुव मन्वन्तर में देवता, असुर, मनुष्य, सर्प और पशु-पक्षी आदि की सृष्टि कैसे हुई ॥ १ ॥ अब मैं उसी का विस्तार जानना चाहता हूँ । प्रकृति आदि कारणों के भी परम कारण भगवान् अपनी जिस शक्ति से जिस प्रकार उसके बाद की सृष्टि करते हैं, उसे जानने की भी मेरी इच्छा है ॥ २ ॥ सूतजी कहते हैं — शौनकादि ऋषियो ! परम योगी व्यासनन्दन श्रीशुकदेवजी ने राजर्षि परीक्षित् का यह सुन्दर प्रश्न सुनकर उनका अभिनन्दन किया और इस प्रकार कहा ॥ ३ ॥ श्रीशुकदेवजी ने कहा — राजा प्राचीनबर्हि के दस लड़के-जिनका नाम प्रचेता था- जब समुद्र से बाहर निकले, तब उन्होंने देखा कि हमारे पिता के निवृत्तिरायण हो जाने से सारी पृथ्वी पेड़ों से घिर गयी हैं ॥ ४ ॥ उन्हें वृक्षों पर बड़ा क्रोध आया । उनके तपोबल ने तो मानो क्रोध की आग में आहुति ही डाल दी । बस, उन्होंने वृक्षों को जला डालने के लिये अपने मुख से वायु और अग्नि की सृष्टि की ॥ ५ ॥। परीक्षित् ! जब प्रचेताओं की छोड़ी हुई अग्नि और वायु उन वृक्षों को जलाने लगी, तब वृक्षों के राजाधिराज चन्द्रमा ने उनका क्रोध शान्त करते हुए इस प्रकार कहा ॥ ६ ॥ ‘महाभाग्यवान् प्रचेताओ ! ये वृक्ष बड़े दीन हैं । आपलोग इनसे द्रोह मत कीजिये क्योंकि आप तो प्रजा की अभिवृद्धि करना चाहते हैं और सभी जानते हैं कि आप प्रजापति हैं ॥ ७ ॥ महात्मा प्रचेताओ ! प्रजापतियों के अधिपति अविनाशी भगवान् श्रीहरि ने सम्पूर्ण वनस्पतियों और ओषधियों को प्रजा के हितार्थ उनके खान-पान के लिये बनाया है ॥ ८ ॥ संसार में पँखों से उड़नेवाले चर प्राणियों के भोजन फल-पुष्पादि अचर पदार्थ हैं । पैर से चलनेवालों के घास-तृणादि बिना पैरवाले पदार्थ भोजन हैं, हाथवालों के वृक्ष-लता आदि बिना हाथवाले, और दो पैरवाले मनुष्यादि के लिये धान, गेहूं आदि अन्न भोजन हैं । चार पैरवाले बैंल, ऊँट आदि खेती प्रभृति के द्वारा अन्न की उत्पत्ति में सहायक हैं ॥ ९ ॥ निष्पाप प्रचेताओ ! आपके पिता और देवाधिदेव भगवान् ने आपलोगों को यह आदेश दिया है कि प्रजा की सृष्टि करो । ऐसी स्थिति में आप वृक्षों को जला डालें, यह कैसे उचित हो सकता है ॥ १० ॥ आपलोग अपना क्रोध शान्त करें और अपने पिता, पितामह, प्रपितामह आदि के द्वारा सेवित सत्पुरुषों के मार्ग का अनुसरण करें ॥ ११ ॥ जैसे माँ-बाप बालकों की, पलकें नेत्रों की, पति पत्नी की, गृहस्थ भिक्षुकों की और ज्ञानी अज्ञानियों की रक्षा करते हैं और उनका हित चाहते हैं वैसे ही प्रजा की रक्षा और हित का उत्तरदायी राजा होता है ॥ १२ ॥ प्रचेताओ ! समस्त प्राणियों के हृदय में सर्वशक्तिमान् भगवान् आत्मा के रूप में विराजमान हैं । इसलिये आप लोग सभी को भगवान् का निवासस्थान समझें । यदि आप ऐसा करेंगे तो भगवान् को प्रसन्न कर लेंगे ॥ १३ ॥ जो पुरुष हृदय के उबलते हुए भयङ्कर क्रोध को आत्मविचार के द्वारा शरीर में ही शान्त कर लेता है, बाहर नहीं निकलने देता, वह कालक्रम से तीनों गुणों पर विजय प्राप्त कर लेता हैं ॥ १४ ॥ प्रचेताओ ! इन दीन-हीन वृक्ष को और न जलाइये; जो कुछ बच रहे हैं, उनकी रक्षा कीजिये । इससे आपका भी कल्याण होगा । इस श्रेष्ठ कन्या का पालन इन वृक्षों ने ही किया है, इसे आपलोग पत्नी के रूप में स्वीकार कीजिये’ ॥ १५ ॥ परीक्षित् ! वनस्पतियों के राजा चन्द्रमा ने प्रचेताओं को इस प्रकार समझा-बुझाकर उन्हें प्रलोचा अप्सरा की सुन्दरी कन्या दे दी और वे वहाँ से चले गये । प्रचेताओं ने धर्मानुसार उसका पाणिग्रहण किया ॥ १६ ॥ उन्हीं प्रचेताओं के द्वारा उस कन्या के गर्भ से प्राचेतस् दक्ष की उत्पत्ति हुई । फिर दक्ष की प्रजा-सृष्टि से तीनों लोक भर गये ॥ १७ ॥ इनका अपनी पुत्रियों पर बड़ा प्रेम था । इन्होंने जिस प्रकार अपने सङ्कल्प और वीर्य से विविध प्राणियों की सृष्टि की, वह मैं सुनाता हूँ, तुम सावधान होकर सुनो ॥ १८ ॥ परीक्षित् ! पहले प्रजापति दक्ष ने जल, थल और आकाश में रहनेवाले देवता, असुर एवं मनुष्य आदि प्रजा की सृष्टि अपने सङ्कल्प से ही की ॥ १९ ॥ जब उन्होंने देखा कि वह सृष्टि बढ़ नहीं रही है, तब उन्होंने विन्ध्याचल के निकटवर्ती पर्वतों पर जाकर बड़ी घोर तपस्या की ॥ २० ॥ वहाँ एक अत्यन्त श्रेष्ठ तीर्थ है, उसका नाम है —अघमर्षण । वह सारे पापों को धो बहाता है । प्रजापति दक्ष इस तीर्थ में त्रिकाल स्नान करते और तपस्या के द्वारा भगवान् की आराधना करते ॥ २१ ॥ प्रजापति दक्ष ने इन्द्रियातीत भगवान् की ‘हंसगुह्य’ नामक स्तोत्र से स्तुति की थी । उसीसे भगवान् उनपर प्रसन्न हुए थे । मैं तुम्हें वह स्तुति सुनाता हूँ ॥ २३ ॥ दक्ष प्रजापति ने इस प्रकार स्तुति की — भगवन् ! आपकी अनुभूति, आपकी चित्-शक्ति अमोघ है । आप जीव और प्रकृति से परे, उनके नियन्ता और उन्हें सत्तास्फूर्ति देनेवाले हैं । जिन जीवन त्रिगुणमयी सृष्टि को ही वास्तविक सत्य समझ रखा है, वे आपके स्वरूप का साक्षात्कार नहीं कर सके हैं । क्योंकि आपतक किसी भी प्रमाण की पहुँच नहीं है — आपकी कोई अवधि, कोई सीमा नहीं है । आप स्वयंप्रकाश और परात्पर हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ २३ ॥ यों तो जीव और ईश्वर एक-दूसरे के सखा हैं तथा इसी शरीर में इकट्ठे ही निवास करते हैं, परन्तु जीव सर्वशक्तिमान् आपके सख्यभाव को नहीं जानता — ठीक वैसे ही, जैसे रूप, रस, गन्ध आदि विषय अपने प्रकाशित करनेवाली नेत्र, घ्राण आदि इन्द्रियवृत्तियों को नहीं जानते । क्योंकि आप जीव और जगत् के द्रष्टा हैं, दृश्य नहीं । महेश्वर ! मैं आपके श्रीचरणों में नमस्कार करता हूँ ॥ २४ ॥ देह, प्राण, इन्द्रिय, अन्तःकरण की वृत्तियाँ, पञ्चमहाभूत और उनकी तन्मात्राएँ — ये सब जड होने के कारण अपने को और अपने से अतिरिक्त को भी नहीं जानते । परन्तु जीव इन सबको और इनके कारण सत्व, रज और तम — इन तीन गुणों को भी जानता है । परन्तु वह भी दृश्य अथवा ज्ञेयरूप से आपको नहीं जान सकता । क्योंकि आप ही सबके ज्ञाता और अनन्त हैं । इसलिये प्रभो ! मैं तो केवल आपकी स्तुति करता हूँ ॥ २५ ॥ जब समाधिकाल में प्रमाण, विकल्प और विपर्ययरूप विविध ज्ञान और स्मरण-शक्ति का लोप हो जाने से इस नाम-रूपात्मक जगत् का निरूपण करनेवाला मन उपरत हो जाता है, उस समय बिना मन के भी केवल सच्चिदानन्दमयी अपनी स्वरूपस्थिति के द्वारा आप प्रकाशित होते रहते हैं । प्रभो ! आप शुद्ध हैं और शुद्ध हृदय-मन्दिर ही आपका निवासस्थान है । आपको मेरा नमस्कार हैं ॥ २६ ॥ जैसे याज्ञिक लोग काष्ठ में छिपे हुए अग्नि को ‘सामिधेनी’ नाम के पन्द्रह मन्त्रों के द्वारा प्रकट करते हैं, वैसे ही ज्ञानी पुरुष अपनी सत्ताईस शक्तियों के भीतर गूढभाव से छिपे हुए आपको अपनी शुद्ध बुद्धि के द्वारा हृदय में ही ढूंढ़ निकालते हैं ॥ २७ ॥ जगत् में जितनी भिन्नताएँ देख पड़ती हैं, वे सब माया की ही हैं । माया का निषेध कर देने पर केवल परम सुख के साक्षात्कारस्वरूप आप ही अवशेष रहते हैं । परन्तु जब विचार करने लगते हैं, तब आपके स्वरूप में माया की उपलब्धि—निर्वचन नहीं हो सकता । अर्थात् माया भी आप ही हैं । अतः सारे नाम और सारे रूप आपके ही हैं । प्रभो ! आप मुझपर प्रसन्न होइये । मुझे आत्मप्रसाद से पूर्ण कर दीजिये ॥ २८ ॥ प्रभो ! जो कुछ वाणी से कहा जाता है अथवा जो कुछ मन, बुद्धि और इन्द्रियों से ग्रहण किया जाता है, वह आपका स्वरूप नहीं हैं; क्योंकि वह तो गुणरूप है और आप गुणों की उत्पत्ति और प्रलय के अधिष्ठान हैं । आपमें केवल उनकी प्रतीति-मात्र है ॥ २९ ॥ भगवन् ! आपमें ही यह सारा जगत् स्थित हैं; आपसे ही निकला है और आपने-और किसी के सहारे नहीं अपने-आपसे ही इसका निर्माण किया है । यह आपका ही हैं और आपके लिये ही हैं । इसके रूप में बननेवाले भी आप हैं और बनानेवाले भी आप ही हैं । बनने-बनाने की विधि भी आप ही हैं । आप ही सबसे काम लेनेवाले भी हैं । जब कार्य और कारण का भेद नहीं था, तब भी आप स्वयंसिद्ध स्वरूप से स्थित थे । इससे आप सबके कारण भी हैं । सच्ची बात तो यह है कि आप जीव-जगत् के भेद और स्वगतभेद से सर्वथा रहित एक अद्वितीय हैं । आप स्वयं ब्रह्म हैं । आप मुझपर प्रसन्न हों ॥ ३० ॥ प्रभो आपकी ही शक्तियाँ वादी-प्रतिवादियों के विवाद और संवाद (ऐकमत्य) का विषय होती हैं और उन्हें बार-बार मोह में डाल दिया करती हैं । आप अनन्त अप्राकृत कल्याण-गुणगणों से युक्त एवं स्वयं अनन्त हैं । मैं आपको नमस्कार करता हूँ ॥ ३१ ॥ भगवन् ! उपासक लोग कहते हैं कि हमारे प्रभु हस्त-पादादि से युक्त साकार-विग्रह हैं और सांख्यवादी कहते हैं कि भगवान् हस्त-पादादि विग्रह से रहित-निराकार हैं । यद्यपि इस प्रकार वे एक ही वस्तु के दो परस्परविरोधी धर्मों का वर्णन करते हैं, परन्तु फिर भी उसमें विरोध नहीं हैं । क्योंकि दोनों एक ही परम वस्तु में स्थित है । बिना आधार के हाथ-पैर आदि का होना सम्भव नहीं और निषेध की भी कोई-न-कोई अवधि होनी ही चाहिये । आप वही आधार और निषेध की अवधि हैं । इसलिये आप साकार, निराकार दोनों से ही अविरुद्ध सम परब्रह्म हैं ॥ ३२ ॥ प्रभो ! आप अनन्त हैं । आपका न तो कोई प्राकृत नाम हैं और न कोई प्राकृत रूप; फिर भी जो आपके चरणकमलों का भजन करते हैं, उनपर अनुग्रह करने के लिये आप अनेक रूपों में प्रकट होकर अनेकों लीलाएँ करते हैं तथा उन-उन रूपों एवं लीलाओं के अनुसार अनेकों नाम धारण कर लेते हैं । परमात्मन् ! आप मुझपर कृपा-प्रसाद कीजिये ॥ ३३ ॥ लोगों की उपासनाएँ प्रायः साधारण कोटि की होती हैं । अतः आप सबके हृदय में रहकर उनकी भावना के अनुसार भिन्न-भिन्न देवताओं के रूप में प्रतीत होते रहते हैं ठीक वैसे ही जैसे हवा गन्ध का आश्रय लेकर सुगन्धित प्रतीत होती है, परन्तु वास्तव में सुगन्धित नहीं होती । ऐसे सबकी भावनाओं का अनुसरण करनेवाले प्रभु मेरी अभिलाषा पूर्ण करें ॥ ३४ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — परीक्षित् ! विन्ध्याचल के अघमर्षण तीर्थ में जब प्रजापति दक्ष ने इस प्रकार स्तुति की, तब भक्तवत्सल भगवान् उनके सामने प्रकट हुए ॥ ३५ ॥ उस समय भगवान् गरुड़ के कंधों पर चरण रखे हुए थे । विशाल एवं हृष्ट-पुष्ट आठ भुजाएँ थीं; उनमें चक्र, शङ्ख तलवार, ढाल, बाण, घनुष, पाश और गदा घारण किये हुए थे ॥ ३६ ॥ वर्षाकालीन मेघ के समान श्यामल शरीर पर पीताम्बर फहरा रहा था । मुखमण्डल प्रफुल्लित था । नेत्रों से प्रसाद की वर्षा हो रही थी । घुटनों तक वनमाला लटक रही थी । वक्षःस्थल पर सुनहरी रेखा—श्रीवत्सचिह्न और गले में कौस्तुभमणि जगमगा रही थी ॥ ३७ ॥ बहुमूल्य किरीट, कंगन, मकराकृत कुण्डल, करधनी, अंगूठी, कड़े, नूपुर और बाजूबंद अपने-अपने स्थान पर सुशोभित थे ॥ ३८ ॥ त्रिभुवनपति भगवान् ने त्रैलोक्यविमोहन रूप धारण कर रखा था । नारद, नन्द, सुनन्द आदि पार्षद उनके चारों ओर खड़े थे । इन्द्र आदि देवेश्वरगण स्तुति कर रहे थे तथा सिद्ध, गन्धर्व और चारण भगवान् के गुणों का गान कर रहे थे । यह अत्यन्त आश्चर्यमय और अलौकिक रूप देखकर दक्षप्रजापति कुछ सहम गये ॥ ३९-४० ॥ प्रजापति दक्ष ने आनन्द से भरकर भगवान् के चरणों में साष्टाङ्ग प्रणाम किया । जैसे झरनों के जल से नदियाँ भर जाती हैं, जैसे ही परमानन्द के उद्रेक से उनकी एक-एक इन्द्रिय भर गयी और आनन्दपरवश हो जाने के कारण वे कुछ भी बोल न सके ॥ ४१ ॥ परीक्षित् ! प्रजापति दक्ष अत्यन्त नम्रता से झुककर भगवान् के सामने खड़े हो गये । भगवान् सबके हृदय की बात जानते ही हैं, उन्होंने दक्ष प्रजापति की भक्ति और प्रजावृद्धि की कामना देखकर उनसे यों कहा ॥ ४२ ॥ श्रीभगवान् ने कहा — परम भाग्यवान् दक्ष ! अब तुम्हारी तपस्या सिद्ध हो गयी, क्योंकि मुझपर श्रद्धा करने से तुम्हारे हृदय में मेरे प्रति परम प्रेमभाव का उदय हो गया है ॥ ४३ ॥ प्रजापते ! तुमने इस विश्व की वृद्धि के लिये तपस्या की है, इसलिये मैं तुमपर प्रसन्न हूँ । क्योंकि यह मेरी ही इच्छा है कि जगत् के समस्त प्राणी अभिवृद्ध और समृद्ध हों ॥ ४४ ॥ ब्रह्मा, शङ्कर, तुम्हारे जैसे प्रजापति, स्वायम्भुव आदि मनु तथा इन्द्रादि देवेश्वर — ये सब मेरी विभूतियाँ हैं और सभी प्राणियों की अभिवृद्धि करनेवाले हैं ॥ ४५ ॥ ब्रह्मन् ! तपस्या मेरा हृदय है, विद्या शरीर है, कर्म आकृति है, यज्ञ अङ्ग है, धर्म मन है और देवता प्राण हैं ॥ ४६ ॥ जब यह सृष्टि नहीं थी, तब केवल मैं ही था और वह भी निष्क्रियरूप में । बाहर-भीतर कहीं भी और कुछ न था । न तो कोई द्रष्टा था और न दृश्य । मैं केवल ज्ञानस्वरूप और अव्यक्त था । ऐसा समझ लो, मानो सब ओर सुषुप्ति-ही-सुषुप्ति छा रही हो ॥ ४७ ॥ प्रिय दक्ष ! मैं अनन्त गुणों का आधार एवं स्वयं अनन्त हूँ । जब गुणमयी माया के क्षोभ से यह ब्रह्माण्ड-शरीर प्रकट हुआ, तब इसमें अयोनिज आदिपुरुष ब्रह्मा उत्पन्न हुए ॥ ४८ ॥ जब मैंने उनमें शक्ति और चेतना का सञ्चार किया, तब देवशिरोमणि ब्रह्मा सृष्टि करने के लिये उद्यत हुए । परन्तु उन्होंने अपने को सृष्टिकार्य में असमर्थ-सा पाया ॥ ४९ ॥ उस समय मैंने उन्हें आज्ञा दी कि तप करो । तब उन्होंने घोर तपस्या की और उस तपस्या के प्रभाव से पहले-पहल तुम नौ प्रजापतियों की सृष्टि की ॥ ५० ॥ प्रिय दक्ष ! देखो, यह पञ्चजन प्रजापति की कन्या असिक्नी है । इसे तुम अपनी पत्नी के रूप में ग्रहण करो ॥ ५१ ॥ अब तुम गृहस्थोचित स्त्री सहवासरूप धर्म को स्वीकार करो । यह असिक्नी भी उसी धर्म को स्वीकार करेगी । तब तुम इसके द्वारा बहुत-सी प्रजा उत्पन्न कर सकोगे ॥ ५२ ॥ प्रजापते ! अब तक तो मानसी सृष्टि होती थी, परन्तु अब तुम्हारे बाद सारी प्रजा मेरी माया से स्त्री-पुरुष के संयोग से ही उत्पन्न होगी तथा मेरी सेवामें तत्पर रहेगी ॥ ५३ ॥ श्रीशुकदेवजी कहते हैं — विश्व के जीवनदाता भगवान् श्रीहरि यह कहकर दक्ष के सामने ही इस प्रकार अन्तर्धान हो गये, जैसे स्वप्न में देखीं हुई वस्तु स्वप्न टूटते ही लुप्त हो जाती है ॥ ५४ ॥ ॥ श्रीमद्भागवते महापुराणे पारमहंस्यां संहितायां षष्ठस्कन्धे चतुर्थोऽध्यायः ॥ ॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥ Related