July 30, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीमहाभागवत [देवीपुराण]-अध्याय-11 ॥ ॐ ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे ॥ ग्यारहवाँ अध्याय त्रिदेवों द्वारा जगदम्बिका की स्तुति करना, देवी का भगवान् शंकर को पार्वती रूप में पुनः प्राप्त होने का आश्वासन देना, छाया सती की देह लेकर शिव का प्रलयंकारी नृत्य करना, भगवान् विष्णु का सुदर्शन चक्र से सती के अङ्गों को काटना और उनसे इक्यावन शक्तिपीठों का प्रादुर्भाव अथ एकादशोऽध्यायः श्रीशिवनारदसंवादे छायासतीवर्णनं श्रीमहादेव जी बोले — इस प्रकार यज्ञ के सम्पूर्ण होने पर सती के वियोग से दुःखी शिव साधारण मनुष्यों के समान बार-बार रुदन करने लगे ॥ १ ॥ तब ब्रह्मा और विष्णु ने उन भगवान् से कहा — महाज्ञानी ! आप अज्ञानी के समान मोहग्रस्त होकर क्यों रुदन कर रहे हैं? ॥ २ ॥ वे देवी जगदम्बा तो सनातन पूर्णब्रह्मस्वरुपा हैं । वे ही महाविद्या हैं, समस्त विश्व की सृष्टि करने वाली हैं और सर्वचैतन्यस्वरूपिणी हैं । जिनकी माया के प्रभाव से सम्पूर्ण संसार तथा हम सभी विमोहित हैं, उनके द्वारा शरीर छोड़ने की बात तो भ्रान्तिपूर्ण विडम्बना ही है ॥ ३-४ ॥ प्रभो ! महेश्वर ! जिनकी कृपा से आप मृत्युञ्जय हैं, उनकी मृत्यु तो वास्तविक नहीं है । यह भ्रममात्र ही है ॥ ५ ॥ हम तीनों पुरुष (ब्रह्मा, विष्णु, महेश) भी उन्हीं के स्वरुप हैं । इस बात से (अर्थात भगवती को मृत मानकर प्राकृत पुरुष की भाँति विलाप करने से) आप ही की निन्दा ध्वनित होती है, उनकी नहीं ॥ ६ ॥ परमेश्वर ! उन पार्वती की निन्दा घोर पाप को उत्पन्न करने वाली है, जिसके द्वारा इस प्रकार का पाप होता है, उसका वे निश्चय ही त्याग कर देती हैं ॥ ७ ॥ वे महादेवी धर्मशील पुरुष का कभी त्याग नहीं करती । अधर्मी का त्याग करने में वे पिता आदि सम्बन्धों का भी विचार नहीं करती ॥ ८ ॥ उनका सम्बन्ध तो मात्र धर्म से ही रहता है न कि लौकिक कारणों से । जो धर्माचरण करता है, वही उनका पिता, माता और बान्धव है ॥ ९ ॥ जो अधर्म करने वाला है, वह उनका बान्धव नहीं परम शत्रु है । इसी कारण भगवान् शिव की निन्दारूपी पाप में रत देखकर दक्षप्रजापति का उन महेश्वरी ने त्याग कर दिया । यदि वे पराम्बा दक्ष की पुत्री के भाव में स्थित होती तो दुर्दान्त दक्षप्रजापति का दमन कैसे होता? इसलिए धर्म-कर्म के फल को प्रदान करने वाली वे महादेवी उस महापापी का त्याग करके स्वयं अपने धाम में चली आईं ॥ १०-१२१/२ ॥ क्या वे क्षण मात्र में ही प्रजापति का संहार करने में असमर्थ थीं ? फिर भी उन्होंने इसकी जो उपेक्षा की वह लोकशिक्षण के लिए था । धर्म का उपदेश करने वाली वे भगवती यदि ऐसा आचरण नहीं करती तो लोग पिता के प्रति सहिष्णु कैसे हो पाते? इसलिए वे नित्या परमा शक्ति प्रजापति दक्ष को अपनी माया से मोहित करते हुए और स्वयं अपनी मायाशक्ति से अन्तर्धान होकर गगन-मण्डल में स्थित हो गईं । महादेव ! आप शोक का त्याग करें, क्योंकि अग्नि में तो सती की छाया ने ही प्रवेश किया है ॥ १३-१६ ॥ शिवजी बोले — आप लोगों ने जो कुछ कहा वह सत्य ही है । सती मेरी परा प्रकृति हैं । वे नित्या, ब्रह्ममयी और सूक्ष्मरूपा हैं । उन्होंने स्वयं अपनी देह का त्याग नहीं किया है । किंतु वे मेरे प्राणों की एकमात्र प्रियतमा सती कहाँ चली गयीं ? (इस भाव से मुझे व्याकुलता होती है) पुनः जब मैं शान्तचित्त होता हूँ तो उन्हें परमेश्वरी के रूप में देखता हूँ ॥ १७-१८ ॥ ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र बोले — उन सर्वलोक की एकमात्र वन्दिता जगज्जननी की हम लोग स्तुति करते हैं, तभी प्रसन्न होकर वे पुनः दर्शन देंगी ॥ १९ ॥ श्रीमहादेव जी बोले — नारद ! भगवान् शिव के साथ वे देवगण ऐसा निश्चय करके साक्षात् ब्रह्मस्वरूपिणी महादेवी की स्तुति करने लगे ॥ २० ॥ ब्रह्मा, विष्णु और शिव बोले — आप नित्या, परमा विद्या, जगत् में चैतन्यरूप से व्याप्त और पूर्ण-ब्रह्मस्वरूपा देवी हैं । आप स्वेच्छा से शरीर धारण करती हैं । आपका वह परम रूप वेद और आगम से सुनिश्चित अद्वैत ब्रह्म ही है । अपरोक्षानुभूति से जानने योग्य तथा परम गोपनीय आपको हम नमस्कार करते हैं ॥ २१-२२ ॥ आप सृष्टि के निमित्त प्रकृति और पुरुष के रुप में स्वयं ही शरीर धारण करती हैं, इसलिए वेदों के द्वारा आपको कल्पित द्वैतरूपा कहा गया है । उस सृष्टि प्रक्रिया में भी आपके बिना पुरुष अपूर्ण और शव के समान ही है । अतः सभी देवताओं में आपकी प्रधानता कही जाती है ॥ २३-२४ ॥ शिवे ! इस प्रकार की अचिन्त्य रूप और लीला वाली आपकी स्तुति करने में हम अल्पबुद्धिवाले कैसे सक्षम हो सकते हैं । आप स्वयं स्वेच्छा से हमारी सृष्टि और संहार करती हैं । इसलिए इस त्रिलोकी में आपकी स्तुति करने में कौन समर्थ है ! ॥ २५-२६ ॥ सभी ज्ञानीजन भी सामान्य मनुष्यों की भाँति आपकी माया से मोहित हैं तो हम आप परमेश्वरी की वन्दना करने में कैसे समर्थ हो सकते हैं ? आप ही हमारी चेतना, बुद्धि और शक्ति हैं, आपके बिना हम सभी शव की तरह हैं । अतः हम आपकी स्तुति कैसे करें ! आप त्रिगुणात्मक बन्धन से बाँधकर अपनी माया से अज्ञानियों की भाँति हमें भी भ्रान्त कर रही हैं, अतः आपके यथार्थ स्वरुप को कौन जान सकता है ! ॥ २७-२९ ॥ परमेश्वरी ! दक्ष प्रजापति के घर में हम लोगों ने आपके उस रूप के दर्शन किए थे, कृपापूर्वक उसी प्रकार हमें पुनः दर्शन दें । जगत् को धारण करने वाली आप महेश्वरी को न देखकर हम कान्तिहीन हो गए हैं । इस कारण शव के समान हम आपको अपनी आत्मा तथा प्राण के रूप में देखते हैं ॥ ३०-३१ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — इस प्रकार स्तुति करने पर महादेवी ने देवताओं के विषाद और शिव की विकलता देखकर आकाश में उन्हें दर्शन दिया ॥ ३२ ॥ भगवती काली जिस रूप में दक्ष के यज्ञ में आयी थीं और अपनी माया के द्वारा उनकी छाया जिस प्रकार अग्नि में प्रविष्ट हुई थी, उस मूल प्रकृति को उन्होंने निर्निमेष दृष्टि से देखा । उन महादेवी ने शिव से कहा — महादेव ! आप स्थिरचित्त हों, मैं स्वयं हिमालय की पुत्री बनकर तथा मेना के गर्भ से जन्म लेकर पुनः आपको प्राप्त करूँगी । यह मैं आपसे सत्य कहती हूँ ॥ ३३-३५ ॥ महेश्वर ! मैंने आपका परित्याग कभी नहीं किया, आप ही मुझ महाकाली के हृदयस्थान और परम आश्रय हैं, इसी से आप जगत्संहारक महाकाल कहे जाते हैं ॥ ३६१/२ ॥ आपने प्रभुता के अभिमान से मुझे कुछ कहा था, उसी अपराध के कारण मैं आपकी साक्षात् पत्नी के रूप में कुछ समय तक नहीं रह सकूँगी । शिव ! आप शान्तचित्त हो जाएँ ॥ ३७-३८ ॥ शम्भो ! मैं आपको एक उपाय बताती हूँ, उसे ही आप सम्पन्न करें । तब निश्चय ही आप मुझे पहले से भी अधिक सुन्दर स्वरुप में पुनः प्राप्त करेंगे ॥ ३९ ॥ महेश्वर ! शिव ! दक्ष की यज्ञाग्नि में मेरे जिस छाया शरीर ने प्रवेश किया था, उसे सिर पर लेकर मेरी प्रार्थना करके, आप इस पृथ्वी पर भ्रमण करें ॥ ४० ॥ वह मेरा छाया शरीर अनेक खण्डों में होकर पृथ्वी पर गिरेगा और उस-उस स्थान पर पापों का नाश करने वाला महान् शक्तिपीठ उदित होगा ॥ ४१ ॥ जहाँ योनि भाग गिरेगा, वह सर्वोत्तम शक्तिपीठ होगा । वहाँ रहकर तपस्या करके आप मुझे पुनः प्राप्त करेंगे ॥ ४२ ॥ मुनिश्रेष्ठ ! ऐसा कहकर और महादेव को बार-बार आश्वासन देकर वे देवी अन्तर्धान हो गईं ॥ ४३ ॥ मुने! ब्रह्मादि श्रेष्ठ देवगण अपने-अपने लोकों को चले गए और शिवजी पुनः दक्ष के घर में आकर ‘प्रिये ! सती ! सती !’ ऐसा कहते हुए सामान्य जन के समान रुदन करने लगे ॥ ४४१/२ ॥ यज्ञशाला में प्रवेश करके उन्होंने सती के छाया शरीर को देदीप्यमान देखा । वह शरीर भूमि पर स्थित था, नेत्र मुँदे हुए थे एवं सभी अङ्गों से परिपूर्ण था । सती की उस छाया को सहज भाव में सोयी हुई-सी देखकर शोक से व्याकुल हृदय होकर शिवजी ने इस प्रकार कहा — ॥ ४५-४६१/२ ॥ सती ! मैं तुम्हारा पति तुम्हारे पास आया हूँ, तुम उठो, पहले की भाँति मुझसे वार्तालाप क्यों नहीं कर रही हो ? अपराधी मुझे एवं दक्ष को शोक के महासमुद्र में गिराकर अपनी माया से हमें मोहित करती हुई तुम स्वयं अन्तर्धान हो गई हो । अब मैं अपनी एकमात्र तुझ प्राणप्रिया का त्याग कभी नहीं करुँगा । प्रसन्नतापूर्वक तुम्हें लेकर मैं कितने दिन घूमता रहूँगा? ॥ ४७-४९१/२ ॥ मुने ! इस प्रकार साधारण मनुष्यों की भाँति बहुधा विलाप करते हुए शिवजी ने अपनी भुजाओं से सती के छाया शरीर का आलिङ्गन करते हुए उसे सिर पर उठा लिया ॥ ५०१/२ ॥ शंकर जी सती के उस छाया शरीर को सिर पर रखकर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक धरती पर नाचने लगे। ब्रह्मा आदि सुरश्रेष्ठ तथा इन्द्र के नेतृत्व में अन्य देवगण इस अपूर्व दृश्य को देखने अपने-अपने रथों में बैठकर आकाश में आ गये । दसों दिशाओं में सम्यक् पुष्पवृष्टि होने लगी । तदनन्तर सुशोभित जटाओं वाले प्रमथगण मुखवाद्य बजाने लगे और नाचने लगे ॥ ५१-५३१/२ ॥ चारों ओर नाचते हुए शिवजी सती के छाया शरीर को कभी सिर पर, कभी दाएँ हाथ में, कभी बाएँ हाथ में तो कभी कन्धे पर और कभी प्रेमपूर्वक वक्षःस्थल पर धारण कर अपने चरण-प्रहार से पृथ्वी को कम्पित करते हुए नृत्य करने लगे ॥ ५४-५५१/२ ॥ चन्द्रलोक में स्थित चन्द्रमा उनके ललाट पर तिलक के समान सुशोभित होने लगा, नक्षत्रमण्डल देदीप्यमान जटाओं में गुँथ गया और सूर्यलोक में स्थित भगवान् भास्कर उनके कण्ठाभरण बन गये ॥ ५६-५७ ॥ महामुने! कच्छप और शेषनाग उनके चरणाघातों से पीड़ित होकर धरती छोड़ने को उद्यत हो गये । अत्यन्त वेगपूर्वक नृत्य करने से प्रचण्ड वायु बहने लगी, जिसके कारण सुमेरु आदि बड़े-बड़े पर्वत वृक्षों के समान कांपने लगे । इस प्रकार चराचर जगत् को क्षुब्ध करते हुए और सती के छाया शरीर को सिर पर धारण किये हुए नटराज शिव सम्पूर्ण पृथ्वी पर घूमते रहे और वे प्रसन्नतापूर्वक मन में ऐसा सोचने लगे — ॥ ५८-६० ॥ सती ! तुम मेरी पत्नी हो, इसलिए मैं लोकलाज छोड़कर तुम्हारी छाया को सिर पर ढो रहा हूँ, यह मेरा अहोभाग्य है । इस प्रकार अपने भाग्य की सराहना करते हुए शिवजी आनन्दमग्न होकर पुनः-पुनः नृत्य करने लगे ॥ ६१-६२ ॥ इससे सारा संसार अत्यन्त क्षुब्ध होने गया, पक्षीगण मृतक के समान हो गये और लोग अकाल प्रलय की कल्पना करने लगे ॥ ६३ ॥ ब्रह्माजी की आज्ञा से ऋषिगण महान् स्वस्तिवाचन करने लगे । देवताओं को चिन्ता हुई कि यह कैसी विपत्ति आ गयी । वे सोचने लगे कि अब संसार की रक्षा का कोई उपाय नहीं दिखता । इस दक्ष ने शिवजी से द्वेष करने के कारण ऐसा कुयज्ञ प्रारम्भ किया, जिससे इस संसार सहित हम सबका नाश हो जाएगा । विघूर्णित नेत्र वाले, सर्वसमर्थ शिवजी तो आनन्द से मतवले होकर सृष्टि पर आयी इस विपत्ति का विचार नहीं कर रहे हैं, वे जगत्संहारक रुद्र कैसे शान्त होंगे? ॥ ६४-६७ ॥ भगवान् विष्णु बोले — देवगणों ! मैं उपाय बताता हूँ, आप लोग उसका प्रयत्न करें । महादेवी ने पहले ऐसा कहा था कि सती का छाया शरीर भूतल पर अनेक खण्डों में निश्चय ही गिरेगा और जहाँ-जहाँ इस देह के खण्ड गिरेंगे, उन-उन स्थानों पर शक्तिपीठ रूप पुण्यतीर्थ का उदय होगा । उन देवी ने जो कुछ भी कहा है, वह कभी असत्य नहीं होगा ॥ ६७-७१ ॥ सती का छाया शरीर भूतल पर अवश्य गिरेगा । अतः सृष्टि की रक्षा के लिए मैं महान् साहस करके परमानन्दमग्न शिव के सिर पर स्थित सती के छाया शरीर को समर्थ सदाशिव के अनजाने में सुदर्शन चक्र से टुकड़े-टुकड़े कर गिराऊँगा । मेरे द्वारा ऐसा करने पर शिवजी के कोप से निश्चय ही वे ब्रह्ममयी जगत्पालनकारिणी महादेवी मेरी रक्षा करेंगी ॥ ७२-७४१/२ ॥ देवी बोलीं — प्रभु विष्णु ! जगन्नाथ ! आप ऐसा यदि करें, तभी जगत् की रक्षा होगी नहीं तो प्रलय हो जाएगा ॥ ७५१/२ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — तब भगवान् शंकर से डरे हुए-से, जगत् का पालन करने वाले पराक्रमी भगवान् विष्णु ने सुदर्शन चक्र से सती के छाया शरीर के टुकड़े-टुकड़े करके गिरा दिये ॥ ७६-७७ ॥ नाचते हुए शिव आनन्दमनचित्त होकर जब धरती पर चरण पटकते थे, उसी समय विष्णु चक्र चलाकर उनके सिर पर रखा सती का छाया शरीर काट देते थे । इस प्रकार विष्णु के चक्र से उस शरीर के सारे अङ्ग कटकर अलग हो गये और वे धरातल पर अनेक स्थानों पर गिरे । महामुने ! पृथ्वी पर वे ही स्थान महातीर्थ और मुक्तिक्षेत्र के रूप में विख्यात हुए। वे स्थान सिद्धपीठ हैं और देवताओं के लिये भी अत्यन्त दुर्लभ हैं। महामुने ! वहाँ भगवती के निमित्त जो हवन-अर्चन आदि करता है, उसका कोटिगुना फल उसे प्राप्त होता है। वहाँ जप करने वाले मनुष्य को महादेवी साक्षात् दर्शन देती हैं तथा ब्रह्महत्यादि महापापों से भी प्राणी मुक्त हो जाते हैं ॥ ७८-८२१/२ ॥ भूमितल पर सती के छायाशरीर से जो अवयव गिरे, वे तत्क्षण सभी प्राणियों के कल्याण के निमित्त पाषाणरूप बन गये। मुने! ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र और इन्द्रादि देवगण आकर परमेश्वरी से उन शक्तिपीठों पर विराजमान रहने की प्रार्थना करने लगे ॥ ८३-८४१/२ ॥ विष्णुके द्वारा इस प्रकार सती के छायाशरीर के टुकड़े करने पर तथा अपने सिर को भाररहित हुआ अनुभव कर शिवजी ने धैर्य धारण किया। उन्होंने समस्त स्थावर-जङ्गम सृष्टि को व्याकुल हुआ देखा ॥ ८५-८६ ॥ तत्पश्चात् भगवान् विष्णु ने ब्रह्मापुत्र नारद को भगवान् महादेव को शान्त करने के लिये उनके निकट भेजा ॥ ८७ ॥ भगवान् विष्णु ने नारद से कहा — नारद! तुम्हारा कल्याण हो, तुम मेरे प्रति शिवजी को शान्त करो, तुम्हीं इस कार्य में समर्थ हो। तुम ब्रह्मा के महाबुद्धिमान् पुत्र हो । महामति ! परमेश्वर शिवजी सती वियोग से दुःखार्त होकर किसका क्या कर देंगे अथवा इस संसार का ही प्रलय कर सकते हैं, वे महेश्वर जिस प्रकार शान्तचित्त होकर रहें, वैसा प्रयत्न करके सदाशिव को सान्त्वना प्रदान करो ॥ ८८-९० ॥ उनका ऐसा वचन सुनकर नारदजी चल पड़े और महादेवजी के सामने हाथ जोड़कर उपस्थित हुए ॥ ९१ ॥ नृत्यरत शिवजी ने हाथ जोड़कर खड़े नारद को देखकर कहा कि मेरी एकमात्र प्राणप्रिया, साध्वी सती कहाँ चली गयी ? ॥ ९२ ॥ नारदजी बोले — शम्भो ! आप शान्तचित्त हों, सती को आप पुनः अवश्य प्राप्त करेंगे। सती तो आपकी नित्य सहचरी हैं । परमेश्वर ! उनको आकाश में जाते देखकर भी क्या आपको विश्वास नहीं हुआ ? शम्भो ! आप अकाल प्रलय न करें, आप स्थिरचित्त हो जायँ ॥ ९३-९४ ॥ शिवजी बोले — नारद! ऐसा क्यों कहते हो, मैंने तुम लोगों का क्या बिगाड़ा है ? अथवा मैं कहाँ अकाल प्रलय कर रहा हूँ? मैं तो सती के विरह से दुःखार्त हुआ उसके छायाशरीर को ही पाकर किसी प्रकार दुःख को भुला रहा था, किसी निर्दयी ने मेरे सिर से उस देह का भी अपहरण कर लिया है ॥ ९५-९६१/२ ॥ नारदजी बोले — देव ! आप शान्तचित्त हों, मैं आपको सब बताता हूँ। महादेव ! आप हम पर प्रसन्न हों और अपना यह प्रलयंकारी नृत्य बंद करें। आपके इस नृत्य से पीड़ित हुई पृथ्वी भी डूब रही है, सभी पर्वत चलायमान हो गये हैं और देवगण स्वर्ग छोड़कर चले गये हैं । देव-असुर तथा मानवों की यह सारी सृष्टि नष्ट हो रही है ॥ ९७-९९ ॥ आपको अपने द्वारा उपस्थित यह प्रलय दिखायी नहीं दे रहा है ? प्रभो ! इस ताण्डव नृत्य के बहाने आप सृष्टि का नाश करने को क्यों उद्यत हैं ? जो अपने लक्ष्य का ही विनाश कर दे, ऐसे कर्म का क्या प्रयोजन? त्रैलोक्य के पालनकर्ता भगवान् विष्णु ने इस अद्भुत विपत्ति को देखकर आपको सान्त्वना देने के लिये ही सुदर्शन चक्र धारण करके उससे सती के छाया शरीर को धीरे-धीरे काटा ॥ १००-१०२॥ प्रभो ! उस देह के खण्ड पृथ्वी तल पर जहाँ-जहाँ गिरे, उन-उन स्थानों पर कामरूपादि महाशक्तिपीठ अवतरित हो गये हैं ॥ १०३ ॥ आपने जब जगज्जननी की आराधना की थी, तब उन्होंने पहले ही यह बात कही थी कि मेरा यह शरीर पृथ्वी तल पर अनेक खण्डों में गिरेगा, जहाँ मेरे प्रसिद्ध महापीठ उदित होंगे। इसीलिये भगवान् विष्णु ने ऐसा किया। सदाशिव ! आप शान्त हों ॥ १०४-१०५ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — नारद के ऐसा कहने पर भगवान् सदाशिव ने नृत्य को त्यागकर बार-बार निःश्वास छोड़ते हुए कमलापति विष्णु को शाप दे दिया ॥ १०६ ॥ मेरे शाप के कारण निश्चय ही विष्णु को धरती पर मनुष्य का रूप धारण करके त्रेतायुग में सूर्यवंश में जन्म लेना पड़ेगा। वहाँ उनकी मनोहारिणी प्राणप्रिया पत्नी सती के समान अपनी छाया को छोड़कर माया से स्वयं अन्तर्धान हो जायँगी ॥ १०७-१०८ ॥ तब माया से मोहित हुए वे आनन्दमग्न होकर दूर चले जायेंगे। जिस तरह क्रूर राक्षस की भाँति विष्णु ने मुझे छाया पत्नी का वियोगी बना दिया है, वैसे ही राक्षसराज कठोरतापूर्वक विष्णु की छायापत्नी का हरण करके उन्हें वियोगी बनायेगा। महामुने! यह मेरा सत्य वचन है । विष्णु मेरी ही भाँति अवश्य ही शोक से व्याकुलचित्त होंगे 1 ॥ १०९–११११/२ ॥ श्रीमहादेवजी बोले — इस प्रकार विष्णु को शाप देकर शिवजी स्वस्थचित्त हो गये और अपने तीनों नेत्रों को फैलाकर उन्होंने त्रिलोकी को देखा ॥ ११२ ॥ कामरूपदेश में सती के छायाशरीर का योनिभाग गिरा देखकर शिवजी काम से व्याकुल एवं उत्कण्ठित हो गये और उन्हें रोमाञ्च हो आया। कामभाव से शिवजी के द्वारा देखे जाने पर शरीर का योनिभाग पृथ्वीतल को भेदता हुआ पाताल की ओर चल पड़ा। ऐसा देखकर शंकरजी ने अपने अंश से पर्वत का रूप धारण करके अपने भाग्य को सराहते हुए प्रसन्नतापूर्वक सती की उस योनि को धारण कर लिया ॥ ११३-११५ ॥ कामरूपादि सभी शक्तिपीठों में भगवान् सदाशिव पाषाणलिङ्ग के रूप में स्वयं उपस्थित होकर उससे सम्बद्ध हो गये ॥ ११६ ॥ मुने! जगदम्बा के बताये हुए उस पूर्व वृत्तान्त को उन्होंने याद किया और उस गुह्यपीठ कामरूप में तपस्या करके महेश्वरी को पुनः प्राप्त किया। तत्पश्चात् शान्तचित्त होकर वे योगारूढ हो गये । नारद मुनि भी आकाशमार्ग से अपने लोक को चले गये ॥ ११७-११८ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीमहाभागवत महापुराण के अन्तर्गत श्रीमहादेव-नारद-संवाद में ‘छायासतीवर्णन’ नामक ग्यारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ११ ॥ 1. यहाँ पत्नी के वियोग में भगवान् शिव का शोकसंतप्त होना तथा भगवान् विष्णु को शोकसंतप्त होने का शाप देना — यह लोकशिक्षण के लिये लीलामात्र है । तत्त्वतः शिव और विष्णु में कोई अन्तर नहीं है। दोनों ही काम, क्रोध, शोक, मोहादि प्रवृत्तियों से नितान्त परे हैं। Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe