September 5, 2015 | 1 Comment सर्व-सिद्ध-प्रद ब्रह्माण्ड-पावन श्रीकृष्ण कवच ॥ ब्रह्मोवाच ॥ राधाकान्त महाभाग ! कवचं यत् प्रकाशितं । ब्रह्माण्ड-पावनं नाम, कृपया कथय प्रभो ! ॥ १ ॥ मां महेशं च धर्मं च, भक्तं च भक्त-वत्सल । त्वत्-प्रसादेन पुत्रेभ्यो, दास्यामि भक्ति-संयुतः ॥ २ ॥ ब्रह्माजी बोले – हे महाभाग ! राधा-वल्लभ ! प्रभो ! ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ नामक जो कवच आपने प्रकाशित किया है, उसका उपदेश कृपा-पूर्वक मुझको, महादेव जी को तथा धर्म को दीजिए । हे भक्त-वत्सल ! हम तीनों आपके भक्त हैं । आपकी कृपा से मैं अपने पुत्रों को भक्ति-पूर्वक इसका उपदेश दूँगा ॥ १-२ ॥ ॥ श्रीकृष्ण उवाच ॥ श्रृणु वक्ष्यामि ब्रह्मेश ! धर्मेदं कवचं परं । अहं दास्यामि युष्मभ्यं, गोपनीयं सुदुर्लभम् ॥ १ ॥ यस्मै कस्मै न दातव्यं, प्राण-तुल्यं ममैव हि । यत्-तेजो मम देहेऽस्ति, तत्-तेजः कवचेऽपि च ॥ २ ॥ श्रीकृष्ण ने कहा – हे ब्रह्मन् ! महेश्वर ! धर्म ! तुम लोग सुनो ! मैं इस उत्तम ‘कवच’ का वर्णन कर रहा हूँ । यह परम दुर्लभ और गोपनीय है । इसे जिस किसी को भी न देना, यह मेरे लिए प्राणों के समान है । जो तेज मेरे शरीर में है, वही इस कवच में भी है । कुरु सृष्टिमिमं धृत्वा, धाता त्रि-जगतां भव । संहर्त्ता भव हे शम्भो ! मम तुल्यो भवे भव ॥ ३ ॥ हे धर्म ! त्वमिमं धृत्वा, भव साक्षी च कर्मणां । तपसां फल-दाता च, यूयं भक्त मद्-वरात् ॥ ४ ॥ हे ब्रह्मन् ! तुम इस कवच को धारण करके सृष्टि करो और तीनों लोकों के विधाता के पद पर प्रतिष्ठित रहो । हे शम्भो ! तुम भी इस कवच को ग्रहण कर, संहार का कार्य सम्पन्न करो और संसार में मेरे समान शक्ति-शाली हो जाओ । हे धर्म ! तुम इस कवच को धारण कर कर्मों के साक्षी बने रहो । तुम सब लिग मेरे वर से तपस्या के फल-दाता हो जाओ । ब्रह्माण्ड-पावनस्यास्य, कवचस्य हरिः स्वयं । ऋषिश्छन्दश्च गायत्री, देवोऽहं जगदीश्वर ! ॥ ५ ॥ धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु, विनियोगः प्रकीर्तितः । त्रि-लक्ष-वार-पठनात्, सिद्धिदं कवचं विधे ! ॥ ६ ॥ इस ‘ब्रह्माण्ड-पावन’ कवच के ऋषि स्वयं हरि हैं, छन्द गायत्री है, देवता मैं जगदीश्वर श्रीकृष्ण हूँ तथा इसका विनियोग धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष हेतु है । हे विधे ! ३ लाख बार ‘पाठ’ करने पर यह ‘कवच’ सिद्ध हो जाता है । यो भवेत् सिद्ध-कवचो, मम तुल्यो भवेत्तु सः । तेजसा सिद्धि-योगेन, ज्ञानेन विक्रमेण च ॥ ७ ॥ जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियों, योग, ज्ञान और बल-पराक्रम में मेरे समान हो जाता है । ॥ मूल-कवच-पाठ ॥ विनियोगः- ॐ अस्य श्रीब्रह्माण्ड-पावन-कवचस्य श्रीहरिः ऋषिः, गायत्री छन्दः, श्रीकृष्णो देवता, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगः । ऋष्यादि-न्यासः- श्रीहरिः ऋषये नमः शिरसि, गायत्री छन्दसे नमः मुखे, श्रीकृष्णो देवतायै नमः हृदि, धर्म-अर्थ-काम-मोक्षेषु विनियोगाय नमः सर्वांगे । प्रणवो मे शिरः पातु, नमो रासेश्वराय च । भालं पायान् नेत्र-युग्मं, नमो राधेश्वराय च ॥ १ ॥ कृष्णः पायात् श्रोत्र-युग्मं, हे हरे घ्राणमेव च । जिह्विकां वह्निजाया तु, कृष्णायेति च सर्वतः ॥ २ ॥ श्रीकृष्णाय स्वाहेति च, कण्ठं पातु षडक्षरः । ह्रीं कृष्णाय नमो वक्त्रं, क्लीं पूर्वश्च भुज-द्वयम् ॥ ३ ॥ नमो गोपांगनेशाय, स्कन्धावष्टाक्षरोऽवतु । दन्त-पंक्तिमोष्ठ-युग्मं, नमो गोपीश्वराय च ॥ ४ ॥ ॐ नमो भगवते रास-मण्डलेशाय स्वाहा । स्वयं वक्षः-स्थलं पातु, मन्त्रोऽयं षोडशाक्षरः ॥ ५ ॥ ऐं कृष्णाय स्वाहेति च, कर्ण-युग्मं सदाऽवतु । ॐ विष्णवे स्वाहेति च, कंकालं सर्वतोऽवतु ॥ ६ ॥ ॐ हरये नमः इति, पृष्ठं पादं सदऽवतु । ॐ गोवर्द्धन-धारिणे, स्वाहा सर्व-शरीरकम् ॥ ७ ॥ प्राच्यां मां पातु श्रीकृष्णः, आग्नेय्यां पातु माधवः । दक्षिणे पातु गोपीशो, नैऋत्यां नन्द-नन्दनः ॥ ८ ॥ वारुण्यां पातु गोविन्दो, वायव्यां राधिकेश्वरः । उत्तरे पातु रासेशः, ऐशान्यामच्युतः स्वयम् । सन्ततं सर्वतः पातु, परो नारायणः स्वयं ॥ ९ ॥ ॥ फल-श्रुति ॥ इति ते कथितं ब्रह्मन् ! कवचं परमाद्भुतं । मम जीवन-तुल्यं च, युष्मभ्यं दत्तमेव च ॥ अश्वमेधसहस्राणि वाजपेयशतानि च । कलां नार्हन्ति तान्येव कवचस्यैव धारणात् ॥ ३६ ॥ गुरुमभ्यर्च्य विधिवद्वस्त्रालङ्कारचन्दनैः । स्नात्वा तं च नमस्कृत्य कवचं धारयेत्सुधीः ॥ ३७ ॥ कवचस्य प्रसादेन जीवन्मुक्तो भवेन्नरः । यदि स्यात्सिद्धकवचो विष्णुरेव भवेद्द्विज ॥ ३८ ॥ ॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्ते महापुराणे ब्रह्मखण्डे महापुरुषब्रह्माण्डपावनं नाम श्रीकृष्णकवचं सम्पूर्णम् ॥ जो इस कवच को सिद्ध कर लेता है, वह तेज, सिद्धियों के योग, ज्ञान और बल-पराक्रम में मेरे समान हो जाता है । प्रणव (ओंकार) मेरे मस्तक की रक्षा करे, ‘नमो रासेश्वराय’ (रासेश्वर को नमस्कार है) यह मन्त्र मेरे ललाट का पालन करे । ‘नमो राधेश्वराय’ (राधापति को नमस्कार है) यह मन्त्र दोनों नेत्रों की रक्षा करे । ‘कृष्ण’ दोनों कानों का पालन करें । ‘हे हरे’ यह नासिका की रक्षा करे । ‘स्वाहा’ मन्त्र जिह्वा को कष्ट से बचावे । ‘कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र सब ओर से हमारी रक्षा करे । ‘श्रीकृष्णाय स्वाहा’ यह षडक्षर-मन्त्र कण्ठ को कष्ट से बचावे । ‘ह्लीं कृष्णाय नमः’ यह मन्त्र मुख की तथा ‘क्लीं कृष्णाय नमः’ यह मन्त्र दोनों भुजाओं की रक्षा करे । ‘नमो गोपाङ्गनेशाय’ (गोपाङ्गनावल्लभ श्रीकृष्ण को नमस्कार है) यह अष्टाक्षर-मन्त्र दोनों कंधों का पालन करे । ‘नमो गोपीश्वराय’ (गोपीश्वर को नमस्कार है) यह मन्त्र दन्तपंक्ति तथा ओष्ठयुगल की रक्षा करे । ‘ॐ नमो भगवते रासमण्डलेशाय स्वाहा’ (रासमण्डल के स्वामी सच्चिदानन्दस्वरूप भगवान श्रीकृष्ण को नमस्कार है । उनकी प्रसन्नता के लिये मैं अपने सर्वस्व की आहुति देता हूँ- त्याग करता हूँ ) यह षोडशाक्षर-मन्त्र मेरे वक्षःस्थल की रक्षा करे । ‘ऐं कृष्णाय स्वाहा’ यह मन्त्र सदा मेरे दोनों कानों को कष्ट से बचावे । ‘ॐ विष्णवे स्वाहा’ यह मन्त्र मेरे कंकाल (अस्थिपंजर) की सब ओर से रक्षा करे । ‘ॐ हरये नमः’ यह मन्त्र सदा मेरे पृष्ठभाग और पैरों का पालन करे। ‘ॐ गोवर्धनधारिणे स्वाहा’ यह मन्त्र मेरे सम्पूर्ण शरीर की रक्षा करे । पूर्व दिशा में श्रीकृष्ण, अग्निकोण में माधव, दक्षिण दिशा में गोपीश्वर तथा नैर्ऋत्यकोण में नन्दनन्दन मेरी रक्षा करें । पश्चिम दिशा में गोविन्द, वायव्यकोण में राधिकेश्वर, उत्तर दिशा में रासेश्वर और ईशानकोण में स्वयं अच्युत मेरा संरक्षण करें तथा परमपुरुष साक्षात नारायण सदा सब ओर से मेरा पालन करें । ब्रह्मन ! इस प्रकार इस परम अद्भुत कवच का मैंने तुम्हारे सामने वर्णन किया । यह मेरे जीवन के तुल्य है । यह मैंने तुम लोगों को अर्पित किया । इस कवच को धारण करने से जो पुण्य होता है, सहस्रों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय-यज्ञ उसकी सोलहवीं कला के भी बराबर नहीं हो सकते । विद्वान पुरुष को चाहिये कि स्नान करके वस्त्र-अलंकार और चन्दन द्वारा विधिवत गुरु की पूजा और वन्दना करने के पश्चात कवच धारण करे । इस कवच के प्रसाद से मनुष्य जीवन्मुक्त हो जाता है । शौनक जी ! यदि किसी ने इस कवच को सिद्ध कर लिया तो वह विष्णु रूप ही हो जाता है । इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्त महापुराण के ब्रह्मखण्ड में महापुरुष ब्रह्माण्ड पावन नामक श्रीकृष्णकवच पूरा हुआ । Related