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भविष्यपुराण – उत्तरपर्व – अध्याय १४३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(उत्तरपर्व)
अध्याय १४३
महाशान्ति-विधान

भगवान् श्रीकृष्ण कहते हैं — राजन् ! अब मैं भगवान् शंकर द्वारा कही गयी महाशान्ति का विधान बतलाता हूँ, यह राजाओं के लिये कल्याणकारी है तथा भयंकर विघ्नों को दूर करनेवाली है । इस महाशान्ति को राजा के अभिषेक, यात्रा तथा दुःस्वपन के समय, दुर्निमित्त में, ग्रहों की प्रतिकूलता में, बिजली और उल्का के गिरने पर, जन्म-नक्षत्र में केतु के उदय होने पर, पृथ्वी-कम्पन और प्रसूतिकाल में, मूलगण्डान्त में, मिथुन संतति के उत्पत्तिकाल में, राजा के छत्र अथवा ध्वज के अपने स्थान से पतन के समय, काक, उलूक और कबूतर के घर में प्रवेश करने पर, क्रूर ग्रह की दृष्टि पड़ने पर या जन्म के समय क्रूर ग्रहों के योग होने पर, लग्नकुण्डली में द्वादश, चतुर्थ और अष्टम स्थान में बृहस्पति, शनि, सूर्य एवं मंगल के स्थित होनेपर तथा युद्ध के समय, वस्त्र, आयुध, मणि, केश, गौ, अश्व के विनाश के समय, रात्रि में इन्द्रधनुष दिखायी पड़ने पर, घर के तुला-भंग के समय तथा सूर्य और चन्द्रग्रहण आदि के समय में यह महाशान्ति प्रशस्त मानी गयी है ।om, ॐ इसके करने से सभी दुर्निमित्त शान्त हो जाते हैं । पाण्डव ! उत्तम कुल में उत्पन्न तथा शीलसम्पन्न वैदिक ब्राह्मणों से इस महाशान्ति को कराना चाहिये । विशेषरूप से अथर्ववेद, यजुर्वेद तथा ऋग्वेद के ज्ञाता, पवित्र ज्ञानसम्पन्न, जप-होमपरायण और अनेक कृच्छ्रादि व्रतों के द्वारा शुद्ध व्यक्ति इसमें प्रशस्त माने गये हैं । प्रथम भगवान् की आराधना करके क्रिया का आरम्भ करना चाहिये ।

दस या बारह हाथ का एक सुन्दर मण्डप बनाकर उसके मध्य में चार हाथ की वेदी बनाये और आग्नेय दिशा में एक हाथ प्रमाणवाला एक सुन्दर कुण्ड बनवाये और यह कुण्ड तीन मेखलाओं से युक्त तथा योनि से विभूषित होना चाहिये । मण्डप को चन्दन, माला, तोरण आदि से अलंकृत कर गोबर से लीपना चाहिये । मण्डप में वेदी के ऊपर आग्नेयादि कोणों में क्रमशः चार और बीच में पाँचवाँ कलश स्थापित करना चाहिये । कलश को पञ्चपल्लवों, सर्वौषधि, पञ्चरल, रोचना, चन्दन, सप्तमृत्तिका, धान्य तथा पुण्य तीर्थ के जल, नारिकेल आदि से भलीभाँति स्थापित करना चाहिये । ब्रह्मकूर्च-विधान से पञ्चगव्य का निर्माण करे । इसके अनन्तर वैदिक मन्त्रों से कलशों को अभिमन्त्रित कर उनका पूजन करे । मध्य कुम्भ को रुद्रकुम्भ कहा जाता है ।

इसके बाद स्वस्तिवाचन करना चाहिये । अनन्तर अग्निकार्य सम्पन्न करे । ‘अग्नि दूतं० ‘ (यजु० २२ । १७) इस मन्त्र के द्वारा कुण्ड में अग्नि स्थापित करे । ‘हिरण्यगर्भ० ‘ (यजु० १३ । ४) इस मन्त्र से ब्रह्मासन को स्थापित करे । अग्नि-पूजन के अनन्तर आज्य (घृत) का संस्कार करे, अनन्तर विधिपूर्वक यज्ञीय द्रव्यों को यथावत् स्थापित करना चाहिये । इसके बाद पुरुषसूक्त (यजु० ३१ । १-१६) का पाठ करते हुए चरु का निर्माण करे । उसके सिद्ध होने के बाद पृथ्वी पर स्थापित करे । इसके पश्चात् शमी की अठारह तथा पलाश की सात समिधाओं को अग्नि प्रज्वलित करने के लिये कुण्ड में डाले ।

आधार और आज्य-भाग-संज्ञक हवन करने के बाद ‘जातवेदसे० ‘ (ऋ० १ । १९ । १) इस ऋचा के द्वारा घी की सात आहुतियां प्रदान करे । पुनः ‘जातवेदसे० “ इस मन्त्र से स्थालीपाक-द्रव्य का हवन करे । ‘तरत् स मन्दी० ‘ (ऋ० ९ । ५८ । १-४) इस सूक्त से चार बार हवन करे । इसके बाद ‘यमाय सोमं० (ऋ० १० । १४ । १३) इस मन्त्र से ‘स्वाहा’ शब्द को प्रयोगकर सात आहुतियाँ दे । तदनन्तर ‘इदं विष्णुर्वि० ‘ (यजु० ५ । १५) इस मन्त्र से सात बार आहुति दे । फिर २७ नक्षत्रों के लिये २७ आहुतियाँ दे । अनन्तर ‘यत्कर्मणा० ‘ इसके द्वारा हवन करने के बाद स्विष्टकृत् हवन करे । तदनन्तर घृतसहित तिल से ग्रहहोम करे । इसके बाद प्रायश्चित्त-निमित्तक हवन करके होम-कर्म को समाप्त करे । तदनन्तर श्रेष्ठ द्विज यजमान के दुर्निमित्त की शान्ति के लिये पाँच कलशों के जल से मन्त्रों के द्वारा यथाक्रम अभिषेक करे । ‘सहस्राक्षण० ‘ (ऋ० १० । १६१ । ३) इस मन्त्र से प्रथम कलश के जल से, ‘शतायुषा० ‘ द्वारा द्वितीय कलश के जल से, ‘सजोषा० ‘ (ऋ० ३ । ४७ । २) इस मन्त्र से तृतीय कलश के जल से, ‘विश्वानि देव० ‘ (ऋ० ५ । ८२ । ५) इस मन्त्र से चतुर्थ कलश के जल से तथा ‘ऋतमस्तु० ‘ इस मन्त्र से पञ्चम कलश के जल से अभिषेक करे । इसके बाद ‘नमोऽस्तु सर्वभूतेभ्य० ‘ इस मन्त्र से दिशाओं को बलि नैवेद्य प्रदान करे ।

यजमान के स्नान करने के समय ब्राह्मणगण शान्ति का पाठ करें । चारों ओर शान्ति-जल से जल की धारा गिराये । अन्त में पुण्याहवाचनपूर्वक शान्तिकर्म को सम्पन्न करे । ब्राह्मणों को यथाशक्ति भूमि, स्वर्ण, वस्त्र, शय्या, आसन एवं दक्षिणा दे । दीन, अनाथ, विशिष्ट श्रोत्रियों को भी भोजन आदि प्रदान करना चाहिये । ऐसा करने से आयु की वृद्धि और शत्रु पर तत्क्षण विजय प्राप्त होती है तथा पुत्र-लाभ होता है । जैसे शस्त्रों का प्रहार कवच से हट जाता है, वैसे ही दैवी विघ्न भी इस शान्तिकर्म से दूर हो जाते हैं । अहिंसक, इन्द्रियसंयमी, धर्म से धन अर्जित करनेवाला, दया और दक्षिणा से युक्त व्यक्ति के लिये सभी ग्रह अनुकूल हो जाते हैं ।
(अध्याय १४३)

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