भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — द्वितीय भाग)
अध्याय – १३
(सुखभाविनी वैश्य कन्या-चोरकथा)

सूत जी बोले — कृतकृत्य होकर उस वैताल ने प्रसन्नचित्त से राजा से कहा — चन्द्रहृदय नामक नगर में रणधीर नामक राजा राज कर रहा था । उसी नगर में धर्मध्वज नामक एक धार्मिक वैश्य रहता था । उसके सुखभाविनी नामक एक सौन्दर्य पूर्ण कन्या थी । एक बार उस नगर में एक मनुष्य राक्षस की उपासना करने लगा । द्यूत (जुए) खेलना और मद्य-मांस का भक्षण करना उसका नित्य दैनिक कार्य था । om, ॐपुरुष का भक्षण करने वाला, वाशर नामक एक राक्षस वहाँ रहता था । उसी के लिए वह मद्य मांस प्रतिदिन अर्पित करता था । प्रसन्न होकर राक्षस ने उस भक्त से कहा — यथेच्छ वर की याचना करो, मैं सभी कुछ देने को तैयार हूँ ।
भक्त ने कहा — पुरुषभक्षक ! यदि मुझे आप वरदान प्रदान करना चाहते हैं, तो भूमि के भीतर एक गुप्त स्थान (चोरी का माल रखने के लिए) बनाइये । इसे सुनकर उस राक्षस ने एक इस प्रकार का गुप्त स्थान बनाया जिसमें मनुष्यों की बुद्धि चकित हो जाती थी । उस स्थान में उस राक्षस के साथ वह भक्त रहने लगा । एक बार रात्रि में उस चोर ने राजा की एक दासी का अपहरण करके उसी स्थान में रख दिया, उसने भी अधिक संख्या में द्रव्य का अपहरण किया । इस प्रकार उस चोर की चारों वर्णों वाली सात पत्नियाँ थी । किन्तु उनमें राजा की वह दासी ही उस चोर की हृदयेश्वरी थी । राक्षस ने उस स्थान का निर्माण राजा के दुर्ग के समान दृढ़ एवं इस भूतल में मनुष्यों की बुद्धि को चकित करने वाला किया था । उसने चोरी तथा बलपूर्वक अनेक भाँति के द्रव्यों का अपहरण करके संचय किया ।

उस समय वहाँ की प्रजा अधीर होकर राजा से कहने लगी — राजन् ! चोरों के द्वारा इस नगर में अनेक विघ्र बाधाएँ उपस्थित हो गई हैं, अतः हम लोग इसके परित्याग करने के लिए प्रस्तुत हैं । ऐसा सुनकर राजा ने अपने शस्त्रधारी रक्षकों को, जो चोरों की हिंसा करने में निपुण थे, उस नगर के चारों ओर नियुक्त कर दिया । किन्तु राक्षस की माया से मोहित होकर वे रक्षकगण किंकर्तव्यविमूढ़ हो गये, और उन चोरों ने बल प्रयोग करके धनवानों के भाँति-भाँति के धनों का अपहरण कर ही लिया । नगर के प्रजा बर्ग ने पुनः उस रणधीर राजा के पास जाकर उन घटनाओं का निवेदन किया । उसे सुनकर राजा आश्चर्य चकित होकर स्वयं नगर के रक्षार्थ वहाँ उपस्थित हुआ ।

उस अंधेरी रात में आधी रात के समय चोर ने आये हुए राजा से पूछा — आप कौन हैं, तथा यहाँ आने का प्रयोजन क्या है ।

राजा ने कहा — मैं भी चोर हूँ, चोरी के निमित्त यहाँ आया हूँ । मैं धनवानों के यहाँ चलने के लिए प्रस्तुत हूँ, आप भी मेरी बात स्वीकार करें—मेरे साथ चलकर अनेक भाँति के द्रव्यों का अपहरण करके सुखी जीवन व्यतीत करें ।

चोर ने उसे स्वीकार करके अनेक भाँति के द्रव्यों का अपहरण कर राजा को बाहर खड़ा करके स्वयं उस धन को रखने के लिए भीतर उस गुप्त स्थान में प्रविष्ट हुआ । उसी बीच वह दासी जो उस चोर की पत्नी के रूप में वहाँ रहती थी, राजा से कहने लगी — राजन् ! आप शीघ्र अपने घर को प्रस्थान कीजिये क्योंकि वह चोर भीतर जाकर आप के निधन के लिए उपाय कर रहा है । इतना कहकर उस दासी ने राजा को वहाँ का मार्ग भेद भी दिखा दिया ।

राजा अपने घर पहुँच कर निर्मल प्रभात के समय सूर्य के उदयकाल में अपनी सेना के साथ उस चोर के स्थान पर पहुँच गया । पश्चात् भयभीत होकर उस चोर ने वाशर नामक उस राक्षस से सभी वृत्तान्त जो कुछ रात में जिस प्रकार हुआ था कह सुनाया । राक्षस ने हँसकर उससे कहा । आज तुमने मुझे अच्छा भोजन प्रदान किया । दुर्भाग्यवश आये हुए उन सभी मनुष्यों का भक्षण करने के लिए मैं चल रहा हूँ । इस प्रकार कहकर राक्षस राजा के पास पहुँचा । बहुत से सैनिकों का उसने भक्षण कर लिया और जो किसी प्रकार जीवित रहे इधर-उधर भाग गये । उस राक्षस ने राजा के अंगों को क्षत-विक्षत करके उन्हें भ्रान्त कर दिया । उस बीच वह चोर रुष्ट होकर राजा के पास पहुँच कर कहने लगा — धार्मिक राजा को (युद्ध से) भागना उचित नही है ।

इसे सुनकर राजा ने महाबली देवी के मन्दिर में शीघ्रता से पहुँचकर उनका ध्यान करके महान् एवं परमोत्तम मंत्र की प्राप्ति की । पश्चात् राक्षस समेत उस गुप्त भवन को उसी समय भस्म करके नगर में चोरी करने वाले उस चोर को हथकड़ियों से बाँधकर उसके समस्त धन एवं स्त्री समेत उसे राजस्थान (राजदरबार) में लाकर उसकी अत्यन्त दुर्दशा की । अनन्तर ढोल बजवाकर प्रत्येक घरों से उसके वध करने के निमित्त प्रमाण माँगने पर नागरिकगणों ने समस्त कारणों को उपस्थित किया । उस दिन उसे गधे पर बैठाकर नगर में घुमाते हुए उसे धर्मध्वज वैश्य के दरवाजे पर लाया गया कि सुखभाविनी नामक वैश्य की पुत्री उसे देखकर उसके रूप पर मुग्ध हो गई । पश्चात् दुःखी होकर उसने अपने पिता से कहा — इस चोर को शीघ्र छुड़ा लीजिये ।

उसने राजा के पास जाकर कहा — मेरे पास पाँच लाख मुद्रा है, उसे ग्रहणकर चोर को छोड़ दीजिये, नही तो मेरी पुत्री का निधन हो जायेगा ।

हँसकर राजा ने कहा — धन का अपहरण करने वाला यह चोर है । अतः इस भूतल में इस नीच पुरुष, का परित्याग मैं कभी नही कर सकता । इसे सुनकर वह निराश हो गया और उस चोर का जीवनान्त कर दिया गया । शूली पर चढ़ने के समय पहले उसने हँसा, पश्चात् रुदन किया । उसी समय देवमाया से मुग्ध होकर उस वैश्य की पुत्री चोर-देह को लेकर अग्नि-कुण्ड में पहुँच गई । उस समय भी दुर्गा जी प्रसन्न होकर कृपया उसे जीवित कर मुक्ति-भुक्ति फल प्रदानपूर्वक दिव्य वर भी प्रदान किया ।

इतना कहकर उस (वैताल) ने हँसकर राजा से कहा — चोर ने पहले हँसकर पश्चात् रुदन किया, इसका क्या कारण है ।

राजा ने कहा — यह सुन्दरी स्त्री मेरे लिए प्राण परित्याग करने को तैयार है, यद्यपि मैं उसका प्रीतिभाजन हूँ, पर उसे क्या दे सकता हूँ, इसलिए उसने रुदन किया । अब हँसने का कारण बता रहा हूँ, सुनो ! भगवान् कृष्ण धन्य हैं, जिसकी ऐसी लीला है कि अधर्मी को स्वर्ग और धर्म को नरक वास प्रदान करते हैं, उन्हें बार-बार नमस्कार है । इसी भगवान् की लीला से मोहित होकर वह पहले हँसा था ।

इसे सुनकर वैताल ने कहा — भगवान् की शरण ही उत्तम है क्योंकि शूली होने पर उसे पवित्र जीवन प्राप्त हो गया ।
(अध्याय १३)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय – अध्याय २०
5. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व प्रथम – अध्याय ७
6. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १
7. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय २
8. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ३
9. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ४
10. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ५
11. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ६
12. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ७
13. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ८
14. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ९
15. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १०
16. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय ११
17. भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व द्वितीय – अध्याय १२

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