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भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय १४
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय १४
रुद्रमाहात्म्य, भव के अंश से रामानुजाचार्य का आविर्भाव

बृहस्पति बोले — जिस समय यह सदसदात्मक दृश्य (स्थूल प्रपञ्च-जगत्) महाप्रलय में विलीन हो जाने के कारण दिखाई नहीं देता है, उस समय देवल अक्षर (अविनाशी) तेज वर्तमान रहता है, जो व्याप्त एवं अचिन्त्य (मन, वाणी द्वारा अगोचर) है । वह तेज, स्थूल, सूक्ष्म, शीत (ठंडा) और उष्ण (गरम) नहीं है तथा आदि, मध्य एवं अन्तरहित होते हुए उसका कोई आकार भी नहीं है । उस पर, नित्य, शून्यभूत एवं परात्पर तेज के नीचे जिसका दर्शन केवल योगियों को होता है, एक वही प्रकृति माया रेखा की रहती है । om, ॐपुनः उसके नीचे उर्ध्वरेखा की भाँति महत्तत्वमयी रज, सत्व और तम की स्थित रहती है । इन सबका आधार भूत ‘ओंकार’ ही तत्सत् रूप परब्रह्म है, जिसकी प्राप्ति हो जाने पर पुनः जन्म नहीं होता है । इस प्रकार उस महाप्रलय के अगाध पयोधि में विहार करते हुए बहुत दिनों के उपरांत उस पर ब्रह्म की पुनः इच्छा उत्पन्न होती है, जिससे उसके साथ ही अहंकार तथा अहंकार से पंचतन्मात्र और उससे ज्ञान-विज्ञान रूप पंचभूत (आकाशादि) की उत्पत्ति हुई । उस बाईस तत्त्वों से युक्त जडभूत प्रकृति कार्य (ब्रह्माण्ड) को देखकर स्वेच्छामय विभु ने दो भागों में विभक्त होकर सगुण के द्वारा बुद्धि और जीव का निर्माण किया । इन्हीं दोनों द्वारा सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को चेतना प्राप्त होती है जिससे उस सनातन जीव की ‘विराड्’ संज्ञा होती है । उसी विराड़् के नाभि द्वारा सौ योजन का विस्तृत कमल एवं उस कमल से एक योजन का विस्तृत पुष्प उत्पन्न होता है और उसी कमलपुष्प द्वारा कमलासन ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है, जो दो भुजाएँ, चारमुख और दो चरणों से सुसज्जित रहते हैं सत्ताईस अंगों से विभूषित भगवान् ब्रह्मा को अपने जन्म ग्रहण करने के उपरान्त घोर चिन्ता उत्पन्न होती है कि मैं कौन हूँ, किसके द्वारा कहाँ से उत्पन्न हुआ, और मेरी माता एवं पिता कौन हैं ? इस प्रकार की चिंता करते हुए उनके हृदय में एक महान्-ध्वनि द्वारा परब्रह्म ने कहा — अपने संशय के नाशार्थ तुम्हें तप करना परमावश्यक है ! इसे सुनकर विधि ने एक सहस्र वर्ष तक भगवान् सनातन विष्णु की घोर आराधना की, जो चार भुजाओ से युक्त योगगम्य, निर्गुण एवं विस्तृत गुणरूप हैं । भगवान् कमलासन (ब्रह्मा) के समाधिस्थ होने पर विष्णु बालक का रूप धारणकर, जो श्यामल वर्ण, बलवान् एवं अस्त्रादिसमेत भूषणों से भूपित था, पिता की गोद में बच्चे की भाँति ब्रह्मा उस बालक के अंङ्क में स्थित हो गये । उस समय प्रबुद्ध होने पर ब्रह्मा ने उस बालक को देखकर मोह-मुग्ध होते हुए वत्स, वत्स’ कहना आरम्भ किया । उसे सुनकर प्रसन्नतापूर्ण भगवान् ने हँसकर उनसे कहा — ब्रह्मन् ! मैं तुम्हारा पिता विष्णु हूँ । किन्तु ब्रह्मा इसे स्वीकार नहीं कर रहे थे । उन दोनों के इस प्रकार विवाद करने के समय ही तमोमय रुद्र का आविर्भाव हुआ, जो ज्योतिर्लिंग रूप, भयदायक एवं अनन्त योजन विस्तृत थे । उस समय ब्रह्मा ने हंसरूप और भगवान् विष्णु ने वाराह रूप धारणकर ऊपर-नीचे क्रम से सौ वर्ष तक उसकी सीमा का पता लगाने के लिए प्रयत्न किया, किन्तु उसका पता न लगने पर लज्जित होते हुए दोनों ने उसकी आराधना की । उन दोनों की स्तुति से प्रसन्न होकर शिव ने भवनाम से वहाँ साक्षात् प्रकट होकर पश्चात् कैलास को अपना आवास स्थान बनाकर समाधि लगायी । वहाँ रुद्रयोगी के समाधिस्थ होने पर दिव्य पाँच युगों के बीत जाने के उपरान्त दानव श्रेष्ठ तारकासुर ने एक सहस्र वर्ष तक घोर तप करके ब्रह्मा द्वारा वरदान प्राप्त किया । उस समय ब्रह्मा ने उससे यह भी कहा था कि — (शिव) के वीर्य द्वारा उत्पन्न पुत्र से तुम्हारी मृत्यु होगी । इसे सुनकर उसने देवों पर विजय प्राप्ति पूर्वक देवेन्द्र का पद अपना लिया । अनन्तर उन देवों ने कैलास जाकर भगवान् रुद्र की आराधना थी । प्रसन्न होकर शिव ने उन्हें वर याचना के लिए कहा । इसे सुनकर विनीत भाव से प्रणाम पूर्वक देवों ने उनसे कहा — भगवन् ! ब्रह्मा ने तारकासुर को वरदान दिया है कि – शिव के वीर्य से उत्पन्न हुए पुत्र द्वारा तुम्हारी मृत्यु होगी । अतः भगवान् ! शंकर ! हम लोगों के रक्षार्थ आप विवाह अवश्य करें ।

पहले स्वायम्भुव मन्वन्तर के समय में दक्ष नामक प्रजापति हुए थे । उनकी साठ कन्याओं में सती कन्या सर्वश्रेष्ठ थी जिसने पार्थिव पूजन द्वारा एक वर्ष तक आपकी आराधना की । उससे प्रसन्न होकर, आपने वरदान प्रदान पूर्वक उसे अपनी सहधर्मिणी बनाया था किन्तु अज्ञानी उनके पिता दक्ष ने आपकी निंदा की जिस दोष के कारण सती ने अपनी शरीर का परित्याग कर दिया । पश्चात् सती का वह दिव्य तेज हिमालय पर्वत पर गया, उससे पीड़ित होकर गिरिराज कामचेष्टा करने लगे । काम से अत्यन्त पीड़ित होने पर उन्होंने पितरों के अधीश्वर अर्यमा की आराधना की । प्रसन्न होकर अर्यमा ने उन्हें मैना नामक अपनी सुन्दरी कन्या प्रदान किया, जो मनोहर एवं अत्यन्त विशुद्ध थी । उसे देखकर इन्होंने हर्षित होकर देवतुल्य एवं प्रिय मनुष्य का रूप धारण कर उसके साथ उस महावन में चिरकाल तक रमण किया । तदुपरांत उनके गर्भ द्वारा नववर्ष की एक परमाद्भूत कन्या की उत्पत्ति हुई । जो सुभ्र, गौरमयी एवं सती गौरी थी । उत्पन्न होते ही वह नववर्ष की हो गई और भगवान् शंकर देव की तप द्वारा चिरकाल तक उसने आराधना की-सौ वर्ष जल में, सौ वर्ष अग्नि से आवेष्टित (पंचाग्नि), सौ वर्ष तक वायु द्वारा और सौ वर्ष तक आकाश में स्थित, सौ वर्ष चन्द्र मण्डल, सौ वर्ष सूर्य मण्डल, सौ वर्ष भूगर्भ (गुफा), और सौ वर्ष तक योगबल द्वारा महत्तत्त्व में स्थित रहकर — आप का शुद्ध दर्शन किया । इसीलिए आज तीन सौ वर्ष हो रहे हैं वह उसी स्थान स्थित है । अतः महादेव ! आप प्रसन्न होकर उस पार्वती शिवा को वर प्रदान करें । महादेव आपको नमस्कार कर रहा हूँ । इस सुन्दर वाणी को सुनकर लोक शंकर शिवजी ने देवों से कहा — ‘ब्रह्मा का कहना उचित नहीं है। क्योंकि मुझसे ज्येष्ठ रूद्रगण, जो कुमारावस्था में ही व्रत धारण किये हैं, ज्योति से उत्पन्न होकर मृगव्याघ आदि के रूप में रह रहे हैं । मैं उनसे कनिष्ठ (छोटा) योगीश्वर भव के नाम से ख्यात हूँ । माया रूप शुभ स्त्री का ग्रहण करना, जो लोक सर्जन कर्त्री है, मेरे लिए अनुचित है । क्योंकि साक्षात् भगवती नारी हैं, जिसने इस ब्रह्माण्ड का विस्तार किया है । अतः लोक निवासी योगियों की वह मातृरूप है । मैं योगी होकर उस मातृरूप नारी का ग्रहण कैसे कर सकता हूँ । इसलिए आप लोगों के कार्य के लिए मैं स्वयं अपने वीर्य को निकालकर अग्निदेव को दे दूंगा, उसके द्वारा वे आपका कार्य करेंगे । इतना कहकर शिवजी ने अपना वीर्य अग्नि को देकर पुनः उसी स्थान पर समाधि लगायी । पश्चात् इन्द्रादि देवों ने अग्निसमेत वहां से निकलकर सत्यलोक की यात्रा की । वहाँ पहुँचकर उन लोगों ने प्रजापति व्रह्मा से समस्त वृत्तान्त का वर्णन किया । उसे सुनकर चतुर्मुख ब्रह्मा ने परब्रह्म कृष्ण का नमस्कार पूर्वक ध्यान किया । ब्रह्मा ने ध्यान मार्ग से परमपद पर पहुँचकर शंकरजी की कही हुई सम्पूर्ण बातें भगवान् को सुनाया, जिसे सुनकर हँसते हुए भगवान् ने अपने मुख द्वारा उत्तम तेज बाहर निकाला, जो अत्यन्त सुन्दर पुरुष हुआ और ब्रह्माण्ड की सभी छवि उसकी शरीर में झलक रही थी । उस पुरुष का प्रद्युम्न विश्वविख्यात नाम हुआ, जिसके साथ ब्रह्मा ने अपने कलेवर में प्रवेश किया । ब्रह्मा ने उस शम्बरासुर को पीड़ित करने वाले प्रद्युम्न नामक पुरुष को सभी लोगों को सौंप दिया । जिसके तेज से कामपीड़ित होकर तीनों लोक के स्त्री-पुरुष गण एक होकर अत्यन्त कामातुर होने लगे । यहाँ तक कि सौम्य वृक्षगणों ने भी नदियों, एवं लताओं से मिलकर कामाग्नि की शांति की इच्छा प्रकट की । उस समय व्रह्माण्ड नायक कालरूप शिव ने, जो साक्षात् रुद्रदेव हैं, अपने त्रिनेत्र से तेज प्रकटकर उस पीड़ा की शान्ति किया । उस समय कृष्णांग प्रद्युम्न ने क्रुद्ध होकर महादेवजी के लिए अपने कुसुम धनुषपर उन घोर दिव्य पाँचो वाणों का अनुसन्धान किया, जिससे उच्चाटन बाण द्वारा लोक रक्षक शिव ने गमन किया, वशीकरण बाण द्वारा स्त्री के अधीन, स्तम्भन बाण द्वारा पार्वती के समीप स्थित, आकर्षण बाण द्वारा शिव के आकर्षणार्थ उद्यत होकर और मारण बाण द्वारा मूर्च्छा प्राप्त की । उसी बीच महत्तत्त्व में स्थित पार्वती ने शिव को मूर्च्छित देखकर उसी स्थान पर अन्तर्हित हो गईं । पश्चात् शिव ने उठकर बार-बार विलाप करना आरम्भ किया — हा प्रिये, चन्द्रवदने, हा कलशस्तनी शिवे ! हा सौन्दर्य पूर्णे ! मुझ कामपीड़ित की रक्षा करो । रम्भे ! मुझे दर्शन दो, इस समय मैं तुम्हारा सेवक हूँ । इस प्रकार विलाप करने वाले शिव के समीप पहुँचकर योगिनी गिरिजा ने नमस्कार पूर्वक कहा — देव ! माता-पिता के अनुसार चलनेवाली मैं कन्या हूँ । भगवन् ! उन दोनों के अनुमोदन द्वारा मेरा पाणिग्रहण करें ।

प्रद्युम्न के शर से पीड़ित होने पर शिव ने पार्वती की बात स्वीकार पूर्वक सप्तर्षियों को हिमालय के पास भेजा । सप्तर्षियों ने वहाँ जाकर हिमाचल को विशेष जानकारी कराते हुए विवाह के लिए स्वीकृति प्राप्त की । सहर्ष उनके विवाह में सभी देवगणों ने यात्रा की । क्योंकि ब्रह्माण्डनायक के विवाह में उन्हें सम्मिलित होना परमावश्यक था । हिमालय विवाह के अवसर पर शिव के साथ अनन्त देवगणों को देखकर विचलित हो उठे । अन्त में पर्वतराज गिरिजा की शरण में जाकर समस्त वृतान्त कहा । उसे सुनकर पार्वती देवी ने, जो बहुरूपा एवं सनातनी है, चारों ओर ऋद्धियों और सिद्धियों की करोड़ों मूर्तियों को उत्पन्नकर सभी को सेवा कार्य में नियुक्त किया । ब्रह्मा समेत देवों ने उसे देख अत्यन्त आश्चर्य प्रकट करते हुए नारीरत्न एवं सनातनी उस पार्वती देवी की आराधना की ।

देवों ने कहा —
आपके उमा नामक शब्द में उ का अर्थ वितर्क और मा का लक्ष्मी अर्थ है । इसीलिए आपका बहुरूप दिखाई देता है । हम लोग उमा नामक आपको बार-बार नमस्कार कर रहे हैं । शिवे ! इस ब्रह्माण्ड में आपके कतिचित् (अनेकों) स्थान हैं अतः कात्यायनी रूप आपको नमस्कार है । गौर, श्यामल रूप के नाते काली और सवर्ण होने के नाते हैमवती को नमस्कार है । भव (शिव) की दयिता होने के नाते रुद्र समेत रहने वाली भवानी तथा योगियों के लिए भी दुष्प्राप्य होने के नाते आप दुर्गा को नमस्कार है । आपके प्रख्यात रूप का पार हमलोग न पा सके । अतः चण्डिका और मातृरूप होने के नाते अम्बारूप आपको नमस्कार है । देवों की ऐसी स्तुति को सुनकर वरदायिनी सर्वमंगलादेवी ने देवों से कहा — मैं तुम्हारे दैत्य भय को दूर करूंगी । क्योंकि त्रिलोक से प्रसन्न होने के नाते मैं भूतल पर प्रकट हुँगी । इतना कहने के उपरांत पार्वती शिव के साथ कैलास पहुँचकर उसकी गुफा में सहस्र वर्ष तक आनन्द प्राप्त किया । उसी बीच देवगणों ने लोक नाश होने के भय से भयभीत हो ब्रह्मा को आगे कर शिव की आराधना की । उस समय लज्जित होकर उन दोनों ने अत्यन्त पश्चाताप करते हुए पीछे अत्यन्त क्रोध भी किया, जिससे भयभीत होकर देवों ने वहाँ से पलायन किया किन्तु बलवान् प्रद्युम्न निश्चल वृषभ की भाँति उसी स्थान पर स्थित रहने के नाते उस प्रचण्ड रुद्र कोपग्नि में दग्ध को गये । भस्ममय उस स्थूल रूप के परित्याग पूर्व सूक्ष्म देह की प्राप्ति की, जिससे उन्हें ‘अनड्ग’ कहा गया है । अंगहीन होने पर भी कामदेव पूर्व की भाँति ही शक्तिशाली है । पश्चात् रति ने भगवान् शंकर की जो गिरिजावल्लभ कहे जाते हैं की एक वर्ष तक आराधना की । उससे प्रसन्न होकर सनातन शिव ने रति को वर प्रदान किया कि – रति देवि ! मैं कह रहा हूँ, सुनो ! मनुष्यों के हृदय में तुम्हारी उपस्थिति होगी युवावस्था प्राप्त मनुष्यों के देह द्वारा अपने उस पति के उपभोग प्राप्त करोगी जो मेरी अर्चना एवं कृष्ण द्वारा उत्पन्न प्रद्युम्न नामक है । इस स्वरोचिष मन्वन्तर काल के बीत जाने के उपरांत वैवस्वत मन्वन्तर के समय जो अट्ठाईसवें द्वापर का अन्त भाग कहलायेगा, साक्षात् भगवान् का अवतार होगा । उस समय उनके पुत्र रूप में उत्पन्न प्रद्युम्न के साथ मेरुपर्वत के उस नन्दन वन में चिरकाल तक रमण सुख तुम्हें प्राप्त होगा । अन्य द्वापरान्त युगों में वह सुवर्ण गर्भित होकर भूमि में भगवान् कृष्ण की भाँति वर्तमान रहेगा । इस प्रकार अव्यक्त व्रह्म के मध्याह्न और संध्या समय प्रत्येक कल्पों में भगवान् विष्णु साक्षात् प्रकट होकर जन मांगलिक क्रिया करते हैं । इतना कहकर भगवान शंकर वहीं अन्तहित हो गये । पश्चात् रुद्र गिरिजा-वल्लभ भवराज पद से प्रतिष्ठत हुए ।

सूतजी बोले— इसे सुनकर साक्षात् भव ने अपने मुख से अपने अंश को निकालकर गोदावरी नदी में डाल दिया, जो आचार्य शर्मा के गृह में पुत्र रूप से उत्पन्न होकर रामशर्मा के अनुज होने के नाते ‘रामानुज’ नाम से प्रख्यात हुआ । एक बार रामशर्मा ने पतञ्जलि मतावलम्बी होकर तीर्थों में भ्रमण करते हुए शिवप्रिय काशी की यात्रा की । वहाँ शंकराचार्य के पास जाकर अपने सौ शिष्यों समेत उन हरिप्रिय रामशर्मा द्वारा पराजित होने पर लज्जित होते हुए वे अपने घर लौट आये । उनके वृत्तान्त सुनकर समस्त शास्त्र निपुण रामानुज ने अपने भाई के शिष्यों समेत काशीपुरी की यात्रा की । वहाँ पहुँचने पर उन दोनों ने वेदान्त शास्त्र का विषय लेकर शंकराचार्य ने शिव और रामानुज ने कृष्ण पक्ष का समर्थन करना आरम्भ किया । इस प्रकार एक मास तक वेदान्त की चर्चा करते रहने पर रामानुज ने भगवान् विष्णु का दर्शन कराया, जो सलिदानन्द एवं वासुदेव कहे जाते हैं । इसलिए वसुदेव ब्रह्मा हुए और उनके सारभूत वासुदेव हुए । जो शिवपूज्य, सनातन एवं साक्षात् विष्णु कहे जाते हैं । पश्चात् लज्जित होकर शिव ने भाष्य में प्रवेश किया जिससे शिव सूत्रों द्वारा एक पक्ष तक शिव पक्ष की स्थापना की वसुओं में अपने अंश द्वारा प्रकाशित रहने वाले को वसुदेव कहा गया है। किन्तु रामानुज ने उस भाष्य में भी भगवान् का दर्शन कराया, जो गोविन्द के नाम से वैयाकरण देव प्रख्यात हैं । जिस नाम के सामर्थ्य से परावाणी की प्राप्ति हो सके उसे गोविन्द कहा गया है इसलिए यह भगवान् का नामान्तर ही बताया जाता है । और गिरीश गोविन्द नहीं कहे जा सकते क्योंकि वे पर्वतेश्वर हैं। रुद्र वृषवाहन के नाते गोपाल भी नहीं कहे जा सकते । यद्यपि शिवजी पशुपति कहे जाते हैं किन्तु गोपति नाम से उनकी ख्याति नहीं है । इससे लज्जित होकर शंकराचार्य ने मीमांसा शास्त्र का अवलम्बन किया । उस शास्त्र में भी दोनों का दस दिन तक महान् विवाद हुआ । उसमें रामानुज ने यज्ञ पुरुष का समर्थन किया । किन्तु शंकराचार्य ने उसका इस प्रकार खण्डन किया कि यद्यपि आचार से उत्पन्न धर्म की व्यवस्था यज्ञ देव ने ही की है, तथापि दक्ष प्रजापति के यज्ञ में वह आचार भ्रष्ट हो गया था, इसे सुनकर रामानुज ने विनम्र होकर कहा — ‘विश्वपालन रूप कर्म के सुसम्पन्न करने के लिए यज्ञ की उत्पत्ति की गई और वह कर्म अक्षर व्रह्म से उत्पन्न है, और वही अक्षर शिव रूप है जो साक्षात् शब्द ब्रह्म में अवस्थित है । उसी अक्षर कर्ता को पुराण पुरुष, यज्ञ कहा जाता है । अतः उस अक्षर से सनातन परमात्मा श्रेष्ठ है । यज्ञकर्म में वह कर्ता अक्षर द्वारा तृप्त न होने पर लोक और वेद में यज्ञपुरुष नाम से प्रख्यात हुआ । उस समय शिव ने अपने प्रपौत्र की वृद्धि देखकर स्पर्धा की-यज्ञभूत रुद्र ने अपने दिव्य वाणों द्वारा उसकी तृप्ति की, किन्तु समर्थ यज्ञपुरुष ने शिव को गुरुमय समझकर वहाँ से पलायन किया । इस प्रकार उसने महान् धर्म सुसम्पन्न किया । इसे सुनकर शंकराचार्य ने लज्जित होकर न्याय शास्त्र का अवलम्बन किया । कहा-भवतीति (उत्पन्न) और मृडतीति (संतुष्ट) होने के नाते उन्हें भव एवं मृड कहा गया है; लोकों के भरण करने वाला ही देत कर्ता और भर्ग (तेज) रूप है । उसी प्रकार हरती रति (हरण) करने के नाते उन पापनाशक रुद्र को हर कहा जाता है । इस प्रकार साक्षात् शिव ही स्वयं कर्ता, स्वयं भर्ता एवं स्वयं हर्ता कहे जाते हैं । उसी शिव द्वारा इस भूतल पर विष्णु, और विष्णु द्वारा कमलासन ब्रह्मा की उत्पत्ति होती है। इसे सुनकर रामानुज ने कहा — भगवान् शंकर धन्य हैं जिनकी इस प्रकार महान् महिमा है, यह सत्य एवं ध्रुवसत्य है कि कर्ता कारयिता शिव ही हैं, किन्तु मुझे एक महान संशय है कि महामहिम सम्पन्न शिव नित्य राम नाम पर आधृत रहकर हरि का जप क्यों करते हैं ? जिसके तेज द्वारा अनन्त सृष्टियाँ उत्पन्न होती हैं और शेष से भी अनन्त है एवं उसी में योगीगण रमण करते हैं और वही सच्चिदानन्द विग्रहधारी मेरे प्रभु का धाम है । इसे सुनकर लज्जित होते हुए शंकराचार्य ने योगशास्त्र की चर्चा प्रारम्भ की । उसमें भी उन्होंने भगवान् कृष्ण की ही उपासना सिद्ध की । जो कालात्मा, भगवान् कृष्ण, योगनायक एवं योगारूढ़ हैं । पश्चात् सांख्य शास्त्र को अपनाने पर रामानुज ने कपिल भगवान् की प्रधानता सिद्ध की-क (वीर्य) को पान करनेवाला कपि कहा गया है, उसे ले आने वाले को कपिल । इस प्रकार कपि रुद्र की संज्ञा हुई और कपिल भगवान् विष्णु की जो सर्वज्ञ एवं सर्वरूपवान् है । इसे सुनकर शंकराचार्य ने नम्रतापूर्ण रामानुज के शिष्य होकर शुक्लवस्त्र धारणकर अपने हृदय में निर्मल गोविन्द का नाम स्मरण करना प्रारम्भ किया। इस प्रकार मैंने इस रुद्र महात्म्य का वर्णन प्रसंगवश सुना दिया, जिसे सुनकर मनुष्य धन, पुत्र एवं सत्यवाणी से विभूषित होता है ।
(अध्याय १४)

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