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भविष्यपुराण – प्रतिसर्गपर्व चतुर्थ – अध्याय २०
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(प्रतिसर्गपर्व — चतुर्थ भाग)
अध्याय २०
जगन्नाथ माहात्म्य का वर्णन

सूत जी बोले — एक बार शुद्धात्मा एवं शिव भक्ति में निमग्न रहने वाले भट्टोजि दीक्षित ने बीस वर्षीय कृष्ण चैतन्य के यहाँ जाकर नमस्कार पूर्वक उनसे कहा — ‘समस्त प्राणियों के गुरु महादेव हैं और शिव ही उनकी-आत्मा भी । ब्रह्मा विष्णु देव उनके दास हैं । अतः उन दोनों के पूजन से क्या लाभ होता है ।’ कृष्ण चैतन्य ने हँसकर भट्टोजि से कहा — यह शम्भु महेश्वर नहीं हैं और बिना विष्णु के सदाशिव शम्भु प्राणियों के कर्ता, भर्ता, एवं संहर्ता होने की क्षमता नहीं रख सकते हैं । om, ॐक्योंकि एक ही मूर्ति के तीन विभागों में विभक्त होने के नाते उसी द्वारा ब्रह्मा, विष्णु एवं महेश्वर का जनन होता है । इसलिए शाक्तमार्ग अपनाकर भगवान् ब्रह्मा, वैष्णव मार्ग के अनुयायी होकर विष्णु और शैवमार्ग द्वारा शिव प्राणियों को मोक्षप्रदान करते हैं । शाक्त ही गृहस्थाश्रम हैं, जिसमें पितर एवं देव यज्ञ के भोक्ता होते हैं । उसी भाँति वैष्णव को वानप्रस्थाश्रम कहा गया है, जिसमें कन्दमूल के भक्षण द्वारा जीवन व्यतीत होता है, सन्यास आश्रम सदैव रौद्ररूप, निर्गुण एवं शुद्ध शरीर रहा है । इस प्रकार प्राणियों के ब्रह्मचर्याश्रम के अनुयायी महेश्वर हैं, जो अति श्रमसाध्य हैं । ये उनकी बातें सुनकर भट्टोजि दीक्षित ने कृष्ण चैतन्य की शिष्य हो गये । पश्चात् उनकी आज्ञा से पाणिनि व्याकरण की जो वेदों का तीसरा अंग है, उन्होंने व्याख्या की, जो सिद्धान्त कौमुदी के नाम से प्रशंसित है । भट्टोजिदीक्षित ने वहाँ रहकर ही अपनी जीवन लीला भी समाप्त की ।

सूत जी बोले — वराह मिहिराचार्य जो अति धीमान् एवं सूर्य के उपासक थे, यज्ञांशदेव के यहाँ पहुँचने का प्रयत्न किया । उस समय यज्ञांशदेव की बाईस वर्ष की अवस्था थी । वहाँ पहुँचकर उन्होंने यज्ञांशदेव से कहा — सूर्य ही साक्षात् भगवान् हैं, क्योंकि अन्य तीन प्रधान देवों की उत्पत्ति उन्हीं द्वारा हुई है । सूर्य प्रातःकाल ब्रह्मा, मध्याह्न में विष्णु, और संध्या समय शिव रूप हैं, अतः सूर्य की ही शुभ पूजा करनी चाहिए, तीनों देवों के पूजन से कोई लाभ नहीं है । इसे सुनकर यज्ञांश देव ने शुभ वाणी द्वारा हास पूर्वक उनसे कहा — प्रकृति देवी ने परा और अपरा नाम से दो रूपों में प्रकट होकर इस ब्रह्माण्ड की रचना की है । नाममात्रा, पुष्पमात्रा, तन्मात्रा, शब्दमात्रा, स्पर्शमात्रा रूपमात्रा, रसमात्रा, और गंधमात्रा के नाम से परा प्रकृति आठ भागों में विभक्त हैं । उसी प्रकार अपरा प्रकृति भी, जो जीवभूत, नित्यशुद्ध एवं जगन्मयी है, पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अहंकार रूप आठ भागों में विभक्त हैं । विष्णु ब्रह्मा, महादेव, गणेश, यमराज, गुह, कुबेर एवं विश्वकर्मा, परा प्रकृति के देवता हैं । सुमेरु, वरुण, अग्नि, वायु, ध्रुव, सोम, रवि और शेष अपरा प्रकृति के देव हैं । अतः सोमपति रुद्र ही रवि, ब्रह्मा स्वामी, और शेष स्वामी, साक्षात् हरि हैं । उन्हें बार-बार नमस्कार है । इस प्रकार उनकी बातें सुनकर उस मिहिराचार्य ने उनके शिष्य होकर वेद के चौथे अंग ज्योतिः शास्त्र का निर्माण किया, जो वाराह संहिता एवं वृहज्जातक नाम से प्रख्यात है । वहाँ रहकर उन्होंने क्षुद्र तन्त्रो एवं अन्य ग्रन्थों की भी रचना की है ।

सूत जी बोले — शिवजी की भक्ति में निमग्न रहने वाले वाणीभूषण ने भी तेइस वर्षीय कृष्णचैतन्य के पास पहुँचकर नम्रतापूर्वक उनसे कहा — विष्णु की माया ही जग को धारण करती है, इसलिए वही एक प्रकृति सर्वोत्कृष्ट है । उसी ने इस विश्व की रचना की है, विश्व से देवगण और विश्वेदेव पुरुष की शक्ति द्वारा अखिल की उत्पत्ति हुई है । अतः ब्रह्मा, विष्णु, एवं शिव की उत्पत्ति प्रकृति द्वारा कही गई है । इस भगवती की ही उपासना करनी चाहिए अन्य किसी देव की नहीं इसे सुनकर यज्ञांशदेव ने हँसकर उस ब्राह्मणश्रेष्ठ से कहा — जडरूप एवं गुणमयी होने के नाते भगवती श्रेष्ठ नहीं कही जा सकती है, क्योंकि प्रकृति अकेले जगत् की रचना करने में पुरुष की सहायता बिना स्त्री की भाँति कभी भी समर्थ नहीं है । विप्र ! देवी भागवत में यह कथा प्रसिद्ध है कि एक बार प्रकृति देवी ने स्वेच्छया इस जगत् की रचना की, किन्तु विप्र ! अनेक बार बोधित करने पर भी उस जड़ जगत् में चैतन्यता न आई । उसे देखकर प्रकृति को अत्यन्त आश्चर्य हुआ । उसी समय उसने शुन्यभूत् पुरुष की जो चैतन्य रूप है, उपासना की, जिससे प्रसन्न होकर भगवान् ने देवी द्वारा रचित उस ब्रह्माण्ड में प्रवेश किया । समस्त जगत्, उसी समय स्वप्न की भाँति उद्बुद्ध होकर चैतन्य हो गया । अतः वही भगवान् श्रेष्ठ है, जो पुरुष, निर्गुण एवं पर है । स्वेच्छया प्रकृति में उत्पन्न होने के नाते वह लिंगरूप हुआ, जिससे पुल्लिग प्रकृति में उत्पन्न होने के कारण सनातन पुल्लिग, स्त्रीलिंग की प्रकृति में उत्पन्न होकर सनातन स्त्रीलिंग, नपुंसक प्रकृति में उत्पन्न होकर नपुंसक रूप कहा गया है । अव्यय प्रकृति में उत्पन्न होकर वह निर्गुण अधोक्षज (इन्द्रियजेता) कहलाता है । इसलिए, उस शून्यरूप, एवं साक्षीभूत भगवान् को नमस्कार है । इसे सुनकर उस ब्राह्मण ने उनकी शिष्य सेवा सुसम्पन्न करने के लिए उनके यहाँ निवास करना प्रारम्भ किया । वाणीभूषण ने वहाँ रहकर वेदाङ्ग छन्द ग्रन्थ की अपने नाम से रचना की । इस प्रकार राधाकृष्ण के उत्तम नाम जप करते हुए उन्होंने सहर्ष का जीवन व्यतीत किया ।

सूत जी बोले — ब्रह्मभक्ति में तन्मय रहने वाले धन्वन्तरि नामक ब्राह्मण ने कृष्णचैतन्य के पास पहुँचकर नमस्कार पूर्वक उनसे कहा — आप पुरुषश्रेष्ठ, नित्यशुद्ध, एवं सनातन हैं और आपकी माया जड़रूप हैं । नित्य, अव्यक्त, पर, एवं सूक्ष्म होने के नाते स्वयं भगवान् ही सर्वश्रेष्ठ हैं क्योंकि प्रकृति उन्ही से उत्पन्न हुई है । इसलिए सर्वश्रेष्ठ भगवान् की ही पूजा करनी चाहिए प्रकृति की नहीं । इसे सुनकर समस्त शास्त्रों के मर्मज्ञ यज्ञांश देव ने हँसकर कहा — केवल पुरुष सर्वश्रेष्ठ नहीं कहा जा सकता है क्योंकि प्रकृति के बिना वह सर्वदा असमर्थ है । वराह पुराण में इस विषय की एक प्रसिद्ध कथा है कि एक बार उस नित्य पुरुष ने जो केवल नाम मात्र हैं, स्वेच्छया प्रेत की भाँति अनेक रूप धारण किया किन्तु वह नित्य पुरुष जगत् की रचना करने में असमर्थ ही रहा । पश्चात् उसने सनातनी प्रकृति देवी की चिरकाल तक उपासना की । उससे प्रसन्न होकर देवी ने उसके पास जाकर सहयोग प्रदान पूर्वक महत्तत्त्व की रचना की । पुनः उस महत्तत्त्व से अहंकार और अहंकार द्वारा तन्मात्रा एवं तन्मात्र से पाँच महाभूतों की उत्पत्ति हुई । उस आकाशादि भूतों द्वारा इस विश्व की रचना हुई है । अतः उन सनातन पुरुष और प्रकृति में पुरुष से प्रकृति ही श्रेष्ठ है और प्रकृति से पुरुष ! इसलिए उन दोनों को नमस्कार है । इसे सुनकर धन्वन्तरि ने उनका शिष्य होकर वहाँ रहते हुए वेदाङ्ग कल्पवेद की रचना की । धन्वन्तरि के सुश्रुत के अतिरिक्त दो शिष्य और थे ।

सूत जी बोले — बौद्ध मतावलम्बी जयदेव नामक ब्राह्मण ने पच्चीस वर्षीय कृष्णचैतन्य के पास जाकर नमस्कार पूर्वक सुन्दर वांणी द्वारा उनसे कहा — उषापति ही सर्वश्रेष्ठ देव हैं, क्योकि जिसकी नाभि द्वारा ब्रह्मा समेत पद्म की उत्पत्ति हुई । अतः सामवेद में उसे ब्रह्मा का जन्मभू कहा गया है । साक्षात् विश्व नारायण जिसकी केतु (पताका) में स्थित रहते हैं, उसे विश्वकेतु एवं निरुद्ध नहीं अनिरूद्ध कहा जाता है । ब्रह्मवेला उसकी पत्नी है, जो नित्या, एवं सर्वश्रेष्ठ उषा कही गयी है । अतः लोक कल्याणार्थ वही उषापति यथावसर अवतरित होता है । इसे सुनकर यज्ञांशदेव ने हासपूर्वक उस ब्राह्मणश्रेष्ठ से कहा — वेद ही साक्षात् नारायणस्वरूप है, मनुष्यों को सदैव उसकी पूजा करनी चाहिए । क्योंकि वेद से काल, काल से कर्म, कर्म से धर्म, और धर्म से काम और काम से पत्नी रति की उत्पत्ति हुई है । उसी कामरति के संयोग से अनिरुद्ध नामक देवता की उत्पत्ति हुई है और उनकी भगिनी उषा ने भी उसी के साथ जन्म ग्रहण किया है । काल नाम कृष्ण का है, और राधा उनकी सहोदरा (भगिनी ) है । कर्म रूप ब्रह्मा हैं, नियति उनकी सहोदरा है । उसी प्रकार धर्म रूप महादेव हैं और श्रद्धा उनकी सहोदरा हैं । इसलिए आप के कहे हुए अनिरूद्ध सनातन ईश कैसे कहे जा सकते हैं । इस निखिल ब्रह्माण्ड में स्थूल, सूक्ष्म, एवं कारण के भेद से तीन प्रकार की सृष्टि हुई है जिसमें स्थूल सृष्टि के कर्ता स्वयं नारायण देव हैं, और नारायणी उनकी शक्ति है । उन दोनों से जल की उत्पत्ति हुई एवं उस जल से शेष की उत्पत्ति हुई है, जिस पर वे (नारायण और उनकी नारायणी शक्ति) दोनों सहर्ष सुशोभित हैं । नारायण देव के शयन करने पर उनकी नाभि द्वारा कमल की उत्पत्ति हुई, जो अनन्त योजन तक विस्तृत है । पुनः उसी से ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई है । और ब्रह्मा ने देव पशु पक्षी एवं मनुष्यों आदि की स्थूल सृष्टि की रचना की है । सूक्ष्म सृष्टि के लिए उषापति अनिरूद्ध का जन्म हुआ । पश्चात् ब्रह्माण्ड के मस्तक में उन्हीं द्वारा वीर्यमय जल का आविर्भाव हुआ और उसी से शेष की उत्पत्ति हुई जिस पर वे स्थित हैं । उनकी नाभि द्वारा लोक पितामह ब्रह्मा की उत्पत्ति हुई जिनके द्वारा स्वप्न दर्शन की भाँति सूक्ष्म सृष्टि का सर्जन हुआ । उसी प्रकार कारण सृष्टि के लिए स्वयं वेद नारायण का आविर्भाव हुआ । पश्चात् वेद द्वारा काल, काल से कर्म, और कर्म द्वारा धर्मादि की उत्पत्ति हुई है । विप्रवृन्द ! तुम्हारे गुरूवर जगन्नाथ जी उडू (उड़िया) देश के निवासी हैं, मैं भी शिष्यों समेत वहाँ के लिए आज ही प्रस्थान करना चाहता हूँ । इसे सुनकर उनके अनुयायी शिष्यगणों ने भी अपने-अपने शिष्यों को बुलाकर उनके समेत जगन्नाथ पुरी के लिए प्रस्थान किया । बारह शांकर मतानुयायी समेत रामानुज, नामदेव आदि सात गणों समेत रामानन्द, जो दूर से आकर नमस्कार करके उनके समीप स्थित थे, और अनेक शिष्यों समेत रोपण में कृष्ण चैतन्य के पास पहुँच कर नमस्कार करके उनकी सेवा में तत्पर रहते हुए जगन्नाथ पुरी की यात्रा की । उस उन सब की सेवा वहाँ आकर ऋद्धियाँ एवं सिद्धियाँ कर रही थीं । उस जनसमूह में शैवों एवं शाक्तों समेत दशसहस्र वैष्णव उपस्थित थे, जो यज्ञांश देव को सम्मान पूर्वक आगे कर जगन्नाथ पुरी की यात्रा कर रहे थे । .वहाँ पहुँचने पर उस समय अर्चावतार भगवान् उषापति अनिरुद्ध ने यज्ञांशदेव का आगमन जानकर ब्राह्मण वेष धारण किया और जहाँ गण समेत वे ठहरे थे, उस स्थान पर जगन्नाथ देव स्वयं चले गये ।

यज्ञांशदेव ने उन्हें देखकर नमस्कार पूर्वक उनसे कहा — इस भयानक कलि के समय आपका कौन सिद्धान्त है, विस्तार पूर्वक उसे बताने की कृपा कीजिये । मैं उसे तत्त्व समेत जानना चाहता हूँ । इसे सुनकर जगन्नाथ देव ने जो स्वयं विष्णु रूप हैं, लोक के कल्याणार्थ सुन्दर वाणी द्वारा कहना आरम्भ किये — मिश्र देश के निवासी म्लेच्छ लोगों ने जो काश्यप द्वारा शासित एवं शूद्र वर्ण द्वारा जिनके संस्कार सुसम्पन्न हुए हैं, ब्राह्मण बनकर शिखा व सूत्र के धारण पूर्वक वेदाध्ययन के उपरांत यज्ञानुष्ठान द्वारा देवाधि देव इन्द्र की पूजा की । उससे दुःख प्रकट करते हुए वे श्वेतद्वीप चले गये । वहाँ पहुँचकर उन्होंने देवों के कल्याणार्थ मेरी आराधना स्तुति द्वारा की । पश्चात् मेरे प्रबुद्ध होने पर उन्होंने कहा-देव, दयानिधे! मेरा दुःख सुनने की कृपा करें-शूद्र के बनाये हुए अन्न का भोजन ब्राह्मण कैसे कर सकता है, उसी प्रकार शूद्रों के यज्ञानुष्ठान द्वारा मैं कैसे तृप्त हो सकता हूँ। काश्यप के स्वर्गीय हो जाने पर मगध राज के शासन काल में मेरे शत्रु बलि दैत्य ने कलि के पक्ष का समर्थन किया है । वह मुझे निस्तेज बनाने के लिए प्रयत्नशील है । उसी ने मिश्रदेश के निवासी उन म्लेच्छों की भाषा को देवों के विनाश पूर्वक दैत्यों के बलवर्द्धनार्थ संस्कृत का रूप दिया है और आर्यों में दूषित प्राकृत भाषा का प्रचार किया है । अतः भगवन् ! मैं आपकी शरण में प्राप्त हूँ, आप मेरी रक्षा करें । इसे सुनकर मैंने देवराज इन्द्र से कहा — आप बारहों आदित्यों से भूतल में जन्म ग्रहण करने के लिए कहिये । मैं भी इस घोर कलि के समय लोक के कल्याणार्थ, वहाँ अवतार धारण करूंगा । प्रवीण, निपुण, अभिज्ञ, कुशल, कृती, सुखी, निष्णात, शिक्षित, सर्वज्ञ, सुनत, प्रबुद्ध, और बुद्ध के रूप में क्रमशः इन धाता, मित्र, अर्यमा, शक्र, मेघ,प्रांशु, भर्ग, विवस्वान्, पूषा, सविता, त्वाष्ट्र, और विष्णु नामक आदित्य देवों ने कीकट देश में जन्म ग्रहण किया । इन लोगों ने वेद की निन्दापूर्वक बौद्ध शास्त्र की रचना की । उन लोगों से वेदों को लेकर मुनियों को प्रदान किया । इसीलिए इस वेद की निन्दा करने के कारण वे सभी देव गण, जो इस भूमण्डल पर आकर उत्पन्न हुए थे, कुष्ठ रोग से पीड़ित होने पर उन बौद्ध रूपी विष्णु देव के पास पहुँचकर उनकी स्तुति करने लगे । जिससे प्रसन्न होकर भगवान् ने अपने योगबल द्वारा उनके कुष्ठरोग का नाश किया । किन्तु उस दोष के कारण तेजस्वी होते हुए बौद्ध नग्न रहने लगे । पूर्वार्द्ध भाग से नेमिनाथ और उत्तरार्द्ध भाग से बौद्ध का अविर्भाव हुआ । उस बौद्धराज्य के विनाशार्थ एवं लोक के कल्याणार्थ मैं सिंधु तट पर स्वर्ग से आये हुए राजा इन्द्रद्युम्न, द्वारा रचित उस मन्दिर में दारु-पाषाण (काष्ठ-पत्थर) का रूप धारण कर रहता हूँ । इस स्थल में यज्ञांश देव के ठहरने से इसकी महिमा बढ़ गई है, जिन्होंने लोक में सभी मनोरथों को सिद्ध एवं मोक्षदायक धर्म की स्थापना की है । इस स्थल की महिमा बढ़ जाने के कारण इस एक योजन के मण्डल में वर्णधर्म ,वेदधर्म और व्रत-पारायण की विशेष व्यवस्था मोक्ष के लिए नहीं की गई है, क्योंकि वह यहाँ अत्यन्त सुलभ है । जिसने यवनों की भाषा का व्यवहार और बौद्धदर्शन किया या करते रहते हैं, उनके उस महान् पाप के विध्वंस के लिए मैं यहाँ रहता हूँ । क्योंकि कलियुग में मनुष्य मेरे दर्शन करने से शुद्ध हो जायेंगे ।
(अध्याय २०)

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