भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय भाग – अध्याय १
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — तृतीय भाग)
अध्याय – १
उद्यान-प्रतिष्ठा-विधि

सूतजी कहते हैं — ब्राह्मणों ! उद्यान आदि की प्रतिष्ठा में जो कुछ विशेष विधि है, अब उसे बता रहा हूँ, आपलोग सुनें । सर्वप्रथम एक चौकोर मण्डल की रचना कर उस पर अष्टदल कमल बनाये । मण्डल के ईशानकोण में कलश की स्थापनाकर उसपर भगवान् गणनाथ और वरुणदेव की पूजा करे । तदनन्तर मध्यम कलश में सूर्यादि ग्रहों का पूजन करे । om, ॐफिर पश्चिमादि द्वार-देशों में ब्रह्मा और अनन्त तथा मध्य में वरुण की पूजा करे । जलपूरित कलश में भगवान् वरुण का आवाहन करते हुए कहे — ‘वरुणदेव ! मैं आपका आवाहन करता हूँ । विभो ! आप हमें स्वर्ग प्रदान करें ।’ तदनन्तर पूर्वभाग में मन्दरगिरि की स्थापना कर तोरण पर विष्वक्सेन की पूजा करे और कर्णिका-देश में भगवान् वासुदेव का पूजन करे । भगवान् वासुदेव शुद्ध स्फटिक के सदृश हैं । वे अपने चारों हाथों में शङ्ख, चक्र, गदा और पद्म धारण किये हुए हैं । उनके वक्षःस्थल पर श्रीवत्स-चिह्न और कौस्तुभमणि सुशोभित है तथा मस्तक सुन्दर मुकुट से अलंकृत है । उनके दक्षिण भाग में भगवती कमला, वाम भाग में पुष्टि-देवी विराजमान है । सुर, असुर, सिद्ध, किन्नर, यक्ष आदि उनकी स्तुति करते हैं । ‘विष्णो रराट० ‘ (यजु० ५ । २१) इस मन्त्र से भगवान् विष्णु की पूजा करे । उनके साथ में संकर्षणादि-व्यूह और विमला आदि शक्तियों की धूप, दीप आदि उपचारों से अर्चना कर प्रार्थना करे । उनके सामने घी का दीप जलाये और गुग्गुल का धूप प्रदान कर घृत-मिश्रित खीर का नैवेद्य लगाये । कर्णिका के दक्षिण की ओर कमल के ऊपर स्थित सोम का ध्यान करे । उनका वर्ण शुक्ल है, वे शान्त-स्वरूप है, वे अपने हाथों में वरद और अभय-मुद्रा धारण किये हैं एवं केयूरादि धारण करने के कारण अत्यन्त शोभित हैं । ‘इमं देवा० ‘ (यजु० ९ । ४०) इस मन्त्र से इनकी पूजा कर इन्हें घृतमिश्रित भात का नैवेद्य अर्पण करे । पूर्व आदि दिशा में इन्द्र, जयन्त, आकाश, वरुण, अग्नि, ईशान, तत्पुरुष तथा वायु की पूजा करे । कर्णिका के वाम भाग में शुक्ल वर्णवाले महादेव का ‘त्र्यम्बकं० ‘ (यजु० ३ । ६०) इस मन्त्र से पूजन कर नैवेद्य आदि प्रदान करे । भगवान् वासुदेव के लिये हविष्य से आठ, सोम के लिये अट्ठाईस तथा शिव के लिये दो खीर की आहुतियाँ दे । गणेशजी को घी की एक आहुति दे । ब्रह्मा एवं वरुण के लिये एक-एक आहुति और ग्रहों एवं दिक्पालों के लिये विहित समिधाओं तथा घी से एक-एक आहुतियाँ दे ।अग्नि की सात जिह्वाओं — कराली, धूमली, श्वेता, लोहिता, स्वर्णप्रभा, अतिरिक्ता और पद्मरागा को भी मन्त्रों से घृत एवं मधुमिश्रित हविष्य द्वारा एक-एक आहुति प्रदान करे । इसी प्रकार अग्नि, सोम, इन्द्र, पृथ्वी और अन्तरिक्ष के निमित मधु और क्षीर-युक्त यव से एक-एक आहुतियाँ प्रदान करे । फिर गन्ध-पुष्पादि से उनकी पृथक्-पृथक् पूजा करके रुद्रसूक्त तथा सौरसूक्त का जप करे । अनन्तर यूप को भली-भाँति स्नान कराकर और उसका मार्जन कर उसे उद्यान के मध्य भाग में गाड़ दे । यूप के प्रान्त-भाग में सोम तथा वनस्पति के लिये ध्वजाओं को लगा दें । ‘कोऽदात्कस्मा० ‘ (यजु० ७ । ४८) इस मन्त्र से वृक्षों का कर्णवेध संस्कार करे । एक तीखी सुई से वृक्ष के दक्षिण तथा वाम भाग के दो पत्तों का छेदन करे । नवग्रहों की तृप्ति के लिये लड्डू आदि का भोग लगाये तथा बालक और कुमारियों को मालपूआ खिलाये । रंजित सूत्रों से उद्यान के वृक्षों को आवेष्टित करे । उन वृक्षों को जलादि का प्राशन कराये और यह प्रार्थना-मन्त्र पढ़े —

“वृक्षाग्रात् पतितस्यापि आरोहात् पतितस्य च ।
मरणे वास्ति भङ्गे वा कर्ता पापैर्न लिप्यते ॥”

(मध्यमपर्व ३ । १ । ३१)
‘तात्पर्य यह कि विधिपूर्वक उद्यान आदि लगाये गये वृक्ष के ऊपर से यदि कोई गिर जाय, गिरकर मर जाय या अस्थि टूट जाय तो उस पाप का भागी वृक्ष लगानेवाला नहीं होता ।’

उद्यान के निमित्त पूजा आदि कर्म करानेवाले आचार्य को स्वर्ण, धान, गाय तथा दक्षिणा प्रदान कर उनकी प्रदक्षिणा करे । ऋत्विक् को भी स्वर्ण, रजत आदि दक्षिणा दे । ब्रह्मा को भी दक्षिणा देकर संतुष्ट करे एवं अन्य सदस्यों को भी प्रसन्न करे । अनन्तर यजमान स्थापित अधि कलश के जल से स्नान करे । सूर्यास्त से पूर्व ही पूर्णाहुति सम्पन्न करे । सम्पूर्ण कार्य पूर्णकर अपने घर जाय और विप्रों के द्वारा वहाँ बल, काम, हयग्रीव, माधव, पुरुषोत्तम, वासुदेव, धनाध्यक्ष और नारायण — इन सबका विधिवत् स्मरण कर पूजन कराये और पञ्चगव्यमिश्रित दधि-भात का नैवेद्य समर्पित करे ।

बल आदि देवताओं की पूजा करने के पश्चात् दक्षिण की ओर ‘स्योना पृथिवी० ‘ (यजु० ३५ । २१) इस मन्त्र से पृथ्वीदेवी का पूजन करे । मधुमिश्रित पायसान्न का नैवेद्य अर्पित करे । पृथ्वीदेवी शुद्ध काञ्चन वर्ण की आभा से युक्त हैं । हाथ में वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हैं । सम्पूर्ण अलंकारों से अलंकृत हैं । घर के वाम भाग में विश्वकर्मा का यजन करे । ‘विश्वकर्म० ‘ (ऋ० १० । ८१ । ६) यह मन्त्र उनके पूजन में विनियुक्त है । भगवान् विश्वकर्मा का वर्ण शुद्ध स्फटिक के समान है, ये शूल और टंक को धारण करनेवाले हैं तथा शान्त-स्वरूप हैं । इन्हें मधु और पिष्टक की बलि दें । अनन्तर कौष्माण्ड-सूक्त तथा पुरुष-सूक्त का पाठ करे । इसी पृथ्वी-होम-कर्म में मधु और पायस-युक्त हविष्य से आठ आहुतियाँ दे तथा अन्य देवताओं को एक-एक आहुति दें ।

उद्यान के चारों ओर अथवा बीच-बीच में उद्यान की रक्षा के लिये मेड़ों का निर्माण करे, जिन्हें धर्मसेतु कहा जाता है । उद्यान की दृढता के लिये विशेष प्रबन्ध करे । धर्मसेतु का निर्माण कर उनसे इस प्रकार प्रार्थना करे —

“पिच्छिले पतितानां च उच्छ्रितेनाङ्गसंगतः ॥
प्रतिष्ठिते धर्मसेतौ धर्मो मे स्यान्न पातकम् ।
ये चात्र प्राणिनः सन्ति रक्षां कुर्वन्ति सेतवः ।
वेदागमेन यत्पुण्यं तथैव हि समर्पितम् ॥
(मध्यमपर्व ३ । १ । ४४-४६)

तात्पर्य यह कि यदि कोई व्यक्ति इस धर्मसेतु (मेड़) पर चलते समय गिर जाय, फिसल जाय तो इस धर्मसेतु के निर्माण का कोई पाप मुझे न लगे । क्योंकि इस धर्मसेतु का निर्माण मैंने धर्म की अभिवृद्धि के लिये ही किया है । इस स्थान पर आनेवाले प्राणियों की ये धर्मसेतु रक्षा करते हैं । वेदाध्ययन आदि से जो पुण्य प्राप्त होता है, वह पुण्य इस धर्मसेतु के निर्माण करने पर प्राप्त होता है ।
(अध्याय १)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

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