भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय  – अध्याय २ से ३
ॐ श्रीपरमात्मने नमः
श्रीगणेशाय नमः
ॐ नमो भगवते वासुदेवाय
भविष्यपुराण
(मध्यमपर्व — तृतीय भाग )
अध्याय – २ से ३
गोचर-भूमि के उत्सर्ग तथा लघु उद्यानों की प्रतिष्ठा-विधि

सूतजी कहते हैं — ब्राह्मणों ! अब मैं गोचर-भूमि के विषयमें बता रहा हूँ, आप सुनें । गोचर भूमि के उत्सर्ग-कर्म में सर्वप्रथम लक्ष्मी के साथ भगवान् विष्णु की विधि के अनुसार पूजा करनी चाहिये । इसी तरह ब्रह्मा, रुद्र, करालिका, वराह, सोम, सूर्य और महादेवजी का क्रमशः विविध उपचारों से पूजन करे । हवन-कर्म में लक्ष्मीनारायण को तीन-तीन आहुतियाँ घी से दे । क्षेत्रपालों को मधुमिश्रित एक-एक लाजाहुति दे । om, ॐगोचरभूमि का उत्सर्ग करके विधान के अनुसार यूप की स्थापना करे तथा उसकी अर्चना करे । वह यूप तीन हाथ का ऊँचा और नागफणों से युक्त होना चाहिये । उसे एक हाथ से भूमि के मध्य में गाड़ना चाहिये । अनन्तर ‘विश्वेषा० ‘ (ऋ० १० । २ । ६) इस मन्त्र का उच्चारण करे और ‘नागाधिपतये नमः’, ‘अच्युताय नमः’ तथा ‘भौमाय नमः’ कहकर यूप के लिये लाजा निवेदित करे । ‘मयि गृह्णाम्य० ‘ (यजु० १३ । १)इस मन्त्र से रुद्रमूर्ति-स्वरूप उस यूप की पञ्चोपचार-पूजा करे । आचार्य को अन्न, वस्त्र और दक्षिणा दे तथा होता एवं अन्य ऋत्विजों को भी अभीष्ट दक्षिणा दे । इसके बाद उस गोचरभूमि में रत्न छोड़कर इस मन्त्र को पढ़ते हुए गोचरभूमि का उत्सर्ग कर दे —

शिवलोकस्तथा गावः सर्वदेवसुपूजिताः ॥
गोभ्य एषा मया भूमिः सम्प्रदता शुभार्थिना ।

(मध्यमपर्व ३ । २ । १२-१३)
‘शिवलोकस्वरूप यह गोचरभूमि, गोलोक तथा गौएँ सभी देवताओं द्वारा पूजित हैं, इसलिये कल्याण की कामना से मैंने यह भूमि गौओं के लिये प्रदान कर दी है ।’

इस प्रकार जो समाहित-चित्त होकर गौओं के लिये गोचरभूमि समर्पित करता है, वह सभी पापों से मुक्त होकर विष्णुलोक में पूजित होता है । गोचर भूमि में जितनी संख्या में तृण, गुल्म उगते हैं, उतने हजारों वर्ष तक वह स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित होता है । गोचरभूमि की सीमा भी निश्चित करनी चाहिये । उस भूमि की रक्षा के लिये पूर्व में वृक्षों का रोपण करे । दक्षिण में सेतु (मेड़) बनाये । पश्चिम में कँटीले वृक्ष लगाये और उत्तर में कुप का निर्माण करे । ऐसा करने से कोई भी गोचरभूमि की सीमा का लङ्घन नहीं कर सकेगा । उस भूमि को जलधारा और घास से परिपूर्ण करे । नगर या ग्राम के दक्षिण दिशा में गोचरभूमि छोड़नी चाहिये । जो व्यक्ति किसी अन्य प्रयोजन से गोचरभूमि को जोतता, खोदता या नष्ट करता है, वह अपने कुल को पातकी बनाता है और अनेक ब्रह्म-हत्याओं से आक्रान्त हो जाता है ।जो भली-भाँति दक्षिणा के सोथ गोचर्म-भूमि  गवां शतं वृषश्चैको यत्र तिष्ठत्ययन्त्रितः । तद्गोचर्मेति विख्यातं दतं सर्वाघनाशनम् ॥ -जिस गोचरभूमि में सौ गायें और एक बैल स्वतन्त्र रूप से विचरण करते हों, वह भूमि गोचर्म-भूमि कहलाती है । ऐसी भूमि का दान करने से सभी पापों का नाश होता है । अन्य बृहस्पति, वृद्धहारीत, शातातप आदि स्मृतियों के मत से प्रायः ३,००० हाथ लम्बी-चौड़ी भूमि की संज्ञा गोचर्म है। का दान करता है, वह उस भूमि में जितने तृण हैं, उतने समय तक स्वर्ग और विष्णुलोक से च्युत नहीं होता । गोचर-भूमि छोड़ने के आद ब्राह्मणों को संतुष्ट करे । वृषोत्सर्ग में जो भूमि-दान करता है, यह प्रेतयोनि को प्राप्त नहीं होता । गोचर-भूमि के उत्सर्ग के समय जो मण्डप बनाया जाता है, उसमें भगवान् वासुदेव और सूर्य का पूजन तथा तिल, गुड़ की आठ-आठ आहुतियों से हवन करना चाहिये । ‘देहि मे० ‘ (यजु० ३ । ५०) इस मन्त्र से मण्डप के ऊपर चार शुक्ल घट स्थापित करे । अनन्तर सौर-सूक्त और वैष्णव-सूक्त का पाठ करे । आठ वट-पत्रों पर आठ दिक्पाल देवताओं के चित्र या प्रतिमा बनाकर उन्हें पूर्वादि आठ दिशाओं में स्थापित करे और पूर्वादि दिशाओं के अधिपतियों — इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति आदि से गोचरभूमि की रक्षा के लिये प्रार्थना करे । प्रार्थना के बाद चारों वर्णों की, मृग एवं पक्षियों की अवस्थिति के लिये विशेषरूप से भगवान् वासुदेव की प्रसन्नता लिये गोचर भूमि का उत्सर्जन करना चाहिये । गोचर भूमि के नष्ट-भ्रष्ट हो जाने पर, घास के जीर्ण हो जाने पर तथा पुनः घास उगाने के लिये पूर्ववत् प्रतिष्ठा करनी चाहिये, जिससे गोचरभूमि अक्षय बनी रहे । प्रतिष्ठा-कार्य के निमित्त भूमि के खोदने आदि में कोई जीव-जन्तु मर जाय तो उससे मुझे आप न लगे, प्रत्युत धर्म ही हो और इस गोचरभूमि में निवास करनेवाले मनुष्यों, पशु-पक्षियों, जीव-जन्तुओं का आपके अनुग्रह से निरन्तर कल्याण हो ऐसी भगवान् से प्रार्थना करनी चाहिये । अनन्तर गोचर भूमि को त्रिगुणित पवित्र धागे द्वारा सात बार आवेष्टित कर दे । आवेष्टन के समय ‘सुत्रामाणं पृथिवं० ‘ (ऋ० १०। ६३ । १०) इस ऋचा का पाठ करे । अनन्तर आचार्य को दक्षिणा दे । मण्डप में ब्राह्मणों को भोजन कराये । दीन, अन्ध एवं कृपणों को संतुष्ट करे । इसके बाद मङ्गल-ध्वनि के साथ अपने घर में प्रवेश करे । इसी प्रकार तालाब, कुआँ, कूप आदि की भी प्रतिष्ठा करनी चाहिये, विशेषरूप से उसमें वरुणदेव की और नागों की पूजा करनी चाहिये ।
ब्राह्मणो ! अब मैं छोटे एवं साधारण उद्यान की प्रतिष्ठा के विषय में बता रहा हूँ । इसमें मण्डल नहीं बनाना चाहिये । बल्कि शुभ स्थान में दो हाथ के स्थण्डिल पर कलश स्थापित करना चाहिये । उसपर भगवान् विष्णु और सोम की अर्चना करनी चाहिये । केवल आचार्य का वरण करे । सूत्र से वृक्षों को आवेष्टित कर पुष्प-मालाओं से अलंकृत करे । अनन्तर जलधारा से वृक्षों को सींचे । पाँच ब्राह्मणों को भोजन कराये । वृक्षों का कर्णवेध संस्कार करे और संकल्पपूर्वक उनका उत्सर्जन कर दे । मध्य देश में यूप स्थापित करे और दिशा-विदिशाओं तथा मध्य देश में कदली-वृक्ष का रोपण करे और विधानपूर्वक घी से होम करे । फिर स्विष्टकृत् हवन कर पूर्णाहुति दे । वृक्ष के मूल में धर्म, पृथ्वी, दिशा, दिक्पाल और यक्ष की पूजा करे तथा आचार्य को संतुष्ट करे । दक्षिणा में गाय दे । सब कार्य विधान के अनुसार परिपूर्ण कर भगवान् सूर्य को अर्घ्य प्रदान करे ।
(अध्याय २-३)

See Also :-

1.  भविष्यपुराण – ब्राह्म पर्व – अध्याय २१६
2. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व प्रथम – अध्याय १९ से २१
3. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व द्वितीय – अध्याय १९ से २१

4. भविष्यपुराण – मध्यमपर्व तृतीय  – अध्याय १

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