मुद्रा लक्षण – प्रकरणम्

अर्चने जपकाले च ध्याने काम्ये च कर्मणि ।
स्नाने चावाहने शङ्खे प्रतिष्ठाया च रक्षणे ॥ १ ॥
नैवेद्ये च तान्यत्र तत्तत्कल्पप्रकाशिते ।
स्थाने मुद्राः प्रदष्टव्या स्वस्वलक्षणसंयुताः ॥ २ ॥
आवाहनादि मुद्रा नव साधारणी मताः ।
तथा षडङ्गमुद्राश्च सर्वमन्त्रेषु योजयेत् ॥ ३ ॥
एकोनविंशतिर्मुद्रा विष्णोरुक्ता मनीषिभिः ।
काममुद्रा परा ख्याता शिवस्य दश मुद्रिकाः ।
सूर्यस्यैकैव पद्माख्या सप्तमुद्रा गणेशितुः ॥ ४ ॥
लक्ष्मीमुद्रार्चने लक्ष्म्या वाग्वादिन्यास्तु पूजने ।
अक्षमाला तथा वीणा व्याख्या पुस्तकमुद्रिका ॥ ५ ॥
सप्तजिह्वाह्वया मुद्रा विज्ञेया वह्निपूजने ।
मत्स्यमुद्रा च कूर्माख्या लेलिहा मुण्डसंज्ञिका ॥ ६ ॥
महायोनिरिती ख्याता सर्वसिद्धि समृद्धिदाः ।
शक्त्यर्चने महायोनिः श्यामादौ मुण्डमुद्रिका ॥ ७ ॥
मत्स्यकूर्मलेलिहाख्या सर्वसाधारणी मता ।
दश मुद्राश्च समाख्यातास्त्रिपुरायाः प्रपूजने ॥ ८ ॥
संक्षोभ द्रविणा कर्षवश्योन्मादमहांकुशाः ।
खेचरी बीजयोन्याख्या त्रिखण्डा परिकीर्तिता ॥ ९ ॥
कुम्भमुद्राभिषेकेस्यात्पद्ममुद्रासने तथा ।
कालकर्णी प्रयोक्तव्या विघ्नप्रशमकर्मणि ॥ १० ॥
गालिनी च प्रयोक्तव्या जलशोधनकर्मणि ।
श्रीगोपालार्चने वेणुर्मृहरेर्नारसिंहिका ॥ ११ ॥
वराहस्य च पूजाया वराहाख्यां प्रदर्शयेत् ।
रामार्चने धनुर्बाणमुद्रे पर्शुस्तथार्चने ॥ १२ ॥
परशुरामस्य विज्ञेया तथा परशुमुद्रिका ।
वासुदेवाह्वया ध्याने कुम्भमुद्रा तु रक्षणे ॥ १३ ॥
सर्वत्र प्रार्थने चैव प्रार्थनाख्यां नियोजयेत् ।
उद्देशानुक्रमादासामुच्यते लक्षणन्तथा ॥ १४ ॥

॥ विष्णु की १९ मुद्राओं के लक्षण ॥

१. शङ्ख मुद्रा — बायें हाथ के अँगूठे को दाहिनी मुट्ठी में रखें, दाहिनी मुट्ठी को ऊर्ध्वमुख रखकर उसके अँगूठे को फैलाये । बायें हाथ की सभी उँगलियों को एक दूसरे के साथ सटाकर फैला दे । अब बायें हाथ की फैली उँगलियों को दाहिनी ओर घुमा कर दाहिने हाथ के अँगूठे का स्पर्श करे। यह शङ्ख मुद्रा कहलाती हैं ।
२. चक्र मुद्रा — दोनों हाथों को सम्मुख इस प्रकार रखें कि हथेलियाँ ऊपर हों। फिर दोनों हाथों की उँगलियों को मोड़ कर मुट्ठियाँ बना ले। अब दोनों अँगूठों को झुका कर परस्पर स्पर्श कराये और तर्जनियों को छोड़ कर दोनों हाथों की उँगलियों को फैला दे । अँगूठे ही की भाँति दोनों तर्जनियाँ भी एक दूसरे का स्पर्श करती रहनी चाहिये। यह चक्र मुद्रा हैं ।
३. गदा मुद्रा — दोनों हाथों की हथेलियों को मिलायें, फिर दोनों हाथ की उँगलियाँ परस्पर ग्रंथित करे। इस स्थिति में मध्यमा उँगलियों को मिलाकर सामने की ओर फैला दे । यह विष्णु को प्रसन्न करने वाली गदा मुद्रा हैं।
४. पद्म मुद्रा — दोनों हाथों को सम्मुख करके हथेलियाँ ऊपर करे, उँगलियों को बन्द कर मुट्ठी बाँधे । अब दोनों अँगूठों को उँगलियों के ऊपर से परस्पर स्पर्श कराये। यह पद्म मुद्रा हैं।
५. वेणु मुद्रा — बायें हाथ के अँगूठे को ओंठ का और कनिष्ठा को दाहिने हाथ के अँगूठे का स्पर्श करना चाहिये । दाहिने हाथ की कनिष्ठा को फैला होना चाहिये। दाहिने हाथ की शेष तीन उँगलियों (तर्जनी, मध्यमा और अनामा ) को थोड़ा झुका कर आगे पीछे चलायमान करना चाहिये। यह वेणुमुद्रा हैं जो अत्यन्त गोपनीय होने के साथ-साथ श्री कृष्ण को अत्यधिक प्रिय हैं।
६. श्रीवत्स मुद्रा — दोनों हाथों की हथेलियों को आमने सामने रखकर दोनों की मध्यमा और अनामिकाओं को थोड़ा झुकाकर अँगूठों से दबा ले। अब दोनों हाथों की तर्जनी को अपने हाथ की कनिष्ठिका मूलों में लगाये। यह श्रीवत्स मुद्रा हैं।
७. कौस्तुभ मुद्रा — दाहिने हाथ के अँगूठे का स्पर्श करते हुये अनामिका और कनिष्ठिका को बायें हाथ की कनिष्ठिका से और दाहिनी तर्जनी को बाँयी अनामिका से बाँधे । बायें अँगूठे और मध्यमा से दाहिने अँगूठे के मूल का स्पर्श करे । शेष उँगलियों को सीधा रखें। दोनों हाथ की चारों उँगलियों को सीधा रखें। दोनों हाथ की चारों उँगलियाँ परस्पर स्पर्श करती रहनी चाहिये। यह कौस्तुभ मुद्रा हैं।
८. वनमाला मुद्रा — दोनों हाथों को परस्पर स्पर्श किये हुये तर्जनी और अँगूठे से ग्रीवा से लेकर पाद पर्यन्त शरीर का स्पर्श करे। यह वनमाला मुद्रा हैं।
९. ज्ञान मुद्रा — दाहिने हाथ के अँगूठे और तर्जनी को एक दूसरे से मिलाये, शेष उँगलियाँ थोड़ी झुकी रखें। इस प्रकार उँगलियों को संयोजित करके हाथ को हृदय पर रखें। बायें हाथ को जाँघ पर इस प्रकार रखें कि हथेली ऊपर की ओर रहे। यह श्रीरामचन्द्र को ज्ञानमुद्रा अत्यन्त प्रिय हैं।
१०. बिल्वाख्य मुद्रा — बाँयें हाथ के अँगूठे को सीधा खड़ा करके उसे दाहिने अँगूठे से पकड़े, फिर इस बाँयें अँगूठे को पकड़े हुये दाहिने अँगूठे को दाहिने हाथ की सभी उँगलियों को (जो पहले से ही अँगूठे को पकड़े हुये हैं) पकड़े। साथ ही साथ कामबीज ‘क्लीं’ का उच्चारण भी करना चाहिये। यह बिल्व मुद्रा हैं जिसे ज्ञानियों ने अत्यन्त गोपनीय कहा हैं।
११. गरुड मुद्रा — दोनों हाथों के पृष्ठ भाग को एक दूसरे से मिलाइये। अब नीचे की ओर लटके हुये दोनों हाथों की तर्जनी और कनिष्ठिका को एक दूसरे के साथ ग्रथित कीजिये । इसी स्थिति में दोनों हाथों की अनामिका और मध्यमाओं को उल्टी दिशाओं में किसी पक्षी के पङ्खों की भाँति ऊपर नीचे कीजिये । यह विष्णु का सन्तोषवर्धन करने वाली गरुड़ मुद्रा हैं।
१२. नारसिंही मुद्रा — दोनों जाँघों के बीच में हाथ रखकर भूमि पर रखिये, चिबुक और ओठों को परस्पर स्पर्श करना चाहिये। फिर भूमि पर रखें हाथों को बार-बार कम्पायमान कीजिये और मुख को सामान्य स्थिति में लाते हुये जिह्वा को लेलिहाना मुद्रा की भाँति बाहर निकालिये। यह विष्णु का प्रीतिवर्द्धन करने वाली नारसिंही मुद्रा हैं ।
१३. नृसिंह या नृहरि मुद्रा — हथेलियों को अधोमुख करके दोनों हाथ के अँगूठों और कनिष्ठिकाओं को नीचे की ओर फैलाइये। इस प्रकार भी नृसिंह मुद्रा प्रदर्शित की जाती हैं।
१४. वाराह मुद्रा — दाहिने हाथ के पृष्ठभाग पर बाँयीं हथेली रखिये। बायें हाथ की उँगलियों को इस प्रकार मोड़िये कि वे अधोमुख दाहिने हाथ की हथेली का स्पर्श करने लगें। अब इस प्रकार घूमी हुई बाँयें हाथ की उँगलियों को दाहिने हाथ की उँगलियों से पकड़ लीजिये । यह वाराह मुद्रा कहलाती हैं ।
द्वितीया वाराह मुद्रा — बाँईं हथेली को दाहिनी हथेली पर इस प्रकार रखिये कि दोनों हाथ की उँगलियों का अगला भाग परस्पर स्पर्श करता रहे। यह दूसरी वाराह मुद्रा हैं।
१५. हयग्रीव मुद्रा — दाहिने हाथ की उँगलियों को बाँये हाथ की हथेली के नीचे रखिये। दाहिने हाथ की उँगलियाँ अधोमुख होनी चाहिये। अब उँगलियों को उठाइये और बायें हाथ की मध्यमा तथा अनामिका से दाहिने हाथ की उँगलियों को उठाते हुये मुख के पास लाकर खोल दीजिये। हयग्रीव के स्वरूप को व्यक्त करने वाली यह हयग्रैवी मुद्रा हैं।
१६. धनुर्मुद्रा — बाँयें हाथ की मध्यमा को दाहिने हाथ की तर्जनी से और बायें हाथ की अनामिका को दाहिने हाथ की कनिष्ठिका से मिलाये । इस प्रकार मिली अनामिका और कनिष्ठा को अँगूठे से दबा कर उनसे बायें कन्धों का स्पर्श करे। यह धेनु मुद्रा हैं।
१७. बाण मुद्रा — दाहिने हाथ की मुट्ठी बाँधकर उसकी तर्जनी को सीधी खड़ी करे। यह बाण मुद्रा हैं।
१८. परशु मुद्रा — दोनों हथेलियों को मिलाकर हाथ को ऊपर नीचे इस प्रकार करें मानों कुल्हाड़ी चला रहे हों। यह परशु मुद्रा हैं।
१९. त्रैलोक्यमोहिनी मुद्रा — दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधकर मुट्ठियों को मिलाये और फिर दोनों अँगूठों को परस्पर स्पर्श करते हुये उठाये। यह त्रैलोक्यमोहिनी मुद्रा हैं।
२०. काम मुद्रा — दोनों हाथों को मिलाकर सम्पुट बनाये और उँगलियों को आगे फैली रखें। अब दोनों तर्जनियों को अपनी-अपनी मध्यमाओं के पीछे रखें। दोनों अँगूठों को भी अपनी-अपनी मध्यमाओं पर रखे। सभी देवताओं को प्रिय और आनन्दकर यह काम मुद्रा हैं।

॥ शिव की दश मुद्राओं के लक्षण ॥

१. लिङ्ग मुद्रा — दाहिने हाथ के अँगूठे को ऊपर उठाकर उसे बायें अँगूठे से बाँधे। उसके बाद दोनों हाथों की उँगलियों को परस्पर बाँधे। यह शिवसान्निध्यकारक लिङ्ग मुद्रा हैं।
२. योनि मुद्रा — दोनों कनिष्ठिकाओं को, तथा तर्जनी और अनामिकाओं को बाँधे । अनामिका को मध्यमा से पहले किञ्चित् मिलाये और फिर उन्हें सीधा कर दे। अब दोनों अँगूठों को एक दूसरे पर रखें यह योनि मुद्रा कहलाती हैं।
३. त्रिशूल मुद्रा — कनिष्ठिकाओं को अँगूठों से बाँधकर शेष उँगलियों को सीधा रखें। यह त्रिशूल मुद्रा हैं।
४. अक्षमाला मुद्रा — अँगूठों और तर्जनियों के अग्रभाग को मिलाये। दोनों हाथों की शेष तीन-तीन उँगलियों को परस्पर ग्रथित करके सीधा करे। यह अक्षमाला मुद्रा हैं।
५. अभय मुद्रा — बाँयें हाथ को उठाये और हथेली खुली रखें। यह अभय मुद्रा हैं।
६. वर मुद्रा — दाहिनी हथेली को अधोमुख करके हाथ फैलायें ।
७. मृग मुद्रा — अनामिका और अँगूठे को मिलाकर उस पर मध्यमा को भी रखें। शेष दो उंगलियों को ऊपर की ओर सीधा खड़ा करे। यह मृग मुद्रा हैं।.
८. खट्वाङ्ग मुद्रा — दाहिने हाथ की सभी उँगलियों को मिलाकर ऊपर उठाये। यह शिव की अत्यन्त प्रिय खट्वाङ्ग मुद्रा हैं।
९. कपालाख्य मुद्रा — बायें हाथ को पात्रवत बनाकर ऐसे व्यवहार करना चाहिये मानो अपनी बाँई ओर से कुछ उठाकर उस पात्र में रक्खा जा रहा हैं यह कपाल की मुद्रा हैं।
१०. डमरु मुद्रा — हल्की मुट्ठी बाँधकर मध्यमाओं को थोड़ा ऊपर उठाये । फिर दाहिनी को कान तक उठाये। यह डमरू मुद्रा हैं जो सब विघ्नों का विनाश करती हैं।

॥ गणेश जी की सात मुद्राओं के लक्षण ॥

१. दन्त मुद्रा — दोनों हाथ की मुट्ठियाँ बाँधे और उनकी मध्यमा उँगलियों को सीधा करे। इसे सर्वागम विशारदों ने दन्त मुद्रा कहा हैं।
२. पाश मुद्रा— दोनों हाथ की मुट्ठियाँ बाँधकर बाई तर्जनी को दाहिनी तर्जनी से बाँधे। फिर दोनों तर्जनियों को अपने-अपने अँगूठों से दबाये इसके बाद दाहिनी तर्जनी के अग्रभाग को कुछ अलग करे। इसे विद्वानों ने पाश मुद्रा कहा हैं।
३. अंकुश मुद्रा— दोनों मध्यमाओं को सीधा रखते हुये दोनों तर्जनियों को मध्य पोर के पास परस्पर बाँधे । अ तर्जनियों को थोड़ा झुकाकर एक दूसरे को खीचें । यह अंकुश मुद्रा हैं।
४. विघ्न मुद्रा — मुट्ठियाँ बाँधकर अँगूठों को तर्जनी तथा मध्यमाओं के बीच इस तरह रखें कि अँगूठे का अग्रभाग थोड़ा बाहर निकला दिखाई पड़े। अब मध्यमाओं को अधोमुख करे। यह विघ्न मुद्रा हैं।
५. लड्डु मुद्रिका — ऊपर वर्णित विघ्न मुद्रा ही लड्डु मुद्रा के रूप में भी प्रसिद्ध है।
६. परशु मुद्रा — दोनों हाथों को एक में मिलाकर उनकी अंगुलियों का समायोजन कर उन्हें तिरछा कर देने से परशु मुद्रा बन जाती है।
७. बीजपूर मुद्रा — दोनों हाथों को आपस में मिलाकर बिजौरा नीबू के सदृश दिखाने पर बीजपूर मुद्रा बन जाती है।
बीजपूराह्वया मुद्रा प्रसिद्धत्वादुपेक्षिता ।
इति पर्शुलड्डुकबीजपूरादिमुद्राः इति ॥५ ॥ ॥६ ॥ ॥७ ॥
बीजपूर मुद्रा कुछ उपेक्षित रही है, क्योंकि यह प्रसिद्ध नहीं है।
इति गणेशसप्तमुद्राः ।

॥ शक्ति की दश मुद्रायें ॥

शाक्तेयीनां च मुद्राणां कथ्यन्ते लक्षणानि तु ।
पाशांकुशवराभीतिधनुर्बाणाः समीरिताः ।
इति षड् मुद्राः पूर्ववत् ज्ञेयाः ।

पाश, अंकुश, वर, अभिति, धनु, वाण आदि छ: प्रमुख मुद्रायें हैं। शेष चार मुद्रायें इस प्रकार है —
१. खङ्ग मुद्रिका — कनिष्ठिका और अनामिका उँगलियों को एक दूसरे के साथ बाँधकर अँगूठों को उनसे मिलाये। शेष उँगलियों को एक साथ मिलाकर फैला दे । इस प्रकार खङ्ग मुद्रा बनती हैं।
२. चर्म मुद्रा — फैले हुये बायें हाथ को थोड़ा मोड़कर उँगलियों को भी थोड़ा मोड़ ले। यह चर्म मुद्रा हैं।
३. मुसल मुद्रा — दोनों हाथों की मुट्ठी बाँधे फिर दाहिनी मुट्ठी को बाँयें पर रखें। इसे मुसल मुद्रा कहते हैं जो सभी विघ्नबाधाओं को दूर करती हैं ।
४. दौर्गी मुद्रा — दोनों हाथ की मुट्ठियाँ बाँधकर दाहिनी मुट्ठी को बाँयें पर रखें और फिर उन्हें शिर से मिलाये। यह दुर्गा मुद्रा हैं।

॥ लक्ष्मी की एक मुद्रा ॥

लक्ष्मी मुद्रा — पहले चक्र मुद्रा बनाये और फिर मध्यमाओं को फैला दे । अब अनामिका और कनिष्ठिकाओं के बीच से अँगूठों को बाहर निकाले। सभी सम्पत्तियों को देने वाली यह लक्ष्मी मुद्रा हैं।

॥ सरस्वती की पाँच मुद्रायें ॥

१. वीणा मुद्रा — दोनों हाथों को इस प्रकार रखें मानो वीणा लिये हो और फिर कुछ देर तक वीणा बजाने का उपक्रम करे। यह सरस्वती की प्रिय वीणा मुद्रा हैं।
२. पुस्तक मुद्रा — बाँयें हाथ की मुट्ठी बनाकर अपने सामने करे। यह पुस्तक मुद्रा हैं।
३. व्याख्यान मुद्रा — दाहिने हाथ की तर्जनी और अँगूठे के अग्रभाग को मिलाये। शेष उँगलियों को मिलाकर ऊपर उठाये। यह श्रीराम और सरस्वती की अत्यन्त प्रिय व्याख्यान मुद्रा हैं।
४. अक्षमाला मुद्रा — अक्षमाला आदि मुद्राओं को पूर्व वर्णन के अनुसार व पाँचवी वादन अथवा अभिति मुद्रा जानें।

॥ वह्नि की एक मुद्रा ॥

सप्तजिह्वाख्याग्नि मुद्रा — अपनी-अपनी कलाइयों से हाथ को सीधा करके सभी उगलियों को ऊपर उठाये। अब अँगूठे और कनिष्ठिकाओं के अग्रभाग को मिलाकर सामने फैलाये। यह वैश्वानर (अग्नि) की अत्यन्त प्रिय सप्तजिह्वा मुद्रा हैं।

॥ अनेक अन्य मुद्राओं के लक्षण ॥

१. गालिनी मुद्रा — दोनों हथेलियों को एक दूसरे पर रखें। कनिष्ठिकाओं को इस प्रकार मोड़े कि वे अपनी-अपनी हथेलियों को स्पर्श करें । तर्जनी, मध्यमा और अनामिका उँगलियाँ सीधी और परस्पर मिली रहें। यह शङ्ख बजाने की गालिनी मुद्रा हैं।
२. कुम्भ मुद्रा — दाहिने अँगूठे को बाँयें के ऊपर रखें। इसी अवस्था में दोनों हाथ की मुट्ठियाँ बाँधे परन्तु दोनों मुट्ठियों के बीच थोड़ी जगह होनी चाहिये। यह कुम्भ मुद्रा हैं।
३. कुम्भमुद्रा द्वितीया — दोनों हाथ को मिलाकर एक ही मुट्ठी बनाये और दोनों अँगूठों को मिलाकर तर्जनी के अग्रभाग रखें। यह द्वितीय कुम्भ मुद्रा हैं जो साधक की हर प्रकार से रक्षा करती है।
४. प्रार्थना मुद्रा — दोनों हाथों को फैलाये हुये हृदय पर रखें। यह प्रार्थना मुद्रा हैं।
५. अंजलि मुद्रा — दोनों हाथों को मिलाकर अञ्जलि बनाये। यह वासुदेव को प्रिय अञ्जलि मुद्रा है।
६. कालकर्णी मुद्रा — दोनों हाथों की बँधी मुट्ठियों को एक दूसरे से मिलाकर दोनों अँगूठों को ऊपर उठाये। इस प्रकार हाथों को अपने सामने रखें। यह कालकर्णी मुद्रा है।
७. विस्मय मुद्रा — दाहिने हाथ की कसकर मुट्ठी बनाकर उसकी तर्जनी से नाक को हल्के से दबाये। यह विस्मय मुद्रा हैं जो विस्मयावेश को व्यक्त करती हैं।
८. नादमुद्रिका — दाहिने अँगूठे को बाँयी मुट्ठी में बन्द करे। यह नाद मुद्रा है।
९. बिन्दु मुद्रा — तर्जनी और अँगूठे के अग्रभाग को मिलाये। यह बिन्दु मुद्रा हैं।
१०. संहार मुद्रा — अधोमुख बाँयें हाथ को ऊर्ध्वमुख दाहिने हाथ पर रखें। दोनों हाथ की उँगलियों को परस्पर ग्रथित करे । इस प्रकार संयोजित हाथों को घुमाकर बिल्कुल उलट देवें । देवता के विसर्जन के समय प्रयुक्त होने वाली यह संहार मुद्रा है।
११. मत्स्य मुद्रा — बाँयी हथेली को दाहिने हाथ के पृष्ठ भाग पर रखें और फिर दोनों अँगूठों को हथेली को पार करते हुये मिलाये। यह मत्स्य मुद्रा हैं।
१२. कूर्म मुद्रा — बाँयी तर्जनी को दाहिनी कनिष्ठिका से मिलाये । पुनः दाहिनी तर्जनी को बाँयें अँगूठे से मिलाये और दाहिने अँगूठे को ऊपर उठा दे। अब बाँयें हाथ की मध्यमा और अनामिका को दाहिने हाथ की हथेली से लगाये । दाहिने हाथ को कछुए की पीठ की तरह बनाये। देवता के ध्यान कर्म में प्रयुक्त होने वाली यह कूर्म मुद्रा है ।
१३. मुण्ड मुद्रा — अँगूठे को भीतर करके बायें हाथ की मुट्ठी बाँधे । दाहिने हाथ की मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिका को थोड़ा मोड़े। दाहिने अँगूठे को दाहिनी तर्जनी के मध्य पर्व पर लगाये। इस प्रकार संयोजित दाहिने हाथ पर बाँयी मुट्ठी को रखें। फिर साधक इस प्रकार रखें हाथों की दाहिनी ओर अपनी दृष्टि को केन्द्रित करे । यह मुण्ड मुद्रा है।
१४. लेलिहाना मुद्रा — तर्जनी, मध्यमा और अनामिका को बराबर करके अधोमुख करे। कनिष्ठिका को सीधा रखें। यह जीवन्यास में प्रयुक्त होने वाली लेलिहाना मुद्रा है।
१५. महायोनि मुद्रा — दोनों हाथों की तर्जनी, मध्यमा, अनामिका और कनिष्ठिकाओं को एक दूसरे से मिलाकर दोनों हथेलियों को इस प्रकार मिलाये कि उनका निचला भाग एक दूसरे को अच्छी तरह स्पर्श करता रहे। अब दोनों अँगूठों को अपनी-अपनी कनिष्ठिकाओं के मूल पर्वो पर रखें। यह महायोनि मुद्रा है।
१६. त्रिखण्ड मुद्रा — दोनों हाथों को एक दूसरे को काटते हुये (दाहिना बाँई ओर और बायाँ दाहिनी ओर) पीठ पर रखें और अँगूठों को बराबर करके मिलाये । अनामिकाओं को भीतर की ओर फैलाये और तर्जनियों को थोड़ा मोड़े। कनिष्ठिकाओं को यथास्थान मिलाये। त्रिपुरा देवी के ध्यान में प्रयुक्त होने वाली यह त्रिखण्ड मुद्रा है।
१७. प्रथमा मुद्रा — मध्यमा को मध्य में रखकर अँगूठों और कनिष्ठिकाओं को मिलाये। तर्जनी को सीधा ओर अनामिका को मध्यमा के ऊपर रखें। यह प्रथम सर्वसंक्षोभकारिणी मुद्रा है।
१८. सर्वविद्रावणी मुद्रा  — उपरोक्त संक्षोभकारिणी मुद्रा में जब मध्यमा को ढीला कर दिया जाता हैं तो, वह सर्वविद्रावणी मुद्रा बन जाती है।
१९. आकर्षिणी मुद्रा — कनिष्ठिका, अनामिका, मध्यमा तथा तर्जनी को बराबर करके मध्यमा को अँकुशाकार बनाकर कनिष्ठिका और अनामिका पर रखें और अँगूठे को उससे मिलाये। यह तीनों लोकों को आकर्षित करने वाली आकर्षिणी मुद्रा है।
२०. सर्ववश्यकरी मुद्रा — दोनों हाथों को मिलाकर सम्पुट बनाये और फिर तर्जनियों को अँकुशाकार करे । इसी प्रकार मध्यमा, कनिष्ठिका और अनामिकाओं को भी क्रमशः मोड़े और सभी को अँगूठे के अग्रदेश से कसकर — मिलाये। यह सर्ववश्यकरी मुद्रा है।
२१. उन्मादिनी मुद्रा — दोनों हाथों को सम्मुख करके मध्यमा को मध्यमा से और कनिष्ठिका को कनिष्ठिका से मिलाये । अनामिकाओं को सीधा रखकर परस्पर मिलाये तथा दोनों तर्जनियों को बाहर रखें जिससे अँगूठों को सीधे मध्माओं के नख पर रक्खा जा सके। यह सब स्त्रियों को क्लेदित करने वाली उन्मादिनी मुद्रा है।
२२. महांकुश मुद्रा — दोनों अनामिकाओं को अँकुशाकार अधोमुख करके मिलाये । पुनः दोनों तर्जनियों को भी उसी प्रकार अँकुशाकार करके मिलाये। यह सर्व इच्छाओं को पूर्ण करने वाली महांकुशा मुद्रा है।
२३. खेचरी मुद्रा — हे देवी! बाँयें हाथ को दाहिनी ओर और दाहिने हाथ को बाँई ओर रखें। फिर इसी क्रम से निष्ठा और अनामिकाओं को मिलाये। दोनों तर्जनियों को एक दूसरे के ऊपर रखें। दोनों मध्यमाओं को सबके ऊपर उठाये । अँगूठों को सीधा रखें। यह सर्वोत्तम खेचरी मुद्रा है।
२४. बीज मुद्रा — हाथों को एक दूसरे को काटते हुये चन्द्राकार करे। दोनों अँगूठों को अपनी-अपनी तर्जनियों से मिलाये। फिर नीचे से दोनों कनिष्ठिकाओं को मध्यमाओं से मिलाये। इसी प्रकार अनामिकाओं को सबसे नीचे कुछ मोड़ कर मिलाये। यह सर्वसम्पत्तियों को बढ़ाने वाली बीजमुद्रा है।
२५. योनि मुद्रा — मुड़ी हुई मध्यमाओं को तर्जनियों पर रखें। इसी प्रकार अनामिकाओं को कनिष्ठकाओं को मोड़ कर, सबको जोड़ कर एक साथ अँगूठों से दबाये। यह प्रथम योनिमुद्रा है।
२६. सौभाग्यदायिनी मुद्रा — बाँयें हाथ की मुट्ठी बाँधकर उसे कान तक लाये। फिर तर्जनी को सीधा कर मन्त्रवित श्रेष्ठ साधक उसे वृत्ताकार घुमाये । न्यास के समय प्रयुक्त होने वाली यह सौभाग्यदायिनी मुद्रा है।
२७. रिपुजिह्वाग्रहा मुद्रा — अँगूठे को मुट्ठी के भीतर रखकर उसे तर्जनी से दबाये। न्यास के समय प्रयुक्त होने वाली यह रिपुजिह्वाग्रहा मुद्रा है।
२८. भूतिनी मुद्रा — योनिमुद्रा बनाकर मध्यमाओं को मोड़े। अँगूठों के अग्रभाग को मध्यमाओं के अग्रभाग पर रखें। यह भूतिनी मुद्रा है।
२९. तर्जनी मुद्रा — तर्जनी और मध्यमा को दबाते हुये बायें हाथ से मुट्ठी बाँधे। फिर मुट्ठी बँधे दाहिने हाथ को कसकर उसकी तर्जनी को सामने फैलाये। यह तर्जनी मुद्रा हैं।

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