September 25, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-018 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ अठारहवाँ अध्याय बालक विनायक के बालचरित के वर्णन-प्रसंग में एक दैत्य का ज्योतिषी बनकर काशिराज के दरबार में आना और विनायक द्वारा उसका वध अथः अष्टादशोऽध्यायः बालचरिते कपटि दैत्यवध व्यासजी बोले — हे लोकेश्वर ! दूसरा दिन हो जाने पर कौन-सी बात हुई, उसे मुझे बताइये, सुनते हुए भी मैं तृप्त नहीं हो पा रहा हूँ ॥ १ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् ! मैं विनायकदेव द्वारा किये गये दिव्य चरित्र को संक्षेप में बताता हूँ, उसे आप सावधान होकर सुनें, वह कथा सभी प्रकार के पापों का विनाश करने वाली है ॥ २ ॥ भगवान् सूर्य के उदय हो जाने पर काशिराज तथा बालक विनायक ने अपना नित्य कर्म सम्पन्न किया। तदनन्तर बालक विनायक तो खेल करने के लिये चले गये और राजा राजसभा में भद्रासन पर विराजमान हुए ॥ ३ ॥ उसी समय एक दैत्य ब्राह्मण का वेष धारण करके वहाँ आया । वह ज्योतिःशास्त्र में पारंगत था, उसने अपने बायें हाथ में ताड़पत्र से बनी पुस्तक और दाहिने हाथ में जपमाला धारण कर रखी थी ॥ ४ ॥ वह गुलाबी रंग के वस्त्र धारण किये हुए था तथा सिर पर बहुत बड़ी पगड़ी पहने हुए था। वह अपने शरीर के बारह अंगों में गोपीचन्दन का तिलक लगाये हुए था। उसकी दाढ़ी बहुत विशाल थी । वह ज्योतिषी काशिराज के समीप में आया, जबतक वह पास में पहुँचता, उससे पूर्व ही राजा ने उसे प्रणाम किया ॥ ५-६ ॥ राजा अपने आसन से उठ खड़े हुए और अपने आसन के समीप ही उसको आदरपूर्वक बिठाया। उससे कुशल पूछी, आगमन का कारण पूछा और यह भी पूछा कि किस स्थान से आना हुआ है ॥ ७ ॥ हे विप्रेन्द्र ! आपका क्या नाम है, आप किस विद्या के ज्ञाता हैं और आपने कौन-सी साधना की है ? हे मुने! हे कृपानिधे ! ये सारी बातें मुझ पर कृपा कर सत्य-सत्य बतलायें ॥ ८ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे महामुनि व्यासजी ! इस प्रकार से पूछे गये उस छद्मरूपधारी ने शीघ्र ही आशीर्वाद प्रदान किया और क्रमशः उन सभी प्रश्नों का उत्तर दिया, जो राजा ने पूछे थे । [ वह बोला- ] हे राजकुँअर ! मेरा ‘हेमज्योतिर्विद्’ यह नाम है। मैं गन्धर्वलोक से आया हूँ और निवास के लिये आपका आश्रय चाहता हूँ ॥ ९-१० ॥ मैं भूत, भविष्य तथा वर्तमानकाल की सभी घटनाओं तथा अरिष्ट निवारण-सम्बन्धी शान्तिकर्मों को जानता हूँ। हे निष्पाप! आप जिन-जिन प्रश्नों को पूछेंगे, मैं उन सभी का उत्तर प्रदान करूँगा ॥ ११ ॥ हे राजन्! आपके यहाँ जो अरिष्ट आये हैं, उन सबका मुझे ज्ञान है, आपके लिये भविष्य में आने वाले अरिष्टों के लक्षणों को जानकर ही मैं यहाँ आया हूँ । हे नृपश्रेष्ठ! इसीलिये मुझे आपके राज्याश्रय में रहने की इच्छा है ॥ १२१/२ ॥ राजा बोले — हे महामुने! किस कारण से यहाँ अरिष्ट उत्पन्न हो रहे हैं तथा आगे भी कौन-कौन अरिष्ट होंगे ? आप उन्हें सत्य- सत्य मुझे बतायें। आपमें विश्वास हो जाने पर ही मैं आपको अपने भवन में निवास प्रदान करूँगा। इतना ही नहीं, मैं आपको योग-क्षेम करने वाली आजीविका भी प्रदान करूँगा ॥ १३–१४१/२ ॥ ज्योतिषी बोला — हे राजपुत्र ! कश्यप का पुत्र विनायक जबतक आपके घर में रहेगा, तबतक निश्चित ही अनेक विघ्न-बाधाएँ उत्पन्न होंगी; क्योंकि वह विघ्नों का स्वामी है, अतः उसे आप किसी निर्जन वन में छोड़ आइये ॥ १५-१६ ॥ ऐसा होने पर आपके घर में तथा नगर में कहीं कोई विघ्न नहीं होंगे, इसके यहाँ स्थित रहने पर जल सारे नगर को डुबो डालेगा ॥ १७ ॥ यदि वह जल किसी प्रकार नष्ट भी हो जायगा तो वायु द्वारा प्रेरित पर्वत नगर को निश्चित ही चूर-चूर कर डालेंगे। हे राजन्! इसमें कोई संदेह नहीं है ॥ १८ ॥ आप यह क्यों नहीं जान रहे हैं कि इसके आने से पूर्व कोई उपद्रव नहीं होते थे। अपने पतन की सम्भावना को देखने वाले राजा को चाहिये कि वह कपट करने वाले, लोभी, अपवित्र, अत्यन्त शूरवीर तथा अत्यधिक अभिलाषा रखने वाले व्यक्ति पर कभी भी विश्वास नहीं करे; क्योंकि राज्य की प्राप्ति की अत्यधिक इच्छा रखने वाले ये लोग राजा की हत्या तक कर देते हैं ॥ १९-२० ॥ आपका राज्य आपके हाथ से छिन जायगा, इसे जानकर ही मैं आपको यह सब बताने के लिये यहाँ आया हूँ। जानकार व्यक्ति को यह चाहिये कि वह राजा को उसके हित की तथा उसके अहित की बात अवश्य बतलाये । हे राजन् ! मेरी बात पर विचार करके जैसी आपकी इच्छा हो, वैसा करें ॥ २११/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — उस छद्म ज्योतिषी की बात सुनकर राजाने उससे कहा — ॥ २२ ॥ राजा बोले — हे मुने! आपने अपने भूत और भविष्य के ज्ञान के बलपर जो सब कुछ मुझसे कहा है, वह मुझे उसी प्रकार मिथ्या प्रतीत हो रहा है, जैसे कि तत्त्वज्ञान हो जाने पर यह जगत्-प्रपंच मिथ्या भासित होता है। आपकी कही हुई बातों पर विश्वास होने पर मैं आपको आजीविका प्रदान करूँगा । हे गणक श्रेष्ठ ! आपने अभी इस बालक को ठीक से जाना नहीं है ॥ २३-२४ ॥ यदि यह बालक चाहे तो दूसरे ब्रह्मा, विष्णु तथा शंकरसहित बहुत-से ब्रह्माण्डों की रचना कर सकता है। हे ब्राह्मणश्रेष्ठ ! यदि आपको अपने कथन पर पक्का विश्वास है तो इसे आप स्वयं गहन घनघोर वन में छोड़कर पुनः यहाँ वापस आ जायँ ॥ २५-२६ ॥ लोगों से द्वेष रखने वाले अनेक बलवान् से भी बलवान् [ राक्षसों ] – को इसने मार गिराया है, फिर स्वयं से ही द्वेष रखने वाले को यह कैसे जीवित रखेगा ? ॥ २७ ॥ इस बालक के मन में किसी के प्रति अनिष्ट की भावना हो, ऐसा हम सोच भी नहीं सकते। इसने काशी नगरी तथा सम्पूर्ण राज्य की अनेक उत्पातों से अनेक बार रक्षा की है। जो इन्द्र नहीं है, उसे यह इन्द्र बनाने की क्षमता रखता है। यह शक्तिरहित को शक्तिसम्पन्न, लघु को गुरु, उच्च को नीच, नीच को उच्च तथा समर्थ को असमर्थ बना सकता है ॥ २८-२९ ॥ राजा की बात सुनकर वह ज्योतिषी क्रोध से लाल हो गया। अपना मुख नीचे करके उसने पुनः कुछ कहना प्रारम्भ किया — ॥ ३० ॥ मैंने तो आपके हित की ही बात कही थी, किंतु इसमें भी आपको अनिष्ट प्रतीत हो रहा है। विधाता के द्वारा रची घटना का कोई भी उल्लंघन नहीं कर सकता और न उससे कुछ अन्यथा ही कर सकता है ॥ ३१ ॥ हे राजन्! उस बालक को आप मुझे दिखलायें, मैं उसके लक्षण बताऊँगा । तब राजा ने सभी बालकों को बुलवाया। सबसे पहले विनायक पहुँचे, उनके पीछे अन्य सभी बालक भी दौड़ते हुए आ पहुँचे । बालक विनायक ने उस ज्योतिषी को प्रणाम किया और पूछा आप कहाँ से आये हैं ? ॥ ३२-३३ ॥ आप सामुद्रिकशास्त्र के अनुसार शरीर के लक्षणों को जानते हैं, ज्योतिःशास्त्र में पारंगत हैं तथा भूत, भविष्य एवं वर्तमान की सभी बातों के जानने वाले हैं, आप मेरे भाग्य का फल बताइये ॥ ३४ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर उस कपटी ब्राह्मण ने बालक विनायक की बातों को धैर्यपूर्वक सुनकर मन में यह विचार किया कि मेरे कल्याण का रास्ता कौन-सा है ? इसने तो अनेक रूप धारण करने वाले बहुत-से बलवान् दुष्टों को मार डाला है। तब उस ज्योतिषी ने बालक विनायक का हाथ पकड़कर शुभ तथा अशुभ फल बताना प्रारम्भ किया ॥ ३५-३६ ॥ आज से चार दिन के बाद तुम कुएँ में गिर पड़ोगे, कदाचित् वहाँ से बचकर निकल आओगे, तो तुम समुद्र में डूब जाओगे । वहाँ से भी अगर बच निकलोगे तो अन्धकारपूर्ण किसी गहन गड्ढे में गिर पड़ोगे । अगर वहाँ से बच गये तो तुम्हारे ऊपर कोई पर्वत गिर पड़ेगा ॥ ३७-३८ ॥ फिर भी अगर तुम बच जाओगे तो दो बहुत विशाल कालपुरुष तुम्हें खा जायँगे। इस प्रकार के अरिष्ट तुम्हारे लिये होने वाले हैं, इसमें कोई संदेह नहीं है। अब मैं तुम्हें इन अरिष्टों के निवारण का उपाय भी बताता हूँ । निर्भय रहने के लिये इस उपाय को करो । यहाँ से कहीं अन्यत्र चलकर मेरे साथ चार दिन रहो ॥ ३९-४० ॥ मैं तुम्हारे चरणकमलों की शपथ खाकर कहता हूँ कि तुम्हें पुनः यहाँ ले आऊँगा । बालक विनायक ज्योतिषी की बात सुनकर धीरे-से घर के अन्दर प्रविष्ट हो गये। तदुपरान्त बालक विनायक ने शीघ्र ही राजा के हाथ से रत्ननिर्मित अँगूठी लेकर उसे अपने हाथ में छिपाकर उस द्विज से कहा — ॥ ४१-४२ ॥ अरे ज्योतिषी ! शीघ्र आप बतायें कि हमारी कौन- सी वस्तु खो गयी है, किसने उसे लिया है और वह पुनः कब प्राप्त होगी? आपके सत्य-सत्य बताने पर ही आपकी बातों पर विश्वास होगा ॥ ४३ ॥ बालक विनायक द्वारा इस प्रकार कहा गया वह ज्योतिषी विचार करके लोगों की सभा में मुसकराकर इस प्रकार बोला — ‘यदि वह अँगूठी मिल जाती है तो मुझे ही देनी होगी, तभी मैं उसके विषय में बता सकता हूँ ।’ बालक विनायक के द्वारा ‘ठीक है, ऐसा ही होगा’ कहने पर वह बोला — ‘वह अँगूठी तुम्हारे ही हाथ के अन्दर है’। उस छद्मवेषधारी ज्योतिषी के द्वारा ऐसा कहे जाने पर बालक विनायक ने उस अभिमन्त्रित अँगूठी से तत्काल ही उसके हृदय में आघात किया ॥ ४४–४६ ॥ उस अँगूठी के प्रहार से वह गणक उसी प्रकार छिन्न-भिन्न हृदयवाला हो गया, जैसे कि वज्र के प्रहार से पर्वत विदीर्ण हो जाता है । वह गणक पृथ्वी को अत्यन्त कँपाते हुए भूतल पर गिर पड़ा ॥ ४७ ॥ गिरते हुए उसके शरीर से नगर का कुछ हिस्सा भी चूर-चूर हो गया। उस समय काशिराज के साथ ही सभी लोग भी अत्यन्त आश्चर्य में पड़ गये ॥ ४८ ॥ सभी देवता अत्यन्त हर्षित हो उठे और फूलों की वर्षा करने लगे। उस समय स्वर्गलोक तथा भूलोक में बजाये जाने वाले वाद्यों के निर्घोष से आकाश तथा पृथ्वीमण्डल प्रतिध्वनित हो उठा ॥ ४९ ॥ लोग कहने लगे — इस बालक विनायक ने यह कैसे जान लिया कि यह तो अत्यन्त दुष्ट दैत्य है, जो ब्राह्मण का वेष धारणकर आया है, दैवयोग से यह अच्छा हुआ कि राजा ने भी उस दुरात्मा की बात नहीं मानी ॥ ५० ॥ इसे सामान्य बालक नहीं समझना चाहिये । पृथ्वी के भार को हलका करने के लिये कोई करुणासागर देवता ही महर्षि कश्यप के घर में अवतीर्ण हुआ है ॥ ५१ ॥ केवल अँगूठी के प्रहार से इसने इस बलवान् के प्राण किस प्रकार हरण कर लिये? ऐसा कहकर उन सभी ने बालक विनायक का पूजन किया, उन्हें प्रणाम किया, उनकी स्तुति की और वे उनकी प्रशंसा करने लगे ॥ ५२ ॥ कमललोचन काशिराज ने ब्राह्मणों को विविध दान दिये और अन्य द्विजों, चारणों, बन्दीजनों तथा दीनों को अनेक वस्तुएँ समर्पित कीं ॥ ५३ ॥ तदनन्तर राजा ने नागरिकों का सम्मानकर उन्हें विदाकर सभा का विसर्जन किया। बालक विनायक भी पहले के समान ही सामान्य बालक बनकर अन्य बालकों के साथ खेलने चले गये ॥ ५४ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में बालचरित के अन्तर्गत ‘कपटी दैत्य के वध का वर्णन ‘ नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥ Content is available only for registered users. 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