श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-024
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
चौबीसवाँ अध्याय
काशीनगरी में विनायक के द्वारा एक ही समय में अनेक घरों में भोजनादि सम्पन्न करना तथा सनक- सनन्दन को अपने विविध स्वरूपों का दर्शन कराकर विवेकज्ञान की प्राप्ति कराना
अथः चतुर्विंशतितमोऽध्यायः
विनायक भोजनकथनं

ब्रह्माजी बोले — काशीनगरी के समस्त लोग पूजा की सामग्री तथा अनेक प्रकार की भोजन-सामग्री को एकत्रित करके उन विनायक की प्रतीक्षा करने लगे ॥ १ ॥ वे लोग उस समय प्रत्येक घर में, राजभवन में तथा सभी अमात्यों के घरों में भी कश्यपनन्दन उन विनायक को ढूँढ़ने लगे ॥ २ ॥ वे सभी लोग यही पूछ रहे थे कि क्या विनायक को कहीं देखा है? जिनके विषय में वेद भी ‘नेति नेति’ कहते हैं, क्या किसी ने उन्हें देखा है ? वहाँ उपस्थित सभी लोग कहने लगे कि हमने उन्हें नहीं देखा है। उस काशीनगरी की सीमा में स्थित लोगों ने जब यह बात सुनी तो उन्होंने बताया कि वे विनायक शुक्ल नामक ब्राह्मण के घर में आये हुए हैं। तदनन्तर सब लोग उनके घर गये। जब उन्होंने वहाँ भी विनायक को नहीं देखा तो उन्होंने उन ब्राह्मण से पूछा, तो उन्होंने बताया कि वे यहाँ से चले गये हैं ॥ ३-५ ॥

वे मायामय विनायक वहाँ के लोगों को वंचित करने के लिये उत्सुक होकर साथ के बालकों को छोड़कर पीछे के दरवाजे से आकर घर में सो गये ॥ ६ ॥ किसी ने उन्हें गुफा में सिंह की भाँति सोया हुआ देखा। कुछ ने क्रोधित होकर उनकी निन्दा करते हुए कहा — यह तुच्छ बालक पिशाच के समान उस दरिद्र ब्राह्मण के घर में क्यों गया ? यदि यह ईश्वर है और सभी के मनोभावों को जानने वाला है, तो इसे सभी का प्रिय करना चाहिये । तदनन्तर उन (विनायक) – को उठाकर हाथ में पकड़कर उन्होंने कहा — हमारे शुभ भवन में चलें और हमने आपके लिये जो सामग्री एकत्रित की है, उसे सफल करें ॥ ७–९ ॥ आपके चरणकमलों का दर्शन करके हमें जो आपको ढूँढ़ने में कष्ट हुआ था, वह दूर हो गया है। अब आप बालकों के साथ भोजन करने के लिये हमारे घरों को चलें । उन्होंने कहा — इस समय तो मैंने भोजन कर लिया है, तब उन लोगों ने पुनः उनसे कहा — उस भिक्षा माँगने वाले ब्राह्मण के घर में आपने क्या खाया होगा ? हे विभो! ऐसे व्यक्ति के घर में तो जलतक नहीं पिया जाता, फिर आपने वहाँ भोजन क्यों किया ? ॥ १०-१११/२

गणेशजी बोले — मेरा पेट बहुत भरा हुआ है, इस समय मुझमें चलने की भी शक्ति नहीं है ॥ १२ ॥

ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर यह जानकर कि इन्होंने शुक्ल ब्राह्मण के घर में भोजन किया है, वे सभी निराश, भग्न- मनोरथ, रुष्ट, अनाथ तथा चेतनाहीन – से हो गये ॥ १३ ॥ हमारे द्वारा बड़े कष्टपूर्वक तथा धन व्यय करके संग्रह की गयी सब सामग्री व्यर्थ चली गयी। ऐसा कहते हुए उन दुष्टजनों ने; जो कि दाम्भिक थे और भक्ति से रहित थे, सब सामग्री स्वयं खा ली ॥ १४ ॥ जो लोग विनायक के वास्तविक भक्त थे, वे निराहार रहकर और उनके ध्यान में निरत हो गये। इस प्रकार सभी लोगों को ध्यानपरायण जानकर वे विनायक एक होते हुए भी उसी प्रकार नाना स्वरूपवाले हो गये, जैसे कि एक ही आकाश विभिन्न घटों में विभिन्न स्वरूपोंवाला हो जाता है और जैसे एक ही सूर्य जल से भरे अनेक कलशों में अनेकविध दिखायी देता है ॥ १५-१६ ॥ वे विनायक कहीं पलंग पर सो रहे थे, कहीं जप में तल्लीन थे, कहीं दान देने में निरत दिखायी दे रहे थे, तो कहीं भोजन करने के लिये उत्सुक दिखायी दे रहे थे। कहीं वे शिष्यों को शिक्षा, कल्प आदि वेदांगों के सहित वेदों के अर्थ को पढ़ा रहे थे, कहीं शास्त्र की व्याख्या करते दिखायी दे रहे थे, तो कहीं स्वयं अध्ययन में निरत दिखायी दे रहे थे ॥ १७-१८ ॥

इस प्रकार वे विविध स्वरूपों के द्वारा विभिन्न घरों में स्थित हुए। सभी लोग यही समझ रहे थे कि ये विनायक सबसे पहले हमारे ही घर आये ॥ १९ ॥ उन्होंने उन विनायक को तेल, उबटन, स्नान की सामग्री तथा भोजन प्रदान किया। इस प्रकार काशिराज-सहित समस्त नगरवासी अत्यन्त प्रसन्न हुए ॥ २० ॥ उन विनायकदेव का दर्शनकर लोगों ने परम प्रसन्नता के साथ उनका पूजन किया। उन्हें भोजन कराया, साथ ही ब्राह्मणों तथा बन्धु-बान्धवों को भी भोजन कराया ॥ २१ ॥ सभी लोगों ने अपनी-अपनी रुचि के अनुसार पंचामृत, पक्वान्न, विविध व्यंजन, खीर और ओदन तथा जो-जो भी अच्छा लगा, उसका भोजन किया। इस प्रकार ब्राह्मणों, देवताओं, काशिराज तथा मित्रगणों के भी भोजन कर चुकने पर सभा में विराजमान काशिराज अनेक स्वरूप धारण करने वाले मुनि कश्यप के पुत्र उन विनायक की माया से मोहित होकर इस प्रकार पूछने लगे — ॥ २२–२३१/२

राजा बोले — वे विनायकदेव भोजन करने के लिये अनेक घरों में गये हैं — यह तो स्पष्ट है, किंतु ये तो मेरे समीप में ही स्थित हैं। फिर घर-घर में जाकर कौन भोजन कर रहा है ? कहीं ये विनायक डोली में चढ़कर भोजन करने के लिये जा रहे हैं, तो कहीं हाथी में आरूढ़ होकर जा रहे हैं और कहीं घोड़े पर सवार होकर जा रहे हैं ॥ २४-२५१/२

इस प्रकार से जब [काशिराज ऊहापोह में पड़े थे और ] सभी लोग बालक विनायक की पूजा में संलग्न थे, उसी समय दोनों कुमार सनक और सनन्दन स्नान करने के अनन्तर सम्पूर्ण नित्यकर्म सम्पन्न करके भिक्षा के लिये उस काशीनगरी में भ्रमण करने लगे ॥ २६-२७ ॥

वे दोनों सनक तथा सनन्दन जिस-जिस घर में भिक्षा माँगने गये, वहाँ-वहाँ उन्होंने विनायक को भोजन करते हुए देखा ॥ २८ ॥ किसी घर में वे आसन पर शयन करते हुए दिखायी पड़े। कहीं फलों का भक्षण करते हुए दिखायी दिये । कहीं ताम्बूलका सेवन करते हुए तो कहीं गन्ध आदि द्रव्यों से अनुलेपित दिखायी दिये ॥ २९ ॥ कहीं अपने गणों के साथ गणिकाओं का नृत्य देखते हुए दिखायी दिये। कहीं अपने बुद्धि-कौशल से अक्षक्रीडा करते हुए दिखायी दिये ॥ ३० ॥ कहीं पर वे विविध प्रकार के अलंकारों से अलंकृत तो कहीं दिव्य वस्त्रों को धारण किये हुए दिखायी दिये। कहीं पर वे स्वयं अध्ययन करते हुए, कहीं पर जप करते हुए तो कहीं पर ध्यानपरायण दिखायी दिये ॥ ३१ ॥ कहीं पर भक्तों द्वारा उनकी स्तुति की जा रही थी । कहीं पर वे विनायक जगदीश्वर की स्तुति कर रहे थे। कहीँ पर अपने भक्तों को अपनी विविध विभूतियों का दर्शन कराते हुए वे दिखलायी पड़े ॥ ३२ ॥

उन सनक-सनन्दन ने कहीं पर अपनी मनोरम पत्नियों के साथ रमण करते हुए युवा पुरुष के रूप में उनको देखा। कहीं पर वे वृद्धजनों की चिकित्सा करते हुए चिकित्सक के रूप में तो कहीं-कहीं उत्तम रसायनों का सेवन करते हुए उन्होंने विनायक को देखा ॥ ३३ ॥ कहीं पर वे विनायक आँगन में रेंगते हुए मिट्टी खाते हुए दिखायी दिये, तो कहीं वे गेंद आदि की क्रीड़ा से थककर जल पीते हुए दिखायी दिये ॥ ३४ ॥ इस प्रकार वे दोनों कुमार सनक और सनन्दन घर- घर घूमते हुए अत्यन्त थकित तथा भूखे हो गये थे। सभी घरों में उन विनायक को देखकर वे आपस में ही इस प्रकार कहने लगे — ॥ ३५ ॥

इस काशीनगरी में शुक्ल नामक ब्राह्मण अत्यन्त पवित्र तथा निर्मल हैं, अतः हम लोग भोजन के लिये वहाँ चलें, ऐसा कहकर वे दोनों उनके घर गये ॥ ३६ ॥ वहाँ भी उन दोनों ने उनके आँगन में स्थित उन विनायक को देखा, यहाँ विनायक के बिना कोई घर बचा नहीं है, अतः इस नगर में भोजन नहीं करना चाहिये ॥ ३७ ॥ ऐसा कहकर जब वे बाहर आये तो अपने सामने विनायक को स्थित देखकर वे दोनों तिरछे चलने लगे, वहाँ भी उन्होंने अपने सामने उन विनायक को देखा ॥ ३८ ॥ उन्होंने पूर्व, पश्चिम आदि चारों दिशाओं में तथा ऊपर और नीचे सर्वत्र विनायक को ही व्याप्त देखा ॥ ३९ ॥ तदनन्तर उन्होंने विनायक के विश्वरूप को देखा। उन्होंने जगत् की समस्त वस्तुओं को विनायकमय देखा ॥ ४० ॥ अत्यन्त आश्चर्यचकित होकर जब उन्होंने विष्णु तथा शंकर का ध्यान किया तो अपने हृदय में भी उस समय उन विनायक को ही स्थित देखा ॥ ४१ ॥ फिर उन मुनिश्रेष्ठों ने जब अपने नेत्रों को बन्द किया तो अपने हृदय में वे ही विनायक स्थित दिखायी दिये और नेत्रों को खोलने पर भी अपने हृदय के भीतर उन विनायक को ही स्थित देखा ॥ ४२ ॥

उस समय वे विनायक मुकुट, कुण्डल तथा मोतियों की माला को धारण किये हुए थे। श्रेष्ठ बाजूबन्द, सुवर्णमय कटिसूत्र तथा मुद्रिकाओं से वे विभूषित थे । वे सिंह पर विराजमान थे। उनकी दस भुजाएँ थीं। वे सिद्धि तथा बुद्धि नामक पत्नियों से समन्वित थे। उनका स्वरूप अत्यन्त मंगलमय था । उन्होंने अपने मस्तक पर चन्द्रमा को धारण कर रखा था और कस्तूरी का तिलक लगाया हुआ था। उन विनायक ने सर्प को आभूषण के रूप में धारण किया हुआ था। करोड़ों सूर्यों के समान उनकी आभा थी। वे सृष्टि, स्थिति तथा संहार के कारणरूप थे ॥ ४३–४४१/२

उन्हीं की कृपा से उन दोनों मुनीश्वरों सनक तथा सनन्दन ने विवेक-ज्ञान प्राप्त किया । तदनन्तर उन दोनों तत्त्वज्ञानियों ने भेददृष्टि का परित्यागकर उन विनायकदे वके चरण-कमलों में प्रणाम किया और अत्यन्त भक्तिभाव से उन देवदेव विनायक की स्तुति की ॥ ४५-४६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘काशी में विनायक के [द्वारा एक ही समय में अनेक गृहों में] भोजनादि [क्रियाओं को सम्पन्न करना तथा सनक – सनन्दन को बोध की प्राप्ति ] -का वर्णन’ नामक चौबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २४ ॥

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