October 2, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-031 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ इकतीसवाँ अध्याय पिता कश्यपमुनि से वामन को गणेशाराधना का उपदेश प्राप्त होना, वामन द्वारा गणेश की आराधना, गणेश का प्रकट होकर वामन को दर्शन और अनेक वर देना, वामनभगवान् द्वारा बलि के यज्ञ में पधारना और तीन पग भूमि का दान प्राप्तकर अपने भक्त बलि को पाताल भेजना, वामन द्वारा स्थापित सुमुख नामक गणेश प्रतिमा का माहात्म्य अथः एकत्रिंशोऽध्यायः क्रीडाखण्डे बालचरिते वामनविक्रमं ब्रह्माजी बोले — मुनि कश्यपजी ने शिक्षा, कल्प, निरुक्त, व्याकरण, छन्द तथा ज्योतिष – इन षट् अंगों के साथ चारों वेदों का अध्ययन बालक वामन को करवाया। एक दिन वामन ने अपने पिताजी से पूछा — [ हे तात!] किस उपाय के द्वारा देवताओं [-को उन] – के पद की प्राप्ति होगी और पृथ्वी के भार का हरण कैसे होगा ? उसे आप मुझे यथार्थरूप से बतलाइये ॥ १-२ ॥ कश्यप बोले — हे मेरे पुत्र ! मैं तुम्हें गणेशजी के षडक्षरमन्त्र का उपदेश प्रदान करूँगा, वह मन्त्र सिद्धि प्रदान करने वाला है और गणेशजी को प्रसन्न करने वाला है । जगत् की सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने वाले, अनेक ब्रह्माण्डों की संरचना करने वाले तथा सभी कारणों के भी कारण के महाकारणरूप उन विघ्नेश्वर गणेशजी के प्रसन्न हो जाने पर सभी मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, अतः तुम उन्हें प्रसन्न करने का यत्न करो ॥ ३-४१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर मुनि कश्यप ने उन्हें शुभ मुहूर्त में गणेशजी का महामन्त्र प्रदान किया ॥ ५ ॥ उसी समय वे बालक वामन मुनि कश्यप को प्रणामकर तथा उनसे आज्ञा प्राप्तकर अत्यन्त प्रसन्नतापूर्वक तपस्या हेतु उस आश्रम से चल पड़े ॥ ६ ॥ इधर-उधर भ्रमण करते हुए उन्होंने विदर्भदेश में एक उत्तम स्थान देखा, जो लताओं तथा वृक्षों से घिरा हुआ था और सरोवर से सुशोभित था ॥ ७ ॥ वहाँ पद्मासन में स्थित होकर बालक वामन ने निराहार तथा जितेन्द्रिय होकर संवत्सरपर्यन्त उस शुभ षडक्षर मन्त्र का जप किया। उन बालक वामन की वैसी निर्वाणावस्था (मनोयोग) देखकर भगवान् गणेश सिद्धि- बुद्धि के साथ प्रकट हुए। वे मयूर पर आरूढ़ थे तथा लम्बी सूँड़ से सुशोभित हो रहे थे ॥ ८-९ ॥ उनकी दस भुजाएँ शोभित हो रही थीं, वे रत्नों की मालाओं से विभूषित थे। उनकी नाभि विषधर सर्प से सुशोभित हो रही थी। वे नाना प्रकार के अलंकारों से विभूषित थे ॥ १० ॥ दृढ़ निष्ठा वाले अपने भक्त के पास वे उसी प्रकार आये, जैसे कोई धेनु अपने बछड़े के समीप आती है । वामन अपने समक्ष अपने तेज से सभी तेजों को निष्प्रभ बना देने वाले, सभी सिद्धियों को प्रदान करने वाले तथा सभी प्रकार के विघ्नों का निवारण कर देने वाले देवाधिदेव भगवान् गजानन का दर्शनकर अत्यन्त भक्तिभाव से उनकी स्तुति करने लगे ॥ ११-१२ ॥ ॥ वामन उवाच ॥ अव्यक्तं व्यक्तहेतुं निगमनुततनुं सर्वदेवाधिदेवं ब्रह्माण्डानामधीशं जगदुदयकरं सर्ववेदान्तवेद्यम् । मायातीतं स्ववेद्यं स्थितिविलयकरं सर्वविद्यानिधानं सर्वेशं सर्वरूपं सकलभयहरं कामदं कान्तरूपम् ॥ १३ ॥ तं वन्दे विघ्नराजं विधिहरमुनिभिः सेव्यमानं सनागैस्तेजोराशि त्रिसत्यं त्रिगुणविरहितं तत्त्वमस्यादिबोध्यम् । भक्तेच्छोपात्तदेहं निजजनसुखदं तत्त्वबुद्धि प्रकाशं साम्बाद्यैः स्तूयमानं सकलतनुगतं भुक्तिमुक्तिप्रदं तम् ॥ १४ ॥ वामन बोले — मैं उन विघ्नराज की वन्दना करता हूँ, जो स्वयं अव्यक्त हैं, किंतु (दृश्यमान जगत् के) कारणरूप हैं, जिनके स्वरूप की वेदों द्वारा वन्दना की गयी है, जो सभी देवों के अधिदेव हैं, अनन्त ब्रह्माण्डों के अधीश्वर हैं, जगत् की सृष्टि करने वाले हैं, सभी वेदान्तों के द्वारा वेद्य हैं, माया से परे हैं, स्वसंवेद्य हैं, जगत् का पालन तथा लय करने वाले हैं, सभी विद्याओं के निधान हैं, सर्वेश्वर हैं, सर्वरूप हैं, सभी प्रकार के भयों का निवारण करने वाले हैं तथा जो सभी मनोरथों को पूर्ण करने वाले हैं, जिनका स्वरूप अत्यन्त कमनीय है । नागों के सहित ब्रह्मा, शंकर तथा मुनिजनों द्वारा जो नित्य सेवित होते रहते हैं, जो तेज की राशि हैं, तीनों कालों में विद्यमान रहने वाले सत्स्वरूप हैं, तीनों गुणों से रहित अर्थात् गुणातीत हैं, तत्त्वमसि आदि महावाक्यों द्वारा बोध्य हैं, अपने भक्तों के इच्छानुसार रूप धारण करने वाले हैं, अपने भक्तों को सुख प्रदान करने वाले हैं, तत्त्वज्ञान के प्रकाशक हैं, साम्ब आदि के द्वारा स्तूयमान हैं और जो सभी जीवों के देह में स्थित रहने वाले तथा भुक्ति एवं मुक्ति को प्रदान करने वाले हैं ॥ १३-१४ ॥ इस प्रकार से स्तुति किये गये वे देवाधिदेव गजानन प्रसन्न होकर वामन से बोले — मैं तुम पर प्रसन्न हूँ, तुम्हारे मन में जो भी कामना हो, वैसा तुम वर माँगो । मैं तुम्हारी तपस्या तथा इस स्तुति से प्रसन्न होकर वह तुम्हें प्रदान करूँगा ॥ १५ ॥ वामन बोले — हे जगदीश्वर ! आपके यथार्थ स्वरूप को ब्रह्मा आदि देवता तथा सनक- सनन्दन आदि ब्रह्मर्षिगण भी नहीं जानते हैं, आज आपके उसी स्वरूप का मुझे दर्शन हुआ है, फिर आपसे मैं अन्य किसी दूसरे वर की क्या याचना करूँ?॥ १६ ॥ फिर भी आपका वचन भंग न हो, इस भय से मैं आपसे वर माँगता हूँ। हे नाथ! उसे आप मुझे प्रदान करें। मुझे कभी भी पराजय प्राप्त न हो और सम्पूर्ण कार्यों में मुझे विघ्न का कोई भय न हो ॥ १७ ॥ राजा बलि यज्ञ के प्रभाव से इन्द्र के पद को प्राप्त करने के लिये उद्यत है, जिसके कारण वे इन्द्र मेरी शरण में आये हैं, अतः हे अनघ ! हे सृष्टिकर्ता ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो जिस प्रकार उन (इन्द्र) – के कार्य की सिद्धि हो, वैसा करने की आप कृपा करें ॥ १८१/२ ॥ गजानन बोले — हे सुव्रत ! मेरा स्मरण करने से तुम्हारे इस अभीष्ट की सर्वथा सिद्धि हो जायगी । तुम्हारे छोटे अथवा बड़े सभी कार्य सफल होंगे ॥ १९१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — ऐसा कहकर भगवान् गजानन के चले जाने पर वामन ने काश्मीर में प्राप्त होने वाले पत्थर से उत्तम गणेश-प्रतिमा का निर्माणकर उस मूर्ति की स्थापना की। वह मूर्ति चार भुजाओं वाली, तीन नेत्रों से सुशोभित, लम्बी सूँड़ से शोभायमान, प्रसन्नता देने वाली तथा हाथी मुखवाली और भक्तों को अभय प्रदान करने वाली थी ॥ २०-२१ ॥ वह स्मरण करने, दर्शन करने, ध्यान करने तथा पूजन करने से सभी प्रकार की कामनाओं को देने वाली थी। वामन ने रत्नों तथा स्वर्ण से एक मन्दिर का निर्माण करवाया और ग्राम तथा धन देकर एक ब्राह्मण को वहाँ निवास प्रदान किया, साथ ही उसके द्वारा तीनों समयों में गणेशजी का पूजन करवाया ॥ २२-२३ ॥ तदनन्तर वे अपने घर आये और पिता को प्रणामकर उन्होंने अपनी तपस्या तथा तपस्या के फलप्राप्ति सम्बन्धी सम्पूर्ण वृत्तान्त को उन्हें बतलाया और उनसे उस यज्ञ में जाने की अनुज्ञा माँगी। पिता कश्यपजी द्वारा आज्ञा प्राप्तकर वामन अपने हाथ में कुश तथा दण्ड लेकर, यज्ञोपवीत धारणकर एवं कृष्णमृग का चर्म और मेखला पहनकर राजा बलि के यज्ञ में आये । बौनी आकृतिवाले उन मुनि को देखकर उस समय दूसरे सभी मुनिगण अत्यन्त आश्चर्यचकित हो उठे और वे बोले — यह मुनि नहीं है; क्योंकि इसमें अद्भुत तेज दिखायी देता है ॥ २४-२६ ॥ उन विलक्षण मुनि को आते हुए देखकर राजा बलि शीघ्र ही उठ खड़े हुए और उनको प्रणामकर पूछने लगे — आप कौन हैं ? कहाँ से आये हैं ? हे प्रभो! आप क्या चाहते हैं ? आपके माता-पिता कौन हैं? आपका निवास-स्थान कहाँ है ? इसपर वामन- भगवान् बोले — ॥ २७-२८ ॥ हे राजन्! मुझे अपने माता-पिता का कुछ स्मरण नहीं है। आप मुझ दुर्बल को अनाथ समझिये। मेरा निवास तीनों लोकों में है। मैं छोटी-सी पर्णकुटी बनाने के लिये अपने पैरों से नापकर तीन पग भूमि आपसे माँगता हूँ। आप यदि समर्थ हों तो मुझे वह प्रदान करें ॥ २९१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — मुनि का इस प्रकार का वचन सुनकर मन में दया का भाव रखते हुए ज्योंही राजा बलि [तीन पग] भूमि देने के लिये उद्यत हुए, उसी समय [ दैत्यगुरु] | शुक्राचार्यजी बलि से बोले — ॥ ३०१/२ ॥ शुक्राचार्य बोले — ये ब्राह्मण नहीं हैं, ये तो विष्णु हैं, कपटवेष धारण किये हुए हैं। ये तीन पग के बहाने तीनों लोकों को ग्रहण कर लेंगे। इन्हें कुछ भी न दें, यह मैं आपसे सत्य कह रहा हूँ ॥ ३१-३२ ॥ तब वे महादैत्य बलि शुक्राचार्य से बोले — अरे मूढ़ ! आप यह कौन – सा वचन बोल रहे हैं। ये विष्णु यदि विमुख होकर चले जायँगे तो मेरा समस्त पुण्य भी लेते जायँगे। इनसे अतिरिक्त और कौन दान लेने का पात्र हो सकता है, इन्हें दिया हुआ अनन्त गुना हो जाता है। शुक्राचार्य से इस प्रकार कहकर दैत्यश्रेष्ठ बलि पुनः वामन से बोले — ॥ ३३-३४ ॥ हे ब्रह्मन् ! मैंने भूमि दे दी, [तब] संकल्प करवाने के लिये उद्यत वामन ने राजा बलि से कहा — संकल्प कीजिये । उसी समय शुक्राचार्य दूसरा रूप धारणकर संकल्पजल की धारा को रोककर वैसे ही स्थित हो गये। तब राजा बलि ने उस जलपात्र (कमण्डलु ) – की टोंटी के अन्दर एक तिनका प्रविष्ट कराया, जिससे भग्ननेत्र होकर शुक्राचार्य बाहर निकल आये ॥ ३५-३६ ॥ तब उन वामन के हाथ में बलि ने संकल्पजल दिया। आनन्दविभोर होते हुए वामन ने भगवान् गणेश का स्मरण किया और वे बढ़ने लगे। तदनन्तर अपने सिर से स्वर्गलोक का अतिक्रमणकर उन्होंने एक पैर से आकाश और पृथ्वी को तथा दूसरे पैर से सभी पातालों को नापकर तीसरा पग बलि के मस्तक पर रख दिया ॥ ३७-३८ ॥ तब भगवान् वामन बलि से बोले — तुम पाताललोक में जाओ । तदनन्तर राजा बलि ने उनसे कहा — आपको छोड़कर मैं कैसे जाऊँ ? राजा बलि का यह वचन सुनकर भगवान् वामन उनसे पुनः बोले — तुम्हारे ऊपर अनुग्रह करने के लिये तुम्हें मेरा सान्निध्य वहाँ भी प्राप्त होगा ॥ ३९-४० ॥ देवराज इन्द्र मेरी शरण में आये थे, अतः मुझे उनका प्रिय करना था। तुम मेरे भक्त हो, अतः इसके अनन्तर तुम्हारा भी प्रिय होगा। देवराज इन्द्र के ऐन्द्र पद से निवृत्त हो जाने के पश्चात् तुम ही उस पद को प्राप्त करोगे। तदनन्तर ब्रह्मा आदि देवता उन प्रभु भगवान् वामन की स्तुति करने लगे ॥ ४१-४२ ॥ देवताओं ने उनके ऊपर पुष्पवर्षा की और वे विविध वाद्यों को बजाने लगे। उन सबने भगवान् वामन की पूजा की, उनके गीत गाये तथा दूसरे देवता नृत्य करने लगे । तदनन्तर अनन्त पराक्रम वाले वे वामन भगवान् अन्तर्धान हो गये । प्रसन्नमन होकर देवतागण जहाँ से आये थे, वहाँ-वहाँ अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ४३-४४ ॥ ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार देव वामन द्वारा स्थापित की गयी भगवान् गणेशजी की वह मूर्ति तीनों लोकों में विख्यात हो गयी। वह मूर्ति मनुष्यों को सब प्रकार की कामना प्रदान करने वाली है ॥ ४५ ॥ इस प्रकार मैंने राजा बलि के द्वारा की गयी सभी चेष्टाओं का प्रसंगानुसार वर्णन किया। साथ ही भगवान् वामन के बुद्धिकौशल तथा चातुर्य का और सुमुख गजानन की महिमा का भी प्रतिपादन किया। उन महात्मा वामन ने रेवानदी के दक्षिण भाग में स्थित अदोष नामक नगर में दस भुजाओं वाले उन सुमुख गजानन की स्थापना की। अब मैं उन भगवान् विनायक को शमी के प्रिय होने के विषय में स्पष्ट रूप से आपसे वर्णन करूँगा ॥ ४६-४७ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘बलिचेष्टित’ नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥ Content is available only for registered users. 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