श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-032
॥ श्रीगणेशाय नमः ॥
बत्तीसवाँ अध्याय
गणेशाराधना में शमी का माहात्म्य, राजा प्रियव्रत का आख्यान, उनकी ज्येष्ठ पत्नी कीर्ति द्वारा गणेशजी की आराधना
अथः द्वाविंशोऽध्यायः
बालचरिते कीर्तिस्तवनं

ब्रह्माजी बोले — हे ब्रह्मन् व्यासजी ! आप सावधान होकर उस प्राचीन इतिहास को सुनिये, जिसे स्वयं भगवान् गणेशजी ने प्रियव्रत से कहा था ॥ १ ॥

गजानन बोले — हे आर्य! आप शमीपत्र की महान् फलप्रद महिमा को सुनिये। न यज्ञों के द्वारा, न दानों से, न सैकड़ों-करोड़ व्रतों से, न जपों से अथवा न विविध प्रकार के पूजनों से, न कमलपुष्पों के अर्पण से और न अन्य पुष्पों से मुझको वैसी सन्तुष्टि प्राप्त होती है, जैसी कि शमीपत्र को अर्पण करने से होती है ॥ २-३ ॥ ‘शमी’ (खेजड़ी, जांटी, चिकुर, कांडी और सुमरी) इस नाम के उच्चारणमात्र से ही वाणी द्वारा किया गया समस्त पाप नष्ट हो जाता है। शमी का स्मरण करने से मानस पाप तथा उसका स्पर्श कर लेने से शारीरिक पाप नष्ट हो जाता है ॥ ४ ॥ शमी का नित्य पूजन करने से, उसका ध्यान करने से तथा श्रद्धाभक्ति से उसका वन्दन करने से निर्विघ्नता, आयुष्य तथा ज्ञान की प्राप्ति होती है और पाप का क्षय भी हो जाता है। समस्त इच्छाओं की पूर्ति हो जाती है। और मन की चंचलता दूर हो जाती है, इसमें कोई संशय नहीं है ॥ ५१/२

मुनि व्यासजी बोले — हे ब्रह्मन् ! राजा प्रियव्रत कौन थे ? उनका कैसा स्वभाव था ? वे कहाँ उत्पन्न हुए थे? महात्मा गजानन ने उनसे शमी के गुणों का किस प्रकार वर्णन किया था? हे सुव्रत ! मेरे इस संशय को दूर करने की कृपा करें ॥ ६-७ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे पुत्र ! इस विषय में भी एक प्राचीन इतिहास कहा जाता है, जो भगवान् शंकर तथा पार्वतीजी के संवाद के रूप में है ॥ ८ ॥

पार्वतीजी बोलीं — हे देव ! हे सर्वज्ञ ! हे जगदीश्वर ! यदि आपका मुझ पर अनुग्रह है, तो यह बतायें कि गजानन को शमी किस प्रकार प्रिय हुई ? ॥ ९ ॥

भगवान् शंकर बोले — हे प्रिये! हे पवित्र मुसकानवाली! सुनो, मैं एक कथा कहूँगा, जिससे तुमको पता चलेगा कि गणेशजी को शमी कैसे प्रिय हुई ॥ १० ॥

पूर्वकाल की बात है, प्रियव्रत नाम के एक महान् बुद्धिशाली राजा थे। वे सत्यवादी, धर्मपरायण, धर्मात्मा, प्रशंसनीय आचरण वाले, तेजस्वी, दान देने वाले तथा वेद-शास्त्रों के अर्थतत्त्व को जाननेवाले थे। वे सभी शुभ लक्षणों से सम्पन्न और सर्वाधिक बलशाली चतुरंगिणी सेना से समन्वित थे ॥ ११-१२ ॥ राजा प्रियव्रत अपने औरस पुत्रों की भाँति प्रजा का पालन करते थे। उनकी पहली भार्या का नाम कीर्ति था तथा दूसरी भार्या का नाम प्रभा था। उनके धूर्त तथा कुशल नामक दो मन्त्री थे। वे दोनों नीतिशास्त्र में अत्यन्त कुशल तथा कार्तिकेय के समान पराक्रम वाले थे ॥ १३-१४ ॥ उन्होंने अपनी बुद्धि तथा पराक्रम के बल पर सम्पूर्ण पृथ्वी को अपने अधीन कर लिया। राजा प्रियव्रत को उनकी भार्या प्रभा ने अपने वश में कर लिया था ॥ १५ ॥

राजा प्रियव्रत नाना प्रकार के अलंकारों से सुशोभित, युवावस्था के द्वारा आक्रान्त शरीरवाली तथा रम्भा आदि अप्सराओं से भी अत्यन्त रमणीय उस प्रभा के साथ रात-दिन नाना प्रकार की कीड़ाएँ करते रहते थे ॥ १६ ॥ वे क्षणभर के लिये भी उसका वियोग सह नहीं पाते थे । राजा प्रियव्रत अपनी ज्येष्ठ भार्या कीर्ति को सदा धिक्कारते रहते थे और यहाँ तक कि उसकी कोई भी बात नहीं सुनते थे ॥ १७ ॥ वे क्रोधपूर्वक उसे देखते थे और उसकी मृत्यु के बारे में सोचा करते थे। वे न तो उससे कुछ बोलते थे और न कुछ उसका दिया हुआ ग्रहण करते थे ॥ १८ ॥

यथासमय उस प्रभा का एक पुत्र उत्पन्न हुआ, जो प्रभा के पति अर्थात् राजा प्रियव्रत के समान ही था । राजा ने उसका जातकर्म – संस्कार करके अनेक प्रकार के दान- धर्म का आचरण किया ॥ १९ ॥ राजा ने ब्राह्मणों द्वारा बताया गया ‘पद्मनाभि’ यह नाम उस शिशुका रखा। वह बालक उसी प्रकार बढ़ने लगा, जैसे शुक्लपक्ष का चन्द्रमा बढ़ता है ॥ २० ॥ वह अपने पिता से भी अधिक बुद्धिमान् तथा युद्ध में अधिक कुशल था । तदनन्तर पाँचवें वर्ष में पिता प्रियव्रत ने उसका यज्ञोपवीत-संस्कार कर दिया ॥ २१ ॥

मद्रदेश के अत्यन्त बुद्धिमान् तथा बलशाली राजा प्रियव्रत ने पांचालनरेश की कन्या को अपने पुत्र की भार्या बनाने का निश्चय किया ॥ २२ ॥ अत्यन्त वैभवशाली उन दोनों राजाओं ने उन दोनों का विवाह कर दिया। एक समय की बात है, राजा की ज्येष्ठ पत्नी कीर्ति दास्यभाव को प्राप्त होकर पाद-संवाहन करने की दृष्टि से पति प्रियव्रत के समीप में आयी, किंतु सपत्नी प्रभा के द्वारा लात मारे जाने से भूमि पर गिर पड़ी ॥ २३-२४ ॥

वह दुखी होकर, रोते हुए, लज्जित होते हुए अपने भवन में चली आयी और सोचने लगी कि मैं अब किसकी शरण में जाऊँ, कौन मेरे दुःख को दूर करेगा ? ॥ २५ ॥ सपत्नी (सौत)-के द्वारा अपमानित अब मेरे रक्षक स्वयं अव्यय भगवान् करुणासागर श्रीहरि ही होंगे, जो कि केवल स्मरणमात्र करने से द्रौपदी के रक्षक बने थे । जिस पत्नी को पति नहीं मानते हैं, उसे कोई दूसरा भी नहीं मानता, अतः अब जीवित रहने का कोई प्रयोजन नहीं है। मैं अपने शरीर को सुखा डालूंगी, अथवा हालाहल विष का पान कर लूँगी अथवा जलपूर्ण वापी में कूद जाऊँगी। इस प्रकार व्याकुल चित्तवाली भार्या कीर्ति का मन कुछ निश्चित नहीं कर पा रहा था ॥ २६–२८ ॥

दैववश उसी समय ब्राह्मण श्रेष्ठ पुरोहित देवल वहाँ आ पहुँचे। उन्होंने रानी से कहा कि तुम सभी कामनाओं को पूर्ण करने वाली तथा समस्त कष्टों का हरण करने वाली गणेशजी की उपासना करो। तब रानी कीर्ति मन्दारवृक्ष के काष्ठ से निर्मित प्रतिमा को शीघ्र लाकर पवित्र दिन में स्नान करके उन गजानन का परम ध्यान-योग से पूजन करने के लिये बैठ गयी ॥ २९–३१ ॥ सभी जनों के द्वारा भगवान् शिव, विष्णु, देवी दुर्गा तथा परम तेजसम्पन्न सूर्य को छोड़कर सबसे प्रथम देवाधिदेव गजानन की ही पूजा की जाती है ॥ ३२ ॥ विचार करने पर वास्तव में इन पाँचों देवों में कोई भेद नहीं है। जो मनुष्य इनमें भेददृष्टि रखता है, वह नरकों में जाता है। परम आनन्द से परिपूर्ण वह एक ही परमेश्वर लोकों पर अनुग्रह करने की दृष्टि से स्वेच्छानुसार पाँच रूपों में उसी प्रकार प्रकट हुआ है, जैसे कि एक ही पुरुष किसी का पुत्र तो किसी का मामा कहलाता है ॥ ३३-३४ ॥

कीर्ति ने सोलह उपचारों के द्वारा भलीभाँति उस मूर्ति का पूजन किया। उसने दूर्वा, पुष्प, दक्षिणा समर्पितकर अनेक बार उन्हें प्रणाम किया । तदनन्तर वह दोनों हाथ जोड़कर उन जगदीश्वर की स्तुति करने लगी ॥ ३५-३६ ॥

॥ कीर्तिरुवाच ॥
त्वमेव जगदाधारस्त्वमेव सर्वकारणम् ।
त्वमेव ब्रह्मा विष्णुश्च बृहद् भानुस्त्वमेव हि ॥ ३७ ॥
चन्द्रो यमो वैश्रवणो वरुणो वायुरेव च ।
त्वमेव सागरा नद्यो लताकुसुमसंहतिः ॥ ३८ ॥
सुखं दुखं तयोर्हेतुस्त्वं नाशस्त्वं विमोचकः ।
इष्टविघ्नकरो नित्यं महाविघ्नकरो विराट् ॥ ३९ ॥
त्वमेव पुत्रलक्ष्मीदस्त्वमेव सर्वकामधुक् ।
त्वमेव विश्वयोनिश्च त्वमेव विश्वहारकः ॥ ४० ॥
त्वमेव प्रकृतिस्त्वं वै पुरुषो निर्गुणो महान् ।
त्वमेव शशिरूपेण सर्वमाप्यायसे जगत् ॥ ४१ ॥
त्वमेव भूतभव्यं च भाविभावात्मकः स्वराट् ।
शरण्यः सर्वभूतानां शत्रूणां तापनः परः ॥ ४२ ॥
कर्मकाण्डपरो यज्वा ज्ञानकाण्डपरः शुचिः ।
सर्ववेत्ता सर्वविधिः सर्वसाक्षी च सर्वगः ॥ ४३ ॥
सर्वव्यापी सर्वविष्णुः सर्वसत्यमयः प्रभुः ।
सर्वमायामयः सर्वमन्त्रतन्त्रविधानवित् ॥ ४४ ॥

कीर्ति बोली — आप ही जगत् के एकमात्र आधार हैं, आप ही सबके कारण हैं, आप ही ब्रह्मा तथा विष्णु हैं और आप ही विशाल सूर्य हैं ॥ ३७ ॥ वायुदेव हैं। आप ही समस्त सागर, सभी नदियाँ, लताएँ आप ही चन्द्रमा, यम, वैश्रवण कुबेर, वरुण तथा तथा पुष्पसमूह हैं । आप ही सुख और दुःख तथा सुख- दुःख के हेतु हैं । आप ही बन्धनरूप हैं और आप ही उस बन्धन से मुक्त कराने वाले हैं, आप ही अभीष्ट कार्यों में नित्य विघ्न उपस्थित करने वाले और महान् विघ्नकर्ता तथा विराट् रूप हैं ॥ ३८-३९ ॥ ही समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं। आप ही इस विश्व को उत्पन्न करने वाले और आप ही विश्व के संहारक भी हैं। आप ही प्रकृति, आप ही पुरुष, निर्गुण तथा महान् हैं। आप ही चन्द्ररूप धारणकर समस्त जगत् का आप्यायन करते हैं ॥ ४०-४१ ॥ आप ही भूतकाल, वर्तमानकाल तथा भविष्यकाल और आप ही भावात्मक तथा स्वराट् हैं । आप समस्त आप ही पुत्र तथा लक्ष्मी को देने वाले हैं और आप प्राणियों की शरण हैं और शत्रुओं को परम सन्ताप प्रदान करने वाले हैं। आप कर्मकाण्ड परायण यज्ञकर्ता हैं और आप ही ज्ञानकाण्डपरायण परम पवित्र हैं। आप सर्वज्ञ, सबके विधाता, सबके साक्षीस्वरूप तथा सर्वत्र गमन करने वाले हैं ॥ ४२-४३ ॥ आप ही सर्वत्र व्याप्त और आच्छादक, सर्वसत्य-स्वरूप, प्रभु, सर्वमायामय और सभी मन्त्रों तथा तन्त्रों के विधान को जाननेवाले हैं ॥ ४४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराणके क्रीडाखण्डमें ‘राजभार्याकृत गणेशाराधनाका वर्णन’ नामक बत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३२ ॥

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