October 5, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-040 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ चालीसवाँ अध्याय दुरासददैत्य के वध का निवेदन करने के लिये देवताओं तथा ऋषियों का केदारक्षेत्र में भगवान् शिव एवं पार्वती के पास जाना, देवों द्वारा भगवती की स्तुति, भगवती के मुखमण्डल से गजानन का प्राकट्य, देवी का उनका ‘वक्रतुण्ड’ नाम रखना अथः चत्वारिंशोऽध्यायः बालचरिते विनायकावतरणं गृत्समद बोले — तदनन्तर देवगुरु बृहस्पति, इन्द्र तथा अग्नि आदि सभी देवता एवं ऋषिगण केदारक्षेत्र में गये और उन्होंने भगवान् शिवसहित सर्वज्ञ पद्मयोनि ब्रह्माजी को सम्पूर्ण वृत्तान्त बताया ॥ ११/२ ॥ देवता तथा ऋषि बोले — हम सभी देवता अपने- अपने पदों से च्युत हो गये हैं तथा समस्त मुनिगण भी अपने आचार से वंचित हो गये हैं । दैत्य दुरासद के भय से हम सभी स्नानादि नित्य क्रियाओं को करने में भी असमर्थ हो गये हैं। उस दुरासद को किसने ऐसा वर दे दिया है, जिससे कि वह दुष्ट समस्त भुवनों का स्वामी बन गया है, इसका वध किस प्रकार से हो, इसपर आप विचार करें। आप दयालुओं द्वारा ऐसा उपाय किया जाना चाहिये, जिससे कि सम्पूर्ण लोगों को सुख प्राप्त हो सके ॥ २-४ ॥ गृत्समद बोले — उनका ऐसा वचन सुनकर चतुर्मुख ब्रह्माजी बोले ॥ ४१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — हे देवताओ और ऋषियो ! उसके वध का उपाय मैं बतलाऊँगा। जब उस दैत्य दुरासद ने बहुत दिनों तक दारुण तप किया, तब पार्वतीपति भगवान् शंकर ने इसे बहुत से वरों को दिया ॥ ५-६ ॥ हे श्रेष्ठ देवो! तीनों लोकों में ऐसा कोई देवता नहीं है, जो इसका वध कर सके। कदाचित् वे देवाधिदेव, जो सत्त्वादि तीनों गुणों में क्षोभ उत्पन्न करने वाले हैं, मैं (ब्रह्मा), शिव और विष्णु-ये त्रिदेव जिनकी आज्ञा से उत्पन्न हुए हैं, समस्त विश्व में व्याप्त हैं, मायावी हैं, जगत् की रचना करने वाले तथा उसका संहार करनेवाले हैं, गुणातीत हैं, तीनों गुणों के स्वामी हैं, पर से भी परतर हैं, और कल्याण करने वाले हैं, वे प्रभु यदि भगवती पार्वती के उदर से अवतार ग्रहण करें, तभी इस दुरासद का वध हो सकता है, अन्य किसी भी उपाय से नहीं ॥ ७–१० ॥ अतः आप सभी जगत् की चिन्ता करने वाले उन प्रभु की स्तुति करें। उससे पहले आप सभी शंकरप्रिया उन भगवती पार्वती को प्रसन्न करें ॥ ११ ॥ उनके तेज से उत्पन्न बालक दैत्य दुरासद का वध करने में समर्थ हो सकेगा। इस प्रकार का वरदान ही उन भगवान् शंकर ने दुरासद को दिया है ॥ १२ ॥ गृत्समद बोले — ब्रह्माजी के मुख से इस प्रकार की बात सुनकर वे देवता अत्यन्त हर्षित हो गये । तदनन्तर वे भक्तवत्सल शिवप्रिया उन भवानी देवी पार्वती की इस प्रकार स्तुति करने लगे ॥ १३ ॥ ॥ देवर्षय ऊचुः ॥ नमामहे त्वां जगदेकहेतुं परात्परां विश्वविचित्रशक्तिम् । अचिन्त्यरूपां त्रिदशैरशेषैरशेषवन्द्यां त्रिगुणां गुणेशाम् ॥ धराधरां त्वां धरणीस्वरूपामाधारभूतां स्थिरजङ्गमानाम् । त्रैलोक्यसारां त्रिगुणादिभूतां त्रयीतनुं तां त्रिदशस्वरूपाम् ॥ नमामहे देवि वरप्रदां त्वां विष्णोर्विमोहां पददां सुराणाम् । भक्तार्तिहन्त्रीं सकलार्थदात्रीं त्रैलोक्यकर्त्रीं निखिलार्थगोप्त्रीम् ॥ देवता तथा ऋषिगण बोले — हे देवी! आप जगत् की एकमात्र कारणरूपा हैं, पर से भी पर हैं, विश्व की विचित्र शक्ति हैं, अचिन्त्य स्वरूपवाली हैं, सम्पूर्ण देवताओं के द्वारा सब प्रकार से वन्दनीय हैं, त्रिगुणमयी और तीनों गुणों की स्वामिनी हैं। आपको हम नमस्कार करते हैं ॥ १४ ॥ आप सम्पूर्ण पृथ्वी को धारण करने वाली हैं, पृथ्वीरूपा हैं, सम्पूर्ण चराचर जगत् की आधाररूपा हैं, तीनों लोकों की साररूपा हैं, सत्त्वादि तीनों गुणों की आदि कारणरूपा हैं, वेदत्रयीरूपी विग्रहवाली हैं तथा देवरूपा हैं, आपको हम नमस्कार करते हैं ॥ १५ ॥ हे देवि! आप वर प्रदान करने वाली हैं, भगवान् विष्णु को भी मोहित करने वाली हैं, देवताओं को उनका पद प्रदान करने वाली हैं, भक्तों के कष्टों का हरण करने वाली हैं, सभी ऐश्वर्यों को प्रदान करने वाली हैं, तीनों लोकों की सृष्टि करने वाली हैं तथा सम्पूर्ण पदार्थों की रक्षा करने वाली हैं, आपको हम प्रणाम करते हैं ॥ १६ ॥ गृत्समद बोले — इस प्रकार से स्तुत की गयी वे देवी उन सुरश्रेष्ठों से बोलीं — हे देवो! आपके द्वारा की गयी इस स्तुति से मैं प्रसन्न हूँ। आप अपना अभीष्ट बतायें। आपके मन में जो भी अभिलाषाएँ हों, उन सभी को मैं पूर्ण करूँगी ॥ १७१/२ ॥ तदनन्तर उन सभी देवताओं ने ब्रह्माजी द्वारा कहा गया सम्पूर्ण वृत्तान्त उन्हें बताया ॥ १८ ॥ तब वे देवी उनसे बोलीं — आप गणनायक गणेशजी की आराधना करें। वे शुभाशुभ के कर्ता, सब प्रकार की सिद्धि प्रदान करने वाले, सब प्रकार की सामर्थ्य से सम्पन्न, सभी प्रकार के अर्थों तथा कामों को अपने अधिकार में किये हुए हैं और सम्पूर्ण जगत् के पिता हैं ॥ १९१/२ ॥ तब उन सभी ने भक्तिभावपूर्वक भगवान् विनायक की इस प्रकार स्तुति की ॥ २० ॥ ॥ देवर्षय ऊचुः ॥ नताः स्मो विघ्नकर्तारं दयालुं सर्वपालकम् । सर्वस्य जगतो हेतुं सर्वव्यापिनमीश्वरम् ॥ २१ ॥ अनेकशक्तिसंयुक्तं सर्वकामप्रपूरकम् । दीनानुकम्पिनं देवं सर्वज्ञं करुणानिधिम् ॥ २२ ॥ स्वेच्छोपात्ताकृतिं नैकावतारनिरतं सदा । गुणातीतं गुणक्षोभं चराचरगुरुं विभुम् ॥ २३ ॥ एकदन्तं द्विदन्तं च त्रिनेत्रं दशहस्तकम् । शुण्डादण्डमुखं विघ्ननाशनं पापहारकम् ॥ २४ ॥ भक्तानां वरदं नित्यं सृष्टिस्थित्यन्तकारकम् । अनादिमध्यनिधनं भूतादिं भूतवर्धनम् ॥ २५ ॥ त्रिलोकेशं सुराधीशं दुष्टदानवमर्दनम् । लम्बकर्णं बृहद्भानुं व्यालभूषाधरं शुभम् ॥ २६ ॥ देवर्षिगण बोले — जो विघ्न उपस्थित करने वाले, दयालु, सबकी रक्षा करने वाले, सम्पूर्ण जगत् के कारण, सर्वत्र व्याप्त तथा ईश्वर हैं, हम उन गणेशजी को नमन करते हैं। जो अनेक प्रकार की शक्तियों से समन्वित, सभी प्रकार की कामनाओं को भलीभाँति पूर्ण करने वाले, दीनों पर दया करने वाले, सर्वज्ञ तथा करुणासागर हैं, उन भगवान् गणेश को हम नमस्कार करते हैं ॥ २१-२२ ॥ जो अपनी इच्छा के अनुसार विविध शरीर धारण करते हैं, निरन्तर नाना प्रकार के अवतार धारण करते रहते हैं, तीनों गुणों से परे हैं, सत्त्वादि गुणों को क्षुब्ध करने वाले हैं, चराचर जगत् के गुरु हैं, उन प्रभु गणेशजी की हम वन्दना करते हैं ॥ २३ ॥ जो एक दाँतवाले, दो दाँतोंवाले, तीन नेत्रोंवाले, दस हाथों वाले, हाथी के सूँड़ के समान मुखवाले, विघ्नों का नाश करने वाले तथा पापों का हरण करने वाले हैं, उन गणेशजी की हम स्तुति करते हैं ॥ २४ ॥ जो भक्तों को नित्य वर प्रदान करते रहते हैं, सृष्टि-स्थिति तथा संहार करने वाले हैं, आदि-मध्य और अन्त से रहित हैं, प्राणियों के आदि हैं और समस्त प्राणियों की वृद्धि करने वाले हैं, उन गणेशजी को हम प्रणाम करते हैं। जो तीनों लोकों के स्वामी हैं, देवताओं के अधीश्वर हैं, दुष्ट दानवों का मर्दन करने वाले हैं, लम्बे कानवाले हैं, विशाल मस्तकवाले हैं, नाग को आभूषण के रूप में धारण करने वाले हैं, उन मंगलमय गणेशजी को हम नमस्कार करते हैं ॥ २५-२६ ॥ मुनि गृत्समद बोले — उस प्रकार उन सर्वसिद्धि-प्रदायक भगवान् गणेशजी की स्तुति करने के पश्चात् उन देवताओं को यह आकाशवाणी सुनायी पड़ी — ‘आपलोग कोई भी मानसिक सन्ताप न करें। महाबली भयंकर दैत्य दुरासद को मैं मार डालूँगा।’ इस प्रकार की आकाशवाणी सुनकर वे देवता पुनः भगवान् शंकरजी के पास आये और उन्हें ध्यान में निमग्न देखकर वे देवी पार्वती को प्रणाम करने के अनन्तर उनसे बोले — ॥ २७-२८१/२ ॥ देवता बोले — हे शुभे ! हम नहीं जानते कि यह आकाशवाणी किसके द्वारा हुई है। हे अखिलेश्वरि ! भगवान् शिव ध्याननिष्ठ हैं, अतः अब हम क्या करें ? ॥ २९ ॥ देवी बोलीं — हे देवो ! दुरासद नामक जो दैत्य है, अब वह निश्चय ही मृत्यु को प्राप्त होगा ॥ ३० ॥ मुनि गृत्समद बोले — तदनन्तर क्रोध से सन्तप्त देवी पार्वती, जो बार-बार निःश्वास ले रही थीं, उनके मुख, नासापुटों तथा नेत्रों से एक उत्तम तेज प्रकट हुआ ॥ ३१ ॥ अग्नि की ज्वालाओं से समन्वित वह तेज मानो ब्रह्माण्ड को जला डालने के लिये उद्यत था । उसे देखकर सभी देवताओं की दृष्टि चकाचौंध हो उठी, तदनन्तर उन्होंने अपने ज्ञानचक्षुओं से उस तेज के मध्य में भगवान् विनायक की विशाल मूर्ति को देखा, जो दस हाथोंवाली थी, अन्धकार को दूर करने वाली थी, रत्नों के मुकुट को धारण की हुई और करोड़ों सूर्यों के समान कान्तिवाली थी ॥ ३२-३३ ॥ गणेशजी की वह मूर्ति विद्युत् के समान प्रभा से सम्पन्न थी, उत्तम रत्नों के कुण्डल धारण किये हुई थी और सुन्दर दाँतोंवाली थी। उसने दिव्य परिधान धारण कर रखा था, सिन्दूर का विलेपन किया हुआ था और दस भुजाओं में दस आयुध धारण कर रखे थे ॥ ३४ ॥ उस मूर्ति के मस्तक पर कस्तूरी का तिलक सुशोभित हो रहा था। उसने वक्षःस्थल पर मोतियों की माला धारण कर रखी थी । प्रलयकालीन अग्नि के समान उसका तेज सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हो रहा था । उस विनायकमूर्ति ने नाग का यज्ञोपवीत धारण कर रखा था । उसे सर्वेश्वर जानकर तब उन देवताओं ने उन्हें प्रणाम किया और वे उन आनन्दघन परमेश्वर विनायक की प्रार्थना करने लगे ॥ ३५-३६ ॥ देवता बोले — [ हे प्रभो !] योग-साधना द्वारा प्राप्त होने वाले आपका हमने दर्शन प्राप्त किया है। आप अतर्क्य, अव्यय, स्वराट्, निरामय, निराभास, निर्विकल्प, अजर और अमर हैं। आप सर्वस्वरूप, सबके ईश्वर, स्वयंप्रकाश, जगन्मय, अव्यक्त, जगत् के आधार, परब्रह्मस्वरूप और समस्त पदार्थों के द्रष्टा हैं । आप पुराणपुरुषोत्तम, ज्ञान की मूर्ति और वाणी आदि से अगोचर हैं। ऐसे आप विनायक का दर्शनकर हम धन्य हो गये, कृतार्थ हो गये, ऐसा कहते हुए वे देवता [आनन्दित हो] नृत्य करने लगे ॥ ३७-३८१/२ ॥ मुनि बोले — जिस प्रकार से देवताओं ने उस तेजस्वरूप विनायक (की महिमा) – का वर्णन किया, उसी प्रकार से जगन्माता पार्वती ने भी उन गजानन की महिमा वर्णित की ॥ ३९-४० ॥ देवी बोलीं — जिन निर्गुण, निराकार, अव्यक्त, सर्वत्र गमन करने वाले, ध्यान से जाननेयोग्य, चिदाभास, सर्वत्र व्याप्त, पर, जगत् के कारणभूत एवं सच्चिदानन्द- विग्रहस्वरूप परमात्मा के विषय में आज तक मैंने जो भी चिन्तन किया, वह सब आज मैंने इस साकार विनायकरूप में स्पष्टरूप से देखा है । वे ही परमात्मा अनेक दैत्यों का वध करने के लिये, सम्पूर्ण जगत् का उपकार करने के लिये और अखिल चराचर विश्व की रक्षा करने के लिये मेरे घर में अवतीर्ण हुए हैं ॥ ४१–४३ ॥ मुनि बोले — तदनन्तर देवी पार्वती ने भक्तिभावपूर्वक उनकी पूजा की और उन्हें अपना वाहन सिंह प्रदान किया। माता पार्वती ने उनका ‘वक्रतुण्ड’ यह नाम रखा, जो मनुष्यों को सब प्रकार के अर्थों को प्रदान करने वाला है। उन्होंने उनसे दैत्य दुरासद के वध के लिये, देवताओं को शत्रुओं से रहित बनाकर उन्हें अपने-अपने पद की प्राप्ति के लिये प्रार्थना की ॥ ४४-४५ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘विनायक के आविर्भाव का वर्णन’ नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४० ॥ Content is available only for registered users. 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