November 3, 2025 | aspundir | Leave a comment श्रीगणेशपुराण-क्रीडाखण्ड-अध्याय-096 ॥ श्रीगणेशाय नमः ॥ छियानबेवाँ अध्याय सातवें वर्ष में गुणेश का यज्ञोपवीत-संस्कार सम्पन्न होना, यज्ञोपवीत- महोत्सव का वर्णन, उसी अन्तराल में वहाँ आये कृतान्त तथा काल नामक दैत्यों का वध करना, महर्षि कश्यप तथा अदिति द्वारा गुणेश्वर का पूजन, देवताओं द्वारा बालक गुणेश्वर की महिमा का प्रतिपादन अथः षण्णवतितमोऽध्यायः गौर्य्यादित्योश्च संवादः ब्रह्माजी बोले — एक दिन की बात है, देवी पार्वती प्रसन्न भगवान् शिव से बोलीं ॥ १/२ ॥ शिवा बोलीं — हे देवेश्वर ! इस समय बालक गुणेश का सातवाँ वर्ष प्रारम्भ हो गया है, अतः किसी शुभ मुहूर्त में बड़े ही समारोह के साथ गुणेश का उपनयन- संस्कार सम्पन्न करना चाहिये ॥ ११/२ ॥ शिव बोले — हे भद्रे ! तुमने मेरे मन की बात जानकर बहुत अच्छी बात कही है। अब मैं इस बालक का यज्ञोपवीत-संस्कार यथोचित विधि-विधान के साथ कराऊँगा ॥ २१/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — देवी पार्वती से इस प्रकार कहकर भगवान् शिव ने महर्षि गौतम को बुलवाया और शुभ दिन में लग्न का विचार करके संस्कार की सामग्री को एकत्र किया । अत्यन्त विस्तृत लग्नमण्डप तैयार किया गया, सभी ऋषियों तथा मुनियों को आमन्त्रित कर और उन सभी का पूजनकर तथा उनकी अनुमति प्राप्तकर भगवान् शिव ने बड़ी ही प्रसन्नतापूर्वक बालक गुणेश का यज्ञोपवीत- संस्कार सम्पन्न किया ॥ ३-५ ॥ उन सभी ऋषि-मुनियों ने भगवान् शिव, देवी पार्वती तथा बालक गुणेश को अनेक प्रकार के उपहार प्रदान किये। भगवान् शिव ने उन अट्ठासी हजार ऋषि- मुनियों को नमस्कार करके उनका यथाविधि पूजन किया और उन्हें विविध प्रकार की भेंट प्रदान की ॥ ६१/२ ॥ उसी प्रकार उन्होंने तैंतीस करोड़ देवताओं, यक्षों, किन्नरों तथा चारणों को भी उपहार प्रदान किये। उस समय विविध वाद्यों की ध्वनि हो रही थी, किन्नरगण गान कर रहे थे, नर्तकियों के समूह तीव्रगति से नृत्य कर रहे थे और सभी लोग उस मांगलिक महोत्सव का अवलोकन कर रहे थे। ऐसे समय में भगवान् शिव ने बड़ी ही प्रसन्नता के साथ सभी को विविध उपहार तथा दान दिये ॥ ७–९ ॥ उन्होंने देवताओं की स्थापना करके सभी को भोजन कराया। प्रातःकाल बटुक गुणेश को स्नान कराने के अनन्तर उनका चूडाकरण – संस्कार कराया और चार ब्राह्मणों के साथ बटुक को भी भोजन कराकर पुनः उन्हें स्नान कराया ॥ १०१/२ ॥ बनायी गयी वेदी तथा बटुक के मध्य उत्तम वस्त्र की ओट लगाकर वेदमन्त्रों का उच्चारण करने वाले मुनिजनों के साथ उपनयन का मुहूर्त शोधित करके [ भगवान् शिव] मुहूर्त के आगमन की प्रतीक्षा करने लगे ॥ १११/२ ॥ इसी समय वहाँ कृतान्त तथा काल नाम वाले दो दैत्य आ पहुँचे। वे उन्मत्त हाथी का रूप धारण किये हुए थे, उनके गण्डस्थल से मदरूपी जल प्रवाहित हो रहा था, वे बड़े ही सुदृढ़ शरीरवाले थे, उनके दाँत अत्यन्त तीक्ष्ण थे, उनकी लम्बायमान सूँड़ें आकाश से स्पर्धा कर रही थीं। वे दोनों अपनी चिंघाड़ ध्वनि से लोगों को भयभीत कर रहे थे, उन दोनों के मस्तक सिन्दूर के समान अरुण वर्ण के थे, उनके पैरों के प्रहार से पृथ्वी तीव्र गति से काँप रही थी । युद्ध करते हुए वे दोनों एक-दूसरे पर अपने दाँतों से प्रहार कर रहे थे। जिसके कारण उठी धूल से पृथ्वी तथा आकाश का मध्य भाग ढक गया था ॥ १२–१४१/२ ॥ वे दोनों हाथी सभामण्डप के द्वारदेश में स्थित इन्द्र के हाथी ऐरावत के समीप आ गये ॥ १५ ॥ उन्होंने अपने दाँतों के प्रहारों से उस ऐरावत हाथी के अत्यन्त सुदृढ़ गण्डस्थल को भेद डाला। फलतः वह गजेन्द्र ऐरावत रक्त बहाने लगा और क्षणभर में ही मूर्च्छित होकर भूमि पर गिर पड़ा ॥ १६ ॥ फिर एक मुहूर्त के बाद चेतना प्राप्तकर वह ऐरावत शीघ्र ही वहाँ से पलायित हो गया। उसके पीछे-पीछे दौड़ते हुए उन दोनों हाथियों ने अपने दाँतों के आघात से पुनः उस पर प्रहार किया ॥ १७ ॥ तदनन्तर वे दोनों उन्मत्त हाथी सभा के मध्य में आ गये । उस समय उन्होंने अपनी सूँड़ों के द्वारा उस सभा-मण्डप को उखाड़ डाला ॥ १८ ॥ वहाँ स्थित सभी लोग उन दोनों हाथियों के कोलाहल को सुनकर उठ खड़े हुए, वे दोनों हाथी जिधर-जिधर जाते थे, वहाँ-वहाँ से देवता पलायित हो जाते थे ॥ १९ ॥ उन दोनों हाथियों से भयभीत होकर मुनिगण दसों दिशाओं में भाग चले। तदनन्तर शिवगणों ने वहाँ जाकर भगवान् शिव को यह समाचार दिया कि एक विघ्न उपस्थित हो गया है ॥ २० ॥ गण बोले — उन दोनों हाथियों के भय से भयभीत होकर इन्द्र तथा मुनियोंसहित सारी सभा भंग हो गयी है। पार्वतीजी भी अपनी सखियों के साथ वहाँ से पलायित होकर घर आ गयीं ॥ २१ ॥ तदनन्तर बालक गुणेश ने उन दोनों अत्यन्त बलशाली दैत्यरूपी हाथियों को देखकर मेघ के समान गर्जना की और शीघ्र अपने दोनों हाथों से उन दोनों की सूँड़ पकड़ ली। इससे वे दोनों जोर से चिंघाड़ने लगे। गुणेश ने उन दोनों को घुमाकर एक हाथी को दूसरे हाथी के ऊपर पटक दिया ॥ २२-२३ ॥ उन दोनों के सैकड़ों टुकड़े हो गये और वे दोनों जमीन पर गिर पड़े। उनके गिरने से भूमि काँप उठी और वृक्ष चूर-चूर होकर धराशायी हो गये । तदनन्तर गणों ने उन दोनों के शरीर के टुकड़ों को शीघ्र ही ले जाकर दूर फेंक दिया ॥ २४१/२ ॥ उस समय माता पार्वती त्वरापूर्वक वहाँ आ पहुँचीं और उन्होंने बालक को अपनी गोद में ले लिया ॥ २५ ॥ पार्वतीजी की सखी ने उन्हें बतलाया कि उन गजरूपी दैत्यों से भयभीत होकर सभी देवता और मुनिगण पलायित हो गये। इस बालक ने शीघ्र ही उन दोनों दानवों को मार डाला ॥ २६ ॥ इसके पश्चात् इन्द्र आदि सभी देवताओं तथा मुनियों ने उन गुणेश से कहा — हे स्वामिन्! हे सभी गुणों के निधान! आपने कपटपूर्वक हाथी का स्वरूप धारण किये हुए उन दैत्यों को अपनी लीला द्वारा मार डाला। हे देव! वे दोनों दैत्य सभी का प्राण हरने वाले, बड़े ही मायावी और अत्यन्त बलवान् थे ॥ २७-२८ ॥ ऐसा कहकर देवराज इन्द्रसहित सभी देवताओं और मुनिगणों ने सभा में प्रवेश किया। सभी जनों के अपने-अपने स्थान पर बैठ जाने के अनन्तर अप्सरागणों ने नृत्य करना प्रारम्भ किया ॥ २९ ॥ विविध प्रकार के वाद्य बजने लगे। पितामह ब्रह्मा रुद्र के समीप में गये और उनके साथ मन्त्रणा करके उन्होंने शिशु गुणेश की कमर में मेखला बाँधी ॥ ३० ॥ तदनन्तर बटुक गुणेश को यज्ञोपवीत धारण कराकर मृगचर्म पहनाया और होम करके [बटुक से] अग्नि में समिधाकाष्ठ प्रदान करवाया। उसके पश्चात् विधि- विधान के साथ गायत्रीमन्त्र का वाचन करवाया ॥ ३१ ॥ तदनन्तर माता पार्वती ने भिक्षा के रूप में बटुक गुणेश को दो वस्त्र, आभूषण, उत्तरीय वस्त्र, मोतियों के साथ अनेक रत्न और लड्डू आदि खाद्य पदार्थ प्रदान किये। भगवान् शिव ने बटुक गुणेश को त्रिशूल तथा चन्द्रमा प्रदान किया और उनके भालचन्द्र तथा शूलपाणि — ये दो सार्थक नाम रखे। तदनन्तर भगवान् विष्णु ने उन्हें चक्र दिया और उन महात्मा गुणेश का ‘शोचिष्केश’ यह श्रेष्ठ नाम रखा ॥ ३२-३४ ॥ इसके पश्चात् पुरन्दर इन्द्र ने उन बटुक गुणेश का पूजन करके चिन्तामणि नामक मणि उनके कण्ठ में बाँधी और सभी प्रकार की कामनाओं को पूर्ण करने वाला तथा मंगलदायक ‘चिन्तामणि’ यह उनका नाम रखा ॥ ३५ ॥ उसी समय कमल के आसन पर विराजमान रहने वाले, ब्रह्माजी ने उन गुणेश का पूजन करके उन्हें कमल प्रदान किया और उस भरी सभा में ‘विधाता’ यह नाम उनका रखा । तदनन्तर अन्य सभी देवताओं ने उन गुणेश्वर का भलीभाँति पूजन किया और उन्होंने अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार उनके विविध नाम रखे ॥ ३६-३७ ॥ इसके पश्चात् देवी अदिति और महर्षि कश्यप ने आदरपूर्वक उनका पूजन किया और देव गुणेश्वर ने उन्हें अपने पहले शुभ स्वरूप का दर्शन कराया ॥ ३८ ॥ उस समय वे अपने मस्तक पर चन्द्रमा को विराजमान किये हुए थे, उनकी दस भुजाएँ थीं, वे मुकुट से सुशोभित हो रहे थे, वे दिव्य वस्त्रों, दिव्य सुगन्धित विलेपन तथा दिव्य आभूषणों से विभूषित थे ॥ ३९ ॥ वे सिंह पर विराजमान थे, उन्होंने नागराज को अपनी करधनी के रूप में बाँधा हुआ था । इस प्रकार के स्वरूप का दर्शन करके अदिति ने उनका आलिंगन किया और वे अत्यन्त स्नेहानन्द में निमग्न हो गयीं ॥ ४० ॥ उनके शरीर में रोमांच हो आया । अत्यधिक प्रेम के कारण उनके कण्ठ से स्पष्ट शब्द नहीं निकल पा रहे थे, वे अत्यन्त आश्चर्यचकित हो गयीं और उनकी आँखों से निकलने वाली अश्रुधारा से उनकी दृष्टि धुँधली-सी हो गयी। वे देवी अदिति परम आनन्द में निमग्न हो गयीं । स्नेह के कारण उनके स्तनों से दुग्ध निकलने लगा । अदिति के समान ही महर्षि कश्यप को भी तत्क्षण ही देह का भान नहीं रहा ॥ ४१-४२ ॥ तदनन्तर उन दोनों कश्यप तथा अदिति ने स्नेह के वशीभूत हो उनसे कहा — हे वत्स ! तुम्हारे वियोग में हम दोनों अत्यन्त दुर्बल हो गये थे, किंतु अब इस समय तुम्हारे दर्शन से हम पुनः पुष्ट शरीर वाले हो गये हैं । हे पुत्र! तुम हम दोनों का परित्याग मत करो, हम दोनों का तुम्हारे चरणों में अत्यन्त अनुराग है ॥ ४३१/२ ॥ गजानन बोले — हे माता! मैंने एक बार आपको दर्शन देने की प्रतिज्ञा की थी, वह प्रतिज्ञा मैंने इस समय पूर्ण कर ली है, अतः अब आपको शोक नहीं करना चाहिये। मैं सभी के हृदय में अन्तर्यामीरूप से विद्यमान रहता हूँ, अतः आपका और मेरा [वस्तुतः] कभी वियोग नहीं हो सकता ॥ ४४-४५ ॥ ब्रह्माजी बोले — जब वे इस प्रकार वार्ता कर ही रहे थे कि उसी बीच देवी पार्वती वहाँ आ पहुँचीं। उन दोनों कश्यप एवं अदिति का अपने बालक गुणेश पर उस प्रकार का स्नेह देखकर वे बड़े ही प्रेमपूर्वक बोलीं ॥ ४६ ॥ पार्वती बोलीं — हे अदिति ! आप अब मेरा पुत्र मुझे दे दीजिये, इसे आपने बहुत देर से पकड़ रखा है। हे पवित्र मुसकानवाली! हे सुन्दर भौंहों वाली देवी अदिति ! यह आपका पुत्र नहीं है, इसे आप ठीक से देख लें। जब उन्होंने पुनः देखा तो उन विभु विनायक को अपने पुत्र के रूप में ही पाया ॥ ४७१/२ ॥ अदिति बोलीं — हे गौरी! स्वयं आप भी शीघ्र ही आगे आकर इस मेरे पुत्र को भलीभाँति देख लें ॥ ४८ ॥ ब्रह्माजी बोले — तब गौरी ने पुनः उन्हें अपने पुत्र गुणेश के रूप में ही देखा । अदिति उन्हें अपना पुत्र बतलाने लगीं और पार्वती कहने लगीं कि यह मेरा पुत्र है ॥ ४९ ॥ जब उन दोनों अदिति एवं पार्वती में इस प्रकार का वाद-विवाद होने लगा, तो अत्यन्त विस्मित होकर देवता कहने लगे — जो देव आदि और अन्त से रहित हैं, सृष्टि, स्थिति तथा संहार करने वाले हैं, अनन्त स्वरूपों वाले हैं, अनन्त श्री से सम्पन्न हैं और अनेक प्रकार की शक्तियों से समन्वित हैं, भला वे किसके पुत्र हो सकते हैं! दोनों ही देवियाँ इन गुणेश्वर की माया से भ्रान्त हो रही हैं ॥ ५०-५१ ॥ वे देवता बोले — जिसके ये पुत्र हैं, उसी के हाथ में इनको समर्पित किया जाय ॥ ५११/२ ॥ ब्रह्माजी बोले — तदनन्तर उन विविध स्वरूप धारण करने वाले परमेश्वर गुणेश की ओर देखकर कुछ देवता कहने लगे कि ये विधाता ब्रह्मा हैं, कुछ कहने लगे कि ये चार भुजाधारी भगवान् विष्णु हैं, कुछ देवता कहने लगे कि ये तीन नेत्रों वाले भगवान् शंकर हैं और कुछ देवता उन्हें वरुणदेव तथा कुछ उनको अग्निदेव बताने लगे ॥ ५२-५३ ॥ कुछ देवताओं ने उन्हें कामदेव, तो किन्हीं ने भूतल पर समागत सूर्य माना। कुछ देवगण उन्हें गन्धर्व, किन्नर, कुबेर तथा शेषनाग के रूप में देख रहे थे। इस प्रकार विविध रूप वाले उन गुणेश को देखकर देवगण विस्मित हो उठे ॥ ५४ ॥ तब वे देवता कहने लगे कि ये कौन हैं, इसका निश्चय करने में हम समर्थ नहीं हैं। आप दोनों अपनी विवेकशक्ति से निश्चयकर इन परमपुरुष को स्वयं ही ग्रहण कर लें ॥ ५५ ॥ तदनन्तर गौरी पार्वती ने उन प्रभु अपने पुत्र गणेश को शीघ्र ही पकड़ लिया और स्नेहपूर्वक उन्हें अपना स्तनपान कराया। यह देखकर देवी अदिति उदास हो गयीं ॥ ५६ ॥ वे कहने लगीं कि यदि ये मेरे पुत्र होते तो फिर दूसरी स्त्री के पास क्यों जाते, मैं भ्रमित होने के कारण दूसरे के पुत्र पर व्यर्थ ही आसक्त हुई हूँ ॥ ५७ ॥ तदनन्तर मुनिजनों और महर्षि कश्यप ने उन गुणेश्वर का पूजन किया। उन्हें नमस्कारकर और उनसे आज्ञा लेकर वे सभी अपने-अपने स्थानों को चले गये ॥ ५८ ॥ इधर देवी भवानी पार्वती भी पुत्र को लेकर हर्षित होती हुई अपने भवन में चली आयीं। इसके पश्चात् वहाँ आये हुए अन्य सभी लोग भी अपने-अपने घरों को चले गये ॥ ५९ ॥ ॥ इस प्रकार श्रीगणेशपुराण के क्रीडाखण्ड में ‘गौरी और अदिति का विवाद’ नामक छियानबेवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९६ ॥ Content is available only for registered users. 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