॥ श्रीमद्भागवत-माहात्म्य ॥
(स्वयं श्रीभगवान् के श्रीमुख से ब्रह्माजी के प्रति कथित)
श्रीमद् भागवतं नाम पुराणं लोकविश्रुतम् ।
शृणुयाच्छ्रद्धया युक्तो मम सन्तोषकारणम् ॥ १ ॥
लोकविख्यात श्रीमद्भागवत नामक पुराण का प्रतिदिन श्रद्धा-युक्त होकर श्रवण करना चाहिये । यही मेरे संतोष का कारण है ।
नित्यं भागवतं यस्तु पुराणं पठते नरः ।
प्रत्यक्षरं भवेत्तस्य कपिलादानजं फलम् ॥ २ ॥
जो मनुष्य प्रतिदिन भागवतपुराण का पाठ करता है, उसे एक-एक अक्षर के उच्चारण के साथ कपिला गौ दान देने का पुण्य होता है ।
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा नित्यं भागवतोद्भवम् ।
पठते शृणुयाद् यस्तु गोसहस्रफलं लभेत् ॥ ३ ॥
जो प्रतिदिन भागवत के आधे श्लोक या चौथाई श्लोक का पाठ अथवा श्रवण करता है, उसे एक हजार गोदान का फल मिलता है ।
यः पठेत् प्रयतो नित्यं श्लोकं भागवतं सुत ।
अष्टादशपुराणानां फलमाप्नोति मानवः ॥ ४ ॥
पुत्र ! जो प्रतिदिन पवित्रचित्त होकर भागवत के एक श्लोक का पाठ करता है, वह मनुष्य अठारह पुराणों के पाठ का फल पा लेता है ।
नित्यं मम कथा यत्र तत्र तिष्ठन्ति वैष्णवाः ।
कलिबाह्या नरास्ते वै येऽर्चयन्ति सदा मम ॥ ५ ॥
जहाँ नित्य मेरी कथा होती है, वहाँ विष्णु-पार्षद प्रह्लाद आदि विद्यमान रहते हैं । जो मनुष्य सदा मेरे भागवतशास्त्र की पूजा करते हैं, वे कलि के अधिकार से
अलग हैं, उन पर कलि का वश नहीं चलता ।
वैष्णवानां तु शास्त्राणि येऽर्चयन्ति गृहे नराः ।
सर्वपापविनिर्मुक्ता भवन्ति सुरवन्दिताः ॥ ६ ॥
जो मानव अपने घर में वैष्णवशास्त्रों की पूजा करते हैं, वे सब पापों से मुक्त होकर देवताओं द्वारा वन्दित होते हैं ।
येऽर्चयन्ति गृहे नित्यं शास्त्रं भागवतं कलौ ।
आस्फोटयन्ति वल्गन्ति तेषां प्रीतो भवाम्यहम् ॥ ७ ॥
जो लोग कलियुग में अपने घर के भीतर प्रतिदिन भागवतशास्त्र की पूजा करते हैं, वे [कलि से निडर होकर] ताल ठोंकते और उछलते-कूदते हैं, मैं उन पर
बहुत प्रसन्न रहता हूँ ।
यावद्दिनानि हे पुत्र शास्त्रं भागवतं गृहे ।
तावत् पिबन्ति पितरः क्षीरं सर्पिर्मधूदकम् ॥ ८ ॥
पुत्र ! मनुष्य जितने दिनों तक अपने घर में भागवत-शास्त्र रखता है, उतने समय तक उसके पितर दूध, घी, मधु और मीठा जल पीते हैं ।
यच्छन्ति वैष्णवे भक्त्या शास्त्रं भागवतं हि ये ।
कल्पकोटिसहस्त्राणि मम लोके वसन्ति ते ॥ ९ ॥
जो लोग विष्णुभक्त पुरुष को भक्तिपूर्वक भागवतशास्त्र समर्पण करते हैं, वे हजारों करोड़ कल्पों तक (अनन्तकालतक) मेरे वैकुण्ठधाम में वास करते हैं ।
येऽर्चयन्ति सदा गेहे शास्त्रं भागवतं नराः ।
प्रीणितास्तैश्च विबुधा यावदाभूतसंप्लवम् ॥ १० ॥
जो लोग सदा अपने घर में भागवतशास्त्र का पूजन करते हैं, वे मानो एक कल्प तक के लिये सम्पूर्ण देवताओं को तृप्त कर देते हैं ।
श्लोकार्धं श्लोकपादं वा वरं भागवतं गृहे ।
शतशोऽथ सहस्रैश्च किमन्यैः शास्त्रसंग्रहै ॥ ११ ॥
यदि अपने घर पर भागवत का आधा श्लोक या चौथाई श्लोक भी रहे, तो यह बहुत उत्तम बात है, उसे छोड़कर सैकड़ों और हजारों तरह के अन्य ग्रन्थ के संग्रह से भी क्या लाभ है ?
न यस्य तिष्ठते शास्त्रं गृहे भागवतं कलौ ।
न तस्य पुनरावृत्तिर्याम्यपाशात् कदाचन ॥ १२ ॥
कलियुग में जिस मनुष्य के घर में भागवतशास्त्र मौजूद नहीं है, उसको यमराज के पाश से कभी छुटकारा नहीं मिलता ।
कथं स वैष्णवो ज्ञेयः शास्त्रं भागवतं कलौ ।
गृहे न तिष्ठते यस्य श्वपचादधिको हि सः ॥ १३ ॥
इस कलियुग में जिसके घर भागवत-शास्त्र मौजूद नहीं है, उसे कैसे वैष्णव समझा जाय ? वह तो चाण्डाल से भी बढ़कर नीच है !
सर्वस्वेनापि लोकेश कर्तव्यः शास्त्रसंग्रहः ।
वैष्णवस्तु सदा भक्त्या तुष्ट्यर्थं मम पुत्रक ॥ १४ ॥
लोकेश ब्रह्मा ! पुत्र ! मनुष्य को सदा मुझे भक्ति-पूर्वक संतुष्ट करने के लिये अपना सर्वस्व देकर भी वैष्णवशास्त्रों का संग्रह करना चाहिये ।
यत्र यत्र भवेत् पुण्यं शास्त्रं भागवतं कलौ ।
तत्र तत्र सदैवाहं भवामि त्रिदशैः सह ॥ १५ ॥
कलियुग में जहाँ-जहाँ पवित्र भागवत-शास्त्र रहता है, वहाँ-वहाँ सदा ही में देवता के साथ उपस्थित रहता हूँ ।
तत्र सर्वाणि तीर्थानि नदीनदसरांसि च ।
यज्ञाः सप्तपुरी नित्यं पुण्याः सर्वे शिलोच्चयाः ॥ १६ ॥
यही नहीं — वहाँ नदी, नद और सरोवर-रूप में प्रसिद्ध सभी तीर्थ वास करते हैं, सम्पूर्ण यज्ञ, सात पुरियाँ और सभी पावन पर्वत वहाँ नित्य निवास करते हैं ।
श्रोतव्यं मम शास्त्रं हि यशोधर्मजयार्थिना ।
पापक्षयार्थं लोकेश मोक्षार्थं धर्मबुद्धिना ॥ १७ ॥
लोकेश ! यश, धर्म और विजय के लिये तथा पापक्षय एवं मोक्ष की प्राप्ति के लिये धर्मात्मा मनुष्य को सदा ही मेरे भागवत-शास्त्र का श्रवण करना चाहिये ।
श्रीमद् भागवतं पुण्यमायुरारोग्यपुष्टिदम् ।
पठनाच्छ्रवणाद् वापि सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ १८ ॥
यह पावन पुराण श्रीमद्भागवत आयु, आरोग्य और पुष्टि को देनेवाला है, इसका पाठ अथवा श्रवण करने से मनुष्य सब पापों से मुक्त हो जाता है ।
न शृण्वन्ति न हृष्यन्ति श्रीमद्भागवतं परम् ।
सत्यं सत्यं हि लोकेश तेषां स्वामी सदा यमः ॥ १९ ॥
लोकेश ! जो इस परम उत्तम भागवत को न तो सुनते हैं और न सुनकर प्रसन्न ही होते हैं, उनके स्वामी सदा यमराज ही हैं — वे सदा यमराज के ही वश में रहते हैं यह मैं सत्य-सत्य कह रहा हूँ ।
न गच्छति यदा मर्त्यः श्रोतुं भागवतं सुत ।
एकादश्यां विशेषेण नास्ति पापरतस्ततः ॥ २० ॥
पुत्र ! जो मनुष्य सदा ही विशेषतः एकादशी को भागवत सुनने नहीं जाता, उससे बढ़कर पापी कोई नहीं है ।
श्लोकं भागवतं चापि श्लोकार्धं पादमेव वा ।
लिखितं तिष्ठते यस्य गृहे तस्य वसाम्यहम् ॥ २१ ॥
जिसके घर में एक श्लोक, आधा श्लोक अथवा श्लोक का एक ही चरण लिखा रहता है, उसके घर में मैं निवास करता हूँ ।
सर्वाश्रमाभिगमनं सर्वतीर्थावगाहनम् ।
न तथा पावनं नृणां श्रीमद् भागवतं यथा ॥ २२ ॥
मनुष्य के लिये सम्पूर्ण पुण्य-आश्रमों की यात्रा या सम्पूर्ण तीर्थों में स्नान करना भी वैसा पवित्रकारक नहीं है, जैसा श्रीमद्भागवत है ।
यत्र यत्र चतुर्वक्त्र श्रीमद्भागवतं भवेत् ।
गच्छामि तत्र तत्राहं गौर्यथा सुतवत्सला ॥ २३ ॥
चतुर्मुख जहाँ-जहाँ भागवत की कथा होती है, वहाँ-वहाँ मैं उसी प्रकार जाता हूँ, जैसे पुत्रवत्सला गौ अपने बछड़े के पीछे-पीछे जाती है ।
मत्कथावाचकं नित्यं मत्कथाश्रवणे रतम् ।
मत्कथाप्रीतमनसं नाहं त्यक्ष्यामि तं नरम् ॥ २४ ॥
जो मेरी कथा कहता है, जो सदा उसे सुनने में लगा रहता है तथा जो मेरी कथा से मन-ही-मन प्रसन्न होता है, उस मनुष्य का मैं कभी त्याग नहीं करता ।
श्रीमद् भागवतं पुण्यं दृष्ट्वा नोत्तिष्ठते हि यः ।
सांवत्सरं तस्य पुण्यं विलयं याति पुत्रक ॥ २५ ॥
पुत्र ! जो परम पुण्यमय श्रीमद्भागवतशास्त्र को देखकर अपने आसन से उठकर खड़ा नहीं हो जाता उसका एक वर्ष का पुण्य नष्ट हो जाता है ।
श्रीमद् भागवतं दृष्ट्वा प्रत्युथानाभिवादनैः ।
सम्मानयेत तं दृष्ट्वा भवेत् प्रीतिर्ममातुला ॥ २६ ॥
जो श्रीमद्भागवतपुराण को देखकर खड़ा होने और प्रणाम करने आदि के द्वारा उसका सम्मान करता है, उस मनुष्य को देखकर मुझे अनुपम आनन्द मिलता है ।
दृष्ट्वा भागवतं दूरात् प्रक़मेत् सम्मुखं हि यः ।
पदे पदेऽश्वमेधस्य फलं प्राप्नोत्यसंशयम् ॥ २७ ॥
जो श्रीमद्भागवत को दूरसे ही देखकर उसके सम्मुख जाता है, वह एक-एक पग पर अश्वमेधयज्ञ के पुण्य को प्राप्त करता है-इसमें तनिक भी संदेह नहीं है ।
उत्थाय प्रणमेद यो वै श्रीमद्भागवतं नरः ।
धनपुत्रांस्तथा दारान् भक्तिं व प्रददाम्यहम् ॥ २८ ॥
जो मानव खड़ा होकर श्रीमद्भागवत को प्रणाम करता है, उसे मैं धन, स्त्री, पुत्र और अपनी भक्ति प्रदान करता हूँ ।
महाराजोपचारैस्तु श्रीमद्भागवतं सुत ।
शृण्वन्ति ये नरा भक्त्या तेषां वश्यो भवाम्यहम् ॥ २९ ॥
हे पुत्र ! जो लोग महाराजोचित सामग्रियों से युक्त होकर भक्तिपूर्वक श्रीमद्भागवत की कथा सुनते हैं, मैं उनका वशीभूत हो जाता हूं ।
ममोत्सवेषु सर्वेषु श्रीमद् भागवतं परम् ।
शृण्वन्ति ये नरा भक्त्या मम प्रीत्यै च सुव्रत ॥ ३० ॥
वस्त्रालङ्करणैः पुष्पैर्धूपदीपोपहारकैः ।
वशीकृतो ह्यहं तैश्च सत्स्त्रिया सत्पतिर्यथा ॥ ३१ ॥
सुव्रत ! जो लोग मेरे पर्वों से सम्बन्ध रखनेवाले सभी उत्सवों में मेरी प्रसन्नता के लिये वस्त्र, आभूषण पुष्प, धूप और दीप आदि उपहार अर्पण करते हुए परम उत्तम श्रीमद्भागवतपुराण का भक्तिपूर्वक श्रवण करते हैं, वे मुझे उसी प्रकार अपने वश में कर लेते हैं, जैसे पतिव्रता स्त्री अपने साधु-स्वभाव-वाले पति को वश में कर लेती है ।
स्कन्दपुराण, विष्णुखण्ड, मार्गशीर्षमाहात्म्य अ० १६

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