अग्निपुराण – अध्याय 008
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
अध्याय ८
किष्किन्धाकाण्ड की संक्षिप्त कथा

नारदजी कहते हैं — श्रीरामचन्द्रजी पम्पा- सरोवर पर जाकर सीता के लिये शोक करने लगे। वहाँ वे शबरी से मिले। फिर हनुमान् जी से उनकी भेंट हुई। हनुमान् जी उन्हें सुग्रीव के पास ले गये और सुग्रीव के साथ उनकी मित्रता करायी। श्रीरामचन्द्रजी ने सबके देखते-देखते ताड़ के सात वृक्षों को एक ही बाण से बींध डाला और दुन्दुभि नामक दानव के विशाल शरीर को पैर की ठोकर से दस योजन दूर फेंक दिया। इसके बाद सुग्रीव के शत्रु बाली को, जो भाई होते हुए भी उनके साथ वैर रखता था, मार डाला और किष्किन्धापुरी, वानरों का साम्राज्य, रुमा एवं तारा- इन सबको ऋष्यमूक पर्वत पर वानरराज सुग्रीव के अधीन कर दिया ।’

तदनन्तर किष्किन्धापुरी के स्वामी सुग्रीव ने कहा — ‘ श्रीराम ! आपको सीताजी की प्राप्ति जिस प्रकार भी हो सके, ऐसा उपाय मैं कर रहा हूँ।’

यह सुनने के बाद श्रीरामचन्द्रजी ने माल्यवान् पर्वत के शिखर पर वर्षा के चार महीने व्यतीत किये और सुग्रीव किष्किन्धा में रहने लगे।

चौमासे के बाद भी जब सुग्रीव दिखायी नहीं दिये, तब श्रीरामचन्द्रजी की आज्ञा से लक्ष्मण ने किष्किन्धा में जाकर कहा — ‘सुग्रीव! तुम श्रीरामचन्द्रजी के पास चलो अपनी प्रतिज्ञा पर अटल रहो, नहीं तो बाली मरकर जिस मार्ग से गया है, वह मार्ग अभी बंद नहीं हुआ है। अतएव बाली पथ का अनुसरण न करो।’

सुग्रीव ने कहा —‘ सुमित्रानन्दन ! विषयभोग में आसक्त हो जाने के कारण मुझे बीते हुए समय का भान न रहा। [अतः मेरे अपराध को क्षमा कीजिये ] ‘ ॥ १-७ ॥

ऐसा कहकर वानरराज सुग्रीव श्रीरामचन्द्रजी के पास गये और उन्हें नमस्कार करके बोले — ‘भगवन्! मैंने सब वानरों को बुला लिया है। अब आपकी इच्छा अनुसार सीताजी की खोज करने के लिये उन्हें भेजूँगा। वे पूर्वादि दिशाओं में जाकर एक महीने तक सीताजी की खोज करें। जो एक महीने के बाद लौटेगा, उसे मैं मार डालूँगा।’

यह सुनकर बहुत से वानर पूर्व, पश्चिम और उत्तर दिशाओं के मार्ग पर चल पड़े तथा वहाँ जनककुमारी सीता को न पाकर नियत समय के भीतर श्रीराम और सुग्रीव के पास लौट आये। हनुमान् जी श्रीरामचन्द्रजी की दी हुई अँगूठी लेकर अन्य वानरों के साथ दक्षिण दिशा में जानकीजी की खोज कर रहे थे। वे लोग सुप्रभा 1 (तपस्विनी स्वयंप्रभा )की गुफा के निकट विन्ध्यपर्वत पर ही एक मास से अधिक काल तक ढूँढ़ते फिरे; किंतु उन्हें सीताजी का दर्शन नहीं हुआ।

अन्त में निराश होकर आपस में कहने लगे — ‘हम लोगों को व्यर्थ ही प्राण देने पड़ेंगे। धन्य है वह जटायु, जिसने सीता के लिये रावण के द्वारा मारा जाकर युद्ध में प्राण त्याग दिया था’ ॥ ८- १३ ॥

उनकी ये बातें सम्पाति नामक गृध्र के कानों में पड़ीं। वह वानरों के (प्राणत्याग की चर्चा से उनके) खाने की ताक में लगा था।

किंतु जटायु की चर्चा सुनकर रुक गया और बोला — ‘वानरो! जटायु मेरा भाई था। वह मेरे ही साथ सूर्यमण्डल की ओर उड़ा चला जा रहा था। मैंने अपनी पाँखों की ओट में रखकर सूर्य की प्रखर किरणों के ताप से उसे बचाया। अतः वह तो सकुशल बच गया; किंतु मेरी पाँखें जल गयीं, इसलिये मैं यहीं गिर पड़ा। आज श्रीरामचन्द्रजी की वार्ता सुनने से फिर मेरे पंख निकल आये। अब मैं जानकी को देखता हूँ; वे लङ्का में अशोक वाटिका के भीतर हैं। लवणसमुद्र के द्वीप में त्रिकूट पर्वत पर लङ्का बसी हुई है। यहाँ से वहाँ तक का समुद्र सौ योजन विस्तृत है। यह जानकर सब वानर श्रीराम और सुग्रीव के पास जायँ और उन्हें सब समाचार बता दें’ ॥ १४-१६ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘रामायण कथा के अन्तर्गत किष्किन्धाकाण्ड की कथा का वर्णन’नामक आठवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८ ॥

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