अग्निपुराण – अध्याय 055
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
पचपनवाँ अध्याय
पिण्डिका का लक्षण का वर्णन
पिण्डिकालक्षणकथनम्

श्रीभगवान् हयग्रीव कहते हैं — ब्रह्मन् ! अब मैं प्रतिमाओं की पिण्डिका का लक्षण बता रहा हूँ। पिण्डिका लंबाई में तो प्रतिमा के बराबर होनी चाहिये और चौड़ाई में उससे आधी उसकी ऊँचाई भी प्रतिमा की लंबाई से आधी हो और उस अर्द्धभाग के बराबर ही वह सुविस्तृत हो । अथवा उसका विस्तार लंबाई के तृतीयांश के तुल्य हो । उसके एक तिहाई भाग को लेकर मेखला बनावे। पानी बहने के लिये जो खात या गर्त हो, उसका माप भी मेखला के ही तुल्य रहे। वह खात उत्तर दिशा की ओर कुछ नीचा होना चाहिये। पिण्डिका के विस्तार के एक चौथाई भाग से जल के निकलने का मार्ग (प्रणाल) बनाना चाहिये। मूल भाग में उसका विस्तार मूल के ही बराबर हो, परंतु आगे जाकर वह आधा हो जाय। पिण्डिका के विस्तार के एक तिहाई भाग के अथवा पिण्डिका के आधे भाग के बराबर वह जलमार्ग हो। उसकी लंबाई प्रतिमा की लंबाई के तुल्य ही बतायी गयी है अथवा प्रतिमा ही उसकी लंबाई के तुल्य हो। इस बात को अच्छी तरह समझकर उसका सूत्रपात करे ॥ १-५ ॥’

प्रतिमा की ऊँचाई पूर्ववत् सोलह भाग की संख्या के अनुसार करे। छः और दो अर्थात् आठ भागों को नीचे के आधे अङ्ग में गतार्थ करे। इससे ऊपर के तीन भाग को लेकर कण्ठ का निर्माण करे। शेष भागों को एक-एक करके प्रतिष्ठा, निर्गम तथा पट्टिका आदि में विभाजित करे। यह सामान्य प्रतिमाओं में पिण्डिका का लक्षण बताया गया है। प्रासाद के द्वार के दैर्ध्य विस्तार के अनुसार प्रतिमा गृह का भी द्वार कहा गया है। प्रतिमाओं में हाथी और व्याल (सर्प या व्याघ्र आदि) की मूर्तियों से युक्त तत्तत्-देवताविषयक शोभा की रचना करे ॥ ६-८ ॥

श्रीहरि की पिण्डिका भी सदा यथोचित शोभा से सम्पन्न बनायी जानी चाहिये। सभी देवताओं की प्रतिमाओं के लिये वही मान बताया जाता है, जो विष्णु प्रतिमा के लिये कहा गया है तथा सम्पूर्ण देवियों के लिये भी वही मान बताया जाता है, जो लक्ष्मीजी की प्रतिमा के लिये कहा गया है ॥ ९-१० ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘पिण्डिका के लक्षण का वर्णन’ नामक पचपनवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ५५ ॥

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