अग्निपुराण – अध्याय 087
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
सतासीवाँ अध्याय
निर्वाण–दीक्षा के अन्तर्गत शान्तिकला का शोधन
शान्तिशोधनकथनम्

भगवान् शंकर कहते हैं — स्कन्द ! पूर्वोक्त मार्ग से विद्याकला का शान्तिकला के साथ विधिपूर्वक संधान करे। उसके लिये मन्त्र है — ॐ हां हूं हां।’ शान्तिकला में दो तत्त्व लीन हैं। वे दोनों हैं — ईश्वर और सदाशिव । हकार और क्षकार — ये दो वर्ण कहे गये हैं। अब भुवनों के साथ उन्हीं के समान नामवाले रुद्रों का परिचय दिया जा रहा है। उनकी नामावली इस प्रकार है — प्रभव, समय, क्षुद्र, विमल, शिव, घन, निरञ्जन, अङ्गार, सुशिरा, दीप्तकारण, त्रिदशेश्वर, कालदेव, सूक्ष्म और अम्बुजेश्वर (या भुजेश्वर ) — ये चौदह रुद्र शान्तिकला में प्रतिष्ठित हैं। व्योमव्यापिने, व्योमरूपाय, सर्वव्यापिने, शिवाय, अनन्ताय, अनाथाय अनाश्रिताय, ध्रुवाय शाश्वताय, योगपीठसंस्थिताय, नित्ययोगिने, ध्यानाहराय — ये बारह पद हैं ॥ १-४ ॥’

पुरुष और कवच ये दो मन्त्र हैं; बिन्दु और जकार- ये दो बीज हैं; अलम्बुषा और यशा- ये दो नाड़ियाँ हैं; कृकर और कूर्म ये दो प्राणवायु हैं; त्वचा और हाथ-ये दो इन्द्रियाँ हैं; शान्तिकला का विषय स्पर्श माना गया है; स्पर्श और शब्द-ये दो गुण हैं और एक ही कारण हैं – ईश्वर इसकी तुर्यावस्था है। इस प्रकार भुवन आदि समस्त तत्त्वों की शान्तिकला में स्थिति का चिन्तन करके पूर्ववत् ताड़न, छेदन, हृदय प्रवेश, चैतन्य का वियोजन, आकर्षण और ग्रहण करे। फिर शान्ति के मुखसूत्र से चैतन्य का आत्मा में आरोपण करके कला का ग्रहण कर उसे कुण्ड में स्थापित कर दे। तदनन्तर ईश से इस प्रकार प्रार्थना करे-‘हे ईश! मैं इस मुमुक्षु को तुम्हारे अधिकार में दीक्षित कर रहा हूँ। तुम्हें इसके अनुकूल रहना चाहिये’ ॥ ६-१० ॥

फिर माता-पिता का आवाहन आदि और शिष्य का ताड़न आदि करके चैतन्य को लेकर विधिवत् आत्मा में योजित करे। तत्पश्चात् पूर्ववत् माता-पिता के संयोग की भावना करके उद्भवा नाड़ी द्वारा उस चैतन्य का हृदय–मन्त्र से सम्पुटित आत्मबीज के उच्चारणपूर्वक देवी के गर्भ में नियोजन करे । देहोत्पत्ति के लिये हृदय-मन्त्र से, जन्म के हेतु शिरोमन्त्र से, अधिकार-सिद्धि के लिये शिखा- मन्त्र से, भोग के निमित्त कवच मन्त्र से, लय के लिये शस्त्र-मन्त्र से, स्रोतः शुद्धि के लिये शिव- मन्त्र से तथा तत्त्वशोधन के लिये हृदय- मन्त्र से पाँच-पाँच आहुतियाँ दे इसी तरह पूर्ववत् गर्भाधान आदि संस्कार भी करे। कवच – मन्त्र से पाश की शिथिलता एवं निष्कृति के लिये सौ आहुतियाँ दे । मलशक्ति-तिरोधान के उद्देश्य से शस्त्र- मन्त्र द्वारा पाँच आहुतियों का हवन करे। इसी तरह पाश-वियोग के निमित्त भी पाँच आहुतियाँ देनी चाहिये। तदनन्तर अस्त्र-मन्त्र का सात बार जप करके बीजयुक्त अस्त्र-मन्त्ररूपी कटार से पाश का छेदन करे। उसके लिये मन्त्र इस प्रकार है — ‘ॐ हौं शान्तिकलापाशाय नमः हः हूं फट् ॥ ११-१७ ॥

इसके बाद पाश का विमर्दन तथा वर्तुलीकरण पूर्ववत् अस्त्र-मन्त्र से करके उसे घृत से भरे हुए स्रुवे में रख दे और कला सम्बन्धी अस्त्र-मन्त्र द्वारा उसका हवन करे। फिर पाशाङ्कुर की निवृत्ति के लिये अस्त्र-मन्त्र से पाँच आहुतियाँ दे और प्रायश्चित- निवारण के लिये आठ आहुतियों का हवन करे। मन्त्र इस प्रकार है — ॐ हः अस्त्राय हूं फट्।’ फिर हृदय-मन्त्र से ईश्वर का आवाहन करके पूजन-तर्पण करने के पश्चात् उन्हें विधिपूर्वक शुल्क समर्पण करे। मन्त्र इस प्रकार है — ॐ हां ईश्वर बुद्धयहंकारौ शुल्कं गृहाण स्वाहा।’ इसके बाद ईश्वर को शिव की यह आज्ञा सुनावे — ‘ईश्वर ! इस पशु के सारे पाश दग्ध हो गये हैं। अब तुम्हें इसके लिये बन्धनकारक होकर नहीं रहना चाहिये ‘ ॥ १८-२३ ॥

— यों कहकर ईश्वर देव का विसर्जन करे और रौद्रीशक्ति से आत्मा को नियोजित करे। जैसे ईश ने चन्द्रमा को अपने मस्तक पर आश्रय दे रखा है, उसी प्रकार शिष्य के जीवात्मा को गुरु अपने आत्मा में नियोजित करे। फिर शुद्धा उद्भव – मुद्रा के द्वारा इसकी सूत्र में संयोजना करे और मूल मन्त्र से शिष्य के मस्तक पर अमरबिन्दुस्वरूप उस चैतन्यसूत्र को रखे; तदनन्तर पुष्प आदि से पूजित अग्नि के पिता-माता का विसर्जन करके विधिज्ञ पुरुष समस्त विधि की पूर्ति करनेवाली पूर्णाहुति प्रदान करे। इसमें भी पूर्ववत् ताड़न आदि करना चाहिये। विशेषतः कला-सम्बन्धी अपने बीज का प्रयोग होना चाहिये। इस प्रकार शान्तिकला की शुद्धि बतायी गयी ॥ २४-२७ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘निर्वाण-दीक्षा के अन्तर्गत शान्तिकला का शोधन’ नामक सतासीवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ८७ ॥

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