अग्निपुराण – अध्याय 114
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
एक सौ चौदहवाँ अध्याय
गया-माहात्म्य
गयामाहात्म्यम्

अग्निदेव कहते हैं — अब मैं गया के माहात्म्य का वर्णन करूँगा। गया श्रेष्ठ तीर्थों में सर्वोत्तम है। एक समय की बात है — गय नामक असुर ने बड़ी भारी तपस्या आरम्भ की। उससे देवता संतप्त हो उठे और उन्होंने क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णु के समीप जाकर कहा — ‘भगवन् ! आप गयासुर से हमारी रक्षा कीजिये।’ ‘तथास्तु’ कहकर श्रीहरि गयासुर के पास गये और उससे बोले — ‘कोई वर माँगो ।‘ दैत्य बोला — ‘भगवन्! मैं सब तीर्थों से अधिक पवित्र हो जाऊँ।’ भगवान् ने कहा —‘ऐसा ही होगा।’ — यों कहकर भगवान् चले गये। फिर तो सभी मनुष्य उस दैत्य का दर्शन करके भगवान् के समीप जा पहुँचे। पृथ्वी सूनी हो गयी। स्वर्गवासी देवता और ब्रह्मा आदि प्रधान देवता श्रीहरि के निकट जाकर बोले — ‘देव! श्रीहरि ! पृथ्वी और स्वर्ग सूने हो गये। दैत्य के दर्शनमात्र से सब लोग आपके धाम में चले गये हैं।’ यह सुनकर श्रीहरि ने ब्रह्माजी से कहा — ‘तुम सम्पूर्ण देवताओं के साथ गयासुर के पास जाओ और यज्ञभूमि बनाने के लिये उसका शरीर माँगो ।’ भगवान् का यह आदेश सुनकर देवताओं सहित ब्रह्माजी गयासुर के समीप जाकर उससे बोले — ‘दैत्यप्रवर! मैं तुम्हारे द्वार पर अतिथि होकर आया हूँ और तुम्हारे पावन शरीर को यज्ञ के लिये माँग रहा हूँ ॥ १-६ ॥

‘तथास्तु’ कहकर गयासुर धरती पर लेट गया । ब्रह्माजी ने उसके मस्तक पर यज्ञ आरम्भ किया। जब पूर्णाहुति का समय आया, तब गयासुर का शरीर चञ्चल हो उठा। यह देख प्रभु ब्रह्माजी ने पुनः भगवान् विष्णु से कहा — ‘देव ! गयासुर पूर्णाहुति के समय विचलित हो रहा है।’ तब श्रीविष्णु ने धर्म को बुलाकर कहा — ‘तुम इस असुर के शरीर पर देवमयी शिला रख दो और सम्पूर्ण देवता उस शिला पर बैठ जायें। देवताओं के साथ मेरी गदाधरमूर्ति भी इस पर विराजमान होगी।’ यह सुनकर धर्म ने देवमयी विशाल शिला उस दैत्य के शरीर पर रख दी। (शिला का परिचय इस प्रकार है —) धर्म से उनकी पत्नी धर्मवती के गर्भ से एक कन्या उत्पन्न हुई थी, जिसका नाम ‘धर्मव्रता’ था। वह बड़ी तपस्विनी थी। ब्रह्मा के पुत्र महर्षि मरीचि ने उसके साथ विवाह किया। जैसे भगवान् विष्णु श्रीलक्ष्मीजी के साथ और भगवान् शिव श्रीपार्वतीजी के साथ विहार करते हैं, उसी प्रकार महर्षि मरीचि धर्मव्रता के साथ रमण करने लगे ॥ ७-११ ॥

एक दिन की बात है। महर्षि जंगल से कुशा और पुष्प आदि ले आकर बहुत थक गये थे। उन्होंने भोजन करके धर्मव्रता से कहा — ‘प्रिये ! मेरे पैर दबाओ।’ ‘बहुत अच्छा’ कहकर प्रिया धर्मव्रता थके-माँदै मुनि के चरण दबाने लगी। मुनि सो गये; इतने में ही वहाँ ब्रह्माजी आ गये। धर्मव्रता ने सोचा — ‘मैं ब्रह्माजी का पूजन करूँ या अभी मुनि की चरण सेवा में ही लगी रहूँ। ब्रह्माजी गुरु के भी गुरु हैं— मेरे पति के भी पूज्य हैं; अतः इनका पूजन करना ही उचित है।’ ऐसा विचारकर वह पूजन सामग्रियों से ब्रह्माजी की पूजा में लग गयी। नींद टूटने पर जब मरीचि मुनि ने धर्मव्रता को अपने समीप नहीं देखा, तब आज्ञा उल्लङ्घन के अपराध से उसे शाप देते हुए कहा — ‘तू शिला हो जायगी।’ यह सुनकर धर्मव्रता कुपित हो उनसे बोली—  ‘मुने! चरण- सेवा छोड़कर मैंने आपके पूज्य पिता की पूजा की है, अतः मैं सर्वथा निर्दोष हूँ ऐसी दशा में भी आपने मुझे शाप दिया है, अतः आपको भी भगवान् शिव से शाप की प्राप्ति होगी।’ यों कहकर धर्मव्रता ने शाप को पृथक् रख दिया और स्वयं अग्नि में प्रवेश करके वह हजारों वर्षों तक कठोर तपस्या में संलग्न रही। इससे प्रसन्न होकर श्रीविष्णु आदि देवताओं ने कहा —‘वर माँगो’ धर्मव्रता देवताओं से बोली — आप लोग मेरे शाप को दूर कर दें’ ॥ १२-१८ ॥

देवताओं ने कहा — शुभे महर्षि मरीचि का दिया हुआ शाप अन्यथा नहीं होगा। तुम देवताओं के चरण-चिह्न से अङ्कित परम पवित्र शिला होओगी। गयासुर के शरीर को स्थिर रखने के लिये तुम्हें शिला का स्वरूप धारण करना होगा। उस समय तुम देवव्रता, देवशिला, सर्वदेवस्वरूपा, सर्वतीर्थमयी तथा पुण्यशिला कहलाओगी ॥ १९-२० ॥

देवव्रता बोली — देवताओ! यदि आप लोग मुझ पर प्रसन्न हों तो शिला होने के बाद मेरे ऊपर ब्रह्मा, विष्णु तथा रुद्र आदि देवता और गौरी-लक्ष्मी आदि देवियाँ सदा विराजमान रहें ॥ २१ ॥

अग्निदेव कहते हैं — देवव्रता की बात सुनकर सब देवता ‘तथास्तु’ कहकर स्वर्ग को चले गये । उस देवमयी शिला को ही धर्म ने गयासुर के शरीर पर रखा । परंतु वह शिला के साथ ही हिलने लगा । यह देख रुद्र आदि देवता भी उस शिला पर जा बैठे। अब वह देवताओं को साथ लिये हिलने-डोलने लगा। तब देवताओं ने क्षीरसागरशायी भगवान् विष्णु को प्रसन्न किया। श्रीहरि ने उनको अपनी गदाधरमूर्ति प्रदान की और कहा — ‘देवगण! आपलोग चलिये; इस देवगम्य मूर्ति के द्वारा मैं स्वयं ही वहाँ उपस्थित होऊँगा।’ इस प्रकार उस दैत्य के शरीर को स्थिर रखने के लिये व्यक्ताव्यक्त उभयस्वरूप साक्षात् गदाधारी भगवान् विष्णु वहाँ स्थित हुए। वे आदि गदाधर के नाम से उस तीर्थ में विराजमान हैं ॥ २२-२५ ॥

पूर्वकाल में ‘गद’ नाम से प्रसिद्ध एक भयंकर असुर था। उसे श्रीविष्णु ने मारा और उसकी हड्डियों से विश्वकर्मा ने गदा का निर्माण किया। वही ‘आदि गदा’ है। उस आदि गदा के द्वारा भगवान् गदाधर ने ‘हेति’ आदि राक्षसों का वध किया था, इसलिये वे ‘आदि- गदाधर’ कहलाये। पूर्वोक्त देवमयी शिला पर आदि- गदाधर के स्थित होने पर गयासुर स्थिर हो गया; तब ब्रह्माजी ने पूर्णाहुति दी। तदनन्तर गयासुर ने देवताओं से कहा — ‘किसलिये मेरे साथ वञ्चना की गयी है ? क्या मैं भगवान् विष्णु के कहने मात्र से स्थिर नहीं हो सकता था? देवताओ! यदि आपने मुझे शिला आदि के द्वारा दबा रखा है, तो आपको मुझे वरदान देना चाहिये’ ॥ २६-३० ॥

देवता बोले — ‘दैत्यप्रवर! तीर्थ-निर्माण के लिये हमने तुम्हारे शरीर को स्थिर किया है; अतः यह तुम्हारा क्षेत्र भगवान् विष्णु, शिव तथा ब्रह्माजी का निवास स्थान होगा। सब तीर्थों से बढ़कर इसकी प्रसिद्धि होगी तथा पितर आदि के लिये यह क्षेत्र ब्रह्मलोक प्रदान करने वाला होगा।’ — यों कहकर सब देवता वहीं रहने लगे। देवियों और तीर्थ आदि ने भी उसे अपना निवास स्थान बनाया। ब्रह्माजी ने यज्ञ पूर्ण करके उस समय ऋत्विजों को दक्षिणाएँ दीं। पाँच कोस का गया क्षेत्र और पचपन गाँव अर्पित किये। यही नहीं, उन्होंने सोने के अनेक पर्वत बनाकर दिये। दूध और मधु की धारा बहानेवाली नदियाँ समर्पित कीं। दही और घी के सरोवर प्रदान किये। अन्न आदि के बहुत-से पहाड़, कामधेनु गाय, कल्पवृक्ष तथा सोने-चाँदी के घर भी दिये। भगवान् ब्रह्मा ने ये सब वस्तुएँ देते समय ब्राह्मणों से कहा — ‘विप्रवरो! अब तुम मेरी अपेक्षा अल्प-शक्ति रखने वाले अन्य व्यक्तियों से कभी याचना न करना’ यों कहकर उन्होंने वे सब वस्तुएँ उन्हें अर्पित कर दीं ॥ ३१-३५ ॥

तत्पश्चात् धर्म ने यज्ञ किया। उस यज्ञ में लोभवश धन आदि का दान लेकर जब वे ब्राह्मण पुनः गया में स्थित हुए, तब ब्रह्माजी ने उन्हें शाप दिया — ‘अब तुम लोग विद्याविहीन और लोभी हो जाओगे। इन नदियों में अब दूध आदि का अभाव हो जायगा और ये सुवर्ण शैल भी पत्थर मात्र रह जायेंगे।’ तब ब्राह्मणों ने ब्रह्माजी से कहा — ‘भगवन्! आपके शाप से हमारा सब कुछ नष्ट हो गया। अब हमारी जीविका के लिये कृपा कीजिये। ‘ यह सुनकर वे ब्राह्मणों से बोले — ‘अब इस तीर्थ से ही तुम्हारी जीविका चलेगी। जबतक सूर्य और चन्द्रमा रहेंगे, तबतक इसी वृत्ति से तुम जीवन निर्वाह करोगे। जो लोग गया तीर्थ में आयेंगे, वे तुम्हारी पूजा करेंगे। जो हव्य, कव्य, धन और श्राद्ध आदि के द्वारा तुम्हारा सत्कार करेंगे, उनकी सौ पीढ़ियों के पितर नरक से स्वर्ग में चले जायेंगे और स्वर्ग में ही रहनेवाले पितर परमपद को प्राप्त होंगे’ ॥ ३६-४० ॥

महाराज गय ने भी उस क्षेत्र में बहुत अन्न और दक्षिणा से सम्पन्न यज्ञ किया था। उन्हीं के नाम से गयापुरी की प्रसिद्धि हुई। पाण्डवों ने भी गया में आकर श्रीहरि की आराधना की थी ॥ ४१ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘गया-माहात्म्य वर्णन’ नामक एक सौ चौदहवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ ११४ ॥

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