अग्निपुराण – अध्याय 121
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय
ज्योतिःशास्त्र का कथन
[ वर-वधू के गुण और विवाहादि संस्कारों के काल का विचार; शत्रु के वशीकरण एवं स्तम्भन-सम्बन्धी मन्त्र; ग्रहण-दान; सूर्य संक्रान्ति एवं ग्रहों की महादशा ]
ज्योतिःशास्त्रं

अग्निदेव कहते हैं — मुने! अब मैं शुभ-अशुभ का विवेक प्रदान करनेवाले संक्षिप्त ज्यौतिष-शास्त्र का वर्णन करूँगा, जो चार लक्ष श्लोकवाले विशाल ज्योतिषशास्त्र का सारभूत अंश है, जिसे जानकर मनुष्य सर्वज्ञ हो सकता है। यदि कन्या की राशि से वर की राशि संख्या परस्पर छ:- आठ, नौ-पाँच और दो- बारह हो तो विवाह शुभ नहीं होता है। शेष दस-चार, ग्यारह- तीन और सम सप्तक (सात-सात) हो तो विवाह शुभ होता है। यदि कन्या और वर की राशि के स्वामियों में परस्पर मित्रता हो या दोनों की राशियों का एक ही स्वामी हो, अथवा दोनों की ताराओं (जन्म- नक्षत्रों) में मैत्री हो तो नौ- पाँच तथा दो- बारह का दोष होने पर भी विवाह कर लेना चाहिये; किंतु षडष्टक (छः- आठ) के दोष में तो कदापि विवाह नहीं हो सकता। 1  गुरु-शुक्र के अस्त रहने पर विवाह करने से वधू के पति का निधन हो जाता है। गुरु क्षेत्र ( धनु, मीन) में सूर्य हो एवं सूर्य के क्षेत्र (सिंह) – में गुरु हो तो विवाह को अच्छा नहीं मानते हैं; क्योंकि वह विवाह कन्या के लिये वैधव्यकारक होता है ॥ १-५ ॥’

(संस्कार- मुहूर्त) बृहस्पति के वक्र रहने पर तथा अतिचारी होने पर विवाह तथा उपनयन नहीं करना चाहिये। आवश्यक होने पर अतिचार के समय त्रिपक्ष अर्थात् डेढ़ मास तथा वक्र होने पर चार मास छोड़कर शेष समय में विवाह उपनयनादि शुभ संस्कार करने चाहिये। चैत्र- पौष में, रिक्ता तिथि में, भगवान्‌ के सोने पर, मङ्गल तथा रविवार में, चन्द्रमा के क्षीण रहने पर भी विवाह शुभ नहीं होता है। संध्याकाल (गोधूलि समय) शुभ होता है। रोहिणी, तीनों उत्तरा, मूल, स्वाती, हस्त, रेवती — इन नक्षत्रों में, तुला लग्न को छोड़कर मिथुनादि द्विस्वभाव एवं स्थिर लग्नों में विवाह करना शुभ होता है। विवाह, कर्णवेध, उपनयन तथा पुंसवन संस्कारों में, अन्नप्राशन तथा प्रथम चूड़ाकर्म में विद्धनक्षत्र को 2  त्याग देना चाहिये ॥ ६-९ ॥

श्रवण, मूल, पुष्य — इन नक्षत्रों में, रवि, मङ्गल, बृहस्पति — इन वारों में तथा कुम्भ, सिंह, मिथुन — इन लग्नों में पुंसवन कर्म करने का विधान है। हस्त, मूल, मृगशिरा और रेवती नक्षत्रों में, बुध और शुक्रवार में बालकों का निष्कासन शुभ होता है। रवि, सोम, बृहस्पति तथा शुक्र — इन दिनों में, मूल नक्षत्र में प्रथम बार ताम्बूल भक्षण करना चाहिये। शुक्र तथा बृहस्पति वार को, मकर और मीन लग्न में, हस्तादि पाँच नक्षत्रों में, पुष्य में तथा कृत्तिकादि तीन नक्षत्रों में अन्नप्राशन करना चाहिये। अश्विनी, रेवती, पुष्य, हस्त, ज्येष्ठा, रोहिणी और श्रवण नक्षत्रों में नूतन अन्न और फल का भक्षण शुभ होता है। स्वाती तथा मृगशिरा नक्षत्र में औषध सेवन करना शुभ होता है।

(रोग मुक्त स्नान) तीनों पूर्वा, मघा, भरणी, स्वाती तथा श्रवण से तीन नक्षत्रों में, रवि, शनि और मङ्गल – इन वारों में रोग-विमुक्त व्यक्ति को स्नान करना चाहिये ॥ १०–१४१/२

( यन्त्र- प्रयोग) मिट्टी के चौकोर पट्ट पर आठ दिशाओं में आठ ‘ह्रीं’ कार और बीच में अपना नाम लिखे अथवा पार्थिव पट्ट या भोजपत्र पर आठों दिशाओं में ‘ह्रीं’ लिखकर मध्य में अपना नाम गोरोचन तथा कुङ्कुम से लिखे। ऐसे यन्त्र को वस्त्र में लपेटकर गले में धारण करने से शत्रु निश्चय ही वश में हो जाते हैं। इसी तरह गोरोचन तथा कुकुम से ‘श्रीं’ ‘ह्रीं’ मन्त्र द्वारा सम्पुटित नाम को आठ भूर्जपत्र खण्ड पर लिखकर पृथ्वी में गाड़ दे तो शीघ्र विदेश गया हुआ व्यक्ति वापस आता है। और उसी यन्त्र को हल्दी के रस से शिलापट्ट पर लिखकर नीचे मुख करके पृथ्वी पर रख दे तो शत्रु का स्तम्भन होता है। ‘ॐ’ ‘हूं’ ‘सः’ मन्त्र से सम्पुटित नाम गोरोचन तथा कुङ्कुम से आठ भूर्जपत्रों पर लिखकर रखा जाय तो मृत्यु का निवारण होता है। यह यन्त्र एक, पाँच और नौ बार लिखने से परस्पर प्रेम होता है। दो, छः या बारह बार लिखने से वियुक्त व्यक्तियों का संयोग होता है और तीन सात या ग्यारह बार लिखने से लाभ होता है और चार, आठ और बारह बार लिखने से परस्पर शत्रुता होती है ॥ १५-२० ॥

(भाव और तारा) मेषादि लग्नों से तनु, धन, सहज, सुहत्, सुत, रिपु, जाया, निधन, धर्म, कर्म, आय, व्यय — ये बारह भाव होते हैं। अब नौ ताराओं का बल बतलाता हूँ। जन्म, संपत्, विपत्, क्षेम, प्रत्यरि, साधक, मृत्यु, मैत्र और अतिमैत्र — ये नौ तारे होते हैं।

बुध, बृहस्पति, शुक्र, रवि तथा सोमवार को और माघ आदि छः मासों में प्रथम क्षौर कर्म (बालक का मुण्डन) कराना शुभ कहा गया है।

बुधवार तथा गुरुवार को एवं पुष्य, श्रवण और चित्रा नक्षत्र में कर्णवेध- संस्कार शुभ होता है। पाँचवें वर्ष में प्रतिपदा, षष्ठी, रिक्ता और पूर्णिमा तिथियों को एवं मङ्गलवार को छोड़कर शेष वारों में सरस्वती, विष्णु और लक्ष्मी का पूजन करके अध्ययन (अक्षरारम्भ ) करना चाहिये। माघ से लेकर छः मासतक अर्थात् आषाढ़ तक उपनयन संस्कार शुभ होता है।

चूडाकरण आदि कर्म श्रावण आदि छः मासों में प्रशस्त नहीं माने गये हैं। गुरु तथा शुक्र अस्त हो गये हों और चन्द्रमा क्षीण हों तो यज्ञोपवीत संस्कार करने से बालक की मृत्यु अथवा जडता होती है, ऐसा संकेत कर दे। क्षौर में कहे हुए नक्षत्रों में तथा शुभ ग्रह के दिनों में समावर्तन संस्कार करना शुभ होता है ॥ २१-२८ ॥

(विविध मुहूर्त) — लग्न में शुभ ग्रहों की राशि हो और लग्न में शुभ ग्रह बैठे हों या उसे देखते हों तथा अश्विनी, मघा, चित्रा, स्वाती, भरणी, तीनों उत्तरा, पुनर्वसु और पुष्य नक्षत्र हों तो ऐसे समय में धनुर्वेद का आरम्भ शुभ होता है।

भरणी, आर्द्रा, मघा, आश्लेषा, कृत्तिका, पूर्वाफाल्गुनी — इन नक्षत्रों में जीवन की इच्छा रखने वाला पुरुष नवीन वस्त्र धारण न करे। बुध, बृहस्पति तथा शुक्र- इन दिनों में वस्त्र धारण करना चाहिये । विवाहादि माङ्गलिक कार्यों में वस्त्र धारण के लिये नक्षत्रादि का विचार नहीं करना चाहिये।

रेवती, अश्विनी, धनिष्ठा और हस्तादि पाँच नक्षत्रों में चूड़ी, मूँगा तथा रत्नों का धारण करना शुभ होता है ॥ २९-३२ ॥

(क्रय-विक्रय मुहूर्त) — भरणी, आश्लेषा, धनिष्ठा, तीनों पूर्वा और कृत्तिका — इन नक्षत्रों में खरीदी हुई वस्तु हानिकारक (घाटा देनेवाली) होती है और बेचना लाभदायक होता है। अश्विनी, स्वाती, चित्रा, रेवती, शतभिषा, श्रवण — इन नक्षत्रों में खरीदा हुआ सामान लाभदायक होता है और बेचना अशुभ होता है। भरणी, तीनों पूर्वा, आर्द्रा, आश्लेषा, मघा, स्वाती, कृत्तिका, ज्येष्ठा और विशाखा — इन नक्षत्रों में स्वामी की सेवा का आरम्भ नहीं करना चाहिये। साथ ही इन नक्षत्रों में दूसरे को द्रव्य देना, व्याज पर द्रव्य देना, थाती या धरोहर के रूप में रखना आदि कार्य भी नहीं करने चाहिये। तीनों उत्तरा, श्रवण और ज्येष्ठा — इन नक्षत्रों में राज्याभिषेक करना चाहिये।

चैत्र, ज्येष्ठ, भाद्रपद, आश्विन, पौष और माघ — इन मासों को छोड़कर शेष मासों में गृहारम्भ शुभ होता है। अश्विनी, रोहिणी, मूल, तीनों उत्तरा, मृगशिरा, स्वाती, हस्त और अनुराधा — ये नक्षत्र और मङ्गल तथा रविवार को छोड़कर शेष दिन गृहारम्भ, तड़ाग, वापी एवं प्रासादारम्भ के लिये शुभ होते हैं। गुरु सिंह राशि में हों तब, गुर्वादित्य में (अर्थात् जब सिंह राशि के गुरु और धन एवं मीन राशिओं के सूर्य हों) अधिक मास में और शुक्र के बाल, वृद्ध तथा अस्त रहने पर गृह सम्बन्धी कोई कार्य नहीं करना चाहिये। श्रवण से पाँच नक्षत्रों में तृण तथा काष्ठों के संग्रह करने से अग्निदाह, भय, रोग, राजपीड़ा तथा धन क्षति होती है।

(गृह- प्रवेश) धनिष्ठा, तीनों उत्तरा, शतभिषा इन नक्षत्रों में गृहप्रवेश करना चाहिये।

(नौका- निर्माण) द्वितीया, तृतीया, पञ्चमी, सप्तमी, त्रयोदशी — इन तिथियों में नौका बनवाना शुभ होता है।

(नृपदर्शन) — धनिष्ठा, हस्त, रेवती, अश्विनी — इन नक्षत्रों में राजा का दर्शन करना शुभ होता है।

(युद्धयात्रा) — तीनों पूर्वा, धनिष्ठा, आर्द्रा, कृत्तिका, मृगशिरा, विशाखा, आश्लेषा और अश्विनी — इन नक्षत्रों में की हुई युद्धयात्रा सम्पत्ति लाभपूर्वक सिद्धिदायिनी होती है।

(गौओं के गोष्ठ से बाहर ले जाने या गोष्ठ के भीतर लाने का मुहूर्त ) — अष्टमी, सिनीवाली (अमावास्या) तथा चतुर्दशी तिथियों में, तीनों उत्तरा, रोहिणी, श्रवण, हस्त और चित्रा — इन नक्षत्रों में बेचने के लिये गोशाला से पशु को बाहर नहीं ले जाना चाहिये और खरीदे हुए पशुओं का गोशाला में प्रवेश भी नहीं कराना चाहिये।

(कृषि कर्म-मुहूर्त) — स्वाती, तीनों उत्तरा, रोहिणी, मृगशिरा, मूल, पुनर्वसु, पुष्य, हस्त तथा श्रवण — इन नक्षत्रों में सामान्य कृषि कर्म करना चाहिये। पुनर्वसु, तीनों उत्तरा, स्वाती, पूर्वाफाल्गुनी, मूल, ज्येष्ठा और शतभिषा — इन नक्षत्रों में, रवि, सोम, गुरु तथा शुक्र — इन वारों में, वृष, मिथुन, कन्या — इन लग्नों में, द्वितीया, पञ्चमी, दशमी, सप्तमी, तृतीया और त्रयोदशी — इन तिथियों में (हल- प्रवहणादि) कृषि कर्म करना चाहिये। रेवती, रोहिणी, ज्येष्ठा, कृत्तिका, हस्त, अनुराधा, तीनों उत्तरा — इन नक्षत्रों में, शनि एवं मङ्गलवार को छोड़कर दूसरे दिनों में सभी सम्पत्तियों की प्राप्ति के लिये बीजवपन करना चाहिये।

(धान्य काटने तथा घर में रखने का मुहूर्त) — रेवती, हस्त, मूल, श्रवण, पूर्वाफाल्गुनी, अनुराधा, मघा, मृगशिरा — इन नक्षत्रों में तथा मकर लग्न में धान्य-छेदन – ( धान काटने का) मुहूर्त शुभ होता है और हस्त, चित्रा, पुनर्वसु, स्वाती, रेवती तथा श्रवणादि तीन नक्षत्रों में भी धान्य-छेदन शुभ है। स्थिर लग्न तथा बुध, गुरु, शुक्रवारों में, भरणी, पुनर्वसु, मघा, ज्येष्ठा, तीनों उत्तरा — इन नक्षत्रों में अनाज को डेहरी या बखार आदि में रखे ॥ ३३-५१ ॥

(धान्य-वृद्धि के लिये मन्त्र)‘ॐ धनदाय सर्वधनेशाय देहि मे धनं स्वाहा।’ — ‘ ॐ नवे वर्षे इलादेवि ! लोकसंवर्द्धिनि ! कामरूपिणि! देहि मे धनं स्वाहा।’  — इन मन्त्रों को पत्ते या भोजपत्र पर लिखकर धान्य की राशि में रख दे तो धान्य की वृद्धि होती है। तीनों पूर्वा, विशाखा, धनिष्ठा और शतभिषा — इन छः नक्षत्रों में बखार से धान्य निकालना चाहिये।

(देवादि-प्रतिष्ठा-मुहूर्त) — सूर्य के उत्तरायण में रहने पर देवता, बाग, तड़ाग, वापी आदि की प्रतिष्ठा करनी चाहिये ।

(भगवान्‌ के शयन, पार्श्व परिवर्तन और जागरण का उत्सव) मिथुन राशि में सूर्य के रहने पर अमावास्या के बाद जब द्वादशी तिथि होती है, उसी में सदैव भगवान् चक्रपाणि के शयन का उत्सव करना चाहिये। सिंह तथा तुला- राशि में सूर्य के रहने पर अमावास्या के बाद जो दो द्वादशी तिथियाँ होती हैं, उनमें क्रम से भगवान् का पार्श्व परिवर्तन तथा प्रबोधन (जागरण) होता है। कन्या राशि का सूर्य होने पर अमावास्या के बाद जो अष्टमी तिथि होती है, उसमें दुर्गाजी जागती हैं।

(त्रिपुष्करयोग) — जिन नक्षत्रों के तीन चरण दूसरी राशि में प्रविष्ट हों (जैसे कृत्तिका, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, विशाखा, उत्तराषाढ़ा और पूर्वभाद्रपदा — इन नक्षत्रों में, जब भद्रा द्वितीया, सप्तमी और द्वादशी तिथियाँ हों एवं रवि, शनि तथा मङ्गलवार हों तो त्रिपुष्करयोग होता है।

(चन्द्र-बल) — प्रत्येक व्यावहारिक कार्य में चन्द्र तथा तारा की शुद्धि देखनी चाहिये। जन्मराशि में तथा जन्मराशि से तृतीय, षष्ठ, सप्तम, दशम, एकादश स्थानों पर स्थित चन्द्रमा शुभ होते हैं। शुक्ल पक्ष में द्वितीय, पञ्चम, नवम चन्द्रमा भी शुभ होता है।

(तारा- शुद्धि) — मित्र, अतिमित्र, साधक, सम्पत् और क्षेम आदि ताराएँ शुभ हैं। ‘जन्म- तारा’ से मृत्यु होती है, ‘विपत्ति तारा से धन का विनाश होता है, ‘प्रत्यरि’ और ‘मृत्युतारा’ में निधन होता है। ( अतः इन ताराओं में कोई नया काम या यात्रा नहीं करनी चाहिये।)

(क्षीण और पूर्ण चन्द्र) — कृष्ण पक्ष की अष्टमी से शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि तक चन्द्रमा क्षीण रहता है; इसके बाद वह पूर्ण माना जाता है।

(महाज्येष्ठी) — वृष तथा मिथुन राशि का सूर्य हो, गुरु मृगशिरा अथवा ज्येष्ठा नक्षत्र में हो और गुरुवार को पूर्णिमा तिथि हो तो वह पूर्णिमा ‘महाज्येष्ठी’ कही जाती है। ज्येष्ठा में गुरु तथा चन्द्रमा हों, रोहिणी में सूर्य हो एवं ज्येष्ठ मास की पूर्णिमा हो तो वह पूर्णिमा ‘महाज्येष्ठी’ कहलाती है।

स्वाती नक्षत्र के आने से पूर्व ही यन्त्र पर इन्द्रदेव का पूजन करके उनका ध्वजारोपण करना चाहिये; श्रवण अथवा अश्विनी में या सप्ताह के अन्त में उसका विसर्जन करना चाहिये ॥ ५२-६४ ॥

(ग्रहण में दान का महत्त्व) — सूर्य के राहु द्वारा ग्रस्त होने पर अर्थात् सूर्यग्रहण लगने पर सब प्रकार का दान सुवर्ण दान के समान है, सब ब्राह्मण ब्रह्मा के समान होते हैं और सभी जल गङ्गाजल के समान हो जाते हैं।

(संक्रान्ति का कथन) — सूर्य की संक्रान्ति रविवार से लेकर शनिवार तक किसी-न-किसी दिन होती है। इस क्रम से उस संक्रान्ति के सात भिन्न-भिन्न नाम होते हैं। यथा — घोरा, ध्वाङ्क्षी, महोदरी, मन्दा, मन्दाकिनी, युता (मिश्रा) तथा राक्षसी कौलव, शकुनि और किंस्तुघ्न करणों में सूर्य यदि संक्रमण करे तो लोग सुखी होते हैं। गर, वव, वणिक्, विष्टि और बालव — इन पाँच करणों में यदि सूर्य- संक्रान्ति बदले तो प्रजा राजा के दोष से सम्पत्ति के साथ पीड़ित होती है। चतुष्पात् तैतिल और नाग — इन करणों में सूर्य यदि संक्रमण करे तो देश में दुर्भिक्ष होता है, राजाओं में संग्राम होता है तथा पति-पत्नी के जीवन के लिये भी संशय उपस्थित होता है ॥ ६६-६९ ॥

(रोग की स्थिति का विचार) — जन्म नक्षत्र या आधान (जन्म से उन्नीसवें ) नक्षत्र में रोग उत्पन्न हो जाय, तो अधिक क्लेशदायक होता है। कृत्तिका नक्षत्र में रोग उत्पन्न हो तो नौ दिन तक, रोहिणी में उत्पन्न हो तो तीन रात तक तथा मृगशिरा में हो तो पाँच रात तक रहता है। आर्द्रा में रोग हो तो प्राणनाशक होता है। पुनर्वसु तथा पुष्य नक्षत्रों में रोग हो तो सात रात तक बना रहता है। आश्लेषा का रोग नौ रात तक रहता है। मघा का रोग अत्यन्त घातक या प्राणनाशक होता है। पूर्वाफाल्गुनी का रोग दो मास तक रहता है। उत्तराफाल्गुनी में उत्पन्न हुआ रोग तीन दिनों तक रहता है। हस्त तथा चित्रा का रोग पंद्रह दिनों तक पीड़ा देता है। स्वाती का रोग दो मास तक, विशाखा का बीस दिन, अनुराधा का रोग दस दिन और ज्येष्ठ का पंद्रह दिन रहता है। मूल नक्षत्र में रोग हो तो वह छूटता ही नहीं है। पूर्वाषाढ़ा का रोग पाँच दिन रहता है। उत्तराषाढ़ा का रोग बीस दिन, श्रवण का दो मास, धनिष्ठा का पंद्रह दिन और शतभिषा का रोग दस दिनों तक रहता है। पूर्वाभाद्रपदा का रोग छूटता ही नहीं उत्तराभाद्रपदा का रोग सात दिनों तक रहता है 3 । रेवती का रोग दस रात और अश्विनी का रोग एक दिन-रात मात्र रहता है; किंतु भरणी का रोग प्राणनाशक होता है।

(रोग-शान्ति का उपाय) — पञ्चधान्य, तिल और घृत आदि हवनीय सामग्री द्वारा गायत्री- मन्त्र से हवन करने पर रोग छूट जाता है और शुभ फल की प्राप्ति होती है तथा ब्राह्मण को दूध देने वाली गौ का दान करने से रोग का शमन हो जाता है ॥ ७०-७७ ॥

(अष्टोत्तरी-क्रम से) सूर्य की दशा छः वर्ष की होती है। इसी प्रकार चन्द्रदशा पंद्रह वर्ष, मङ्गल की आठ वर्ष, बुध की सत्रह वर्ष, शनि की दस वर्ष, बृहस्पति की उन्नीस वर्ष, राहु की बारह वर्ष और शुक्र की इक्कीस वर्ष महादशा चलती है ॥ ७८-७९ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘ज्योतिषशास्त्र का कथन’ नामक एक सौ इक्कीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १२१ ॥

1. नारदपुराण, पूर्वभाग, द्वितीयपाद अध्याय ५६, श्लोक ५०४ में भी यही बात कही गयी है।

2. विद्धनक्षत्र के परिज्ञान के लिये नारदपुराण, अध्याय ५६ के श्लोक ४८३-८४ में पञ्चशलाका-वेध का इस प्रकार वर्णन है — पाँच रेखाएँ पड़ी और पाँच रेखाएँ खड़ी खींचकर दो-दो रेखाएँ कोणों में खींचने (बनाने) से पञ्चशलाका- चक्र बनता है। इस चक्र के ईशानकोणवाली दूसरी रेखायें कृतिका को लिखकर आगे प्रदक्षिणक्रम से रोहिणी आदि अभिजित् सहित सम्पूर्ण नक्षत्रों का उल्लेख करे। जिस रेखा में ग्रह हो, उसी रेखा की दूसरी ओर वाला नक्षत्र विद्ध समझा जाता है। इस विषय को भलीभाँति समझने के लिये निम्नाङ्कित चक्र पर दृष्टिपात करें —

पञ्चशलाका-वेध

3. ‘बुध्नार्यमेज्यादितिधातृभे नगाः’ (मुहू० चिन्ता०, नक्ष० प्रक० ४६ ) के अनुसार उत्तराभाद्रपदा में उत्पन्न रोग सात दिन रहता है।

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