अग्निपुराण – अध्याय 130
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
एक सौ तीसवाँ अध्याय
विविध मण्डलों का वर्णन
मण्डलं

शंकरजी कहते हैं — भद्रे ! अब मैं विजय के लिये चार प्रकार के मण्डल का वर्णन करता हूँ। कृत्तिका, मघा, पुष्य, पूर्वाफाल्गुनी, विशाखा, भरणी, पूर्वाभाद्रपदा — इन नक्षत्रों का ‘आग्नेय मण्डल’ होता है, उसका लक्षण बतलाता हूँ। इस मण्डल में यदि विशेष वायु का प्रकोप हो, सूर्य- चन्द्र का परिवेष लगे, भूकम्प हो, देश की क्षति हो, चन्द्र-सूर्य का ग्रहण हो, धूमज्वाला देखने में आये, दिशाओं में दाह का अनुभव होता हो, केतु अर्थात् पुच्छल तारा दिखायी पड़ता हो, रक्तवृष्टि हो, अधिक गर्मी का अनुभव हो, पत्थर पड़े, तो जनता में नेत्र का रोग, अतिसार (हैजा) और अग्निभय होता है। गायें दूध कम कर देती हैं। वृक्षों में फल-पुष्प कम लगते हैं। उपज कम होती है। वर्षा भी स्वल्प होती है। चारों वर्ण (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद्र) दुःखी रहते हैं। सारे मनुष्य भूख से व्याकुल रहते हैं। ऐसे उत्पातों के दीख पड़ने पर सिन्ध-यमुना की तलहटी, गुजरात, भोज, बाह्लीक, जालन्धर, काश्मीर और सातवाँ उत्तरापथ — ये देश विनष्ट हो जाते हैं।’

हस्त, चित्रा, मघा, स्वाती, मृगशिरा, पुनर्वसु, उत्तराफाल्गुनी, अश्विनी — इन नक्षत्रों का ‘वायव्य मण्डल’ कहा जाता है। इसमें यदि पूर्वोक्त उत्पात हों तो विक्षिप्त होकर हाहाकार करती हुई सारी प्रजाएँ नष्टप्राय हो जाती हैं। साथ ही डाहल (त्रिपुर), कामरूप, कलिङ्ग, कोशल, अयोध्या, उज्जैन, कोङ्कण तथा आन्ध्र — ये देश नष्ट हो जाते हैं।

आश्लेषा, मूल, पूर्वाषाढ़ा, रेवती, शतभिषा तथा उत्तराभाद्रपदा — इन नक्षत्रों को ‘वारुण मण्डल’ कहते हैं। इसमें यदि पूर्वोक्त उत्पात हों तो गायों में दूध-घी की वृद्धि और वृक्षों में पुष्प तथा फल अधिक लगते हैं। प्रजा आरोग्य रहती है। पृथ्वी धान्य से परिपूर्ण हो जाती है। अन्नों का भाव सस्ता तथा देश में सुकाल का प्रसार हो जाता है, किंतु राजाओं में परस्पर घोर संग्राम होता रहता है ॥ १-१४ ॥

ज्येष्ठा, रोहिणी, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, उत्तराषाढ़ा, सातवाँ अभिजित् — इन नक्षत्रों का नाम ‘माहेन्द्र मण्डल’ है। इसमें यदि पूर्वोक्त उत्पात हों तो प्रजा प्रसन्न रहती है, किसी प्रकार के रोग का भय नहीं रह जाता। राजा लोग आपस में संधि कर लेते हैं और राजाओं के लिये हितकारक सुभिक्ष होता है ॥ १५-१६१/२

‘ग्राम’ दो प्रकार का होता है — पहले का नाम ‘मुखग्राम’ है और दूसरे का नाम ‘पुच्छग्राम’ है। चन्द्र, राहु तथा सूर्य जब एक राशि में हो जाते हैं, तब उसे ‘मुखग्राम’ कहते हैं। राहु से सातवें स्थान को ‘पुच्छग्राम’ कहते हैं। सूर्य के नक्षत्र से पंद्रहवें नक्षत्र में जब चन्द्रमा आता है, उस समय तिथि साधन के अनुसार ‘सोमग्राम’ होता है अर्थात् पूर्णिमा तिथि होती है 1  ॥ १७–१९ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘विविध मण्डलों का वर्णन’ नामक एक सौ तीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३० ॥

1. सूर्य के साथ चन्द्रमा जब रहेगा, तब अमावास्या तिथि होगी। सूर्य के नक्षत्र से पंद्रहवें नक्षत्र में चन्द्रमा आयेगा तो सूर्य से सातवीं राशि में चन्द्रमा रहेगा; क्योंकि सवा दो नक्षत्र की एक राशि होती है जब सूर्य से सातवीं राशि में चन्द्रमा रहता है, तब पूर्णिमा ही तिथि होती है। उसे ही ‘सोमग्राम’ कहते हैं।

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