June 21, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 131 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ एक सौ इकतीसवाँ अध्याय घातचक्र आदि का वर्णन घातचक्रादि शंकरजी कहते हैं — पूर्वादि दिशाओं में प्रदक्षिणक्रम से अकारादि स्वरों को लिखे। उसमें शुक्लपक्ष की प्रतिपदा, पूर्णिमा, त्रयोदशी, चतुर्दशी, केवल शुक्लपक्ष की एक अष्टमी (कृष्णपक्ष की अष्टमी नहीं), सप्तमी, कृष्णपक्ष में प्रतिपदा से लेकर त्रयोदशीतक (अष्टमी को छोड़कर) द्वादश तिथियों का न्यास करे। इस चैत्र-चक्र में पूर्वादि दिशाओं में स्पर्श वर्णों को लिखने से जय- पराजय का तथा लाभ का निर्णय होता है। | विषम दिशा, विषम स्वर तथा विषम वर्ण में शुभ होता है और सम दिशा आदि में अशुभ होता है ॥ १-३ ॥’ (अब युद्ध में जय-पराजय का लक्षण बतलाते हैं —) युद्धारम्भ के समय सेनापति पहले जिसका नाम लेकर बुलाता है, उस व्यक्ति के नाम का आदि-अक्षर यदि ‘दीर्घ’ हो तो उसकी घोर संग्राम में भी विजय होती है। यदि नाम का आदि- वर्ण ‘ह्रस्व’ हो तो निश्चय ही मृत्यु होती है। जैसे — एक सैनिक का नाम ‘आदित्य’ और दूसरे का नाम है – ‘गुरु’। इन दोनों में प्रथम के नाम के आदि में ‘आ’ दीर्घ स्वर है और दूसरे के नाम के आदि में ‘उ’ ह्रस्व स्वर है; अतः यदि दीर्घ स्वरवाले व्यक्ति को बुलाया जायगा तो विजय और ह्रस्ववाले को बुलाने पर हार तथा मृत्यु होगी ॥ ४-७ ॥ (अब ‘नरचक्र’ के द्वारा घाताङ्ग का निर्णय करते हैं —) नक्षत्र–पिण्ड के आधार पर नर-चक्र का वर्णन करता हूँ। पहले एक मनुष्य का आकार बनावे। तत्पश्चात् उसमें नक्षत्रों का न्यास करे। सूर्य के नक्षत्र से नाम के नक्षत्र तक गिनकर संख्या जान ले। पहले तीन को नर के सिर में, एक मुख में, दो नेत्र में, चार हाथ में, दो कान में, पाँच हृदय में और छः पैरों में लिखे। फिर नाम नक्षत्र का स्पष्ट रूप से चक्र के मध्य में न्यास करे। इस तरह लिखने पर नर के नेत्र, सिर, दाहिना कान, दाहिना हाथ, दोनों पैर, हृदय, ग्रीवा, बायाँ हाथ और गुह्याङ्ग में से जहाँ शनि, मङ्गल, सूर्य तथा राहु के नक्षत्र पड़ते हों, युद्ध में उसी अङ्ग में घात (चोट) होता है ॥ ८-१२ ॥ (अब जयचक्र का निर्णय करते हैं —) पूर्व से पश्चिम तक तेरह रेखाएँ बनाकर पुनः उत्तर से दक्षिण तक छः तिरछी रेखाएँ खींचे। (इस तरह लिखने पर जयचक्र बन जायगा। उसमें अ से ह तक अक्षरों को लिखे और १० । ९ । ७ । १२ । ४ । ११ । १५ । २४ । १८ । ४ । २७ । २४ — इन अङ्कों का भी न्यास करे । अङ्कों को ऊपर लिखकर अकारादि अक्षरों को उसके नीचे लिखे। शत्रु के नामाक्षर के स्वर तथा व्यञ्जन वर्ण के सामने जो अङ्क हों, उन सबको जोड़कर पिण्ड बनाये। उसमें सात से भाग देने पर एक आदि शेष के अनुसार सूर्यादि ग्रहों का भाग जाने । १ शेष में सूर्य, २ में चन्द्र, ३ में भौम, ४ में बुध, ५ में गुरु, ६ में शुक्र, ७ में शनि का भाग होता है — यों समझना चाहिये। जब सूर्य, शनि और मङ्गल का भाग आये तो विजय होती है तथा शुभ ग्रह के भाग में संधि होती है ॥ १३-१५१/२ ॥ उदाहरण — जैसे किसी का नाम देवदत्त है, इस नाम के अक्षरों तथा ए स्वर के अनुसार अङ्क- क्रम से १८+४+२४+१८+ १५ = ७९ (उन्यासी) योग हुआ। इसमें सात का भाग दिया ७९ / ७ = ११ लब्धि तथा २ शेष हुआ। शेष के अनुसार सूर्य से गिनने पर चन्द्र का भाग हुआ, अतः संधि होगी। इससे यह निश्चय हुआ कि ‘देवदत्त’ नाम का व्यक्ति संग्राम में कभी पराजित नहीं हो सकता। इसी तरह और नाम के अक्षर तथा मात्रा के अनुसार जय-पराजय का ज्ञान करना चाहिये। (अब द्वितीय जयचक्र का निर्णय करते हैं —) पूर्व से पश्चिम तक बारह रेखाएँ लिखे और छः रेखाएँ याम्योत्तर करके लिखी जायें। इस तरह यह ‘जयचक्र’ बन जायगा। उसके सर्वप्रथम ऊपर वाले कोष्ठ में १४ । २७ । २ । १२ । १५ । ६ । ४ । ३ । १७ । ८ । ८ — इन अङ्कों को लिखे और कोष्ठों में ‘अकार’ आदि स्वरों से लेकर ‘ह’ तक के अक्षरों का क्रमशः न्यास करे। तत्पश्चात् नाम के अक्षरों द्वारा बने हुए पिण्ड में आठ से भाग दे तो एक आदि शेष के अनुसार वायस, मण्डल, रासभ, वृषभ, कुञ्जर, सिंह, खर, धूम्र — ये आठ शेषों के नाम होते हैं। इसमें वायस से प्रबल मण्डल और मण्डल से प्रबल रासभ-यों उत्तरोत्तर बली जानना चाहिये। संग्राम में यायी तथा स्थायी के नामाक्षर के अनुसार मण्डल बनाकर एक-दूसरे से बली तथा दुर्बल का ज्ञान करना चाहिये ॥ १६-२० ॥ उदाहरण — जैसे यायी रामचन्द्र तथा स्थायी रावण — इन दोनों में कौन बली है — यह जानना है। अतः रामचन्द्र के अक्षर तथा स्वर के अनुसार र् =१५, आ =२७, म् =२, अ =१४, च् =३, अ =१४, न् =१७, द् =४, र् =१५, अ =१४ – इनका योग १२५ हुआ। इसमें ८ का भाग दिया तो शेष ५ रहा। तथा रावण के अक्षर और स्वर के अनुसार र् =१५, आ =२७, व् =४, अ =१४, न् = १७, अ =१४ – इनका योग हुआ ९१। इसमें ८ से भाग देने पर ३ शेष हुआ। ३ शेष से ५ बली है, अतः रामचन्द्र रावण के संग्राम में रामचन्द्र ही बली हो रहे हैं। ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘घातचक्रों का वर्णन’ नामक एक सौ इकतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ १३१ ॥ Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe