अग्निपुराण – अध्याय 190
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
एक सौ नब्बेवाँ अध्याय
अखण्डद्वादशी व्रत का वर्णन
अखण्डद्वादशीव्रतं

अग्निदेव कहते हैं — अब मैं ‘अखण्डद्वादशी’-व्रत के विषय में कहता हूँ, जो समस्त व्रतों की सम्पूर्णता का सम्पादन करने वाली है। मार्गशीर्ष के शुक्लपक्ष की द्वादशी को उपवास करके भगवान् श्रीविष्णु का पूजन करे। व्रत करने वाला मनुष्य पञ्चगव्य मिश्रित जल से स्नान करे और उसी का पारण करे। इस द्वादशी को ब्राह्मण को जौ और धान से भरा हुआ पात्र दान दे। भगवान् श्रीविष्णु के सम्मुख इस प्रकार प्रार्थना करे —’

सप्तजन्मनि यत्किञ्चिन्मया खण्डं व्रतं कृतं ।
भगवंस्त्वत्प्रसादेन तदखण्डमिहास्तु मे ॥ ०३ ॥
यथाखण्डं जगत्सर्वं त्वमेव पुरुषोत्तम ।
तथाखिलान्यखण्डानि व्रतानि मम सन्तु वै ॥ ०४ ॥

‘भगवन्! सात जन्मों में मेरे द्वारा जो व्रत खण्डित हुआ हो, आपकी कृपा से वह मेरे लिये अखण्ड फलदायक हो जाय। पुरुषोत्तम ! जैसे आप इस अखण्ड चराचर विश्व के रूप में स्थित हैं, उसी प्रकार मेरे किये हुए समस्त व्रत अखण्ड हो जायें।’

इस प्रकार (मार्गशीर्ष से आरम्भ करके फाल्गुन तक) प्रत्येक मास में करना चाहिये। इस व्रत को चार महीने तक करने का विधान है। चैत्र से आषाढ़पर्यन्त यह व्रत करने पर सत्तू से भरा हुआ पात्र दान करे। श्रावण से प्रारम्भ करके इस व्रत को कार्तिक में समाप्त करना चाहिये। उपर्युक्त विधि से ‘अखण्डद्वादशी’ का व्रत करने पर सात जन्मों के खण्डित व्रतों को यह सफल बना देता है। इसके करने से मनुष्य दीर्घ आयु, आरोग्य, सौभाग्य, राज्य और विविध भोग आदि प्राप्त करता है ॥ १-६ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘अखण्डद्वादशी व्रत का वर्णन’ नामक एक सौ नम्वेवां अध्याय पूरा हुआ ॥ १९० ॥

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