अग्निपुराण – अध्याय 225
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
दो सौ पचीसवाँ अध्याय
राज-धर्म-राजपुत्र-रक्षण आदि
राजधर्माः

पुष्कर कहते हैं — राजा को अपने पुत्र की रक्षा करनी चाहिये तथा उसे धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र और धनुर्वेद की शिक्षा देनी चाहिये । साथ ही अनेक प्रकार के शिल्पों की शिक्षा देनी भी आवश्यक है। शिक्षक विश्वसनीय और प्रिय वचन बोलनेवाले होने चाहिये। राजकुमार की शरीर रक्षा के लिये कुछ रक्षकों को नियुक्त करना भी आवश्यक है। क्रोधी, लोभी तथा अपमानित पुरुषों के संग से उसको दूर रखना चाहिये। गुणों का आधान करना सहज नहीं होता, अतः इसके लिये राजकुमार को सुखों से बाँधना चाहिये। जब पुत्र शिक्षित हो जाय तो उसे सभी अधिकारों में नियुक्त करे। मृगया, मद्यपान और जुआ  – ये राज्य का नाश करनेवाले दोष हैं। राजा इनका परित्याग करे ॥ १-४ ॥’

दिन का सोना, व्यर्थ घूमना और कटुभाषण करना छोड़ दे। परायी निन्दा, कठोर दण्ड और अर्थदूषण का भी परित्याग करे। सुवर्ण आदि की खानों का विनाश और दुर्ग आदि की मरम्मत न कराना — ये अर्थ के दूषण कहे गये हैं। धन को थोड़ा-थोड़ा करके अनेकों स्थानों पर रखना, अयोग्य देश और अयोग्य काल में अपात्र को दान देना तथा बुरे कामों में धन लगाना — यह सब भी अर्थ का दूषण (धन का दुरुपयोग) है। काम, क्रोध, मद, मान, लोभ और दर्प का त्याग करे । तत्पश्चात् भृत्यों को जीतकर नगर और देश के लोगों को वश में करे। इसके बाद बाह्यशत्रुओं को जीतने का प्रयत्न करे। बाह्यशत्रु भी तीन प्रकार के होते हैं — एक तो वे हैं, जिनके साथ पुस्तैनी दुश्मनी हो; दूसरे प्रकार के शत्रु हैं — अपने राज्य की सीमा पर रहनेवाले सामन्त तथा तीसरे हैं — कृत्रिम – अपने बनाये हुए शत्रु । इनमें पूर्व-पूर्व शत्रु गुरु ( भारी या अधिक भयानक) हैं। महाभाग ! मित्र भी तीन प्रकार के बतलाये जाते हैं — बाप-दादों के समय के मित्र, शत्रु के सामन्त तथा कृत्रिम  ॥ ५-१० ॥

धर्मज्ञ परशुरामजी ! राजा, मन्त्री, जनपद, दुर्ग, दण्ड (सेना), कोष और मित्र — ये राज्य के सात अंग कहलाते हैं। राज्य की जड़ है – स्वामी (राजा), अतः उसकी विशेषरूप से रक्षा होनी चाहिये। राज्याङ्ग के विद्रोही को मार डालना उचित है। राजा को समयानुसार कठोर भी होना चाहिये और कोमल भी ऐसा करने से राजा के दोनों लोक सुधरते हैं। राजा अपने भृत्यों के साथ हँसी- परिहास न करे; क्योंकि सबके साथ हँस-हँसकर बातें करने वाले राजा को उसके सेवक अपमानित कर बैठते हैं। लोगों को मिलाये रखने के लिये राजा को बनावटी व्यसन भी रखना चाहिये। वह मुसकाकर बोले और ऐसा बर्ताव करे, जिससे सब लोग प्रसन्न रहें। दीर्घसूत्री (कार्यारम्भ में विलम्ब करने वाले ) राजा के कार्य की अवश्य हानि होती है, परंतु राग, दर्प, अभिमान, द्रोह, पापकर्म तथा अप्रिय भाषण में दीर्घसूत्री (विलम्ब लगाने वाले) राजा की प्रशंसा होती है। राजा को अपनी मन्त्रणा गुप्त रखनी चाहिये। उसके गुप्त रहने से राजा पर कोई आपत्ति नहीं आती ॥ ११-१६ ॥

राजा का राज्य सम्बन्धी कोई कार्य पूरा हो जाने पर ही दूसरों को मालूम होना चाहिये। उसका प्रारम्भ कोई भी जानने न पावे। मनुष्य के आकार, इशारे, चाल-ढाल, चेष्टा, बातचीत तथा नेत्र और मुख के विकारों से उसके भीतर की बात पकड़ में आ जाती है। राजा न तो अकेले ही किसी गुप्त विषय पर विचार करे और न अधिक मनुष्यों को ही साथ रखे। बहुतों से सलाह अवश्य ले, किंतु अलग-अलग। (सबको एक साथ बुलाकर नहीं।) मन्त्री को चाहिये कि राजा के गुप्त विचार को दूसरे मन्त्रियों पर भी न प्रकट करे। मनुष्यों का सदा कहीं, किसी एक पर ही विश्वास जमता है, इसलिये एक ही विद्वान् मन्त्री के साथ बैठकर राजा को गुप्त मन्त्र का निश्चय करना चाहिये । विनय का त्याग करने से राजा का नाश हो जाता है और विनय की रक्षा से उसे राज्य की प्राप्ति होती है । तीनों वेदों के विद्वानों से त्रयीविद्या, सनातन दण्डनीति, आन्वीक्षिकी (अध्यात्मविद्या) तथा अर्थशास्त्र का ज्ञान प्राप्त करे। साथ ही वार्ता (कृषि, गोरक्षा एवं वाणिज्य आदि) – के प्रारम्भ करने का ज्ञान लोक से प्राप्त करे। अपनी इन्द्रियों को वश में रखनेवाला राजा ही प्रजा को अधीन रखने में समर्थ होता है। देवताओं और समस्त ब्राह्मणों की पूजा करनी चाहिये तथा उन्हें दान भी देना चाहिये। ब्राह्मण को दिया हुआ दान अक्षय निधि है; उसे कोई भी नष्ट नहीं कर सकता । संग्राम में पीठ न दिखाना, प्रजा का पालन करना और ब्राह्मणों को दान देना – ये राजा के लिये परम कल्याण की बातें हैं। दीनों, अनाथों, वृद्धों तथा विधवा स्त्रियों के योगक्षेम का निर्वाह तथा उनके लिये आजीविका का प्रबन्ध करे। वर्ण और आश्रम धर्म की रक्षा तथा तपस्वियों का सत्कार राजा का कर्त्तव्य है। राजा कहीं भी विश्वास न करे, किंतु तपस्वियों पर अवश्य विश्वास करे। उसे यथार्थ युक्तियों के द्वारा दूसरों पर अपना विश्वास जमा लेना चाहिये। राजा बगुले की भाँति अपने स्वार्थ का विचार करे और (अवसर पाने पर) सिंह के समान पराक्रम दिखावे। भेड़िये की तरह झपटकर शत्रु को विदीर्ण कर डाले, खरगोश की भाँति छलाँगें भरते हुए अदृश्य हो जाय और सूअर की भाँति दृढ़तापूर्वक हार करे। मोर की भाँति विचित्र आकार धारण करे, घोड़े के समान दृढ़ भक्ति रखनेवाला हो और कोयल की तरह मीठे वचन बोले कौए की तरह सबसे चौकन्ना रहे: रात में ऐसे स्थान पर रहे, जो दूसरों को मालूम न हो; जाँच या परख किये बिना भोजन और शय्या को ग्रहण न करे। अपरिचित स्त्री के साथ समागम न करे; बेजान पहचान की नाव पर न चढ़े। अपने राष्ट्र की प्रजा को चूसनेवाला राजा राज्य और जीवन-दोनों से हाथ धो बैठता है। महाभाग ! जैसे पाला हुआ बछड़ा बलवान् होने पर काम करने के योग्य होता है, उसी प्रकार सुरक्षित राष्ट्र राजा के काम आता है। यह सारा कर्म दैव और पुरुषार्थ के अधीन है। इनमें दैव तो अचिन्त्य है, किंतु पुरुषार्थ में कार्य करने को शक्ति है। राजा के राज्य, पृथ्वी तथा लक्ष्मी की उत्पत्ति का एकमात्र कारण है — प्रजा का अनुराग (अतः राजा को चाहिये कि वह सदा प्रजा को संतुष्ट रखे।)  ॥ १७–३३ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘राजधर्म का कथन’ नामक दो सौ पचीसवाँ अध्याय पूरा हुआ  ॥ २२५ ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.