July 5, 2025 | aspundir | Leave a comment अग्निपुराण – अध्याय 233 ॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥ ॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥ दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय यात्रा के मुहूर्त और द्वादश राजमण्डल का विचार यात्रामण्डलचिन्तादिः पुष्कर कहते हैं — अब मैं राजधर्म का आश्रय लेकर सबकी यात्रा के विषय में बताऊँगा। जब शुक्र अस्त हों अथवा नीच स्थान में स्थित हों, विकलाङ्ग (अन्ध) हों, शत्रु-राशि पर विद्यमान हों अथवा वे प्रतिकूल स्थान में स्थित या विध्वस्त हों तो यात्रा नहीं करनी चाहिये। बुध प्रतिकूल स्थान में स्थित हों तथा दिशा का स्वामी ग्रह भी प्रतिकूल हो तो यात्रा नहीं करनी चाहिये। वैधृति, व्यतीपात,नाग, शकुनि, चतुष्पाद तथा किंस्तुघ्नयोग में भी यात्रा का परित्याग कर देना चाहिये। विपत्, मृत्यु, प्रत्यरि और जन्म-इन ताराओं में, गण्डयोग में तथा रिक्ता तिथि में भी यात्रा न करे ॥ १-४ ॥ उत्तर और पूर्व इन दोनों दिशाओं की एकता कही गयी है। इसी तरह पश्चिम और दक्षिण-इन दोनों दिशाओं की भी एकता मानी गयी है। वायव्यकोण से लेकर अग्रिकोण तक जो परिघ- दण्ड रहता है, उसका उल्लङ्घन करके यात्रा नहीं करनी चाहिये। रवि सोम और शनैश्चर ये दिन यात्रा के लिये अच्छे नहीं माने गये हैं ॥ ५-६ ॥’ कृत्तिका से लेकर सात नक्षत्र समूह पूर्व दिशा में रहते हैं। मघा आदि सात नक्षत्र दक्षिण दिशा में रहते हैं, अनुराधा आदि सात नक्षत्र पश्चिम दिशा में रहते हैं तथा धनिष्ठा आदि सात नक्षत्र उत्तर दिशा में रहते हैं। (अग्निकोण से वायुकोण तक परिघ-दण्ड रहा करता है; अतः इस प्रकार यात्रा करनी चाहिये,जिससे परिघ दण्ड का उल्लङ्घन न हो।)1 पूर्वोक्त नक्षत्र उन-उन दिशाओं के द्वार हैं; सभी द्वार उन-उन दिशाओं के लिये उत्तम हैं। अब मैं तुम्हें छाया का मान बताता हूँ ॥ ७१/२ ॥ रविवार को बीस, सोमवार को सोलह, मङ्गलवार को पंद्रह, बुध को चौदह, बृहस्पति को तेरह, शुक्र को बारह तथा शनिवार को ग्यारह अङ्गुल ‘छायामान’ कहा गया है, जो सभी कर्मों के लिये विहित है। जन्म लग्न में तथा सामने इन्द्रधनुष उदित हुआ हो तो मनुष्य यात्रा न करे। शुभ शकुन आदि होने पर श्रीहरि का स्मरण करते हुए विजययात्रा करनी चाहिये ॥ ८-१० ॥ परशुरामजी ! अब मैं आपसे मण्डल का विचार बतलाऊँगा; राजा की सब प्रकार से रक्षा करनी चाहिये। राजा, मन्त्री, दुर्ग, कोष, दण्ड, मित्र और जनपद — ये राज्य के सात अङ्ग बतलाये जाते हैं। इन सात अङ्गों से युक्त राज्य में विघ्न डालने वाले पुरुषों का विनाश करना चाहिये। राजा को उचित है कि अपने सभी मण्डलों में वृद्धि करे। अपना मण्डल ही यहाँ सबसे पहला मण्डल है। सामन्त नरेशों को ही उस मण्डल का शत्रु जानना चाहिये। ‘विजिगीषु’ राजा के सामने का सीमावर्ती सामन्त उसका शत्रु है। उस शत्रु राज्य से जिसकी सीमा लगी है, वह उक्त शत्रु का शत्रु होने से विजिगीषु का मित्र है। इस प्रकार शत्रु मित्र, अरिमित्र, मित्रमित्र तथा अरिमित्र मित्र- ये पाँच मण्डल के आगे रहनेवाले हैं। इनका वर्णन किया गया; अब पीछे रहनेवालों को बताता हूँ; सुनिये ॥ ११–१५१/२ ॥ पीछे रहने वालों में पहला ‘पार्ष्णिग्राह’ है और उसके पीछे रहने वाला ‘आक्रन्द’ कहलाता है। तदनन्तर इन दोनों के पीछे रहने वाले ‘आसार’ होते हैं, जिन्हें क्रमशः ‘पार्ष्णिग्राहासार’ और ‘आक्रन्दासार’ कहते हैं। नरश्रेष्ठ! विजय की इच्छा रखने वाला राजा, शत्रु के आक्रमण से युक्त हो अथवा उससे मुक्त, उसकी विजय के सम्बन्ध में कुछ निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। विजिगीषु तथा शत्रु दोनों के असंगठित रहने पर उनका निग्रह और अनुग्रह करने में समर्थ तटस्थ राजा ‘मध्यस्थ’ कहलाता है। जो बलवान् नरेश इन तीनों के निग्रह और अनुग्रह में समर्थ हो, उसे ‘उदासीन’ कहते हैं। कोई भी किसी का शत्रु या मित्र नहीं है; सभी कारणवश ही एक-दूसरे के शत्रु और मित्र होते हैं। इस प्रकार मैंने आपसे यह बारह राजाओं के मण्डल का वर्णन किया है ॥ १६-२० ॥ शत्रुओं के तीन भेद जानने चाहिये — कुल्य, अनन्तर और कृत्रिम । इनमें पूर्व-पूर्व शत्रु भारी होता है। अर्थात् ‘कृत्रिम’ की अपेक्षा ‘अनन्तर’ और उसकी अपेक्षा ‘कुल्य’ शत्रु बड़ा माना गया है; उसको दबाना बहुत कठिन होता है। ‘अनन्तर’ ( सीमाप्रान्तवर्ती) शत्रु भी मेरी समझ में ‘कृत्रिम’ ही है। पार्ष्णिग्राह राजा शत्रु का मित्र होता है; तथापि प्रयत्न से वह शत्रु का शत्रु भी हो सकता है। इसलिये नाना प्रकार के उपायों द्वारा अपने पार्ष्णिग्राह को शान्त रखे उसे अपने वश में किये रहे। प्राचीन नीतिज्ञ पुरुष मित्र के द्वारा शत्रु को नष्ट करा डालने की प्रशंसा करते हैं। सामन्त (सीमा-निवासी) होने के कारण मित्र भी आगे चलकर शत्रु हो जाता है; अतः विजय चाहनेवाले राजा को उचित है कि यदि अपने में शक्ति हो तो स्वयं ही शत्रु का विनाश करे (मित्र की सहायता न ले) क्योंकि मित्र का प्रताप बढ़ जाने पर उससे भी भय प्राप्त होता है और प्रतापहीन शत्रु से भी भय नहीं होता। विजिगीषु राजा को धर्मविजयी होना चाहिये तथा वह लोगों को इस प्रकार अपने वश में करे, जिससे किसी को उद्वेग न हो और सबका उस पर विश्वास बना रहे ॥ २१-२६ ॥ ॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराणमें ‘यात्रामण्डलचिन्ता आदिका कथन’ नामक दो सौ तैंतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३३ ॥ 1. पूर्व नक्षत्र पश्चिम या दक्षिण जाने से परिघ दण्ड का लङ्घन होगा। Parigh Danda Content is available only for registered users. Please login or register Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. Type your email… Subscribe