अग्निपुराण – अध्याय 234
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ नमो भगवते वासुदेवाय ॥
दो सौ चौंतीसवाँ अध्याय
दण्ड, उपेक्षा, माया और साम आदि नीतियों का उपयोग
उपायषड्गुण्यम्

पुष्कर कहते हैं — परशुरामजी ! साम, भेद, दान और दण्ड की चर्चा हो चुकी है और अपने राज्य में दण्ड का प्रयोग कैसे करना चाहिये ? — यह बात भी बतलायी जा चुकी है। अब शत्रु के देश में इन चारों उपायों के उपयोग का प्रकार बतला रहा हूँ ॥ १ ॥

‘गुप्त’ और ‘प्रकाश’ — दो प्रकार का दण्ड कहा गया है। लूटना, गाँव को गर्द में मिला देना, खेती नष्ट कर डालना और आग लगा देना— ये ‘प्रकाश दण्ड’ हैं। जहर देना, चुपके से आग लगाना, नाना प्रकार के मनुष्यों के द्वारा किसी का वध करा देना, सत्पुरुषों पर दोष लगाना और पानी को दूषित करना – ये ‘गुप्त दण्ड’ हैं ॥ २-३ ॥’

भृगुनन्दन ! यह दण्ड का प्रयोग बताया गया; अब ‘उपेक्षा’ की बात सुनिये — जब राजा ऐसा समझे कि युद्ध में मेरा किसी के साथ वैर-विरोध नहीं है, व्यर्थ का लगाव अनर्थ का ही कारण होगा; संधि का परिणाम भी ऐसा ही (अनर्थकारी) होने वाला है; साम का प्रयोग यहाँ किया गया, किंतु लाभ न हुआ; दान की नीति से भी केवल धन का क्षय ही होगा तथा भेद और दण्ड के सम्बन्ध से भी कोई लाभ नहीं है; उस दशा में ‘उपेक्षा’ का आश्रय ले (अर्थात् संधि-विग्रह से अलग हो जाय ) । जब ऐसा जान पड़े कि अमुक व्यक्ति शत्रु हो जाने पर भी मेरी कोई हानि नहीं कर सकता तथा मैं भी इस समय इसका कुछ बिगाड़ नहीं सकता, उस समय ‘उपेक्षा’ कर जाय उस अवस्था में राजा को उचित है कि वह अपने शत्रु को अवज्ञा (उपेक्षा) — से ही उपहत करे ॥ ४-७ ॥

अब मायामय (कपटपूर्ण) उपायों का वर्णन करूँगा। राजा झूठे उत्पातों का प्रदर्शन करके शत्रु को उद्वेग में डाले। शत्रु की छावनी में रहने वाले स्थूल पक्षी को पकड़कर उसकी पूँछ में जलता हुआ लूक बाँध दे; वह लूक बहुत बड़ा होना चाहिये। उसे बाँधकर पक्षी को उड़ा दे और इस प्रकार यह दिखावे कि ‘शत्रु की छावनी पर उल्कापात हो रहा है।’ इसी प्रकार और भी बहुत-से उत्पात दिखाने चाहिये। भाँति-भाँति की माया प्रकट करने वाले मदारियों को भेजकर उनके द्वारा शत्रुओं को उद्विग्न करे। ज्यौतिषी और तपस्वी जाकर शत्रु से कहें कि ‘तुम्हारे नाश का योग आया हुआ है।’ इस तरह पृथ्वी पर विजय पाने की इच्छा रखनेवाले राजा को उचित है कि अनेकों उपायों से शत्रु को भयभीत करे। शत्रुओं पर यह भी प्रकट करा दे कि ‘मुझ पर देवताओं की कृपा है-मुझे उनसे वरदान मिल चुका है।’ युद्ध छिड़ जाय तो अपने सैनिकों से कहे ‘वीरो! निर्भय होकर प्रहार करो, मेरे मित्रों की सेनाएँ आ पहुँचीं; अब शत्रुओं के पाँव उखड़ गये हैं — वे भाग रहे हैं’— यों कहकर गर्जना करे, किलकारियाँ भरे और योद्धाओं से कहे— ‘मेरा शत्रु मारा गया।’ देवताओं के आदेश से वृद्धि को प्राप्त हुआ राजा कवच आदि से सुसज्जित होकर युद्ध में पदार्पण करे ॥ ८- १३१/२

अब ‘इन्द्रजाल’ के विषय में कहता हूँ। राजा समयानुसार इन्द्र की माया का प्रदर्शन करे। शत्रुओं को दिखावे कि ‘मेरी सहायता के लिये देवताओं की चतुरङ्गिणी सेना आ गयी।’ फिर शत्रु सेना पर रक्त की वर्षा करे और माया द्वारा यह प्रयत्न करे कि – महल के ऊपर शत्रुओं के कटे हुए मस्तक दिखायी दें ॥ १४-१५१/२

अब मैं छः गुणों का वर्णन करूँगा; इनमें ‘संधि’ और ‘विग्रह’ प्रधान हैं। संधि, विग्रह, यान, आसन, द्वैधीभाव और संश्रय — ये छः गुण कहे गये हैं। किसी शर्त पर शत्रु के साथ मेल करना ‘संधि’ कहलाता है। युद्ध आदि के द्वारा उसे हानि पहुँचाना ‘विग्रह’ है। विजयाभिलाषी राजा जो शत्रु के ऊपर चढ़ाई करता है, उसी का नाम ‘यात्रा’ अथवा ‘यान’ है। विग्रह छेड़कर अपने ही देश में स्थित रहना ‘आसन’ कहलाता है। (आधी सेना को किले में छिपाकर) आधी सेना के साथ युद्ध की यात्रा करना ‘द्वैधीभाव’ कहा गया है। उदासीन अथवा मध्यम राजा की शरण लेने का नाम ‘संश्रय’ है ॥ १६–१९१/२

जो अपने से हीन न होकर बराबर या अधिक प्रबल हो, उसी के साथ संधि का विचार करना चाहिये। यदि राजा स्वयं बलवान् हो और शत्रु अपने से हीन – निर्बल जान पड़े, तो उसके साथ विग्रह करना ही उचित है। हीनावस्था में भी यदि अपना पार्ष्णिग्राह विशुद्ध स्वभाव का हो, तभी बलिष्ठ राजा का आश्रय लेना चाहिये। यदि युद्ध के लिये यात्रा न करके बैठे रहने पर भी राजा अपने शत्रु के कार्य का नाश कर सके तो पार्ष्णिग्राह का स्वभाव शुद्ध न होने पर भी वह विग्रह ठानकर चुपचाप बैठा रहे अथवा पार्ष्णिग्राह का स्वभाव शुद्ध न होने पर राजा द्वैधीभाव नीति का आश्रय ले । जो निस्संदेह बलवान् राजा के विग्रह का शिकार हो जाय, उसी के लिये संश्रय नीति का अवलम्बन उचित माना गया है। यह ‘संश्रय’ साम आदि सभी गुणों में अधम है। संश्रय के योग्य अवस्था में पड़े हुए राजा यदि युद्ध की यात्रा करें तो वह उनके जन और धन का नाश करनेवाली बतायी गयी है। यदि किसी की शरण लेने से पीछे अधिक लाभ की सम्भावना हो तो राजा संश्रय का अवलम्बन करे। सब प्रकार की शक्ति का नाश हो जाने पर ही दूसरे की शरण लेनी चाहिये ॥ २०-२५ ॥

॥ इस प्रकार आदि आग्नेय महापुराण में ‘षाड्गुण्य का वर्णन’ नामक दो सौ चाँतीसवाँ अध्याय पूरा हुआ ॥ २३४ ॥

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