॥ अथर्ववेदीया श्रीकृष्णोपनिषत् ॥
श्रीकृष्ण परिकररूप में देवी देवताओं का अवतरण, श्रीकृष्ण से उनकी एकरूपता

“हरिः ॐ श्रीमहाविष्णुं सच्चिदानन्दलक्षणं रामचन्द्रं
दृष्ट्वा सर्वाङ्गसुन्दर मुनयो वनवासिनो विस्मिता बभूवः ।
तं होचुर्नोऽवद्यमवतारान्वै गण्यन्ते आलिङ्गामो भवन्तमिति ।
भवान्तरे कृष्णावतारे यूयं गोपिका भूत्वा मामालिङ्गथ
अन्ये येऽवतारास्ते हि गोपा नः स्त्रीश्च नो करु ।
अन्योऽन्यविग्रहं धार्यं तवाङ्गस्पर्शनादिह ।
शश्वत्स्पर्शयितास्माकं गृह्णीमोऽवतारान्वयम् ॥ १ ॥

रुद्रादीनां वचः श्रुत्वा प्रोवाच भगवान्स्वयम् ।
अङ्गगसङ्गं करिष्यामि भवद्वाक्यं करोम्यहम् ॥ २ ॥

मोदितास्ते सुराः सर्वे कृतकृत्याधुना वयम् ।
यो नन्दः परमानन्दो यशोदा मुक्तिगेहिनी ॥ ३ ॥

माया सा त्रिविधा प्रोक्ता सत्त्वराजसतामसी ।
प्रोक्ता च सात्त्विकी रुद्रे भक्ते ब्रह्मणि राजसी ॥ ४ ॥

तामसी दैत्यपक्षेषु माया त्रेधा ह्युदाहृता ।
अजेया वैष्णवी माया जप्येन च सुरा परा ॥ ५ ॥

देवकी ब्रह्मपुत्रा सा या वेदैरुपगीयते ।
निगमो वसुदेवो यो वेदार्थः कृष्णरामयोः ॥ ६ ॥

स्तुवते सततं यस्तु सोऽवतीर्णो महीतले ।
वने वृन्दावने क्रीडन् गोपगोपीसुरैः सह ॥ ७ ॥

गोप्यो गाव ऋचस्तस्य यष्टिका कमलासनः ।
वंशस्तु भगवानुद्रः शृङ्गमिन्द्रः सगोसुरः ॥ ८ ॥

गोकुलं वनवैकुण्ठं तापसास्तत्र ते द्रुमाः ।
लोभक्रोधादयो दैत्याः कलिकाल-तिरस्कृताः ॥ ९ ॥

गोपरूपो हरिः साक्षान्मायाविग्रहधारणः ।
दुर्बोध कुहकं तस्य मायया मोहितं जगत् ॥ १० ॥

दुर्जया सा सुरैः सर्वैर्यष्टिरूपो भवेद् द्विजः ।
रुद्रो येन कृतो वंशस्तस्य माया जगत्कथम् ॥ ११ ॥

बलं ज्ञानं सुराणां वै तेषां ज्ञानं हृतं क्षणात् ।
शेषनागो भवेद्रामः कृष्णो ब्रह्मैव शाश्वतम् ॥ १२ ॥

अष्टावष्टसहस्त्रे द्वे शताधिक्यः स्त्रियस्तथा ।
ऋचोपनिषदस्ता वै ब्रह्मरूपा ऋचः स्त्रियः ॥ १३ ॥

द्वेषश्चाणूरमल्लोऽयं मत्सरो मुष्टिको जयः ।
दर्पः कुवलयापीडो गर्वो रक्षः खगो बकः ॥ १४ ॥

दया सा रोहिणी माता सत्यभामा धरेति वै ।
अघासुरो महाव्याधिः कलिः कंसः से भूपतिः ॥ १५ ॥

शमो मित्रः सुदामा च सत्याकूरोद्धवो दमः ।
यः शङ्खः स स्वयं विष्णुर्लक्ष्मीरूपों व्यवस्थितः ॥ १६ ॥

दुग्धसिन्धौ समुत्पन्नो मेघघोषस्तु संस्मृतः ।
दुग्धोदधिः कृतस्तेन भग्नभाण्डो दधिग्रहे ॥ १७ ॥

क्रीडते बालको भूत्वा पूर्ववत्सुमहोदधौ ।
संहारार्थं च शत्रूणां रक्षणाय च संस्थितः ॥ १८ ॥

कृपार्थे सर्वभूतानां गोप्तारं धर्ममात्मजम् ।
यत्स्रष्टुमीश्वरेणासीत्तच्चक्रं ब्रह्मरूपधृक् ॥ १९ ॥

जयन्तीसंभवो वायुश्चमरो धर्मसंज्ञितः ।
यस्यासौ चलनाभासः खड्गरूपो महेश्वरः ॥ २० ॥

कश्यपोलुखलः ख्यातो रज्जुर्माताऽदितिस्तथा ।
चक्रं शङ्ख च संसिद्धिं बिन्दं च सर्वमूर्धनि ॥ २१ ॥

यावन्ति देवरूपाणि वदन्ति विबुधा जनाः ।
नमन्ति वरूपेभ्य एवमादि न संशयः ॥ २२ ॥

गदा च कालिका साक्षात्सर्वशत्रुनिबर्हिणी ।
धनुः शार्ङ्ग स्वमाया च शरत्कालः सुभोजनः ॥ २३ ॥

अब्जकाण्डं जगद्वीजं धृतं पाणौ स्वलीलया ।
गरुडो वटभाण्डीरः सुदामा नारदो मुनिः ॥ २४ ॥

वृन्दा भक्तिः क्रिया बुद्धिः सर्वजन्तुप्रकाशिनी ।
तस्मान्न भिन्नं नाभिन्नमाभिर्भिन्नो न वै विभुः ॥
भूमावुत्तारितं सर्वं वैकुण्ठं स्वर्गवासिनाम् ॥ २५ ॥

सर्वतीर्थफलं लभते य एवं वेद ।
देहबन्धाद्विमुच्यते इत्यपनिषत् ॥
ॐ भद्रं कर्णेभिरिति शान्तिः ॥

॥ हरिः ॐ तत्सत् ॥
॥ इति अथर्ववेदीया श्रीकृष्णोपनिषत् ॥

सच्चिदानन्दस्वरूप, सर्वांगसुन्दर भगवान् महाविष्णु को श्रीरामचन्द्रजी के रूप में [वन में भ्रमण करते हुए देख] वनवासी मुनिगण विस्मित हो गये । वे उनसे बोले [हे प्रभो!] यद्यपि हम जन्म लेना उचित नहीं समझते तथापि हमें आपके आलिंगन की उत्कण्ठा है । [तब श्रीराम ने कहा—] आप लोग अन्य जन्म में मेरे कृष्णावतार में गोपिका होकर मेरा आलिंगन प्राप्त करोगे । [ऐसे ही श्रीकृष्णावतार से पूर्व जब देवताओं से भगवान् ने उन्हें पृथ्वी पर अवतीर्ण होने के लिये कहा, तब] वे [बोले —’भगवन् ! हम देवता होकर पृथ्वी पर जन्म लें, यह हमारे लिये बड़ी निन्दा की बात है; परंतु आपकी आज्ञा है, इसलिये हमें वहाँ जन्म लेना ही पड़ेगा । फिर भी इतनी प्रार्थना अवश्य है कि] हमें गोप और स्त्री के रूप में वहाँ उत्पन्न न करें । जिसे आपके अंग-स्पर्श से वंचित रहना पड़ता हो; ऐसा मनुष्य बनकर हममें से कोई भी शरीर धारण नहीं करेगा; हमें सदा अपने अंगों के स्पर्श का अवसर दें, तभी हम अवतार ग्रहण करेंगे ।’ रुद्र आदि देवताओं का यह वचन सुनकर स्वयं भगवान् ने कहा —’देवताओ ! मैं तुम्हें अंग-स्पर्श का अवसर दूँगा, तुम्हारे वचनों को अवश्य पूर्ण करूँगा’ ।। १-२ ।।

भगवान् का यह आश्वासन पाकर वे सब देवता बड़े प्रसन्न हुए और बोले — ‘अब हम कृतार्थ हो गये । भगवान् का परमानन्दमय अंश ही नन्दरायजी के रूप में प्रकट हुआ । नन्दरानी यशोदा के रूप में साक्षात् मुक्तिदेवी अवतीर्ण हुई । सुप्रसिद्ध माया सात्त्विकी, राजसी और तामसी — यों तीन प्रकार की बतायी गयी है । भगवान् के भक्त श्रीरुद्रदेव में सात्त्विकी माया है. ब्रह्माजी में राजसी माया है और दैत्यवर्ग में तामसी माया का प्रादुर्भाव हुआ है । इस प्रकार यह तीन रूपों में स्थित है । इससे भिन्न जो वैष्णवी माया है, जिसको जीतना किसी के लिये भी सम्भव नहीं है । हे देवताओ ! [सृष्टि के आरम्भकाल में ही उत्पन्न हुई यह माया [भगवान् की शरण के अतिरिक्त] जप आदि साधनों से भी नहीं जीती जा सकती । वह ब्रह्मविद्यामयी वैष्णवी माया ही देवकीरूप में प्रकट हुई है । निगम (वेद) ही वसुदेव हैं, जो सदा मुझ नारायण के स्वरूप का स्तवन करते हैं । वेदों का तात्पर्यभूत ब्रह्म ही श्रीबलराम और श्रीकृष्ण के रूप में इस महीतल पर अवतीर्ण हुआ । वह मूर्तिमान् वेदार्थ ही वृन्दावन में गोप-गोपियों के साथ क्रीडा करता है । ऋचाएँ उस श्रीकृष्ण की गौएँ और गोपियाँ हैं । ब्रह्मा लकुटीरूप धारण किये हुए हैं और रुद्र वंश अर्थात् वंशी बने हैं । देवराज इन्द्र सींग (वाद्यविशेष) बने हैं । गोकुल नामक वन के रूप में साक्षात् वैकुण्ठ है । वहाँ द्रुमों के रुप में तपस्वी महात्मा हैं । लोभ-क्रोधादि ने दैत्यों का रूप धारण किया है, जो कलियुग में केवल भगवान् का नाम लेनेमात्र से तिरस्कृत (नष्ट) हो जाते हैं ॥ ३-९ ॥

गोपरूप में साक्षात् भगवान् श्रीहरि ही लीला-विग्रह धारण किये हुए हैं । यह जगत् माया से मोहित हैं, अतः उसके लिये भगवान् की लीला का रहस्य समझना बहुत कठिन है । वह माया समस्त देवताओं के लिये भी दुर्जय है । जिनकी माया के प्रभाव से ब्रह्माजी लकुटी बने हुए हैं और जिन्होंने भगवान् शिव को बाँसुरी बना रखा हैं, उनकी माया को साधारण जगत् कैसे जान सकता है ? निश्चय ही देवताओं का बल ज्ञान है । परंतु भगवान् की माया ने उसे भी क्षणभर में हर लिया । श्रीशेषनाग श्रीबलराम बने, और सनातन ब्रह्म ही श्रीकृष्ण बने । सोलह हजार एक सौ आठ — रुक्मिणी आदि भगवान् की रानियाँ वेदों को ऋचाएँ तथा उपनिषद हैं । इनके सिवा जो वेदों की ब्रह्मरूपा ऋचाएँ हैं, वे गोपियों के रूप में अवतीर्ण हुई हैं । द्वेष चाणूर मल्ल हैं, मत्सर दुर्जय मुष्टिक है, दर्प ही कुवलयापीड हाथी है । गर्व ही आकाशचारी बकासुर राक्षस है । रोहिणी माता के रूप में दया का अवतार हुआ है, पृथ्वी माता ही सत्यभामा बनी हैं । महाव्याधि ही अघासुर है और साक्षात् कलि राजा कंस बना है । श्रीकृष्णा के मित्र सुदामा शम हैं, अक्रूर सत्य हैं और उद्धव दम हैं । जो शंख है, वह स्वयं विष्णु हैं तथा लक्ष्मी का भाई होने से लक्ष्मीरूप भी है; वह क्षीरसमुद्र से उत्पन्न हुआ है, मेघ के समान उसका गम्भीर घोष हैं । दूध-दही के भण्डार में जो भगवान् ने मटके फोड़े और उनसे जो दूध-दही का प्रवाह हुआ, उसके रूप में उन्होंने साक्षात् क्षीरसागर को ही प्रकट किया है और उस महासागर में वे बालक बने हुए पूर्ववत् क्रीड़ा कर रहे हैं । शत्रुओं के संहार तथा साधुजनों की रक्षा में वे सम्यक् रूप से स्थित हैं । समस्त प्राणियों पर अहैतुकी कृपा करने के लिये तथा अपने आत्मजरूप धर्म की रक्षा करने के लिये श्रीकृष्ण प्रकट हुए हैं, यों जानना चाहिये । भगवान् शिव ने श्रीहरि को अर्पित करने के लिये जिस चक्र को प्रकट किया था, भगवान् के हाथ में सुशोभित वह चक्र ब्रह्मस्वरूप ही है ॥ १०-१९ ॥

धर्म ने चँवर का रूप ग्रहण किया है, वायुदेव ही वैजयन्ती माला के रूप में प्रकट हुए हैं, महेश्वर ने अग्नि के समान चमचमाते हुए खड्ग का रूप धारण किया हैं । कश्यपमुनि नन्दजी के घर में ऊखल बने हैं और माता अदिति रज्जु के रूप में अवतरित हुई हैं । शंख, चक्र आदि जिनके आयुध हैं. सभी प्राणियों के मूर्धादेश में विद्यमान संसिद्धि अर्थात् जो परमसिद्धि है, उससे संश्लिष्ट जो बिन्दु अर्थात् तुरीयतत्त्व है. उसे ही विद्वानों ने सर्वात्मा कृष्णतत्त्व माना है । ज्ञानी महात्मा देवताओं के जितने स्वरूप बतलाते हैं तथा जिन-जिनको लोग देवरूप समझकर नमस्कार करते हैं, [वे सभी देवता भगवान् श्रीकृष्ण के ही आश्रित हैं] इसमें संशय नहीं है । भगवान् के हाथ की गदा सारे शत्रुओं का नाश करनेवाली साक्षात् कालिका है । शार्ङ्गधनुष का रूप स्वयं वैष्णवी माया ने धारण किया है और प्राणसंहारक काल ही उनका बाण है । जगत् के बीजरूप कमल को भगवान् ने हाथ में लीलापूर्वक धारण किया है । गरुड ने भाण्डीरवट का रूप ग्रहण किया है, और नारदमुनि सुदामा नाम के सखा बने हैं । भक्ति ने वृन्दा का रूप धारण किया है । सब जीवों को प्रकाश देनेवाली जो बुद्धि है, वही भगवान् की क्रिया शक्ति है । अतः ये गोप-गोपी आदि सभी भगवान् से भिन्न नहीं हैं और विभु — परमात्मा श्रीकृष्ण भी इनसे भिन्न नहीं हैं । उन्होंने (श्रीकृष्ण ने) स्वर्गवासियों को तथा सारे वैकुण्ठधाम को भूतल पर उतार लिया है ॥ २०-२५ ॥

जो इस प्रकार जानता है, वह सब तीर्थों का फल पाता है और देह के बन्धन से मुक्त हो जाता है — यह उपनिषद् है ।
॥ इस प्रकार अथर्ववेदीय श्रीकृष्णोपनिषद् समाप्त हुआ ॥

विशेषः- इसके अतिरिक्त निम्नानुसार अतिरिक्त पाठ भी मिलता है —

॥ अथ द्वितीयः खण्डः ॥
शेषो ह वै वासुदेवात् संकर्षणो नाम जीव आसीत् ।
सोऽकामयत प्रजाः सृजेयेति ।
ततः प्रद्युम्नसंज्ञक आसीत् ।
तस्मात् अहंकारनामानिरुद्धो हिरण्यगर्भोऽजायत ।
तस्मात् दश प्रजापतयो मरीच्याद्याः
स्थाणुदक्षकर्दमप्रियव्रतोत्तनपादवायवो व्यजायन्त ।
तेभ्योः सर्वाणि भूतानि च ।
तस्माच्छेषादेव सर्वाणि च भूतानि समुत्पद्यन्ते ।
तस्मिन्नेव प्रलीयन्ते ।
स एव बहुधा जायमानः सर्वान् परिपाति ।
स एव काद्रवेयो व्याकरणज्योतिषादिशास्त्रणि निर्मिमाणो
बहुभिर्मुमुक्षुभिरुपास्यमानोऽखिलां भुवमेकस्मिन्
शीर्ष्ण सिद्धार्थवदवध्रियमाणः सर्वैर्मुनिभिः
सम्प्रार्थ्यमानः सहस्रशिखराणि मेरोः
शिरोभिरावार्यमाणो महावाय्वहंकारं निराचकार ।
स एव भगवान् भगवन्तं बहुधा विप्रीयमाणः अखिलेन स्वेन
रुपेण युगे युगे तेनैव जयमानः स एव सौमित्रिरैक्ष्वाकः
सर्वाणि धानुषशास्त्राणि सर्वाण्यस्त्रशास्त्राणि बहुधा
विप्रीयमानो रक्षांसि सर्वाणि विनिघ्नंश्चातुर्वर्ण्यधर्मान्
प्रवर्तयामास ।
स एव भगवान् युगसंधिकाले शारदाभ्रसंनिकाशो
रौहिनेयो वासुदेवः सर्वाणि गदाद्यायुधशास्त्राणि
व्याचक्षाणो नैकान् राजन्यमण्डलान्निराचिकीर्षुः
भुभारमखिलं निचखान ।
स एव भगवान् युगे तुरियेऽपि ब्रह्मकुले जायमानः सर्व
उपनिषदः उद्दिधीर्षुः सर्वाणि धर्मशास्त्राणि
विस्तारयिष्णुः सर्वानपि जनान् संतारयिष्णुः
सर्वानपि वैष्णवान् धर्मान् विजृम्भयन्
सर्वानपि पाषण्डान् निचखान ।
स एष जगदन्तर्यामी ।
स एष सर्वात्मकः ।
स एव मुमुक्षुभिर्ध्येयः ।
स एव मोक्षप्रदः ।
एतं स्मृत्वा सर्वेभ्यः पापेभ्यो मुच्यते ।
तन्नाम संकीर्तयन् विष्णुसायुज्यं गच्छति ।
तदेतद् दिवा अधीयानः रात्रिकृतं पापं नाशयति ।
नक्तमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति ।
तदेतद्वेदानां रहस्यं तदेतदुपनिषदां रहस्यम्
एतदधीयानः सर्वत्रतुफलं लभते
शान्तिमेति मनःशुद्धिमेति सर्वतीर्थफलं लभते
य एवं वेद देहबन्धाद्विमुच्यते इत्युपनिषत् ॥

॥ इति द्वितीयः खण्डः ॥
हरिः ॐ तत्सत्

ॐ भद्रं कर्णेभिः शृणुयाम देवा भद्रं पश्येमाक्षभिर्यजत्राः ।
स्थिरैरङ्गैस्तुष्टुवांसस्तनूभिर्व्यशेम देवहितं यदायुः ।
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्योऽरिष्टनेमिः स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।
ॐ शान्तिः शान्तिः शान्तिः ।
॥ इति कृष्णोपनिषत्समाप्ता ॥
॥ भारतीरमणमुख्यप्राणंतर्गत श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

 

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