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शिवमहापुराण – द्वितीय रुद्रसंहिता [द्वितीय-सतीखण्ड] – अध्याय 26
श्री गणेशाय नमः
श्री साम्बसदाशिवाय नमः
छब्बीसवाँ अध्याय
सती के उपाख्यान में शिव के साथ दक्ष का विरोध वर्णन

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! पूर्वकाल में प्रयाग में एकत्रित हुए समस्त मुनियों तथा महात्माओं का विधि-विधान से एक बहुत बड़ा यज्ञ हुआ ॥ १ ॥ उस यज्ञ में सिद्धगण, सनक आदि, देवर्षि, प्रजापति, देवता तथा ब्रह्म का साक्षात्कार करनेवाले ज्ञानी आये ॥ २ ॥ मैं भी मूर्तिमान् महातेजस्वी निगमों और आगमों से युक्त हो सपरिवार वहाँ गया था ॥ ३ ॥ अनेक प्रकार के उत्सवों के साथ वहाँ उनका विचित्र समाज जुटा था । वहाँ अनेक शास्त्रों से सम्बन्धित ज्ञानचर्चा होने लगी ॥ ४ ॥

हे मुने ! उसी समय सती और पार्षदों के साथ त्रिलोकहितकारी, सृष्टिकर्ता एवं सबके स्वामी भगवान् रुद्र भी वहाँ पहुँचे ॥ ५ ॥ शिव को देखकर सम्पूर्ण देवताओं, सिद्धों, मुनियों और मैंने भक्तिभाव से उन्हें प्रणाम किया और उनकी स्तुति की ॥ ६ ॥ तत्पश्चात् शिवजी की आज्ञा पाकर सब लोग प्रसन्नतापूर्वक यथास्थान बैठ गये । भगवान् के दर्शन से सन्तुष्ट होकर सब लोग अपने भाग्य की सराहना करने लगे ॥ ७ ॥ उसी समय प्रजापतियों के स्वामी महातेजस्वी प्रभु दक्षप्रजापति घूमते हुए प्रसन्नतापूर्वक वहाँ अकस्मात् आये । वे मुझे प्रणामकर मेरी आज्ञा से वहाँ बैठ गये । वे दक्ष ब्रह्माण्ड के अधिपति और सबके मान्य थे, परंतु अहंकारी तथा तत्त्वज्ञान से शून्य थे ॥ ८-९ ॥ उस समय समस्त देवर्षियों ने नतमस्तक हो स्तुति और प्रणाम द्वारा दोनों हाथ जोड़कर उत्तम तेजयुक्त दक्ष का आदर-सत्कार किया ॥ १० ॥ किंतु नाना प्रकार के लीलाविहार करनेवाले सबके स्वामी और परम रक्षक महेश्वर ने उस समय दक्ष को प्रणाम नहीं किया । वे अपने आसन पर बैठे ही रह गये ॥ ११ ॥ महादेवजी को वहाँ मस्तक न झुकाते देख मेरे पुत्र दक्ष मन-ही-मन अप्रसन्न हो गये । दक्ष प्रजापति रुद्र पर कुपित हो गये ॥ १२ ॥ ज्ञानशून्य तथा महान् अहंकारी दक्ष महाप्रभु रुद्र को क्रूर दृष्टि से देखकर सबको सुनाते हुए उच्च स्वर में कहने लगे — ॥ १३ ॥

दक्ष बोले — ये सब देवता, असुर, श्रेष्ठ ब्राह्मण तथा ऋषि मुझे विशेष रूप से मस्तक झुकाते हैं, परंतु वह जो प्रेतों और पिशाचों से घिरा हुआ महामनस्वी है, वह दुष्ट मनुष्य के समान कैसे हो गया ? ॥ १४ ॥ श्मशान में निवास करनेवाला निर्लज्ज मुझे इस समय प्रणाम क्यों नहीं करता ? इसके [वेदोक्त] कर्म लुप्त हो गये हैं, यह भूतों और पिशाचों से सेवित हो मतवाला बना रहता है, शास्त्रीय विधि से रहित है तथा नीतिमार्ग को सदा कलंकित करता है ॥ १५ ॥ इसके साथ रहनेवाले या इसका अनुसरण करनेवाले लोग पाखण्डी, दुष्ट, पापाचारी तथा ब्राह्मण को देखकर उद्दण्डतापूर्वक उसकी निन्दा करनेवाले होते हैं । यह स्वयं ही स्त्री में आसक्त रहनेवाला तथा रतिकर्म में ही दक्ष है । अतः मैं इसे शाप देने के लिये उद्यत हूँ ॥ १६ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार कहकर वे महादुष्ट दक्ष कुपित होकर रुद्र के प्रति कहने लगे । हे ब्राह्मणो एवं देवताओ ! यह रुद्र मेरे तथा आप सभी के द्वारा वध्य है ॥ १७ ॥

दक्ष बोले — मैं इस रुद्र को यज्ञ से बहिष्कृत करता हूँ । यह चारों वर्णों से बाहर, श्मशान में निवास करनेवाला तथा उत्तम कुल और जन्म से हीन है । इसलिये यह देवताओं के साथ यज्ञ में भाग न पाये ॥ १८ ॥

ब्रह्माजी बोले — हे नारद ! दक्ष की कही हुई यह बात सुनकर भृगु आदि बहुत से महर्षि रुद्रदेव को दुष्ट मानकर देवताओं के साथ उनकी निन्दा करने लगे ॥ १९ ॥ दक्ष की बात सुनकर गणेश्वर नन्दी को बड़ा रोष हुआ । उनके नेत्र चंचल हो उठे और वे दक्ष को शाप देने के विचार से तुरंत इस प्रकार कहने लगे — ॥ २० ॥

नन्दीश्वर बोले — हे शठ ! महामूढ़ ! हे दुष्टबुद्धि दक्ष ! तुमने मेरे स्वामी महेश्वर को यज्ञ से बहिष्कृत क्यों कर दिया ? जिनके स्मरणमात्र से यज्ञ सफल और तीर्थ पवित्र हो जाते हैं, उन्हीं महादेवजी को तुमने शाप कैसे दे दिया ? ॥ २१-२२ ॥ हे दुर्बुद्धि दक्ष ! तुमने ब्राह्मणजाति की चपलता से प्रेरित हो इन निर्दोष महाप्रभु रुद्रदेव को व्यर्थ ही शाप दिया और इनका उपहास किया है । हे ब्राह्मणाधम ! जिन्होंने इस जगत् की सृष्टि की है, जो इसका पालन करते हैं और अन्त में जिनके द्वारा इसका संहार होता है, उन्हीं महेश्वर रुद्र को तूने शाप कैसे दे दिया ? ॥ २३-२४ ॥
नन्दी के इस प्रकार फटकारने पर प्रजापति दक्ष रुष्ट हो गये और नन्दी को शाप दे दिया ॥ २५ ॥

दक्ष बोले — हे रुद्रगणो ! तुमलोग वेद से बहिष्कृत हो जाओ, वैदिक मार्ग से भ्रष्ट हो जाओ, महर्षियों द्वारा परित्यक्त हो जाओ, पाखण्डवाद में लग जाओ, शिष्टाचार से दूर रहो, सिर पर जटा और शरीर में भस्म एवं हड्डियों के आभूषण धारण करो और मद्यपान में आसक्त रहो ॥ २६-२७ ॥

ब्रह्माजी बोले — जब दक्ष ने शिवगणों को इस प्रकार शाप दे दिया, तब उस शाप को सुनकर शिवभक्त नन्दी अत्यन्त रोष में भर गये ॥ २८ ॥ शिलाद के पुत्र, शिवप्रिय, तेजस्वी नन्दी गर्व से भरे हुए महादुष्ट दक्ष को तत्काल इस प्रकार उत्तर देने लगे — ॥ २९ ॥

नन्दीश्वर बोले — ‘हे शठ ! हे दुर्बुद्धि दक्ष ! ब्रह्मचापल्य के कारण शिवतत्त्व को न जानते हुए तुमने शिव के पार्षदों को व्यर्थ ही शाप दिया है ॥ ३० ॥ हे अहंकारी दक्ष ! दूषित चित्तवाले मूढ़ भृगु आदि ने भी ब्राह्मणत्व के अभिमान में आकर महाप्रभु महेश्वर का उपहास किया है । अतः यहाँ जो भगवान् रुद्र से विमुख तुम-जैसे खल ब्राह्मण विद्यमान हैं, उनको मैं रुद्रतेज के प्रभाव से शाप दे रहा हूँ ॥ ३१-३२ ॥ तुम-जैसे ब्राह्मण [कर्मफल के प्रशंसक] वेदवाद में फँसकर वेद के तत्त्वज्ञान से शून्य हो जायँ, वे ब्राह्मण सदा भोगों में तन्मय रहकर स्वर्ग को ही सबसे बड़ा पुरुषार्थ मानते हुए स्वर्ग से बढ़कर दूसरी कोई वस्तु नहीं है — ऐसा कहते रहें तथा क्रोध, लोभ एवं मद से युक्त, निर्लज्ज और भिक्षुक बने रहें ॥ ३३-३४ ॥ [कितने ही] ब्राह्मण वेदमार्ग को सामने रखकर शूद्रों का यज्ञ करानेवाले और दरिद्र होंगे । वे सदा दान लेने में लगे रहेंगे । दूषित दान ग्रहण करने के कारण वे सबके सब नरकगामी होंगे । हे दक्ष ! उनमें से कुछ ब्राह्मण तो ब्रह्मराक्षस होंगे ॥ ३५-३६ ॥ यह अजन्मा प्रजापति दक्ष, जो परमेश्वर शिव को सामान्य देवता समझकर उनसे द्रोह करता है, यह दुष्ट बुद्धिवाला तत्त्वज्ञान से विमुख हो जायगा ॥ ३७ ॥

यह विषयसुख की इच्छा से कामनारूपी कपट से युक्त धर्मवाले गृहस्थाश्रम में आसक्त रहकर कर्मकाण्ड का तथा कर्मफल की प्रशंसा करनेवाले सनातन वेदवाद का ही विस्तार करता रहेगा । दक्ष का आनन्ददायी मुख नष्ट हो जाय, यह आत्मज्ञान को भूलकर पशु के समान हो जाय और कर्मभ्रष्ट तथा अनीतिपरायण होकर शीघ्र ही बकरे के मुख से युक्त हो जाय ।’ इस प्रकार कुपित हुए नन्दी ने जब ब्राह्मणों को शाप दिया और दक्ष ने महादेवजी को शाप दिया, तब वहाँ महान् हाहाकार मच गया ॥ ३८–४०॥ [हे नारद!] दक्ष का वह शाप सुनकर वेदों के प्रतिपादक तथा शिवतत्त्व को जाननेवाले मैंने उस दक्ष की तथा भृगु आदि ब्राह्मणों की बारंबार निन्दा की ॥ ४१ ॥

सदाशिव महादेवजी भी नन्दी की वह बात सुनकर हँसते हुए और समझाते हुए मधुर वचन कहने लगे — ॥ ४२ ॥

सदाशिव बोले — हे नन्दिन् ! [मेरी बात] सुनो । हे महाप्राज्ञ ! तुम्हें क्रोध नहीं करना चाहिये । तुमने भ्रम से यह समझकर कि मुझे शाप दिया गया है, व्यर्थ में ही ब्राह्मणकुल को शाप दे डाला ॥ ४३ ॥ वेद मन्त्राक्षरमय और सूक्तमय हैं । [उसके प्रत्येक] सूक्त में समस्त देहधारियों की आत्मा प्रतिष्ठित है । उन मन्त्रों के ज्ञाता नित्य आत्मवेत्ता हैं, इसलिये तुम रोषवश उन्हें शाप न दो । किसी कुत्सित बुद्धिवाले को भी कभी वेदों को शाप नहीं देना चाहिये ॥ ४४-४५ ॥ इस समय मुझे शाप नहीं मिला है, इस बात को तुम्हें ठीक-ठीक समझना चाहिये । हे महामते ! तुम तो सनकादि को भी तत्त्वज्ञान का उपदेश देनेवाले हो, अतः शान्त हो जाओ । मैं ही यज्ञ हूँ, मैं ही यज्ञकर्म हूँ, यज्ञों के अंग भी मैं ही हूँ, यज्ञ की आत्मा मैं ही हूँ, यज्ञपरायण यजमान मैं ही हूँ और यज्ञ से बहिष्कृत भी मैं ही हूँ ॥ ४६-४७ ॥ यज्ञ कौन है, तुम कौन हो और ये कौन हैं ? वास्तव में सब मैं ही हूँ । तुम अपनी बुद्धि से इस बात का विचार करो । तुमने ब्राह्मणों को व्यर्थ ही शाप दिया है । हे महामते ! हे नन्दिन् ! तुम तत्त्वज्ञान के द्वारा प्रपंच-रचना को दूर करके विवेक-परायण, स्वस्थ तथा क्रोध आदि से रहित हो जाओ ॥ ४८-४९ ॥

ब्रह्माजी बोले — इस प्रकार भगवान् शिव द्वारा समझाये जाने पर वे नन्दी परम ज्ञान से युक्त और क्रोधरहित होकर शान्त हो गये । वे भगवान् शिव भी अपने प्राणप्रिय गण नन्दी को बोध प्रदान करके गणोंसहित वहाँ से प्रसन्नतापूर्वक अपने स्थान को चले गये ॥ ५०-५१ ॥ इधर, रोष से युक्त दक्ष भी चित्त में शिव के प्रति द्रोहयुक्त होकर ब्राह्मणों के साथ अपने स्थान को लौट गये ॥ ५२ ॥ उस समय रुद्र को शाप दिये जाने की घटना का स्मरण करके दक्ष सदा महान् रोष से भरे रहते थे । मूर्ख बुद्धिवाले वे शिव के प्रति श्रद्धा को त्यागकर शिवपूजकों की निन्दा करने लगे । हे तात ! इस प्रकार परमात्मा शम्भु के साथ [दुर्व्यवहार करके] दक्ष ने अपनी जिस दुष्ट बुद्धि का परिचय दिया था, वह मैंने आपको बता दिया, अब उनकी और बड़ी दुर्बुद्धि के विषय में सुनिये, मैं बता रहा हूँ ॥ ५३-५४ ॥

॥ इस प्रकार श्रीशिवमहापुराण के अन्तर्गत द्वितीय रुद्रसंहिता के द्वितीय सतीखण्ड में सती के उपाख्यान में शिव के साथ दक्ष का विरोधवर्णन नामक छब्बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २६ ॥

 

 

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