March 17, 2025 | aspundir | Leave a comment इन्द्रसूक्त / अप्रतिरथसूक्त इस सूक्त के ऋषि अप्रतिरथ, देवता इन्द्र तथा आर्षी त्रिष्टुप् छन्द है। इसकी ‘अप्रतिरथसूक्त’ के नाम से भी प्रसिद्धि है। इन्द्र वेद के प्रमुख देवता हैं। इन्द्र के विषय में अन्य देवताओं की अपेक्षा अधिक कथाएँ प्रचलित हैं। इनका समस्त स्वरूप स्वर्णिम तथा अरुण है। ये सर्वाधिक सुन्दर रूपों को धारण करते हैं तथा सूर्य की अरुण आभा को धारण करते हैं, अतः इन्हें ‘हिरण्य’ कहा जाता है। आशुः शिशानो वृषभो न भीमो घनाघनः क्षोभणश्चर्षणीनाम् । संक्रन्दनोऽनिमिष एकवीरः शतᳬसेना अजयत् साकमिन्द्रः ॥ १ ॥ संक्रन्दनेनानिमिषेण जिष्णुना युत्कारेण दुश्च्यवनेन धृष्णुना । तदिन्द्रेण जयत तत्सहध्वं युधो नर इषुहस्तेन वृष्णा ॥ २ ॥ स इषुहस्तैः स निषङ्गिभिर्वशी सᳬ स्रष्टा स युध इन्द्रो गणेन । सᳬ सृष्टजित्सोमपा बाहुशर्युग्रधन्वा प्रतिहिताभिरस्ता ॥ ३ ॥ बृहस्पते परि दीया रथेन रक्षोऽहामित्राँ२ अपबाधमानः । प्रभञ्जन्सेनाः प्रमृणो युधा जयन्नस्माकमेध्यविता रथानाम् ॥ ४ ॥ बलविज्ञाय: स्थविरः प्रवीरः सहस्वान् वाजी सहमान उग्रः । अभिवीरो अभित्त्वा सहोजा जैत्रमिन्द्र रथमा तिष्ठ गोवित् ॥ ५ ॥ गोत्रभिदं गोविदं वज्रबाहुं जयन्तमज्म प्रमृणन्तमोजसा । इम सजाता अनु वीरयध्वमिन्द्रᳬ सखायो अनु सᳬ रभध्वम् ॥ ६ ॥ अभि गोत्राणि सहसा गाहमानोऽदयो वीरः शतमन्युरिन्द्रः । दुश्च्यवनः पृतनाषाडयुध्योऽस्माकᳬ सेना अवतु प्र युत्सु ॥ ७ ॥ इन्द्र आसां नेता बृहस्पतिर्दक्षिणा यज्ञः पुर एतु सोमः । देवसेनानामभिभञ्जतीनां जयन्तीनां मरुतो यन्त्वग्रम् ॥ ८ ॥ इन्द्रस्य वृष्णो वरुणस्य राज्ञ आदित्यानां मरुताᳬ शर्ध उग्रम् । महामनसां भुवनच्यवानां घोषो देवानां जयतामुदस्थात् ॥ ९ ॥ उद्धर्षय मघवन्नायुधान्युत्सत्वनां मामकानां मनाᳬसि । उद्वृत्रहन् वाजिनां वाजिनान्युद्रथानां जयतां यन्तु घोषाः ॥ १० ॥ अस्माकमिन्द्रः समृतेषु ध्वजेष्वस्माकं या इषवस्ता जयन्तु । अस्माकं वीरा उत्तरे भवन्त्वस्माँर२ देवा अवता हवेषु ॥ ११ ॥ अमीषां चित्तं प्रतिलोभयन्ती गृहाणाङ्गान्यप्वे परेहि । अभि प्रेहि निर्दह हृत्सु शोकैरन्धेनामित्रास्तमसा सचन्ताम् ॥ १२ ॥ अवसृष्टा परा पत शरव्ये ब्रह्मसᳬशिते । गच्छामित्रान् प्र पद्यस्व मामीषां कं चनो च्छिषः ॥ १३ ॥ प्रेता जयता नर इन्द्रो वः शर्म यच्छतु । उग्रा वः सन्तु बाहवोऽनाधृष्या यथाऽसथ ॥ १४ ॥ असौ या सेना मरुतः परेषामभ्यैति न ओजसा स्पर्धमाना । तां गूहत तमसाऽपव्रतेन यथाऽमी अन्यो अन्यं न जानन् ॥ १५ ॥ यत्र बाणाः सम्पतन्ति कुमारा विशिखा इव | तन्न इन्द्रो बृहस्पतिरदितिः शर्म यच्छतु विश्वाहा शर्म यच्छतु ॥ १६ ॥ मर्माणि ते वर्मणा छादयामि सोमस्त्वा राजाऽमृतेनानुवस्ताम् । उरोर्वरीयो वरुणस्ते कृणोतु जयन्तं त्वाऽनु देवा मदन्तु ॥ १७ ॥ [ शु० यजु० १७ । १७-३३] भावार्थः- वेगगामी, वज्रतीक्ष्णकारी, वर्षण की उपमा वाले, भयंकर, मेघतुल्य वृष्टि करने वाले, मानवों के मोक्षकर्ता, निरन्तर गर्जनायुक्त, अपलक, अद्वितीय वीर इन्द्र ने शत्रुओं की सैकड़ों सेनाओं को एक साथ जीत लिया है ॥ १ ॥ हे योद्धाओ ! गर्जनकारी, अपलक, जयशील, युद्धरत, अपराजेय, प्रतापी, हाथ में बाणसहित, कामनाओं की वृष्टि करने वाले इन्द्र की कृपासे शत्रुको जीतो और उसका संहार करो ॥ २ ॥ वह संयमी, युद्धार्थ उपस्थितों को जीतने वाला, शत्रुसमूहों से युद्ध करने वाला, सोमपान करने वाला, बाहुबल से युक्त, कठोर धनुष वाला इन्द्र बाणधारी एवं तूणीरधारी शत्रुओं से भिड़ जाता है और अपने फेंके गये बाणों से उन्हें परास्त करता है ॥ ३ ॥ हे व्याकरणकर्ता ! तुम रथ से संचरण करने वाले, राक्षस-विनाशक, शत्रुपीडाकारक, उनकी सेनाओं के विध्वंसकर्ता एवं युद्ध द्वारा हिंसाकारियों के जेता हो। हमारे रथों के रक्षक बनो ॥ ४ ॥ हे दूसरों के बल को जानने वाले, पुरातन शासक, शूर, साहसी, अन्नवान्, उग्र, वीरों से युक्त, परिचरों से युक्त, सहज ओजस्वी, स्तुति के ज्ञाता एवं शत्रुओं के तिरस्कर्ता इन्द्र ! तुम अपने जयशील रथ पर आरूढ हो जाओ ॥ ५ ॥ हे तुल्यजन्मा इन्द्रसखा देवो! इस असुर संहारक, वेदज्ञ, वज्रबाहु, रणजेता, बलपूर्वक शत्रु संहर्ता इन्द्र के अनुरूप ही तुम लोग भी शौर्य दिखाओ और इसकी ओर से तुम भी आक्रमण करो ॥ ६ ॥ शत्रुओं को निर्दयतापूर्वक, विविध क्रोधयुक्त हो सहसा मर्दित करने वाला और अडिग होकर उनके आक्रमणों को झेलने वाला वीर इन्द्र हमारी सेना की सर्वथा रक्षा करे ॥ ७ ॥ शत्रुओंका मानमर्दन करनेवाली, विजयोन्मुखी – इन देवसेनाओंका नेता वेदज्ञ इन्द्र है। विष्णु इसके दाहिने ओरसे आयें, सोम सामनेसे आयें तथा गणदेवता आगे-आगे चलें ॥ ८ ॥ वर्षणशील इन्द्रकी, राजा वरुणकी, महामनस्वी आदित्यों और मरुतोंकी तथा भुवनोंको दबानेवाले विजयी देवताओंकी सेनाका उग्र घोष हुआ ॥ ९ ॥ हे इन्द्र ! आयुधोंको उठाकर चमका दो। हमारे जीवोंके मन प्रसन्न कर दो। हे इन्द्र ! घोड़ोंकी गति तीव्र कर दो और जयशील रथोंके घोष तुमुल हों ॥ १० ॥ हमारी ध्वजाओं के शत्रु- ध्वजाओं से जा मिलनेपर इन्द्र हमारी रक्षा करें। हमारे बाण विजयी हों। हमारे वीर शत्रुवीरोंसे उत्कृष्ट हों तथा युद्धोंमें देवता हमारी रक्षा करें ॥ ११ ॥ हे व्याधिदेवि ! इन शत्रुओं के चित्तों को मोहित करती हुई पृथक् हो जा। चारों ओर से अन्यान्य शत्रुओं को भी समेटती हुई पृथक् हो जा। उनके हृदयों को शोकाकुल कर दो और वे हमारे शत्रु तामस अहंकारसे ग्रस्त हो जायँ ॥ १२ ॥ ब्रह्ममन्त्रसे अभिमन्त्रित हे हमारे बाण – ब्रह्मास्त्रो ! हमारे द्वारा छोड़े जाने पर तुम शत्रुओं पर जा पड़ी। उनके पास जाओ और उनके शरीरों में प्रविष्ट हो जाओ तथा उनमें से किसी को भी न छोड़ो ॥ १३ ॥ हे हमारे नरो! जाओ और विजय करो। इन्द्र तुम्हें विजय सुख दें। तुम्हारी भुजाएँ उग्र हों, जिससे तुम अघर्षित होकर टिके रहो ॥ १४ ॥ हे मरुद्गण ! यह जो शत्रुसेना बलमें हमसे स्पर्धा करती हुई हमारी ओर चली आ रही है। उसे कर्महीनताके अन्धकारसे आच्छादित कर दो, ताकि वे आपसमें ही एक-दूसरेको न जानते हुए लड़ मरें ॥ १५ ॥ शिखाहीन कुमारोंकी भाँति शत्रुप्रेरित बाण जहाँ-जहाँ पड़ें, वहाँ-वहाँ इन्द्र, बृहस्पति और अदिति हमारा कल्याण करें। विश्वसंहारक हमारा कल्याण करें ॥ १६ ॥ हे यजमानू ! मैं तुम्हारे मर्मस्थानोंको कवचसे ढँकता हूँ, ब्राह्मणोंके राजा सोम तुमको मृत्युके मुखसे बचानेवाले कवचसे आच्छादित करें, वरुण तुम्हारे कवचको उत्कृष्ट बनायें और अन्य सभी देवता विजयकी ओर अग्रसर हुए तुम्हारा उत्साहवर्धन करें ॥ १७ ॥ Please follow and like us: Related Discover more from Vadicjagat Subscribe to get the latest posts sent to your email. 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