परमभागवत परीक्षित्
जिस समय पाण्डव लोग सभी सुकृत कर्मों का अनुष्ठान करके आत्मा के आत्यन्तिक स्वरूप को जानकर, अपने मन को भगवान्‌ के चरणाम्बुज में लगाकर एकान्त गति को प्राप्त हो गये, उस समय ब्राह्मणों की शिक्षासे महाभागवत राजा परीक्षित् पृथिवीका शासन करने लगे । राजा परीक्षित्‌ ने जब सुना कि ‘कलिकाल के प्रभावसे प्राणियोंके मनमें अधर्म की भावना अधिक हो गयी है, तब धनुष-बाण लेकर रथ पर आरूढ़ होकर कुछ सेना के साथ वे दिग्विजय के लिये चल पड़े । भद्राश्ववर्ष, केतुमाल, भारत, उत्तरकुरु, किंपुरुष आदि देशों को जीतकर सबसे उन्होंने बलि ग्रहण किया । सर्वत्र विद्वानों के मुख से श्रीकृष्ण-माहात्म्य युक्त अपने पूर्वजों का महत्त्व सुनते हुए राजा ने बड़े प्रसन्न होकर उन्हें महाधन हार, वस्त्र आदि दिया ।
मार्गमें जाते हुए राजा ने देखा कि वृषरूपधारी धर्म एक पग से चलता विवश, अश्रुपूर्णमुखी, निस्तेज गौरूपधारिणी पृथिवी को देखकर पूछ रहा है-‘ हे भद्रे! आप आरोग्य तो हैं? आप निस्तेज हो रही हैं, कुछ मुख-म्लानि से मुझे मालूम पड़ता है कि आपको कोई आन्तर कष्ट है । क्या किसी अपने दूरस्थ सम्बन्धी या रक्षक की आप चिन्ता कर रही हैं ? या तीन पगों से रहित मुझे देखकर या वृषलों मोक्ष्यमाण अपने आपको जानकर खिन्न हो रही हैं? अथवा यज्ञभागरहित देवताओं या अवर्षपीड़ित प्रजाओं को देखकर किंवा अरक्ष्ममाण स्त्रियों और आर्त बालकोंको किं वा कुत्सितकर्मा ब्रह्मकुल वेदलक्षणा वाग्देवीको अथवा राजकुलमें कलि-संस्पृष्ट क्षत्रबन्धुओंको या उनसे उन्मूलित राष्ट्रोंको देख एवं खान, पान, स्नान-संसक्त जीवलोकको देखकर आप खिन्न हो रही हैं ? किं वा अम्ब ! तुम्हारा भार दूर करनेके लिये धृतावतार भगवान्‌ के निर्वाणविलम्बित कर्मोका स्मरण कर रही हो? वसुन्धरे ! अपनी व्यथाका कारण बतलाओ, किस कारणसे तुम दुर्बल हो ? क्या बलवानोंमें भी बलीयान् कालने तुम्हारे तेजका सौभाग्य हरण कर लिया है?
धर्मके इन वचनोंको सुनकर धरणीने कहा-‘ धर्म ! आप सब कुछ जानते हैं । अनन्त-कल्याण-गुण-गणालंकृत भगवान्‌से रहित, कलिसे प्रेक्षित लोकको देखकर अपनेको, आपको, देवताओं, पितरों, ऋषियों, साधुओं एवं सभी वर्णों, आश्रमोंको सोच रही हूँ । अहो ! ब्रह्मादि देवाधिदेव बहुकालपर्यन्त जिसके कृपाकटाक्ष-मोक्षकी कामनासे तप करते हैं, वही भगवत्प्रपन्ना श्रीलक्ष्मी अपने सुभगसुन्दर निवासस्थान अरविन्दको छोड्‌कर, परमानुरागिणी होकर जिसके पादसौभाग्य भजती है उन्हींके अब्ज-कुलिश-अंकुश-ध्वजादिसे समलंकृतांगी होकर, तीनों लोकोंका अतिक्रमण करके सुशोभित होकर मैं अभिमानिनी हो रही थी, अन्तमें उन्हीं प्रभुने मुझे छोड़ दिया । जिस परम भगवान्‌ने मेरे भारभूत असुरप्राय राजन्यवर्गोंकी सैकड़ों अक्षौहिणियोंका अपनोदनकर डाला, न्यूनपद दुःस्थ तुम (धर्म) -को अपनेमें स्थापित करते हुए यदुकुलमें रम्यस्वरूपको धारण किया, उस पुरुषोत्तमके विरहको कौन सहन कर सकती है, जिसने अपने प्रेमावलोक, रुचिर हास, वल्गुजल्प आदि चेष्टाओंसे मधुमानिनियों के मान सहित स्थैर्य को हरण कर लिया, जिसके चरणस्पर्शसे मुझ जड़् मे भी प्रेमानन्दके उद्रेक से वनस्पति, लताओंके व्याज से रोमांच हो उठा, उनका वियोग किसे सहन हो सकता है?’
राजा परीक्षित्‌ने इस तरह वार्तालाप करते हुए वृष और गौ को देखा और यह भी देखा कि नृपलिंगधर दण्डहस्त शूद्र दोनोंको ताड़न कर रहा है । मृडालके समान स्वच्छ, दुग्ध वर्ण वृष शूद्र से ताड़ित होकर एक पाद से खड़े-खड़े काँप रहा है । धर्मदोग्ध्री गाय भी शूद्रके चरण से ताड़ित होकर दैन्यभावसे अश्रुमुखी होकर, बछड़ेसे रहित, दुर्बला, बुभुक्षासे घास चरती हुई रुदन कर रही है ।
सुवर्णालंकारों से भूषित रथ पर आरूढ़, धनुषको चढ़ाकर, मेघ गम्भीर वाचा से राजा परीक्षित्‌ ने उस शूद्रसे कहा- ‘तू कौन है ? मेरे पालित जगत्‌ में निर्बलों को बली होकर सता रहा है । तू वेश से तो राजा मालूम पड़ता है, परंतु कर्म से अद्विज (शूद्र) मालूम है । क्या तुम गाण्डीवधन्वा अर्जुन के साथ कृष्ण को दूर गया समझता है, जो अशोच्चों को एकान्त में सता रहा है? तू आज अवश्य शोच्च है और वधलायक है ।’ फिर वृषसे पूछा ‘मृडालके समान धवल वर्ण के हे वृष ! आप कौन हैं, जो तीन पादोंसे रहित होकर चल रहे हैं ? क्या आप कोई देव हैं ? जबतक भूतल पौरवेन्द्रों के भुजदण्डसे रक्षित है, तबतक किन्ही प्राणियोंके शोकाश्रु कभी नहीं गिर सकते । हे सौरभेय ! तुम शोक मत करो । इस वृषलसे निर्भय हो, हे अम्ब! तुम भी मत डरा, मै खलों का शासन करनेवाला विद्यमान हूँ । हे साध्वी ! जिस शासक के राष्ट्रमें प्रजा असाधुओं से त्रस्त होती हें, उसकी कीर्ति, आयु ऐश्वर्य, सद्‌गति नष्ट हो जाती है । आर्तों की आर्ति मिटाना राजा का परम धर्म है । मैं इस भूतद्रोहीको अवश्य मारूँगा । हे सौरभेय! तुम्हारे तीन पादोंको किसने काटा ? कृष्णानुवर्ती राजाओं के राज्यमें तुम्हारे समान दुखीका होना, उनके लिये लज्जाकी बात है । आप बताइये कि आप-जैसे निरपराध साधुओंका अंग- भंग किसने किया? असाधुओंका दमन करनेसे साधुका भद्र ही होता है । निरपराधोंपर अत्याचार करनेवाला निरंकुश देवताका भी भुजच्छेदन करना हमारा कर्तव्य है । स्वधर्मस्थों का पालन करना, उत्पथगामी लोगोंका निग्रह करना भूपका परम धर्म है ।’
राजा के वचनको सुनकर धर्मने कहा- ‘राजन् पाण्डुवंशीय राजाओंका आर्तोंको निर्भय करने वाला ऐसा वचन ठीक ही है । तभी तो पाण्डवोंके गुणोंसे वशीभूत होकर भगवान्‌ ने उनका दौत्य, सारथ्य आदि किया था । पुरुषर्षभ! जिससे प्राणीको क्लेश-कारण उपस्थित होते हैं, उसे वाक्यभेदसे मोहित होनेके कारण मैं नहीं जानता । कोई लोग आत्माको ही उसके दुःखका कारण कहते हैं, कोई दैवको, कोई कर्मको, कोई स्वभावको कारण कहते हैं । कारण अप्रतर्क्य और अनिर्देश्य है, अत: निश्चय होना कठिन है । अपनी मनीषासे आप स्वयं ही निर्णय करें ।’
धर्मके ऐसा कहनेपर विखेद होकर समाहित मनसे राजाने पर्यालोचन करके कहा-‘ धर्मज्ञ! आप वृषरूपधारी धर्म हैं । पाप करने वाले को जो स्थान मिलता है, सूचकको भी वही स्थान मिलता है । इसलिये आप अपराधी को बतलाना नहीं चाहते । भगवान्‌ की माया की गति प्राणियों के मन, बुद्धि का विषय नहीं है । तप, शौच, दया, सत्य-यही आपके चार पाद हैं । अधर्म के स्मय (गर्व), संग ( आसक्ति), मदरूप अंशों से आपके तीनों पाद भग्न हो गये । इस समय अब एक पाद केवल सत्य ही रहा है । अनृत से समृद्ध कलि उसे भी ग्रहण कर लेना चाहता है । यह पृथ्वी भगवान्‌ के शोभित चरणोंसे कृतकौतुका हुई है । अब यह प्रभु से वियुक्त होकर सोच रही है कि अब्रह्मण्य, नृपवेषधारी वृषल इसका उपभोग करेंगे ।’
इस तरह धर्म और पृथ्वी दोनों का ही आश्वासन करके अधर्महेतु कलि के लिये राजाने तीक्षा तलवार खींच ली । तलवार लेकर मारने के लिये उद्यत राजाको देखकर कलि तत्क्षण ही नृपचिह्न छोड़कर भयविह्वल होकर राजाके चरणों में गिर पड़ा । चरणों में गिरा देखकर दीनवत्सल राजा ने कृपा से उसे मारा नहीं और हँसकर कहा- ‘तैंने गुडाकेशयशोधरों के सम्मुख हाथ जोड़ा है । अब तेरे लिये भय नहीं, परंतु तू अधर्मका कारण है, अब मेरे राज्यमें न रह । नरदेव- देहों में तेरे प्रविष्ट होने से ही यह अधर्म-समूह प्रवृत्त हुआ है । ‘लोभ, अनृत, चौर्य, अनार्य, पापमय-कलह, दम्भ सब तुम्हारे ही कारण आये हैं । हमारे यहाँ सत्य और धर्म को ही रहना चाहिये । उस ब्रह्मावर्त में याज्ञिक लोग यज्ञ करते हैं, जिससे भगवान् प्रसन्न होकर यजन करनेवालोंका कल्याण करते हैं । परीक्षित्‌ से आज्ञप्त होकर, कम्पित हो कलि ने कहा- ‘सार्वभौम! जहाँ भी आपकी आज्ञा हो, मैं वहीं रहूँ । मैं सर्वत्र ही आपको धनुष धारण किये खड़ा देखता हूँ, अत: जहाँ मैं आपका अनुशासन पालन करूं, ऐसा स्थान बतलाइये ।’ राजाने कहा- ‘ अच्छा, तुम छूत, सुरापान, वेश्या स्त्री और हिंसा – ये चार अधर्म जहाँ हों, वहाँ रहो ।’
कलि के और अधिक माँगने पर परीक्षित्‌ ने एक सुवर्ण भी स्थान बतलाया (इसीसे अनृत, मद, काम, रज और पाँचवाँ बैर भी स्थान मिल गया) । अधर्मके कारण कलि इन्हीं पाँच स्थानों में रहता है । प्राणीको उपर्युक्त चीजों से बचकर रहना चाहिये । विशेषत: लोकपति राजा, धर्मगुरु अवश्य इन बातों से बचें । वृष से नष्ट तप, शौच, दया – इन तीनों पादों का भी परीक्षित्‌ ने सन्धान कर दिया । पृथ्वी और धर्म को आश्वासन देकर महाभाग चक्रवर्ती राजा परीक्षित् हस्तिनापुर में राज्य करने लगे ।
जिस समय परीक्षित् अपनी माँ उत्तरा के गर्भमें थे, अश्वत्थामाने उनपर ब्रह्मास्त्र चलाया था । उत्तरा भगवान्‌ के शरण गयी । प्रभुने अपने चतुर्भुजरूप में गर्भ में ही प्रगट होकर गदा से अस्त्र-तेज का विधमन करके परीक्षित्‌ का रक्षण किया । जन्म लेते ही परीक्षित् उसी गर्भदृष्ट भगवान्‌ का चिन्तन करते हुए बाहर के मनुष्यों में उसी तत्त्व को पहचाननेकी कोशिश करने लगे – ‘गर्भदृष्ट- मनुध्यायन् परीक्षेतनरेष्विह ।’ अद्भुतकर्मा कृष्णके अनुग्रह से जो ब्रह्मास्त्र से भी नहीं नष्ट हुए उन्हीं परीक्षित्‌ ने ब्रह्मकोपोत्थित तक्षक से प्राणविप्लव जानकर, प्रभु में अन्तःकरण समर्पण करके शुक की कृपा से भगवत्स्वरूप- साक्षात्कार करके गंगामें अपना कलेवर त्याग किया । जबतक परीक्षित् सम्राट् थे, तबतक कलिका प्रभाव संसारमें नहीं था । सम्राट्‌ने सारग्रहणकी रुचिसे कलिसे द्वेष नहीं किया । कलिमें कुशल कर्म शीघ्र ही फल देते हैं, अकुशल नहीं । कलि मूर्खों में शूर है, धीरसे डरता है, प्रमत्तों में सावधान रहता है ।
एक दिन राजा धनुष उठाकर मृगयाके लिये गये । मृगोंके पीछे दौड़ते-दौड़ते थककर क्षुधा और पिपासासे खिन्न हो उठे । जलाशय ढूँढ़ते-ढूँढ़ते एक आश्रम में जाकर उन्होंने वहाँ आँख मीचकर बैठे हुए शान्त मुनिको देखा । मुनि अपने इन्द्रियों, प्राणों, मन, बुद्धिको रोककर जाग्रत् स्वप्न, सुषुप्तिसे अतीत तुरीय तत्त्व को प्राप्तकर अविक्रिय ब्रह्मस्वरूप हो रहे थे । बिखरी हुई जटाओं और मृगचर्मसे ढके हुए थे । राजाने जाकर उसी अवस्थामें महर्षि से जल माँगा, परंतु उन्हें जल, तृण, अर्ध्य, सत्कारपूर्ण वचन आदि कुछ भी प्राप्त न हुआ । राजा अपने को अपमानित समझकर कुपित हो गये । क्षुधा, तृषा से पीड़ित होनेके कारण ही राजाको मुनि के प्रति यह अभूतपूर्व क्रोध और मत्सर उत्पन्न हुआ । वे एक मरे हुए साँपको धनुषसे उठाकर ब्रह्मर्षिके गलेमें, यह जाननेके लिये डालकर चले गये कि यह सचमुच समाधिमें हैं अथवा ‘क्षत्रबन्धु राजासे क्या प्रयोजन?’ यह समझकर झूठे ही समाधिमें बैठ गया है ।
उस ब्रह्मर्षिका पुत्र परम तेजस्वी था । वह उस समय बालकोंके साथ खेल रहा था । राजाद्वारा पिताको अपमानित जानकर उसने कहा कि ‘ अहो! पालकों का यह अधर्म! जैसे-बलिभुज द्वारपाल कुत्ता स्वामी पर ही तेज दिखलाये, वैसे ही आजकलके राजा ब्राह्मणोंपर ही तेज दिखलाते हैं । ब्राह्मणोंने क्षत्रियोंको द्वारपाल के रूपमें नियुक्त किया है । वे क्षत्रिय अब ब्राह्मणगृह में ही भाण्डभोजी होना चाहते हैं । उत्पथगामियों के शासन करनेवाले श्रीकृष्ण चले गये । अबसे मर्यादा- भेदकोंका मैं शासन करता हूँ ।’ अपने वयस्कोंको यह कहकर रोषताम्राक्ष बालकने कौशिकी नदीका जल हाथमें लेकर आचमन करके वाग्वज्र छोड़ा ‘मर्यादाका उल्लंघन करनेवाले क्षत्रिय-कुमारको तक्षक सातवें दिन काटेगा ।’
आश्रममें आकर पिता के गलेमें पड़े मृत सर्पको देखकर दुःखार्त बालक जोरसे रो पड़ा । उन आङ्गिरस महर्षिने पुत्रका विलाप सुनकर धीरसे नेत्र खोलकर देखा तथा कन्धेपर पड़े मृत सर्पको फेंक दिया और पुत्रसे पूछा- ‘क्यों रोते हो? किसने तुम्हें सताया?’ बालकने सब बात सुनायी । राजाको दिया शाप सुनकर वे ब्राह्मण खिन्न हुए । वे नहीं चाहते थे कि ऐसे साधारण अपराधपर ऐसे योग्य धर्मात्मा राजाको इतना कठोर दण्ड दिया जाय । महर्षिने कहा – अविपन्नबुद्धे! नरदेवको साधारण मनुष्योंके समान नहीं समझना चाहिये । जिसके दुर्विषह तेजसे रक्षित होकर प्रजा निर्भय होकर धर्माचरण करती है, उस नरेन्द्ररुप विष्णु से रक्षित न होने पर चोरोंका बाहुल्य होनेसे लोक नष्ट हो जाता है । राजाके नष्ट होनेसे प्रजाको कष्ट होगा, उससे हमीको दोष लगेगा । परस्पर उपद्रवों के बढ़नेसे आर्यधर्मको बड़ा धक्का लगेगा । वेदोक्त वर्णाश्रम धर्म संकटमें पड जायगा जिससे अर्थ, काममें निविष्टचित्त प्राणियोंमें बन्दरों, कुत्तों-जैसा सांकर्य फैल जायगा । सम्राट् धर्मपाल अश्वमेधयाजी महाभागवत हैं । वे क्षुधा, पिपासा और श्रमसे युक्त थे, वे कदापि हमारे शापके पात्र नहीं थे ।’ यह कहकर ब्राह्मणने कहा कि ‘ अपक्वबुद्धि बालकने निष्पाप अपने मृत्य राजाको शाप देकर अपराध किया, भगवान् सर्वात्मा उसे क्षमा करें ।’ भगवान्‌के भक्त विप्रलम्भ और तिरस्कार करनेपर भी शप्त, अधिक्षिप्त एवं ताड़ित होनेपर समर्थ होकर भी उसका प्रतिकार नहीं करते । अतएव स्वयं विप्रकृत होनेपर भी ऋषि पुत्रकृत अपराधसे अनुतप्त हुए । राजाके अपराधका ध्यान भी नहीं किया । साधु लोग आत्माको अजर- अमर जानते हैं, इसीलिये दूसरोंसे सताये जानेंपर भी व्यथित नहीं होते ।
गृह में पहुँचते ही सम्राट् दुर्मना होकर अपने दुष्कृतपर शोक करने लगे – ‘अहो! मैंने अनार्यों के समान कैसा नीच कर्म किया? निरपराध गूढतेज महर्षिको मैंने नाहक सताया । अवश्य ही मेरे ऊपर कोई दीर्घ विपत्ति आनेवाली है । अवश्य ऐसा हो, जिससे मैं फिर ऐसा कर्म न करूँ । प्रकोपित ब्रह्मकुलानल आज ही मेरा राज्य, कोष दग्ध कर डाले, जिससे गो, ब्राह्मणोंके प्रति मेरी पुन: ऐसी पापीय-सी बुद्धि न हो ।’ इतनेहीमें महर्षिके शिष्यद्वारा राजाने शापका वृत्तान्त सुना, परंतु उससे राजाको घबराहट नहीं हुई । उसने शापको गृहासक्तिसे वैराग्य प्राप्त करनेका कारण ही समझा । राजा पहलेसे विचारशील था, उसने लौकिक विषयोंसे अपने मनको हटाकर कृष्णसेवाको ही प्रधान समझ गंगातटपर आमरण अनशन करके बैठना निश्चय कर लिया।

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