ब्रह्मवैवर्तपुराण-गणपतिखण्ड-अध्याय 15
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
पन्द्रहवाँ अध्याय
शिवजी का कृत्तिकाओं के पास दूतों को भेजना, वहाँ कार्तिकेय और नन्दी का संवाद

श्रीनारायण कहते हैं — मुने ! पुत्र का समाचार मिल जाने पर जब विष्णु, देवगण, मुनिसमुदाय और पर्वतों ने पार्वतीसहित शंकरको प्रेरित किया, तब उन्होंने लाखों क्षेत्रपाल, भूत, बेताल, यक्ष, कूष्माण्ड, ब्रह्मराक्षस, डाकिनी, योगिनी और भैरवोंके साथ महान् बल-पराक्रमसम्पन्न वीरभद्र, विशालाक्ष, शंकुकर्ण, कबन्ध, नन्दीश्वर, महाकाल, वज्रदन्त, भगन्दर, गोधामुख, दधिमुख आदि दूतोंको, जो धधकती हुई आग की लपट के समान उद्दीप्त हो रहे थे, भेजा । उन सभी शिव-दूतों ने, जो नाना प्रकार के शस्त्रास्त्रों से सुसज्जित थे, शीघ्र ही जाकर कृत्तिकाओं के भवन को चारों ओरसे घेर लिया। उन्हें देखकर सभी कृत्तिकाओं का मन भय से व्याकुल हो गया। तब वे ब्रह्मतेज से उद्दीप्त होते हुए कार्तिकेय के पास जाकर कहने लगीं ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

कृत्तिकाओं ने कहा बेटा कार्तिकेय ! असंख्यों कराल सेनाओं ने भवन को चारों ओर से घेर लिया है और हमें पता भी नहीं है कि ये किसकी हैं।

तब कार्तिकेय बोले — माताओ ! आप लोगों का भय दूर हो जाना चाहिये। मेरे रहते आपको भय कैसा ? यह कर्मभोग दुर्निवार्य है, इसे कौन हटा सकता है।

इसी बीच सेनापति नन्दिकेश्वर भी वहाँ कार्तिकेय के समक्ष उपस्थित हुए और कृत्तिकाओं से बोले ।

नन्दिकेश्वर ने कहा — भ्राता ! संहारकर्ता सुरश्रेष्ठ शंकर और माता पार्वती द्वारा भेजे गये शुभ समाचार को मुझसे श्रवण करो । कैलास-पर्वत पर गणेश माङ्गलिक जन्मोत्सव के अवसर पर सभा में ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि सभी देवता उपस्थित हैं। वहाँ गिरिराजकिशोरी ने जगत् का पालन करने वाले विष्णु को सम्बोधित करके उनसे तुम्हारे अन्वेषण के लिये कहा। तब विष्णु ने तुम्हारी प्राप्ति के निमित्त क्रमशः उन सभी देवों से पूछा। उनमें से प्रत्येक ने यथोचित उत्तर भी दिया। उन्हीं में धर्म-अधर्म के साक्षी धर्म आदि सभी देवताओं ने परमेश्वर को तुम्हारे यहाँ कृत्तिकाओं के भवन में रहने की सूचना दी।

प्राचीनकाल में शिव-पार्वती की जो एकान्त क्रीड़ा हुई थी, उसमें देवताओं द्वारा देखे जाने पर शम्भु का शुक्र भूतल पर गिर पड़ा था । भूमि ने उस शुक्र को अग्नि में और अग्नि ने उसे सरकंडों के वन में फेंक दिया। वहाँ से इन कृत्तिकाओं ने तुम्हें पाया है। अब तुम अपने घर चलो। वहाँ तुम्हें सम्पूर्ण शस्त्रास्त्रों की प्राप्ति होगी, विष्णु देवताओं को साथ लेकर तुम्हारा अभिषेक करेंगे और तब तुम तारकासुर का वध करोगे। तुम विश्वसंहर्ता शंकर के पुत्र हो, अतः ये कृत्तिकाएँ तुम्हें उसी तरह नहीं छिपा सकतीं, जैसे शुष्क वृक्ष अपने कोटर में अग्नि को गुप्त नहीं रख सकता। तुम तो विश्व में दीप्तिमान् हो । इन कृत्तिकाओं के घर में तुम्हारी उसी प्रकार शोभा नहीं हो रही है, जैसे महाकूप में पड़े हुए चन्द्रमा शोभित नहीं होते। जैसे सूर्य मनुष्य के हाथों की ओट में नहीं छिप सकते, उसी तरह तुम भी इनके अङ्गतेज से आच्छादित न होकर जगत्‌ को प्रकाशित कर रहे हो।

शम्भुनन्दन ! तुम तो जगद्व्यापी विष्णु हो, अतः इन कृत्तिकाओं के व्याप्य नहीं हो, जैसे आकाश किसी का व्याप्य नहीं है, बल्कि वह स्वयं ही सबका व्यापक है । तुम विषयों से निर्लिप्त योगीन्द्र हो तथा विश्व के आधार और परमेश्वर हो। ऐसी दशा में कृत्तिकाओं के भवन में तुम सर्वेश्वर का निवास होना उसी प्रकार सम्भव नहीं है, जैसे क्षुद्र गौरैया के उदर में गरुड़ का रहना असम्भव है। तुम भक्तों के लिये मूर्तिमान् अनुग्रह तथा गुणों और तेजों की राशि हो । देवगण तुम्हें उसी तरह नहीं जानते जैसे योगहीन पुरुष ज्ञान से अनभिज्ञ होता है । जैसे मोहित-चित्त वाले भक्तिहीन मनुष्यों को हरि की उत्कृष्ट भक्ति का ज्ञान नहीं होता, उसी तरह ये कृत्तिकाएँ तुम्हें कैसे जान सकती हैं; क्योंकि तुम अनिर्वचनीय हो । भ्राता ! जो लोग जिसके गुण को नहीं जानते, वे उसका अनादर ही करते हैं; जैसे मेढक एक साथ रहने वाले कमलों का आदर नहीं करते ।

कार्तिकेय ने कहा — भ्राता ! जो भूत, भविष्यत्, वर्तमान—तीनों कालों का ज्ञान है, वह सब मुझे ज्ञात है। तुम भी तो ज्ञानी हो; क्योंकि मृत्युञ्जय के आश्रित हो । ऐसी दशा में तुम्हारी क्या प्रशंसा की । भाई ! कर्मानुसार जिनका जिन-जिन योनियों में जन्म होता है, वे उन्हीं योनियों में निरन्तर रहते हुए निर्वृति लाभ करते हैं। वे चाहे संत हों अथवा मूर्ख हों, जिन्हें कर्मभोग के परिणामस्वरूप जिस योनि की प्राप्ति हुई है, वे विष्णुमाया से मोहित होकर उसी योनि को बहुत बढ़कर समझते हैं। जो सनातनी विष्णुमाया सबकी आदि, सर्वस्व प्रदान करनेवाली और विश्व का मङ्गल करनेवाली हैं, उन्हीं जगज्जननी ने इस समय भारतवर्ष में शैलराज की पत्नी के गर्भ से जन्म धारण किया है और दारुण तपस्या करके शंकर को पतिरूप में प्राप्त किया है। ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सारी सृष्टि कृत्रिम है, अतएव मिथ्या ही है।

सभी श्रीकृष्ण से उत्पन्न हुए हैं और समय आने पर केवल श्रीकृष्ण में ही विलीन हो जाते हैं। प्रत्येक कल्प में सृष्टि के विधान में मैं नित्य होते हुए भी माया से आबद्ध होकर जन्म – धारण करता हूँ, उस समय प्रत्येक जन्म में जगज्जननी पार्वती मेरी माता होती हैं । जगत् में जितनी नारियाँ हैं, वे सभी प्रकृति से उत्पन्न हुई हैं । उनमें से कुछ प्रकृति की अंशभूता हैं तो कुछ कलात्मिका तथा कुछ कलांश के अंश से प्रकट हुई हैं। ये ज्ञानसम्पन्ना योगिनी कृत्तिकाएँ प्रकृति की कलाएँ हैं । इन्होंने निरन्तर अपने स्तन के दूध तथा उपहार से मेरा पालन-पोषण किया है । अतः मैं उनका पोष्य पुत्र हूँ और पोषण करने के कारण ये मेरी माताएँ हैं । साथ ही मैं उन प्रकृतिदेवी (पार्वती) – का भी पुत्र हूँ; क्योंकि तुम्हारे स्वामी शंकरजी के वीर्य से उत्पन्न हुआ हूँ ।

नन्दिकेश्वर ! मैं गिरिराजनन्दिनी के गर्भ से उत्पन्न नहीं हुआ हूँ, अतः जैसे वे मेरी धर्ममाता हैं, वैसे ही ये कृत्तिकाएँ भी सर्वसम्मति से मेरी धर्म-माताएँ हैं; क्योंकि स्तन पिलाने वाली (धाय), गर्भ में धारण करने वाली (जननी), भोजन देने वाली ( पाचिका), गुरु-पत्नी, अभीष्ट देवता की पत्नी, पिता की पत्नी ( सौतेली माता), कन्या, बहिन, पुत्रवधू, पत्नी की माता (सास), माता की माता (नानी), पिता की माता (दादी), सहोदर भाई की पत्नी, माता की बहिन (मौसी ), पिता की बहिन (बूआ ) तथा मामी -ये सोलह मनुष्यों की वेदविहित माताएँ कहलाती हैं।

स्तनदात्री गर्भधात्री भक्ष्यदात्री गुरुप्रिया ।
अभीष्टदेवपत्नी च पितुः पत्नी च कन्यकाः ॥ ४१ ॥
सगर्भकन्या भगिनी पुत्रपत्नी प्रियाप्रसूः ।
मातुर्माता पितुर्माता सोदरस्य प्रिया तथा ॥ ४२ ॥
मातुः पितुश्च भगिनी मातुलानी तथैव च ।
जनानां वेदविहिता मातरः षोडश स्मृताः ॥ ४३ ॥

ये कृत्तिकाएँ सम्पूर्ण सिद्धियों की ज्ञाता, परमैश्वर्यसम्पन्न और तीनों लोकों में पूजित हैं। ये क्षुद्र नहीं हैं, बल्कि ब्रह्मा की कन्याएँ हैं। तुम भी सत्त्वसम्पन्न तथा शम्भु के पुत्र के समान हो और विष्णु ने तुम्हें भेजा है; अतः चलो, मैं तुम्हारे साथ चलता हूँ। वहाँ देवसमुदाय का दर्शन करूँगा । (अध्याय १५)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे तृतीये गणेशखण्डे नारदनारायणसंवादे नन्दिकार्त्तिकेयसंवादो नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

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