ब्रह्मवैवर्तपुराण – प्रकृतिखण्ड – अध्याय 10
॥ ॐ श्रीगणेशाय नमः ॥
॥ ॐ श्रीराधाकृष्णाभ्यां नमः ॥
दसवाँ अध्याय
गङ्गा की उत्पत्ति का विस्तृत प्रसङ्ग

नारदजी ने कहा — वेदवेत्ताओं में श्रेष्ठ भगवन्! पृथ्वी का यह परम मनोहर उपाख्यान सुन चुका । अब आप गङ्गा का विशद प्रसङ्ग सुनाने की कृपा कीजिये। प्रभो! सुरेश्वरी, विष्णुस्वरूपा एवं स्वयं विष्णुपदी नाम से विख्यात गङ्गा सरस्वती के शाप से भारतवर्ष में किस प्रकार और किस युग  में पधारीं ? किस की प्रार्थना एवं प्रेरणा से उन्हें वहाँ जाना पड़ा ? पाप का उच्छेद करने वाला यह पवित्र एवं पुण्यप्रद प्रसंग मैं सुनना चाहता हूँ ।

गणेशब्रह्मेशसुरेशशेषाः सुराश्च सर्वे मनवो मुनीन्द्राः । सरस्वतीश्रीगिरिजादिकाश्च नमन्ति देव्यः प्रणमामि तं विभुम् ॥

ॐ नमो भगवते वासुदेवाय

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! श्रीमान् सगर एक सूर्यवंशी सम्राट् हो चुके हैं। मन को मुग्ध करने वाली उनकी दो रानियाँ थीं- वैदर्भी और शैब्या। उनकी पत्नी शैब्या से एक पुत्र उत्पन्न हुआ । कुल को बढ़ाने वाले उस सुन्दर पुत्र का नाम असमञ्जस पड़ा। उनकी दूसरी पत्नी वैदर्भी ने पुत्र की कामना से भगवान् शंकर की उपासना की । शंकर के वरदान से उसे भी गर्भ रह गया। पूरे सौ वर्ष व्यतीत हो जाने पर उस के गर्भ से एक मांस-पिण्ड की उत्पत्ति हुई । उसे देखकर वह बहुत ही दु:खी हुई और उसने भगवान् शिव का ध्यान किया।

तब भगवान् शंकर ब्राह्मण के वेष में उस के पास पधारे और उन्होंने उस मांस-पिण्ड को साठ हजार भागों में बाँट दिया। वे सभी टुकड़े पुत्ररूप में परिणत हो गये। उन के बल और पराक्रम की सीमा नहीं रही। उन के परम तेजस्वी कलेवर ने ग्रीष्म ऋतु मध्याह्न कालीन सूर्य की प्रभा का मानो हरण कर लिया था; परंतु वे सभी तेजस्वी कुमार कपिल मुनि के शाप से जलकर भस्म हो गये। यह दुःखद समाचार सुनकर राजा सगर की आँखें निरन्तर जल बहाने लगीं। वे बेचारे घोर जंगल में चले गये। तब उनके पुत्र असमञ्जस ने गङ्गा को ले आने के लिये तपस्या आरम्भ कर दी। वे बहुत काल तक तपस्या करते रहे । अन्त में काल ने उन्हें अपना ग्रास बना लिया । असमञ्जस के पुत्र का नाम अंशुमान् था। गङ्गा को ले आने के लिये लम्बे समय तक तपस्या करने के पश्चात् वे भी काल के गाल में चले गये ।

अंशुमान् के पुत्र भगीरथ थे। भगीरथ भगवान् के परम भक्त, विद्वान्, श्रीहरि में अटूट श्रद्धा रखने वाले, गुणवान् तथा वैष्णव पुरुष थे । गङ्गा को ले आने का निश्चय कर के उन्होंने बहुत समय तक तपस्या की। अन्त में भगवान् श्रीकृष्ण के उन्हें साक्षात् दर्शन हुए। उस समय भगवान्‌ के श्रीविग्रह से ग्रीष्म-कालीन करोड़ों सूर्यों के समान प्रकाश फैल रहा था। उन के दो भुजाएँ थीं । वे हाथ में मुरली लिये हुए थे। उनकी किशोर अवस्था थी। वे गोप के वेष में पधारे थे । भक्तों पर कृपा करने के लिये उन्होंने यह रूप धारण किया था। मुने! भगवान् श्रीकृष्ण परिपूर्णतम परब्रह्म हैं । वे चाहे जैसा रूप बना सकते हैं। उस समय ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि उनकी स्तुति कर रहे थे और मुनियों ने उन के सामने अपने मस्तक झुका रखे थे। सदा निर्लिप्त, सबके साक्षी, निर्गुण, प्रकृति से परे तथा भक्तों पर अनुग्रह करने वाले उन भगवान् श्रीकृष्ण का मुख मुस्कान से सुशोभित था । विशुद्ध चिन्मय वस्त्र तथा दिव्य रत्नों से निर्मित आभूषण उन के श्रीविग्रह को सुशोभित कर रहे थे । उनकी यह दिव्य झाँकी पाकर भगीरथ ने बार-बार उन्हें प्रणाम किया और स्तुति भी की। लीलापूर्वक उन्हें भगवान् से अभीष्ट वर भी मिल गया। वे चाहते थे कि मेरे पूर्वज तर जायँ। परम आनन्द के साथ उन्होंने भगवान् की दिव्य स्तुति की थी ।

भगवान् श्रीहरि ने गङ्गाजी से कहा — सुरेश्वरि ! तुम सरस्वती के शाप से अभी भारतवर्ष में जाओ और मेरी आज्ञा के अनुसार सगर के सभी पुत्रों को पवित्र करो। तुम से स्पर्शित वायु का संयोग पाकर ही वे सभी राजकुमार मेरे धाम में चले जायँगे । उन का भी विग्रह मेरे जैसा ही हो जायगा और वे दिव्य रथ पर सवार होंगे। उन्हें मेरे पार्षद होने का सुअवसर प्राप्त होगा । वे सर्वदा आधि-व्याधि से मुक्त रहेंगे। उन के जन्म-जन्मान्तर के पापों की समस्त पूँजी समाप्त हो जायगी । श्रुति में कहा गया है कि भारतवर्ष में मनुष्यों द्वारा उपार्जित करोड़ों जन्मों के पाप गङ्गा की वायु के स्पर्शमात्र से नष्ट हो जाते हैं। स्पर्श और दर्शन की अपेक्षा गङ्गादेवी में मौसलस्नान गङ्गा को प्रणाम कर के प्रवेश करे और निश्चेष्ट होकर अर्थात् बिना हाथ-पैर हिलाये शान्तभाव से स्नान कर ले। इसे ‘मौसलस्नान’ कहते हैं । करने से दस गुना पुण्य होता है ।

सामान्य दिन में भी स्नान करने से मनुष्यों के अनेकों जन्मों के पाप नष्ट हो जाते हैं पर्वों तथा विशेष पुण्य तिथियों पर स्नान करने का विशेष फल कहा गया है । सामान्यतः गङ्गा में स्नान करने की अपेक्षा चन्द्रग्रहण के अवसर पर स्नान करने से अनन्त गुना अधिक पुण्य कहा गया है । सूर्यग्रहण में इससे दस गुना अधिक समझना चाहिये। इस से सौगुना पुण्य अर्धोदय जब माघ कृष्ण पक्ष की अमावस्या के दिन रविवार हो तथा इस दिन व्यतिपात योग के साथ श्रवण नक्षत्र हो तो इस योग को अर्धोदय योग कहा जाता है।के समय स्नान करने से मिलता है ।

नारद ! इस प्रकार गङ्गा और भगीरथ के सामने कहकर देवेश्वर भगवान् श्रीहरि चुप हो गये। तब गङ्गा भक्ति से अत्यन्त नम्र होकर उनसे कहा ।

गङ्गा बोलीं — नाथ ! सरस्वती का शाप पहले से ही मेरे सिर पर सवार है, आप आज्ञा दे ही रहे हैं और इन महाराज भगीरथ की एतदर्थ तपस्या भी हो रही है, अतः मैं अभी भारतवर्ष में जा रही हूँ; परंतु प्रभो ! वहाँ जाने पर अनेकों पापीजन अपने जिस किसी प्रकार के भी पाप को मुझ पर लाद देंगे । ऐसी स्थिति में मेरे ऊपर आये हुए वे पाप कैसे नष्ट होंगे — इस का उपाय तो बतला दीजिये । देवेश ! मुझे भारतवर्ष में कितने वर्षों तक रहना पड़ेगा ? फिर मैं कब आप परम प्रभु के धाम में आने की अधिकारिणी बन सकूँगी ? प्रभो ! आप सर्वान्तर्यामी से कोई भी बात छिपी नहीं है । सर्वज्ञ देव ! मेरे अन्तःकरण में अन्य भी जो-जो कामनाएँ छिपी हैं, उनके भी पूर्ण होने का उपाय बताने की कृपा करें।

श्रीभगवान् बोले —सुरेश्वरि ! गङ्गे ! मैं तुम्हारे सभी अभिप्रायों से परिचित हूँ । तुम नदी-रूप से भारतवर्ष में पधारोगी और मेरे ही अंश- स्वरूप समुद्र तुम्हारे पति होंगे। भारतवर्ष में सरस्वती आदि अन्य जितनी नदियाँ होंगी, उन सब में समुद्र के लिये तुम ही सब से अधिक सौभाग्यवती मानी जाओगी। देवेशि ! कलियुग के पाँच हजार वर्षों तक तुम्हें सरस्वती के शाप से भारतवर्ष में रहना है। देवि ! लक्ष्मीरूपा तुम रसिका हो और मेरे स्वरूप समुद्र रसिकराज हैं। तुम उनके साथ एकान्त में निरन्तर प्रियसंगम  करोगी । भारतवासी सम्पूर्ण मनुष्य भगीरथ-प्रणीत स्तोत्र से तुम्हारी स्तुति करेंगे और उन के द्वारा भक्तिपूर्वक तुम सुपूजित भी होओगी ।

कण्वशाखा में बताये गये प्रकार से तुम्हारा ध्यान करके लोग तुम्हारी पूजा में तत्पर होंगे। जो तुम्हारी स्तुति और तुम्हें प्रणाम करेगा, उस को अश्वमेध यज्ञ का फल सुलभता से प्राप्त होगा । चाहे सैकड़ों योजन की दूरी पर क्यों न हो; किंतु जो ‘गङ्गा-गङ्गा’ इस नाम का उच्चारण करके स्नान करता है, वह सम्पूर्ण पापों से छूटकर विष्णुलोक  में चला जाता है। हजारों पापी व्यक्तियों के स्नान से जो तुम पर पाप आ जायँगे, मेरे भक्तों के स्पर्शमात्र से ही उनकी सत्ता नष्ट हो जायगी। हजारों पापी प्राणियों के शव का स्पर्श अवश्य ही पाप का साधन है; किंतु मेरे मन्त्र का अनुष्ठान करने वाले पुण्यात्मा भक्तपुरुष भी तो तुम्हारे में स्नान करने आयेंगे। उनके स्नान से तुम्हारा वह सारा पाप नष्ट हो जायगा ।

शुभे ! पवित्र भारतवर्ष में ही तुम्हारा निवास होगा । उस पापमोचन स्थान पर सरस्वती आदि सभी श्रेष्ठ नदियाँ तुम्हारा साथ देंगी। जहाँ तुम्हारे गुणों का कीर्तन होगा, वह स्थान तुरंत तीर्थ बन जायगा । तुम्हारे रजःकण का स्पर्शमात्र हो जाने पर भी पापी पवित्र हो सकता है और उन रजःकणों की जितनी संख्या होती है, उतने वर्षों तक वह देवी के लोक में बसने का अधिकारी माना जाता है।

देवी! जो भक्ति एवं ज्ञान से सम्पन्न होकर मेरे नाम का स्मरण करते हुए प्राण त्याग करते हैं, वे सीधे मेरे परमधाम में जाते हैं और वहाँ पार्षद बनकर दीर्घ-काल तक निवास करते हैं । वे असंख्य प्राकृतिक प्रलय देख सकते हैं। मृत व्यक्ति का शव बड़े पुण्य के प्रभाव से ही तुम्हारे अंदर आ सकता है। जितने दिनों तक उसकी एक-एक हड्डी तुम्हारे में रहती है, उतने समय तक वह वैकुण्ठ में वास करता है। यदि कोई अज्ञानी व्यक्ति तुम्हारे जल का स्पर्श करके प्राण त्याग करता है तो वह मेरी कृपा से सालोक्यपद का अधिकारी होता है । अथवा कोई कहीं भी मरे; यदि मरते समय जिस – किसी प्रकार से भी तुम्हारे नाम का स्मरण हो जाता है तो उसे मैं सालोक्य- पद प्रदान करता हूँ ।

ब्रह्मा की आयुपर्यन्त वह वहाँ रह सकता है। कोई तीर्थ में मरे या अतीर्थ में, तुम्हारे स्मरण के प्रभाव से सारूप्यपद का अधिकारी वह पुरुष, ऐसा शक्तिशाली बन जाता है कि वह त्रिलोकी को भी पवित्र कर सकता है। जिनके बान्धव मेरे भक्त हैं – वे चाहे पशु आदि ही क्यों न हों – वे सर्वोत्तम रत्ननिर्मित विमान पर सवार होकर गोलोक में चले जाते हैं।

मुनिवर ! इस प्रकार गङ्गा से कहकर भगवान् श्रीहरिने राजा भगीरथ से कहा – ‘ राजन् ! तुम अभी इन गङ्गा की स्तुति तथा भक्तिभाव के साथ पूजा करो।’ तब भगीरथ भक्तिपूर्वक गङ्गा के स्तवन और पूजन में संलग्न हो गये । कौथुमि-शाखा कौथुमीय शाखा, सामवेद की एक शाखा है:- कौथुमीय संहिता के दो खंड हैं – पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक। पूर्वार्चिक को छंद्स भी कहते हैं। पूर्वार्चिक में चार भाग हैं – आग्‍नेय, ऐन्‍द्र, पवमान, आरण्‍यक. इन्हें पर्व भी कहते हैं। पूर्वार्चिक में 6 प्रपाठक हैं और उत्तरार्चिक में 9 प्रपाठक हैं। इस संहिता में अग्नि और सोम से जुड़ी ऋचाएं, इंद्र का उद्बोधन मंत्र, दशरात्र, संवत्सर, एकाह यज्ञ से जुड़े मंत्र मिलते हैं। जैमिनीय शाखा कर्नाटक में, कौथुमीय शाखा गुजरात और मिथिला में, और राणायणीय शाखा महाराष्ट्र में प्रचलित है।में कहे हुए ध्यान और स्तोत्र से उन्होंने गङ्गा की पूजा सम्पन्न की। तदनन्तर उन्होंने परमप्रभु परमात्मा भगवान् श्रीकृष्ण को बार-बार प्रणाम किया । इस के बाद भगीरथ और गङ्गा की अभीष्ट स्थान की ओर यात्रा आरम्भ हो गयी तथा भगवान् अन्तर्धान हो गये ।

नारद ने पूछा — वेदज्ञों में प्रमुख प्रभो ! किस ध्यान-स्तोत्र से तथा किस पूजा क्रम से राजा भगीरथ ने गङ्गा की पूजा की ? यह मुझे स्पष्ट बताने की कृपा कीजिये ।

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! राजा भगीरथ ने नित्यक्रिया के पश्चात् स्नान किया। दो स्वच्छ वस्त्र धारण किये। तब इन्द्रियों को नियन्त्रण में रखकर भक्तिपूर्वक छः देवताओं की पूजा की। वे छः देवता हैं – गणेश, सूर्य, अग्नि, विष्णु, शिव और भगवती शिवा । इन देवताओं का पूजन करने पर वे गङ्गाजी की पूजा के पूर्ण अधिकारी बन गये ।

गणेशं विघ्ननाशाय निष्पापाय दिवाकरम् ।
वह्निं स्वशुद्धये विष्णुं मुक्तये पूजयेन्नरः ॥ ९४ ॥
शिवं ज्ञानाय तदिनां शिवां बुद्धिविवृद्धये ।
सम्पूज्यैतल्लभेत्प्राज्ञो विपरीतमतोऽन्यथा ॥ ९५ ॥

नारद! विघ्न दूर होने के लिये गणेश की, आरोग्यता के लिये सूर्य की, पवित्रता के लिये अग्नि की, मुक्ति-प्राप्ति के लिये विष्णु की, ज्ञान के लिये ज्ञानेश्वर शिव की तथा बुद्धि की वृद्धि के लिये भगवती शिवा की पूजा करना आवश्यक है। विद्वान् पुरुष को इन देवताओं की पूजा सम्पन्न कर लेने पर ही अन्य किसी पूजा में सफलता प्राप्त होती है। मुने! सुनो, इस प्रकार से भगीरथ ने गङ्गा का ध्यान किया था ।

भगवान् नारायण कहते हैं — नारद! यह ध्यान सम्पूर्ण पापों को नष्ट कर देता है।

श्वेतचम्पकवर्णाभां गङ्गां पापप्रणाशिनीम् ।
कृष्णविग्रहसम्भूतां कृष्णतुल्यां परां सतीम् ॥ ९७ ॥
वह्निशुद्धांशुकाधानां रत्नभूषणभूषिताम् ।
शरत्पूर्णेन्दुशतकप्रभाजुष्टकलेवराम् ॥ ९८ ॥
ईषद्धासप्रसन्नास्यां शश्वत्सुस्थिरयौवनाम् ।
नारायणप्रियां शान्तां सत्सौभाग्यसमन्विताम ॥ ९९ ॥
बिभ्रतीं कबरीभारं मालतीमाल्यसंयुताम् ॥
सिन्दूरबिन्दुललितां सार्द्धं चन्दनबिन्दुभिः ॥ १०० ॥
कस्तूरीपत्रकं गण्डे नानाचित्रसमन्वितम् ।
पक्वबिम्बसमानैकचार्वोष्ठपुटमुत्तमम् ॥ १०१ ॥
मुक्तापंक्तिप्रभाजुष्टदन्तपंक्तिमनोहराम् ।
सुचारुवक्रनयनां सकटाक्षमनोरमाम् ॥ १०२ ॥
कठिनं श्रीफलाकारं स्तनयुग्मं च बिभ्रतीम् ।
बृहच्छ्रोणीं सुकठिनां रम्भास्तम्भपरिष्कृताम् ॥ १०३ ॥
स्थलपद्मप्रभाजुष्टपादपद्मयुगंधराम् ।
रत्नाभरणसंयुक्तं कुंकुमाक्तं सयावकम् ॥ १०४ ॥
देवेन्द्रमौलिमन्दारमकरन्दकणारुणम् ।
सुरसिद्धमुनीन्द्रादिदत्तार्घ्यैस्संयुतं सदा ॥ १०५ ॥
तपस्विमौलिनिकरभ्रमरश्रेणिसंयुतम् ।
मुक्तिप्रदं मुमुक्षूणां कामिनां स्वर्गभोगदम् ॥ १०६ ॥
वरां वरेण्यां वरदां भक्तानुग्रहकातराम् ।
श्रीविष्णोः पददात्रीं च भजे विष्णुपदीं सतीम् ॥ १०७ ॥

गङ्गा का वर्ण श्वेत चम्पा के समान स्वच्छ है । ये समस्त पापों का उच्छेद कर देती हैं । परब्रह्म पूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण के श्रीविग्रह से इनका प्राकट्य हुआ है। ये परम साध्वी और उन्हीं के समान सुयोग्य हैं । वह्निशुद्ध चिन्मय वस्त्र इनकी शोभा बढ़ाते हैं । रत्नमय भूषणों से ये विभूषित हैं । इन आदरणीया देवी ने शरत्पूर्णिमा के सैकड़ों चन्द्रमाओं की स्वच्छ प्रतिभा को अपने में स्थान दे रखा है। ये सदा मुस्कराती रहती हैं। इन के तारुण्य में कभी शिथिलता नहीं आती। ये शान्त-स्वरूपिणी देवी भगवान् नारायण की प्रिया हैं । सत्सौभाग्य कभी इन से दूर नहीं हो सकता । इनके सिर पर सघन अलकावली है। मालती के पुष्पों की माला इन की शोभा बढ़ा रही है। इनके ललाट पर चन्दन-बिन्दुओं के साथ सिन्दूर की बिन्दी है, जिस से उनका लालित्य बढ़ गया है। गण्डस्थल पर कस्तूरी से पत्ररचना की गयी है, जो नाना प्रकार के चित्रों से सुशोभित है ।

इन के परम मनोहर दोनों होठ पके हुए बिम्बाफल की लालिमा को तुच्छ कर रहे हैं। इनकी मनोहर दन्त-पंक्तियों के सामने मोतियों की लड़ी नगण्य समझी जाती है । इनके कटाक्षपूर्ण बाँकी चितवन से युक्त नेत्र परम मनोहर हैं। इन का वक्षःस्थल विशाल है । स्थल-कमल की प्रभा का पराभव करने वाले दो सुन्दर चरण हैं। रत्नमय पादुकाओं से शोभा पाने वाले उन चरणों में महावर लगा है। देवराज इन्द्र के मुकुट में लगे हुए मन्दार के फूलों के रजःकण से इन देवी के श्रीचरणों की लालिमा गाढ़ी हो गयी है । देवता, सिद्ध और मुनीन्द्र अर्घ्य लेकर सदा सामने खड़े हैं। तपस्वियों के मुकुट में रहने वाले भौंरों की पंक्ति से इनके चरण संयुक्त हैं। इनके पावन चरण मुमुक्षु-जनों को मुक्ति देने में तथा कामी पुरुषों की कामना पूर्ण करने में अत्यन्त कुशल हैं। ये परमादरणीया देवी सबकी पूज्या, वर देने में प्रवीण, भक्तों पर कृपा करने में परम कुशल, भगवान् विष्णु का पद प्रदान करने वाली तथा विष्णुपदी नाम से सुविख्यात हैं । इन परम साध्वी गङ्गादेवी की मैं उपासना करता हूँ ।

ब्रह्मन् ! इसी ध्यान से तीन मार्गों से विचरण करनेवाली कल्याणी गङ्गा का हृदय में स्मरण करना चाहिये । इसके बाद सोलह प्रकार के उपचारों से इनकी पूजा करे। आसन, पाद्य, अर्घ्य, स्नान, अनुलेपन, धूप, दीप, नैवेद्य, ताम्बूल, शीतल जल, वस्त्र, आभूषण, माला, चन्दन, आचमन और सुन्दर शय्या — ये अर्पण करने के योग्य सोलह उपचार हैं। इन्हें भगवती गङ्गा को भक्तिपूर्वक समर्पण कर के प्रणाम करे और दोनों हाथ जोड़कर स्तुति करे । इस प्रकार गङ्गादेवी की उपासना करनेवाले बड़भागी पुरुष को अश्वमेध यज्ञ का फल प्राप्त होता है। इस के बाद श्रीगङ्गाजी का परम पुण्यदायक और पापनाशक स्तोत्र ( विष्णुपदीस्तोत्रं ) सुनाकर फिर भगवान् नारायण ने कहा ।

॥ विष्णुपदीस्तोत्रं ॥

॥ श्रीब्रह्मोवाच ॥
श्रोतुमिच्छामि देवेश लक्ष्मीकान्त नमः प्रभो ।
विष्णो विष्णुपदीस्तोत्रं पापघ्नं पुण्यकारणम् ॥ ११३ ॥
॥ श्रीनारायण उवाच ॥
शिवसंगीतसंमुग्धश्रीकृष्णाङ्गद्रवोद्भवाम् ।
राधांगद्रवसम्भूतां तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ ११४ ॥
या जन्मसृष्टेरादौ च गोलोके रासमण्डले ।
सन्निधाने शङ्करस्य तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ ११५ ॥
गोपैर्गोपीभिराकीर्णे शुभे राधामहोत्सवे ।
कार्तिकीपूर्णिमाजातां तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ ११६ ॥
कोटियोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये लक्षगुणा ततः ।
समावृता या गोलोकं तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ ११७ ॥
षष्टिलक्षैर्योजनैर्या ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा ।
समावृता या वैकुण्ठं तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ ११८ ॥
विंशल्लक्षैर्योजनैर्या ततो दैर्घ्ये चतुर्गुणा ।
आवृता ब्रह्मलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ ११९ ॥
त्रिंशल्लक्षैर्योजनैर्या दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः ।
आवृता शिवलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ १२० ॥
षड्योजनसुविस्तीर्णा दैर्घ्ये दशगुणा ततः ।
मन्दाकिनी येन्द्रलोके तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ १२१ ॥
लक्षयोजनविर्स्तार्णा दैर्घ्ये सप्तगुणा ततः ।
आवृता ध्रुवलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ १२२ ॥
लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये षड्गुणिता ततः ।
आवृता चन्द्र लोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ १२३ ॥
योजनैष्षष्टिसाहस्रैर्दैर्घ्ये दशगुणा ततः ।
आवृता सृर्य्यलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम्॥ ॥ १२४ ॥
लक्षयोजनविस्तीर्णा दैर्घ्ये षङ्गुणिता ततः ।
आवृता सत्यलोकं या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ १२५ ॥
दशलक्षै र्योजनैर्या दैर्घ्ये पञ्चगुणा ततः ।
आवृता या तपोलोकं तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ १२६ ॥
सहस्रयोजना या च दैर्घ्ये सप्तगुणा ततः ।
आवृता जनलोकं या तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ १२७ ॥
सहस्रयोजनाऽऽयामे दैर्घ्ये सप्तगुणा ततः ।
आवृता या च कैलासं तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ १२८ ॥
पाताले या भोगवती विस्तीर्णा दशयोजना ।
ततो दशगुणा दैर्घ्ये तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ १२९ ॥
क्रोशैकमात्रविस्तीर्णा ततः क्षीणा न कुत्रचित् ।
क्षितौ चालकनन्दा या तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ १३० ॥
सत्ये या क्षीरवर्णा च त्रेतायामिन्दुसन्निभा ।
द्वापरे चन्दनाभा च तां गंगां प्रणमाम्यहम् ॥ १३१ ॥
जलप्रभा कलौ या च नान्यत्र पृथिवीतले ।
स्वर्गे च नित्यं क्षीराभा तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ १३२ ॥
यस्याः प्रभाव अतुलः पुराणे च श्रुतौ श्रुतः ।
या पुण्यदा पापहर्त्री तां गङ्गां प्रणमाम्यहम् ॥ १३३ ॥
यत्तोयकणिकास्पर्शः पापिनां च पितामह ।
ब्रह्महत्यादिकं पापं कोटिजन्मार्जितं दहेत् ॥ १३४ ॥
इत्येवं कथितं ब्रह्मन्गंगापद्यैकविंशतिम् ।
स्तोत्ररूपं च परमं पापघ्नं पुण्यबीजकम् ॥ १३५ ॥
नित्यं यो हि पठेद्भक्त्या संपूज्य च सुरेश्वरीम् ।
अश्वमेधफलं नित्यं लभते नात्र संशयः ॥ १३६ ॥
अपुत्रो लभते पुत्रं भार्याहीनो लभेत्प्रियाम् ।
रोगान्मुच्येत रोगी च बद्धो मुच्येत बन्धनात् ॥ १३७ ॥
अस्पष्टकीर्तिः सुयशा मूर्खो भवति पण्डितः ।
यः पठेत्प्रातरुत्थाय गङ्गास्तोत्रमिदं शुभम् ॥ १३८ ॥
शुभं भवेत्तु दुःस्वप्नं गङ्गास्नानफलं लभेत् ॥ १३९ ॥

भगवान् नारायण बोले — नारद ! राजा भगीरथ उस स्तोत्र से गङ्गा की स्तुति कर के उन्हें साथ ले वहाँ पहुँचे, जहाँ सगर के साठ हजार पुत्र जलकर भस्म हो गये थे। गङ्गा का स्पर्श करके बहने वाली वायु का स्पर्श होते ही वे राजकुमार तुरंत वैकुण्ठ में चले गये । भगीरथ के सत्प्रयत्न से गङ्गा का आगमन हुआ है । अतः गङ्गा को ‘भागीरथी’ कहते हैं। यों गङ्गा का सम्पूर्ण उत्तम उपाख्यान कह दिया । यह उपाख्यान पुण्यदायी तथा मोक्ष का साधन है। अब आगे तुम और क्या सुनना चाहते हो ?

नारदजी ने पूछा — शिवजी के संगीत से मुग्ध हो जब श्रीकृष्ण और राधा द्रवभाव को प्राप्त हो गये तब क्या हुआ ? उस समय वहाँ जो लोग उपस्थित थे, उन्होंने कौन-सा उत्तम कार्य किया ? ये सब बातें विस्तारपूर्वक बताने की कृपा करें।

भगवान् नारायण बोले — नारद! एक समय की बात है कार्तिक की पूर्णिमा थी । राधा-महोत्सव बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा था । भगवान् श्रीकृष्ण सम्यक् प्रकार से राधा की पूजा करके रासमण्डल में विराजमान थे। तत्पश्चात् ब्रह्मादि देवता तथा शौनकादि ऋषि – प्रायः सभी महानुभावों ने बड़े आनन्द के साथ श्रीकृष्ण-पूजिता श्रीराधाजी की पूजा की और फिर वे वहीं विराजमान हो गये। इतने में भगवान् श्रीकृष्ण को संगीत सुनाने वाली देवी सरस्वती हाथ में वीणा लेकर सुन्दर ताल-स्वर के साथ गीत गाने लगीं । तब ब्रह्मा ने प्रसन्न होकर एक सर्वोत्तम रत्न से बना हार पुरस्कार – रूप में उन्हें अर्पण किया। शिव से उन्हें अखिल ब्रह्माण्ड के लिये दुर्लभ एक उत्तम मणि प्राप्त हुई। भगवान् श्रीकृष्ण ने उन्हें सम्पूर्ण रत्नों में श्रेष्ठ कौस्तुभमणि भेंट की । राधा ने अमूल्य रत्नों से निर्मित एक अनुपम हार, भगवान् नारायण ने एक सुन्दर पुष्पमाला तथा लक्ष्मी ने बहुमूल्य रत्नों के दो कुण्डल सरस्वती को पुरस्कार-रूप में दिये । विष्णुमाया, ईश्वरी, दुर्गा, नारायणी और ईशाना नाम से विख्यात भगवती मूलप्रकृति ने सरस्वती के अन्तःकरण में परम दुर्लभ परमात्म-भक्ति प्रकट की । धर्म ने धार्मिक बुद्धि उत्पन्न करने के साथ ही प्रपञ्चात्मक जगत् में उनकी कीर्ति विस्तृत की । अग्निदेव ने चिन्मय वस्त्र तथा पवनदेव ने मणिमय नूपुर सरस्वती को प्रदान किये।

इतने में ब्रह्मा से प्रेरित होकर भगवान् शंकर श्रीकृष्ण-सम्बन्धी पद्य, जिसके प्रत्येक शब्द में रस के उल्लास को बढ़ाने की शक्ति भरी थी, बारंबार गाने लगे। उसे सुनकर सम्पूर्ण देवता मूर्च्छित-से हो गये। जान पड़ता था, मानो सब चित्र-विचित्र पुतले हैं। बड़ी कठिनता से किसी प्रकार उन्हें चेत हुआ । उस समय देखा गया कि समस्त रासमण्डल में सम्पूर्ण स्थल जल से आप्लावित है । श्रीराधा और श्रीकृष्ण का कहीं पता नहीं है । फिर तो गोप, गोपी, देवता और ब्राह्मण – सभी अत्यन्त उच्च स्वर से विलाप करने लगे। उस समय ब्रह्माजी भी वहीं थे। उन्होंने ध्यान के द्वारा भगवान् श्रीकृष्ण का पुनीत विचार समझ लिया । भगवान् श्रीकृष्ण ही श्रीराधा के साथ जलमय हो गये हैं यह बात उन्हें भली-भाँति मालूम हो गयी। तब वे सभी महाभाग देवता परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण की स्तुति करने लगे । सबने अपनी प्रार्थना सुनायी । ‘विभो ! हमारा केवल यही अभीष्ट वर है कि आप अपनी श्रीमूर्ति के हमें पुनः दर्शन करा दें।’

ठीक उसी समय अति मधुर तथा स्पष्ट शब्दों में आकाशवाणी हुई। सब लोगों ने उसे भली-भाँति सुना।

आकाशवाणी में कहा गया — ‘मैं सर्वात्मा श्रीकृष्ण और मेरी स्वरूपाशक्ति राधा – हम दोनों ने ही भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये यह जलमय विग्रह धारण कर लिया है। सुरेश्वरो ! तुम्हें मेरे तथा इन राधा के शरीर से क्या प्रयोजन है ? मनु, मुनि, मानव तथा अगणित वैष्णवजन मेरे मन्त्रों से पवित्र होकर मुझे देखने के लिये मेरे धाम में आयेंगे। ऐसे ही तुम्हें भी यदि स्पष्ट दर्शन करने की इच्छा हो तो प्रयत्न करो। शम्भु वहीं रहकर मेरी आज्ञा का पालन करें। ब्रह्मन् ! जगद्गुरो ! तुम स्वयं विधाता हो । भगवान् शंकर से कह दो कि ‘वे वेदों के अङ्गभूत परम मनोहर विशिष्ट शास्त्र अर्थात् तन्त्र-शास्त्र का निर्माण करें। उसमें सम्पूर्ण अभीष्ट फल देने वाले बहुत-से अपूर्व मन्त्र उद्धृत हों । स्तोत्र, ध्यान, पूजाविधि, मन्त्र और कवच – इन सबसे वह तन्त्रशास्त्र सम्पन्न हो । मेरे मन्त्र और कवच का निर्माण करके तुम उसका यत्नपूर्वक गोपन करो । जो मुझसे विमुख हों, उन्हें इसका उपदेश नहीं करना चाहिये । सैकड़ों और सहस्रों में कोई एक भी तो मेरा सच्चा उपासक होगा । वे भक्तजन ही मेरे मन्त्र से पवित्र हों । यदि शंकर देवसभा में ऐसा शास्त्र निर्माण करने-के लिये सुदृढ़ प्रतिज्ञा करते हैं तो उन्हें तुरन्त ही मेरे दर्शन प्राप्त हो जायँगे । ‘

आकाशवाणी के द्वारा इस प्रकार कहकर भगवान् श्रीहरि चुप हो गये। उनकी वाणी सुनकर जगत्‌ की व्यवस्था करने वाले ब्रह्मा ने प्रसन्नतापूर्वक उसे भगवान् शंकर से कहा । ज्ञानियों में श्रेष्ठ तथा ज्ञान के अधिष्ठाता भगवान् शंकर ने ब्रह्मा की बात सुनने के पश्चात् हाथ में गङ्गा-जल ले लिया और आज्ञा-पालन करने के लिये प्रतिज्ञा कर ली। फिर तो वे भगवती जगदम्बा के मन्त्रों से सम्पन्न उत्तम तन्त्र-शास्त्र के निर्माण में लग गये ‘प्रतिज्ञा-पालन करने के लिये मैं वेद के सारभूत महान् तन्त्रशास्त्र का निर्माण करूँगा’ यह विचार उनके हृदय में गूँजने लगा । उन्होंने अपना विचार व्यक्त किया कि ‘यदि कोई मनुष्य गङ्गा का जल हाथ में लेकर प्रतिज्ञा करेगा और फिर उस अपनी की हुई प्रतिज्ञा का पालन नहीं करेगा तो वह ‘कालसूत्र’ नामक नरक का भागी होगा और ब्रह्मा की पूरी आयु तक उसे वहाँ रहना पड़ेगा । ‘

ब्रह्मन् ! गोलोक में देवताओं की सभा जुड़ी थी। उस में भगवान् शंकर जब इस प्रकार की बात कह चुके, तब अकस्मात् परब्रह्म परिपूर्णतम भगवान् श्रीकृष्ण भगवती श्रीराधा के साथ वहाँ प्रकट हो गये। उन पुरुषोत्तम भगवान् श्रीहरि के प्रत्यक्ष दर्शन करने पर देवताओं की प्रसन्नता की सीमा नहीं रही। वे उनकी स्तुति करने लगे । इसके बाद उपस्थित देवताओं ने अत्यन्त आनन्द में भरकर फिर से उत्सव मनाया। तत्पश्चात् समयानुसार भगवान् शंकर ने शास्त्रदीप का – शास्त्रीय मत को प्रकाशित करने वाले सात्त्विक तन्त्रशास्त्र का निर्माण किया ।

नारद! इस प्रकार सम्पूर्ण परम गोप्य प्रसङ्ग मैं तुम्हें सुना चुका । यह सबके लिये अत्यन्त दुर्लभ है। वे ही पूर्णब्रह्म भगवान् श्रीकृष्ण जलरूप होकर गङ्गा बन गये थे । गोलोक से प्रकट होने वाली गङ्गा का यही रहस्य है । यों भगवान् श्रीराधाकृष्ण ही गङ्गा के रूप में प्रकट हुए हैं। श्रीराधा और श्रीकृष्ण के अङ्ग से प्रकट हुई यह गङ्गा भुक्ति और मुक्ति दोनों को देने वाली हैं। परमात्मा श्रीकृष्ण की व्यवस्था के अनुसार जगह-जगह रहने का सुअवसर इन्हें प्राप्त हो गया। श्रीकृष्णस्वरूपा इन आदरणीया गङ्गादेवी को सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के लोग पूजते हैं । (अध्याय १०)

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्त्ते महापुराणे नारदनारायणसंवादे द्वितीये प्रकृतिखण्डे गङ्गोपाख्यानं नाम दशमोऽध्यायः ॥ १० ॥
॥ हरिः ॐ तत्सत् श्रीकृष्णार्पणमस्तु ॥

Content is available only for registered users. Please login or register

Please follow and like us:
Pin Share

Discover more from Vadicjagat

Subscribe to get the latest posts sent to your email.

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.